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इस प्रकार वैदिक सिद्धान्त के अनुसार भारत में अनेक जातियों की उत्पत्ति होती गई। जैसा कि पहले भी बताया जा चुका है कि ऋग्वैदिक काल में तो वर्णव्यवस्था कर्म से ही मानी जाती थी जन्म से नहीं । इसी सत्य को पुष्ट करने वाला एक श्लोक शुक्रनीति में भी पाता है :विश्वामित्रो वसिष्ठश्च मतंगो नारदादयः । तपोविशेषसंप्राप्ताः उत्तमत्वं न जातितः ॥ अर्थात्:- विश्वामित्र, वसिष्ठ, मतंग, और नारदादि ऋषि तप के प्रभाव से उत्तम पद को प्राप्त हुए जातिसे नहीं। "बाल्मीकि रामायण" के कर्ता महर्षि वाल्मीकि के विषय में तो सब जानते हैं कि वह किस प्रकार नीच जाति में उत्पन्न हो कर भी राम की महिमा से कितने उच्च पद को प्राप्त हुए । चक्रवर्ती महाराज की महाराणी सीता को भी उन्होंने अपने आश्रम में श्राश्रय दिया था।
विस्तार भय से इस लेख को अधिक न बढ़ाते हुए अन्त में मैं यही बताना चाहता हूं कि वैदिककाल में वर्णव्यवस्था कर्म से ही मानी जाती थी । उपयुक्त विवर्ण से पाठकों को इस सत्य का भलीभाँति पता चल गया होगा । आज कल की जन्मगत वर्णव्यवस्था की भयानकता ऋग्वैदिक काल में न थी। इस का प्रचार बाद में हुअा और यहां तक बढ़ाकि नीच से नीच काम करने वाला पुरुष यदि ब्राह्मण कुल में उत्पन्न हुआ होतो वह जाति की श्रेष्ठता की ढींग हांकने में कोई कसर बाकी नहीं रखता । शूद्र बाति में पैदा हुआ पुरुष उत्तमसे उत्तम आचरण करने पर भी नीच माना जाता है। बहुत से अज्ञानी पुरुष तो शूद्र की छाया पड़ने पर भी अपने आप को अपवित्र मानने लगते हैं । इस को मूर्खता की पराकाष्ठा ही कहा जा सकता है। यह बड़ी ही
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