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वह प्रयास सफल नहीं कहा जा सकता क्योंकि गौणार्थ मुख्यार्थ की विशेषता को छिपा नहीं सकता । बहुत से लोगों ने जहां संभव हो सका है हिंसा प्रतिपादक पाठों पर प्रक्षेत्र की मोहर लगाने का भी निष्फल प्रयास किया है । काल्पनिक युक्तियें तथा स्वमन्तव्यानुकूलार्थ वास्तविक उत्य को छिपाने में कभी भी समर्थ नहीं हो सकते ।
उपर्युक्त वैदिक यज्ञों से अब पाठक जैनयज्ञों की तुलना करें । हेमचन्द्राचार्य ने लध्वर्हन्नीति में जैन राजा के लिये पांच यज्ञों का विधान किया है - जैसे -
दुष्ट य दण्डः सुजनस्य पूजा, न्यायेन कोशस्य च संप्रवृद्धिः । अपक्षपातो रिपु राष्ट्र रक्षा चैव यज्ञा कथिता नृपाणाम् ॥
पृ० ६ श्रो० ४४. अर्थात्ः - दुष्ट को दण्ड देना, सज्जन को पूजा करना, न्याय से खजाने को बढ़ाना. किसी का पक्षपात न करना और शत्रु से राष्ट्र की रक्षा करना ये राजाओं के लिये पांच यज्ञ हैं ।
जो लोग जैन धर्म को कायरों का धर्म मानते हैं और जैन राजा को शत्रु के सामने शीघ्र पतन की कल्पना करते हैं उन को जैनियां के प्रथम यज्ञ और अन्तिम की ओर विशेष ध्यान देना चाहिये ।
जैन राजा ' हिंसा परमोधर्मः ' का उपासक होते हुए भी अपराधी दुष्ट पुरुष को बना दण्ड दिये नहीं छोड़ सकता । चौथे यज्ञ
सम्बन्ध है । दण्ड देते
"" अपक्षपात का प्रथम यज्ञ से बड़ा घनिष्ट समय न्यायाधं श पक्षात रहित होना चा हये गुण किस प्रकार प्राचीन काल में घटित होते रहे हैं यह नीचे लिखे
। जैन राजा में ये दोनों
दृष्टान्त से पाठकों को भी भांति ज्ञात हो जाएगा:
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