________________
। ११३)
अस्तु, कुछ भी हो यह बात तो स्पष्ट है कि वैदिकधर्म के समान जैनधर्म में हिंमारक शास्त्रीय पाठों के आधार पर कोई सम्प्रदाय या नए दल पैदा नहीं हुए । हां जैनधर्म क्योंकि अनादिकाल से अहिंसात्मक है या दूसरे शब्दों में अहिंमा ही इस के प्राण हैं इस कारण जब भी कभी किसी ने जैनधर्म पर हिंसा का साधारण भी दोष लगाया तो सारी जैनसमान ने एक अाधाज़ से उस का विरोध किया। जो धर्म अनादि काल से अन्य धर्मों में हिंसा प्रवृत्ति का घोर विरोध करता आया है और मानव समाज को हिंसामार्ग से हराने के लिये संदा प्रयत्नशील रहा है वह भला अपने धर्म के लिये हिंसा की कल्पना भी कैसे कर सकता है। महात्माबुद्ध ने तो वेद विहित याज्ञिकी हिंसा का विरोध बाद में किया किन्तु जैनधर्म पहले से ही उसका विरोध करता आ रहा था। गौतम युद्ध के शिष्य तो उनके जीवनकाल में ही आमिषाहार में प्रवृत्त होगए थे किन्तु महावीर के अनुयायी कठिन से कठिन समय में भी अहिंसापथ से विमुख नहीं हुए । यही कारण है कि बुद्ध की अहिमा की अपेक्षा महावीर की अहिंसा का प्रभाव भारतीय समाज पर अधिक पड़ा।
... भगवान् महावीर ने अहिंसा धर्म का प्रतिपादन और प्रचारबड़े ही अलौकिक ढंग से किया। उन्हों ने मानव जाति को समता का उपदेश देते हुए कहा कि जीवों में दिखाई देने वाला शारीरिक या मानसिक वैषभ्य सब कर्म मूलक है वास्तविक नहीं | इस लिये क्षुद्र से क्षुद्र योनि में पड़ा हुआ जीच भी कभी मानव योनि में पैदा हो सकता है और मानव का जीव भी क्षुद्र कर्मों के परिणाम स्वरूप क्षुद्रयोनि में पैदा हो सकता है। अतएव अहिंसा मार्ग का अनुसरण करते हुए सब के साथ समता का व्यवहार करो | इस के अतिरिक्त भगवान् ने अहिंसा का अविच्छिन्न महत्व एक ही घोषित करते हुए भी साधु के लिये पृथक और श्रावक के लिए पृथक अहिंसामार्ग का उपदेश दिया । साधु केलिये
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com