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"स्यात् सत्', "स्यात् असत्", "स्यात् सद् सद", और स्यादवक्तव्य कहते हैं । सप्तभंगी के मूल यही चार भग हैं । इन ही में से चतुर्थ भंग के साथ क्रमशः पहले दूसरे और तीसरे भंग को मिलाने से पांचवां, छठा और सांतवां भंग बनता है।"
समन्वय । मैं पाठकों को बता रहा था कि अनेकान्तवाद ने संसार को पारस्परिक प्रेम और सन्धि का सन्देश दिया है। जब कभी अन्य धर्मा के अनुयायी अपनी अपनी एकान्त दृष्टि से किसी शास्त्रीय सिद्धान्त पर झगड़े हैं तो अनेकान्तवाद उनकी सुलह कराता रहा है। वह सदा से यही कहता आया है कि एकान्तवाद से वस्तु तत्त्व का सस्य निरूपण नहीं हो सकता। उदाहरण के लिये वस्त्र को लीजिये। बौद्ध दर्शन के 'सर्वे क्षणिक सत्वात्' इस प्रधान नियम के अनुसार 'वस्त्र' सदा क्षणिक ठहरता है । बौद्ध दर्शन के सर्वथा विपरीत सांज्यदन उसी स्त्र को सर्वथा अविनाशी और नित्य मानता है। इन दोनों के विरोध का निर्णय किस प्रकार हो ? ऐसे समय में अनेकान्तवाद का सिद्धान्त ही दोनों के विवाद की युतियों का समाधान करके दोनों में सन्धि करवाता हैं । वह ऐसा निष्पक्ष निर्णय देता है जो दोनों को मान्य हो ।
अनेकान्त दो दृष्टियों से तत्त्व व्यवस्था करता है। पहली द्रव्य दृष्टि है जो वस्तु को नित्य सिद्ध करती है । द्रव्य का कभी नाश नहीं होता। दूसरी पर्याय दृष्टि है जो उसे अनित्य बताती है । पर्याय दृष्टि से जब हम वस्त्र की ओर ध्यान देते हैं तो पता चलता है कि वही वस्त्र जो कुछ काल पूर्व नवीन माना जाता था उत्तरोत्तर जीर्ण अवस्था को प्राप्त होकर पुराना कहलाने लगता है। कोई भी वस्तु जब जीणं हो
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