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इसो प्रकार आचारांग और कल्प सूत्रादि आगमों में भी निन्थ शब्द जैन साधु साध्वियों के लिये ही प्रयोग में आता है।
बौद्धों के धर्म ग्रन्थ “ महापरि निब्बाण सुत्त" में निग्गंठ शब्द का प्रयोग किया गया है । अशोक के शिलालेखों में भी "निग्गंठ' शब्द आता है, जिस का अभिप्राय जैन साधुओं से ही है । बद्धों के पिटकों में तो स्पष्ट बताया गया है 'निग्गंठ' बद्धों के प्रतिद्वन्दी थे। इस से यह स्पष्ट है कि निग्गंठ बौद्धधर्म से बहुत प्राचीन काल से चले पाते थे, और वे समय २ पर बौद्ध धर्म का बड़ा विरोध करते रहे । इस प्रकार 'निग्गठ' शब्द के प्रयोग से भी जैन धर्म भारत का बहुत प्राच न धर्म सिद्ध होता है ।
महनजोदड़ो और हड़प्पा की खुदाई से जो अवशेष निकले हैं वे भी जैनधर्म की प्राचीनता पर बड़ा प्रकाश डालते हैं । हड़प्पा से एक सील निकली है जिस का चित्र लाहौर के डाक्टर बनारसीदास जैन द्वारा सम्पादित “जैन विद्या" नामक त्रैमासिक पत्र के मुखपृष्ठ पर दिया गया है । हड़प्पा के इस अवशेष पर कायोत्सर्ग मुद्रा में खड़े हुए एक योगो की मूर्ति है। ध्यान रहे कि तपश्चर्या की कायोत्सर्ग ध्यान की प्रथा जैन धर्म में ही परंपरा से चली प्रारही है। योगी की इस मूर्ति के सिर पर सर्पकण हैं; जिन की संख्या तीन दिखाई देती है। जैन धर्म के सातवें तीर्थकर सुगवनाथ और तेईसवें तीर्थंकर पार्वनाथ के सिर पर भी इसी प्रकार के सर्पफण पाए जाते हैं । यह मूर्ति पार्श्वनाथ की तो हो नहीं सकता क्योंकि उन को हुए तो करीब २७०० वर्ष हुए हैं । खोज करने वाले विद्वानों ने इस कायोत्सर्ग की मूर्ति वाली हड़प्पा की सील को ५००० वर्ष पुरानी माना है। अतः यह मुर्ति जैन धर्म के सातवें तीर्थंकर सुपार्श्वनाथ की ही होनी चाहिये । इस प्रकार
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