________________
.
[ ४४ ]
प्राचीन समय में मलय देश की राजधानी रत्मपुर में प्रजापति नामक राजा राज्य करता था। उस के पुत्र का नाम चन्द्रचूल था जो कि बड़ा ही दुष्ट और दुश्चरित्र था। रत्नपुर में एक कुबेरदत्त सेठ रहता था जिस ने अपनी कन्या का पाणिग्रहण वहां के एक श्रेष्ठीपुत्र श्रीदत्त के साथ किया। कन्या बड़ी ही रूपवती थी । उस के सौन्दर्य की महिमा चन्द्रचूल के कानों तक पहुंची। जबकि विवाह संस्कार हो रहा था तब चन्द्रचूल उप्त सुन्दरी कन्या को बलपूर्वक हरण करने केलिये लोगों की बड़ी भीड़ में पहुंच गया।
राजकुमार के इस दुष्टाचार से लोगों को बड़ा दुःख हुआ। नगर के पञ्च मिलकर राजा के पास गए और राजकुमार की इस नीचता की शिकायत की। राजा न्यायप्रिय था और पक्षपात करना तो जानता ही न था । जब उस ने अपने पुत्र की दुश्चरित्रता की बात सुनी तो उसे उस पर बड़ा क्रोध आया। चन्द्रचूल को राजा के सामने लाया गया। राजा ने उसे देखते ही तुरंत श्राज्ञा दी:तदालोक्य 'किमित्येष पापीहानीयते द्र तम् । निशातं शूल मारोप्य श्मशाने स्थाप्यतामिति ।। अर्थात्:- इस पापी को यहां लाने की क्या आवश्यकता है ? इस को तो शीघ्र ही शमशान घाट में तीखे शूज पर लटका दो।
राजा का मन्त्री बड़ा बुद्धिमान् था। उस ने राजकुमार को दण्ड देने का भार अपने ऊपर ले लिया। वह राजकुमार को जंगल में ले गया और वहां जैन मुनियों की सेवा में उसे दीक्षा दिलाई ।
यह थी जैन राजाओं की न्याय परायणता और निष्पक्ष दण्ड विधान । न्याय के सिंहासन पर बैठ कर वे पक्षपात नहीं दिखाते थे ।
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com