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________________ ( १६८ ) में रहते हैं। इस लिये जैनधर्म के अनुसार प्रत्येक जीष में ईश्वरत्व पद प्राप्त करने की शक्ति रहती है। यदि जीव कर्मों के प्रावरण से दबी हुई उस शक्ति का विकास करले तो स्वयं ईश्वर बन जाता है। इस प्रकार जैनधर्म ईश्वर तत्त्व को बैदिकधर्म के समान भिन्न स्थान नहीं देता किन्तु ईश्वर तत्त्व की मान्यता रखता है और उसकी उपासना को भी मानता है। जो जो प्रात्माएं कर्मबन्धनों से मुक्त होती जाती है वे सभी समान रूप से ईश्वर पद को पाती हैं । अविद्या या कर्म के श्रावरण के दूर होने से जीवात्मा ही ब्रह्म या ईश्वर बन जाता है इस विषय में वेदान्त और जैनदर्शन दोनों एक मत है। ईश्वर सृष्टिकर्ता क्यों नहीं ? यह पहले भी बताया जा चुका है कि जैनधर्म ईश्वर को संसार का रचयिता और शास्ता नहीं मानता है। बो लोग ऐसा मानते हैं उनके प्रमाण और युक्तिये जेन रष्टि से सारगर्भित नहीं है। ईश्वर को संसार का कर्ता और शास्ता मानने वाले कुछ विद्वानों का कहनाहै कि केवल ईश्वर ही शाश्वत और अनादि है । उसके बिना संसार की कोई वस्तु अनादि नहीं। इनमें से भी कुछ लोगों का तो कहना है कि पहले कोई चीज नहीं थी, केवल ईश्वर था। ईश्वर ने नहीं से या प्रभाव से ही सारे संसार की रचना कर डाली। दूसरे लोग कहते हैं कि ईश्वर ने अपने अन्दर से ही सारे संसार को उत्पन किया यो माया। जैनधर्म के अनुसार ये दोनों मन्तव्य निःसार हैं। प्रकृति के अध्ययन से हमें पता चलता है कि संसार का कोई भी पदार्थ अभाव से पैदा नहीं होता। प्रत्येक पदार्थ की कुछ पूर्वावस्था अवश्य होती. है और किसी भी पदार्थ का या प्रभाव नहीं होता। Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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