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जाति अथवा कुलमद को भून गई थी।
तब भारत में विश्व प्रेम की पुण्य धारा का अटूट प्रवाह बहा । जनता गुणों की उपासक बन गई । ब्राह्मण, क्षत्रिय शूद्र और वैश्यत्व का उसे अभिमान ही शेष न रहा। सब ही गुणों को पाकर श्रेष्ठ बनने की कोशिश करते थे । धन्यकुमार सेठ को हो देखिए । उनके गुणों का आदर करके सम्राट श्रेणिक ने अपनी पुत्री का विवाह उनसे कर दिया था और उन्हें राज्य देकर अपने समान राज्याधिकारी बना दिया था। यही बात इनसे पहले हुए सेठ भविष्यदत्त के विषय में घटित हुई थी। वह वैश्य पुत्र होकर भी राज्याधिकारी हुए थे। हस्तिनापुर के राजसिंहासन पर आरूढ़ होकर उन्होंने प्रजा का पालन समुचित रीति से किया था। सेठ प्रीतिकर को क्षत्री राजा जयसेन ने प्राधा राज्य देकर राजा बनाया था। सरांशतः स्वतन्त्र अन्वेषण के आधार से विद्वानों को यही कहना पड़ा है कि उस समय ऊपर के तीन वर्ष (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) तो वास्तव में मूल में एक ही थे। क्योंकि राजा, मरदार और विप्रादि तीसरे वैश्य वर्ण के ही सदस्य थे, जिन्होंने अपने को उच्च सामाजिक पदपर स्थापित कर लिया था वस्तुतः ऐसे परिवर्तन होने ज़रा कठिन थे, परन्तु ऐसे परिवर्तनों का होना सम्भव था । गरीब मनुष्य राजा, सरदार बन सकते थे। ऐसे परिवर्तनों के अनेक उदाहरण प्रन्यों में मिलते हैं। इसके अतिरिक्त ब्राह्मणों के क्रिया काण्ड युक्त एवं सर्व प्रकार की सामाजिक परिस्थिति के पुरुष स्त्रियों के परस्पर सम्बन्ध के भी उदाहरण मिलते हैं और यह केवल उच्चवर्ण के ही पुरुष और नीच कन्याओं के सम्बन्ध में नहीं है बल्कि नीच पुरुष और उच्च स्त्रियों के भी है।
नीचे दिया उदरण भी इस सत्य का पोषक है:
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