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दुष्ट को दण्ड देना इस प्रथम यज्ञ का वे भलीभाँति पालन करते थे । वे दुष्ट दुष्ट में भेद नहीं समझते थे । दुष्ट चाहे प्रजा में उत्पन्न हुना हो चाहे रान महल में, दुष्ट तो दुष्ट ही है; अतः उस को दण्ड अवश्य मिलना चाहिये और दण्ड भी ऐसा जो कि उस की दुष्टता के अनुकूल हो ।
हेमचन्द्राचार्य ने लिखा है कि ओ राजा न्याय में स्थित रहता है । चोर, धूर्त और दुष्टों को दण्ड देता है वह सीधा स्वर्ग में जाता है । इस प्रकार उन लोगों के लिये जो जैनधर्म में वीरता के अभाव की कल्पना करते हैं और इसी कारण जैनियों को कई प्रकार की अनुचित उपाधियां देने का साहस कर बैठते हैं । जैन राजाओं के प्रथम और अन्तिम दो यज्ञ पर्याप्त उत्तर होगा। किसी भी धर्म के शास्त्रीय ज्ञान से परिचित हुए बिना उसके ऊपर टीका टिप्पणी करना कहां तक ठीक होता है इस की कल्पना पाठक स्वयं कर सकते हैं ।
अन्त में मैं जैन राजनीति की एक विशेषता और बताना चाहता हूं | वह विशेषता वैदिक राजनीति में नहीं पाई जाती चक्रवर्ती राजा तो वैदिक और जैन दोनो की नीतियों में पाए जाते हैं । वैदिक धर्म में चक्रवर्ती पद को पाने के लिये अश्वमेघ और राजसूय यज्ञों का विधान है। जैन शास्त्रों में चक्रवर्ती बनने के लिये राजसूय और अश्वमेध यज्ञों का विधान नहीं मिलता । जैन धर्म में भी चक्रवर्तीत्व पद पाने के लिये जब युद्ध करना पड़ता होगा तब हिंसा अवश्य होती होगी ही किन्तु जैन धर्म ग्रन्थों में बल की परीक्षा के लिये अन्य भी अहिंसामय उपाय बताए गए हैं । हिंसामय युद्धों के स्थान पर जलयुद्ध, दृष्टियुद्ध और बाहुयुद्ध का विधान है । इन में बाहुयुद्ध प्रधान रहा है । प्रायः जब दो राजाओं में युद्ध होता है तो दोनों पक्ष की लाखों की संख्या में
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