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जैन धर्म में स्त्री का स्थान
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अनेक सदियों से भारत की प्रायः सभी जातियों और धर्मों में स्त्रो का स्थान बहुत गिर चुका है । उसको मनुष्य से नीची श्रेणी का समझा बाने लगा है और अनेक सामाजिक सुविधाए जो पुरुष को प्राप्त है स्त्री उन से वंचित है । पुरानी रूढ़ियों के रङ्ग में रङ्ग हुए और अपने को एक मात्र प्राचीन भारतीय संस्कृति का खज़ाना मानने वाले बहुत से लोग अाज भी जब कि संसार के और भागों के लोग बहुत
आगे बढ़ चुके हैं स्त्री जाति को पुरुषों की काम वासना की तृप्ति का साधन या सन्तानोत्पत्ति की मशीन मात्र समझते हैं। उसको अबला कहा जाता है और अनेक दुर्गुण उसके सिर पर लादे जाते हैं। बहुत से दोष तो प्राकृतिक रूप में जन्म से ही उसमें माने जाते हैं । मनु महाराज जी लिखते हैं कि:
स्वभाव एव नारीणां नाराणामिह दूषणम् । अतोऽर्थान्न प्रमादयन्ति प्रमदासु विपश्चितः ।। अविद्वांसमलं लोके विद्वान्समपि वा पुनः ।
प्रमदा झुत्पथं नेतु कामक्रोधवशानुगम् ।। अर्थात्:- इस लोक में पुरुषों को विकार ग्रस्त कर देना यह तो नारियों का स्वभाव ही है इसी लिये बुद्धिमान् पुरुष नारियों को प्रोरसे कभी असावधान नहीं रहते । संसारमें कोई मूर्ख हो,चाहे विद्वान् कामक्रोध के वशीभूत हुए पुरुष को स्त्रियां अनायास कुमार्ग में लेजा सकती है।
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