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________________ ( १४६ ) स्याद्वाद के वर्त्तमान अनुयायी । यह तो हुआ संसार के प्रति स्याद्वाद का सन्देश और उपयोग | अब देखना यह है कि जिस धर्म का यह दर्शन है उस के वर्त्तमान अनुयायियों ने इस को किस प्रकार समझा है ? क्या वे इस का सदुप योग और पालन कर रहे है ! क्या वर्त्तमान जैन धर्मानुयायी अनेकान्तवाद के वास्तविक सार और महत्व को समझते हैं और उस का पालन करते हैं ? क्या जैन समाज के किसी भी सामाजिक या आध्यात्मिक क्षेत्र में कार्यरूप से इस सिद्धान्त की शरण ली जाती है ? इत्यादि सब प्रश्नों का उत्तर निराशाजनक ही मिलता है। दूसरों को एकान्तवादी बनने से रोकने वाले आज हम स्वयं एकान्तवादी बने बैठे हैं | इतर धर्मों का ममन्वय कराने वाले ग्रान हम अपने ही धर्म का समन्वय नहीं कर पाते । सच पूछो तो दूसरों के सामने अपने दर्शन की महिमा गाने वालों ने ही आज अपने दर्शन की दुर्दशा कर डाली है । मूर्तिपूजक, दिगम्बर, स्थानकवासी, तेरहपथी, यति और फिर उनमें भी गच्छ और टोले आदि जैन धर्म के अनेक सम्प्रदाय और शाख में कितना भीषण वैमनस्य, विद्वेष और कटुता बढ़ रही है । एक ही संस्कृति के पुत्र, री होकर भी सब एक दूसरे को शत्रु समझते हैं । एक शाखा के अनुश यी दूसरी शाखा वाले को मिध्यात्त्री कहते हैं और आज के सुधारक विद्वानों और मुनिराजों की सारी शक्ति एक दूसरे की निन्दा करने में नष्ट होती है । प्रायः सत्र एकान्तवाद को पकड़े बैठे हैं जिसका परिणाम ही वैमनस्य और द्वेष को वृद्धि करना होता है । फूट का सर्वत्र साम्राज्य है जो दिन प्रतिदिन समाज की जड़ों को खोखला कर रही है । भगवान् महावीर के सच उपासक होते हुए भी उनकी जयन्ती मनाने के लिये एक स्थान में एकत्रित नहीं हो सकते । एक ही जैनधर्म . Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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