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जाती है तो उसका जीर्ण ग्ना एक ही दिन के परिवर्तन का परिणाम नहीं होता किन्तु सूक्ष्म रूप सेवह वस्तु प्रतिक्षण जीर्ण होती रहती है जिसका हमें पता नहीं चल पाता। जब वह पूर्णरूप से जीर्ण होजाती है तब हम उसे चक्षु इन्द्रिय से देख पाते हैं । अतएव पर्याय दृष्टि से विचार करने पर बौद्धों का वस्त्र को क्षणिक मानने का मन्तव्य ठोक सिद्ध होता है।
उमी वस्त्र को जब हम द्रव्य की दृष्टि से देखते हैं तो उसे अविनाशो पाते हैं। जिन परमाणुगों से वह बस्त्र बना है वे नाशवान् नहीं है। उनके श्राकार में परिवर्तन भले ही होता रहे किन्तु द्रव्य का नाश कभी नहीं होता। इस कारण द्रव्य दृष्टि से वही वस्त्र नित्य सिद्ध होता है जो पर्याय की दृष्टि से अनित्य था। इस प्रकार नित्य और अनित्य ये दोनों धर्म वस्त्ररूप वस्तु के अंश है। पूर्ण वस्तु नित्यानित्यास्मक है। इस प्रकार जैन धर्म ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त से बौद्ध
और सांख्यमतानुयायियों के विरोध को शान्त कर दिया और निष्पक्ष व्यवस्था दो जो दोनों को मान्य हो ।
इस तरह अनेकान्तवाद अपना निष्पक्ष निर्णय देकर अन्य धमी के सैद्धान्तिक कलह को मिटाता रहा है। अन्य धर्मों में समन्वय कराना अनेक न्तवाद का उद्देश्य रहा है। यदि संसार ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को भली भांति समझा होता और उसका पालन किया होता तो संसार का इतिहास धर्म के नाम पर होने वाले भयानक रनपात और घोर अत्यानारों से कभी दूषित न होता। श्राजकल भी जो धर्म के नाम पर अनेक वाद विवाद और कलह होते रहते हैं उनका अन्त भी अनेकान्त दर्शन की शरण में जाकर ही हो सकता है।
अनेकान्तवाद संसार को शान्ति और प्रेम का सन्देश देता है। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com