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प्रत्येक वस्तु अमत् है । देवदत्त का पुत्र दुनिया भर के मनुष्यों का पुत्र नहीं है और न देवदत्त संसार भर के पुत्रों का पिता है। यदि देवदत्त अपने को संसार भर के पुत्रों का पिता कहने लगे तो उस पर बह मार पड़े जो जीवन भर भुलाए से भी न भूले । क्या इमसे हम यह नतीजा नहीं निकाल सकते हैं कि देवदत्त पिता है नहीं भी है । अतः संसार में जो कुछ है, वह किमी अपेक्षा से नहीं भी है । मर्वथा सत् या सर्वथा अगत् कोई वस्तु हो नहीं मकती । इसी अपेक्षावाद का सूचक स्यात् ' शब्द है जिसे जैनतत्त्वज्ञानी अपने वचन व्यवहार में प्रयुक्त करता है । इसी को दार्शनिक भाषा में स्यात् सत् और-स्यात् असत् कहा जाता है।
शब्द की प्रवृत्ति वक्ता के अधीन है; अतः प्रत्येक वस्तु में दोनों धर्मों के रहने पर भी वक्ता अपने २ दृष्टिकोण से उनका उल्लेख करते हैं । जैसे दो आदमी सामान खरीदने के लिये बाज़ार जाते हैं; वहां किसी वस्तु को एक अच्छी बतलाता है, दूसरा उसे बुरी बतलाता है। दोनों में बात बढ़ जाती है तब दुकानदार या कोई राहगीर उन्हें समझाते हुए कहता है-भाई ! क्यों झगड़ते हो ? यह चीज़ अच्छी भी, है और बुरी भी है। तुम्हारे लिये अच्छी है और इनके लिये बुरी है । अपनी २ निगाह ही तो है। ये तीनों व्यक्ति तीन तरह का वचन व्यवहार करते हैं-पहला विधि कहता है, दूसरा निषेध और तीसरा दोनों।
वस्तु के उक्त दोनों धर्मों को यदि कोई एक साथ कहने का प्रयत्न करे तो वह कभी भी नहीं कह सकता । क्योंकि शब्द एक समय में एक ही धर्म का कथन कर सकता है । ऐसी दशा में वस्तु अवाच्य कही जाती है। उक्त चार वचन व्यवहारों को दार्शनिक भाषा में
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