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________________ ( १८७ ) - - संसार के सब जीवों के सुख दुःख को समझना चाहिये, यह सन्देश श्रमण संस्कृति ने संसार को दिया है। श्रमण संस्कृति का सारा कर्मकाण्ड समता के उपदेश से अलंकृत है। जैन धर्म के वाह्य, प्राभ्यन्तर, स्थूल और सूक्ष्म जितने भी प्राचार विचार है सब समता के आदर्श की ओर ही इंगित करते हैं । कर्म विपाक । श्रमण संस्कृति के सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक आस्मा चाहे वह स्थावर संसार में वनस्पति की देह में हो, चाहे कीट, पतंग या पशु पक्षी के शरीर में हो और चाहे मानव की देह में हो तात्विक दृष्टि से समान है। छोटा या बड़ा आकार शरीर का हो सकता है प्रात्मा का नहीं। श्रात्मा सब प्राणियों में समान है। जीवों में जो शारीरिक और मानसिक विषमता दृष्टिगोचर होती है वह कर्ममूलक है । जैसा-जैसा जीव उत्तम या अधम कर्म बांधता रहता है वैसा-वैसा ही उसको फल भोगना पड़ता है। कर्म के अनुसार ही जीव भिन्न-भिन्न अच्छी या बुरी योनियों में जन्म लेता रहता है। कर्म के अनुसार ही उसे सुख या दुःख मिलते हैं। जीव जैसा २ कर्म करता है वैसा ही उसका संस्कार बनता है और उस संस्कार के अनुसार ही उसके अन्तःकरण की वृत्ति बनती है। उस वृत्ति के अनुसार ही जव की भिन्न २ विषयों में प्रवृत्ति होती है। अतएव यदि कर्म उत्कृष्ट हो तो प्राध्यात्मिक पथ की ओर बढ़ने लगता है और यदि कर्म निकृष्ट हो तो बीव पतन की ओर बढ़ता है। क्षुद्र से क्षुद्र योनि में पड़ा हुश्रा जीव भी उत्तमकों के परिणाम स्वरूप मानव योनि में जन्म ले सकता है और मानव योनि में पड़ा हुआ जीव निकृष्ट कर्मों के प्रभाव से Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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