SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 207
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( 355 ) क्षुद्रत योनि में जन्म लेता है। इस प्रकार ऊँच नीच योनि, सुख दुःख श्रीर जन्म, मरण आदि सबका आधार कर्म ही है । वैदिक तथा अन्य बहुत से धर्मों में कर्मों का नियन्त्रण ईश्वरीय सत्ता के श्रधीन माना है किन्तु श्रमण संस्कृति उससे सहमत नहीं । जैन दर्शन के अनुसार जीव को कमों का फल भुगताने के लिये किसी ईश्वर जैसी सत्ता की आवश्यकता नहीं समझी गई । अनादि और अनन्त संसार में जीब और अजीव नाम के दो प्रधान पदार्थ है । जीव चेतन है और जीव जड़ | जीव सिद्ध और संसारी दो प्रकार का है । सिद्धाबस्था जीब का शुद्ध स्वरूप है । संसारी जीव कर्म बन्धन से बंधा हुआ है । दृश्यमान पदार्थ पुद्गल द्रव्य के भिन्न २ रूप हैं। जब आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को भूलकर गुद्गल द्रव्यों की ओर प्रवृत्ति करता है और उन पर अज्ञानवश ग्रासक होजता है तो आत्मा में राग भाव उत्पन्न होता है और उस राग से ही द्वेष की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार राग से ही द्वेष रूप विकारी भावों से कर्म पुद्गलों का संयोग सम्बन्ध होजाता है और चिकनाहट के कारण कर्मरज श्राकर जीव के साथ चिपट जाती है । राग द्वेष के अभाव में कर्मबन्धन नहीं हो सकता । जिम प्रकार मद्यपान से नशा स्वयं श्राजाता है । इसी प्रकार कर्मों का भी जीव के साथ ऐसा बंध होता है कि कर्मों में अनुरूप फल प्रदान की शक्ति उत्पन्न होती है । जब २ जिस २ बर्म का उदय होता है तब-तब वह अपने स्वभावानुसार ही फल उत्पन्न कर देता है । आत्मा के साथ राग द्वेष रूप भौतिकवाद और आत्म-तत्त्व | श्रागमों के सिद्धान्त अनादिकाल से मानव को प्राध्या www.umaragyanbhandar.com Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy