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इस कथन में यह स्पष्ट बताया गया है कि स्त्री का यह स्वभाव ही है कि पुरुष को दूषित करदे । उसको कुमार्ग की ओर ले बाय । पुरुष को यह चेतावनी दी गई है कि वह स्त्री से सदा सावधान रहे । पुरुष स्त्री से उत्तम नो ठहरा । वह न तो स्वभाव से स्त्री को दूषित कर सकता है और न उसे कुमार्ग की ओर ले जा सकता है । वास्तव में बात यह है कि सदियों से राज्यसत्ता और लेखनी दोनों पुरुषों के हाथ में रही है। उसने अपनी सुविधा के अनुसार जैसा ठीक समझा वैसा सामाजिक नियम बनाया और लिख डाला । स्त्री जाति को उसने ऐसे आर्थिक बंधन में बांधा है कि उसे स्वतन्त्रता में कार्य करने की बात तो दूर रही किन्तु स्वतन्त्ररूप से सोचने की सुविधा भी न रही। मानसिक वृत्तियों के उचित विकास के लिए सब से परमावश्यक शिक्षा होती है । समाज को अवनति के गर्त में गिराने वाले लोग स्त्री शिक्षा का भी विरोध करने लगे और बहुत काल तक व्यापकरूप से स्त्रियों को शिक्षा से वंचित रहना पड़ा। इसका परिणाम यह हुआ कि हिन्दु समाब दिनोंदिन अवनति की
ओर बढ़ती गई और अन्त में गुलामी तक की नौबत आई । बहुत सी बातियां आपत्ति प्राने पर अपनी भूलों को पहचान लेती है
और उन्हें पुनः दुहराती नहीं। हमारे दुर्भाग्य से या अज्ञानता से हम परवशता के लम्बे समय में भी अपनी भूलों को न सुधार सके और उनके दुष्परिणामों में पिसते रहे।
अस्तु, मेरे कहने का अभिप्राय यह है कि जब हम स्त्री जाति के वास्तव गौरव को भूल गए तो हमें बड़ी हानि उठानी पड़ी। इसमें कोई सन्देह नहीं कि समय २ पर भारतीय राजनीतिज्ञों तथा अन्य सुयोग्य विद्वानों ने स्त्री जाति को बहुत ऊंचा उठाया है किन्तु नीचा स्थान देने वाले विद्वानों ने तो इस बाति पर विशेष
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