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योग के अन्य देशों के समान बौद्ध देशों में भी आज श्रामिषाहार व्यापक रूप में किया जाता है। सबसे बड़ा आश्चर्य हमें इस बात से होता है कि बौद्ध पिटकों तथा अन्य सूत्रों में भी यत्र तत्र प्रामिषाहार के विधान के प्रकरण मिलते हैं। एक सूत्र* में लिखा है कि महात्मा बुद्ध ने एक गृहस्थ से भिक्षा में सूकर का मांस ग्रहण किया उसके खाने से उनके पेट में शून पैदा हुआ और उसी शूल के कारण उनकी मृत्यु हुई। उसी प्रकार अन्य बौद्ध ग्रन्थों में भी बौद्ध भिक्षुत्रों के लिये ऐसे ग्रामिषाहार ग्रहण करने की प्राज्ञा दी गई है जो उनके निमिच से न बनाया गया हो। हिंसा विरोधी बौद्ध धर्म के अन्यों में इस प्रकार के मांसाहार का विधान मिलना एक बड़ी विचित्र बात है । महात्मा बुद्ध के जीवन काल के उदाहरण होने के कारण इनको प्रक्षिप्त भी नहीं माना जा सकता। अाजकल भी जो बौद्धधर्मावलम्बी व्यापक रूप से आमिषाहार करते हैं उनको अपने धर्म के प्रतिकूल जाने के दोषी नहीं ठहराया जा सकता क्योंकि बौद्ध धर्म ग्रन्थों में - श्रामिषाहार का विधान है। अतः हम इस निर्णय पर पहुंच सकते है कि बौद्ध धर्म सबसे पहले अपनी जन्मभूमि भारतवर्ष में ही फला फूना
और फलने फूलने के लिये भी इसको वदिक-क्षेत्र मिला बो व्यापक रूप से आमिषाहार में प्रवृत्त था। वैदिक लोग यद्यपि बौद्ध धर्मावलम्बी होगए थे किन्तु एक दम वे आमिषाहार का त्याग नहीं कर सके और बौद्ध होने के बाद भी वे उसका सेवन करते रहे और उन्हों ने ही श्रामिषाहार परक पाठों को बौद्ध ग्रन्थों में स्थान दिया। किन्तु यह निर्णय भी कोई विशेष सन्तोषजनक प्रतीत नहीं होता । यदि उपयुक्त निर्णय मान लिया जाए तो एक बड़ा प्रश्न हमारे सामने यह श्राता है कि महात्मा बुद्ध ने अपने जीवन काल में आमिषाररक सूत्रों के पाठों की और उसके प्रचारकों की उपेक्षा क्यों की? क्या गौतम
* महापरि निब्याण सुत्त ।
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