________________
( ५६ )
प्रसन्नता की बात है कि वर्तमान भारतीय गणराज्य के विधान में सदियों से चले आते हिन्दू समाज के इस स्पृश्यास्पृश्य के कलंक को घो डाला है।
॥ जैन वर्ण व्यवस्था ॥
ठीक वैदिक मन्तव्य की तरह ही जैन धर्म भी अपने सैनधर्म ग्रन्थों के सिद्धान्तों के अनुसार कर्मसिद्ध हो जाति या वर्णव्ययस्था मानता रहा है । निस्संदेह जैन धर्मशास्त्रों में यत्र तत्र जन्मगत वर्णव्यवस्था की भी झलक मिलती है । जैसे:
"समान कुल शोलादिभिः अगोत्रवाहय मन्यत्र बहुविरुद्धभ्यः।" धर्मविन्दु पृ० ४. आजकल जो जैन समाज में वर्णव्यवस्था प्रचलित है वह जैनागमों के सिद्धान्तों के अनुसार नहीं कही जासकती। वर्तमान जैन समाज में वर्णव्यवस्था जन्म से ही मानी जाती है। सैद्धान्तिक रूप में भले ही कुछ लोग कर्मगत भी मानते हों किन्तु कार्यरूप में जन्मगत की ही प्रधानता है । कोई भी जैन साधु जैनागमों का सुचारु रूप में ज्ञान होते हुए भी किसी नीच जाति के सुयोग्य और अधिकारी पुरुष को दीक्षा देने का साहस नहीं कर सकता। यदि करे तो, न तो भावकों की भद्धा का पात्र ही वह रह सकता है और न पाहार पानी की सुविधा ही उसको जैन परिवारों में मसीब हो सकती है। इस का मूल कारण कार्य रूपमें जन्म सिद्ध वर्णव्यवस्था का मानना है जो जैन धर्म का अपना सिद्धान्त नहीं है । मेरे विचार से यह वैदिकसभ्यता का ही जैन धर्म पर प्रभाव है। जब बैन राजसत्ता समाप्त हो गई और जैन राजनीति लुस प्रायः होगई थी शायद उस समय से सी जैन धर्म वैदिक धर्म से प्रषिक
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com