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________________ ( १५० ) में एक सम्प्रदाय के अनुयायी दूसरी सम्प्रदाय के साधुओं को श्राहार पानी तक देने को रोकते हैं । सौगंदे खिलाई जाती हैं और नियम तक करवाए जाते हैं । मूर्तिपूजक की कन्या यदि स्थानकवासी के यहां विधाही जाये या स्थानकवासी की मूर्तिपूजक के यहां विवाही जाये तो साम्प्रदायिक भिन्नता के कारण उस कन्या से बुरा व्यवहार तक करने से संकोच नहीं किया जाता। खुल्लम खुल्ला एक दूसरे को भड़काने वाले व्याख्यान देते हैं। एक दूसरे को कलको ठहराते हैं, बाईकाट करते हैं और जाति से बहिष्कार तक करने में तुल जाते हैं | कहां तक लिखा जाय जैन समाज में प्राब जितनी फूट है शायद ही अन्य किसी जाति या धर्म में होगी। क्या यही अनेकान्तवाद की शिक्षा है ? क्या इसी प्रकार अनेकान्तवाद को जीवन में उतारा जाता है ? क्या यही अनेकान्तबाद का मर्म और सन्देश है ? क्या अनेकान्तवाद के महत्व को प्रकट करने का यही उत्तम ढंग है ? क्या दूसरों के सामने अनेकान्तवाद के अादर्श को प्रकट करने का यही सुन्दर प्रकार है ? कितनी लजा की बात है हमारे लिये कि विश्व को समन्वय और शान्ति से भरा हुअा अनेकान्तबाद का सन्देश देने वाले जन धर्म के अनुयायी आज स्वयं एकान्तवादी बने बैठे हैं। जिसका पालन म स्वयं नहीं कर रहे, दूसरों से उसका पालन करवाने को प्राशा कैसे कर सकते है। संगठन की आवश्यकता । अब भी समय है और भूलें सुधारी जा सकती हैं। सारा संसार आगे बढ़ रहा है और हम पीछे हट रहे है। अाखिर कितनीक है संख्या हमारी ? बहुत थोड़ी है और उसमें भी इतने सम्प्रदाय और शखाएँ ! इतनी बड़ी फूट ! यदि यही दशा और कुछ कल तक चलती रहो तो जैन समाज पतन के गर्त से बन नहीं सकेगा। संसार Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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