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साधुत्रों की बात जाने दीजिए श्रावक तक लोगों में से बाति मुदता अथवा नाति वा कुल मद को दूर करने के साधु प्रयत्न करते
थे। रास्ता चलते एक श्रावक का समागम कुछ ब्राह्मणों से हो गया ब्राह्मण अपने माति मद में मत्त थे किन्तु श्रावक के युक्ति पूर्ण वचनों से उनका यह नशा काफूर होगया। वे जान गए कि मनुष्य के शरीर में वर्ण प्राकृति के मेद देखने में नहीं आते है जिससे वर्ण मेद हो। क्योकि ब्राह्मण आदि का शूद्रादि के साथ भी गर्भाधान देखने में आता है। जैसे गौ घोड़े आदि की जाति का भेद पशुओं में है ऐसा जाति भेद मनुष्यों में नहीं है क्योंकि यदि श्राकार भेद होता तो ऐसा भेद होना संभव था अतः मनुष्य जाति एक है। उसमें जाति अथवा कुल का अभिमान करना वृथा है। एक उच्चवर्णी ब्रामण भी गोमांस खाने और वेश्यागमन करने से पतित हो सकता है और एक नीच गोत्र का मनुष्य अपने अच्छे आचरण द्वारा ब्रामण के गुणों को पा सकता है।
भगवान् महावीर के दिव्य देशों में मनुप्य मात्र के लिए व्यक्ति स्वातन्त्र्य का मूल मन्त्र गर्भित था। भगवान् ने प्रत्येक मनुष्य का प्राचरण उसके नीच अथवा ऊंवपने का मूल कारण माना था उन्होंने स्पष्ट कहा कि संतान कर्म से चले आए हुए जीव के आचरण की गोत्र संशा है। जिसका ऊंचा प्राचरण है उसका ऊँच गोत्र है और जिसका नीच श्राधरण है उसका नीच गोत्र है। शुद्ध हो या स्त्री हो अथवा चाहे जो हो गुण का पात्र है वही पूजनीय है। देह या कुल की वंदना नहीं होती और ना ही जातियुक्त को ही मान्यता प्राप्त है। गुणहीन को कौन पूजे और माने ! भ्रमण भी गुणों से होता है भावक भी गुणों से होता है । महावीर बी के इस संदेश से जनता की मनमानी मुराद पूरी हुई और वह अपने
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