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॥ वर्ण व्यवस्था का प्रारम्भ ॥
वर्ण शब्द का अर्थ है रंग (complexion) | भारतीय भार्य लोगों का रंग गौर और सुन्दर होता था । कृष्ण या काले वर्ण के द्राविड़ अादि जातियों के लोग भी भारत भूमि में बसते थे। आर्य जाति का काले रंग की जातियों से कुछ काल तक संघर्ष भी रहा । ऐसा प्रतीत होता है कि पार्यों ने उन कृष्ण वर्ण जाति के लोगों से जिन्हें वे अनार्य या दस्यु कह कर पुकारते थे अपनी उत्कृष्टता की भिन्नता प्रकट करने के लिये ही वर्ण शब्द का प्रयोग प्रारम्भ किया होगा। बाद में जैसा कि ऋग्वेद के दशम मंडल में मिलता है समाज को ब्राह्मण, क्षत्रिय गैश्य और शद्र इन चार भागों में विभक्त कर दिया। प्रारम्भ में यह वर्ण व्यवस्था कर्म गत थी बन्म गत नहीं । कोई भी पुरुष अपने उच्च यानीच कर्मों मे ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य या शूद्र बन सकता था । यही कारण है कि वैदिक धर्म के प्रसिद्ध ऋषि विश्वामित्र वशिष्ठ और दीर्घतमा श्रादि अब्राह्मण होते हुए भी अपने उत्कृष्ट कों से ब्राह्मण पद को प्राप्त हुए । मनु जो महाराज भी इसी सत्य की पुष्टि करते है:शूद्रो ब्राह्मणतामेति बाह्मणश्चैति शूद्रताम् । क्षत्रियाजातमेवंतु विद्याद्वैश्यात्तथैव च ॥
मनु १०/६५/ अर्थात् जिस प्रकार शूद्र ब्राह्मण बन जाता है और ब्राह्मण शद्र बन जाता है उसी प्रकार क्षत्रिय और वैश्य के विषय में भी जानना चाहिये।
कुछ काल के पश्चात् वर्ण के स्थान में जाति शब्द का भी प्रयोग होने लगा। वैदिक साहित्य में सर्व प्रथम यह शब्द कात्यायन
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