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________________ ( ११४) तो उन्हों ने अहिंसाधर्म का पालन करने के लिये सब प्रकार की कठिन से कठिन अापत्तियों को सहन करने की भी आशा दी। उन्होंने कहा कि साधु के सामने सब से बड़ा जीवन का लक्ष्य मोक्ष प्राप्ति है, और अहिंसा धर्म का मनसा, वाचा और कर्मणा पालन किये बिना वह प्राप्त होने वाली नहीं है । उन्हों ने यह भी बताया कि सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह त्याग ये चार महाव्रत भो अहिंमा धर्म की पूर्णता केलिये ही परमावश्यक हैं। गृहस्थों के लिये भगवान् ने कहा है कि गृहस्थों को यद्यपि अहिंसाधर्म का पालन करना पूर्णरूप से कठिन है किन्तु तो भी उन्हें जहां तक बन सके अपने जीवन के सभी कार्यों में अहिंसा का पालन करना चाहिये । गृहस्थ जीवन की सफलता के लिये सदाचार और सद्विचार परमावश्यक हैं जिन का आधार भी अहिंसा धर्म है । परन्तु गृहस्थ को साधुमार्ग को अतिकठिन सोपान पर उतरने की आवश्यकता नहीं है। वह अपने लिये प्रतिपादित धर्म का ही आचरण करता रहे तो उस के कल्याण के लिये पर्याप्त है। वैदिक धर्म में मनुष्य के भाग्य का निर्णय ईश्वर के हाथ में है किन्तु जैनधर्म में मनुष्य स्वयं अपने भाग्य का कां धर्ता है है । भगवान् अपने उपदेशों में कहते थे कि यदि सुख चाहते हो तो शत्रुता बढ़ाने वाली हिंसा की भावना का त्याग करो और बीवमात्र के प्रति मैत्री की भावना रखो और फिर देखना तुम उत्तरोत्तर सुख की ओर ही बढ़ोगे। यह भगवान् के उन दिव्य और प्रादर्श उपदेशों का ही प्रताप है कि प्राचीन परम्परा से चले आते भमण संस्कृति के प्राणभूत अहिंसामार्ग पर श्राज भी बैनसमाव सुचारू रूप से चल रही है। प्रादि तीर्थकर भगगान् ऋषभदेव के समय जिस प्रकार अहिंसा Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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