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________________ ( ५७ ) प्रभावित होने लगा। केवल वर्णव्यवस्था में ही नहीं अन्य विवाह संस्कारादि कमों में भी जैन नगत वैदेक विवाह पद्धति से ही शासित होता आया है । इसके अतिरिक्त दोनों धनों में पारस्परिक वैवाहिक सम्बन्ध अति प्राचीन काल से बिना किसी बाधा के चले आ रहे हैं। ऐसी स्थिति में एक दूसरे की प्रथाओ के प्रभाव से मुक्त रहना कठिन ही नहीं असभव भी हो जाता है। ईसा पूर्व ६००-७०० के समय की जैन सभ्यता और परिस्थिति का वर्णन करते हुए जैन विद्वान् श्री कामता प्रसाद जी अपने संक्षिप्त जैन इतिहास के के दूसरे भाग में लिखते हैं: " उस समय का भारतीय समाज, ब्राह्मण क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र वर्णों में विभक्त था। चाण्डाल आदि भी थे । भगवान् महावीर के जन्म होने के पहले ही ब्राह्मण वर्ण की प्रधानता थी। उसने शेष वर्गों के सब अधिकार हथिया लिये थे। अपने को पुजवाना और अपना अर्थ साधन करना उसका मुख्य ध्येय था यही कारण था कि उस समय ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी को भी धर्म कार्य और वेद पाठ करने की आज्ञा नहीं थी । ब्राह्मणेतर वर्णों के लोग नीचे. समझे जाते थे । शूद्र और स्त्रियों को मनुष्य ही नहीं समझा जाता था। किन्तु इस दशा से लोग ऊब चले । उन्हें मनुष्यों में पारस्परिक ऊंच नीच का भेद अखर उठा । उधर इतने में ही भगवान् पार्श्वनाथ का धर्मोपदेश हुश्रा और उससे जनता अच्छी तरह समझ गई कि.मनुष्य २ में प्राकृत कोई भेद नही है। प्रत्येक मनुष्य को प्रात्म - स्वतन्त्रता प्राप्त है। कितने ही मत प्रवर्तक इन बातों का प्रचार करने के लिए अगुवा बने। बैनी लोग इस आन्दोलन में अग्रसर थे । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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