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अन्येष्वपि तु कालेषु यदा पश्येद् ध्रुवं जयम् । तदा यायाद्विगृह्य व व्यसने चोत्थिते रिपोः ॥
मनु० अ० ७ श्लोक १८३ अर्थात्:- राजा जब अपनी जीत निश्चय जाने तथा जब देखे कि शत्रु इस समय विपत्ति में फंसा है तब वह अन्य किसी महीने में युद्ध के लिए यात्रा करे।
अब पाठक ज़रा जैन राजनीति की ओर ध्यान दें:सुमुहूर्ते सुशकुने मार्गादौ मास सप्तके । युद्धं कुर्वीत राजेन्द्रो वीक्ष्य काल बलाबलम् ॥
लघ्व० पृ० २६ श्लोक ३३ अर्थात्:- अच्छे मुहूर्त में अच्छे शकुन होने पर मार्गशीर्षादि पाठ महीनों में अच्छा समय देख कर युद्ध के लिये प्रयाण करना चाहिये ।
यहां पर भी श्रावण, भाद्रपद, पाश्विन और कार्तिक इन चार 'महीनों में युद्ध यात्रा का निषेध कर के अहिंसा धर्म की ओर कितना ध्यान रखा गया है।
इसी प्रकार जैन राजनीति धर्म युद्ध के पक्ष में होते हुए भी यह कहती है किःशत्रावन्याय निष्टतु कर्तव्यं यथोचितम् ।
लघ्व० पृ० ३६ श्लोक ६. अर्थात् शत्रु यदि अन्याय पर तुला हो तब तो उस के साथ युद्ध अवश्य करना चाहिये।
इसी प्रकार दुष्टों को दंड देने के लिये और साधुत्रों के पालन के लिये भी वैदिक और बैन मन्तब्य एक ही है । जैसे:
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