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________________ [ ४६ ] सेनाएं एक दूसरे पर टूट पड़ती हैं। कोई वीर राजा हुए तो सेना के साथ २ युद्ध में चले गये। नहीं तो अकमर सेनाएं ही लड़ा करती हैं और गजा अपने आप को महलों में या किलों में सुरक्षित रखते हैं ! इस प्रकार दो व्यक्तियों के राज्य लाभ के लिये सइस्रों सिपाही युद्ध भूमि में अपने जीवन खोबैठते हैं । जैन नीतिज्ञों को यह बात ठीक नहीं लगी। इस कारण उन्हों ने गहयुद्ध की प्रथा चलाई । बाहयुद्ध में केवल दो विरोधी राजाओं का ही युद्ध होता था। सेना उम में भाम नहीं लेती थी। जो राजा जीतता उस से पराजित गना अधीनता स्वीकार कर लेता। इस तरह से नात्रों के युद्ध से जो लाग्बों व्यनि प्रों का संहार होता. वह बच जाता । जैन धर्मग्रन्थों में बाहुयुद्ध के बहुत से उदाहरण मिलते हैं । कहते हैं कि नेमि महाराज एक बार अचानक है। भगवान् कृष्ण की शस्त्रशाला में चले गए। उन्होंने श्रीकृष्ण जी के चक्र को कुम्हार के चक्र की भांति घुमा दिया। शाङ्ग धनुष को मृणाल को तरह, कौमोद की गदा को लाठी की तरह उठा डादा अंर पाञ्चजन्य शंख को खूब ज़ोर से बजाया। शंख ध्वनि को सुन कर कृष्ण जी को किसी शत्रु के पाने का संदेह हश्रा और वह तुरन्त ही शस्त्रशाला में आ गए। वहां उन्होंने नेमि महाराज को खड़े पाया। दोनों ने वल. परीक्षा के लिये बाहुयुद्ध को ही उचित समझा और फिर दोनों का बाहुयुद्ध हुश्रा। इसी प्रकार भरत और बाहुबलि का युद्ध भी बहुत प्रांमद्ध है । पहले दोनों की सेनाएं लड़ने को उद्यत थीं किन्तु दोनों के प्रधानमत्रियों ने सेनाओं के युद्ध में बहुत जन संहार देखकर यहो निश्चय किया कि दोनों का बाहुयुद्ध हो और अ-त में हुश्रा भी यहो । इस प्रकार जैनराजनीति में युद्ध के विधान में 'अहिंसा पामो. Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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