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चाहते थे यह उपर्युक्त अहिमा पर प्रकट किए गए उनके विचारों से पाठक भली भांति समझ गए होंगे। वे अहिंसा धर्म को समाज का श्रङ्ग समझते थे। और कहते थे कि समाज इसके बिना टिक नहीं सकता। महात्मा बी कहा करते थे कि शस्त्रधारी पुरुष बोरता में अहिंसक व्यक्ति की बराबरी नहीं कर सकता। शस्त्रधारी के लिये तो शस्त्र का सहारा चाहिये और उसके बिना वह अपने प्रारको निर्बल अनुभव करता है। यही कारण है कि निःशस्त्र होकर वह शत्रु के सामने कायरता दिखाता है। शस्त्र के बिना वह अशक्त हो जाता है। अहिंसा धर्म अशक्तों का शस्त्र नहीं है, यह तो शक्तों का शस्त्र है। इसका पालन निर्बल लोग नहीं कर सकते । अहिंसा के विषय में ठीक यही मन्तव्य जैन धर्म का भी है। जैन धर्म भी अहिंसा को वीरधर्म मानता है।
हिंसा-अहिंसा विषयक बौद्ध दृष्टिकोण ।
जैनधर्म के समान बुद्ध धर्म को भी नींव तो 'अहिंसा परमो धर्मः' पर ही रक्खी गई थी और महात्मा बुद्ध ने भी भगवान महावीर स्वामी की तरह वैदिकी हिसा का विरोध किया । वास्तव में देखा जाए तो बुद्ध का वैदिकी हिंसा के विरुद्ध आन्दोलन ही बुद्ध धर्म को व्यापक रूप से फैलाने में कारण बना । अहिंसा के विरोध से महात्मा बुद्ध को बड़ी सफलता मिली। वह समय ऐसा था कि हिंसा बहुत बढ़ी हुई थी। यज्ञ के नाम पर पशु बलि श्राम होगई थी। अत्यचारों से तंग भाई भारतीय समाज किसी सुधारक की ताक में थी। ऐसे समय में महात्मा बुद्ध की आवाज़ लोगों को प्रीष्म के पश्चात् वर्षा के समान लगी। सब लोग उनके उपदेशों से आकर्षित हुए और अहिंसा धर्म का प्रचार हुश्रा। किन्तु यह देखकर आश्चर्य होता है कि बुद्ध के बाद उनके अनुयायी व्यापक रूप में हिंसा में प्रवृत्त हुए और मांसाहारी बने ।
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