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________________ (११२) अपवाद के हजारों प्रसंग आए हैं पर किसी निर्ग्रन्थ-दल ने आश्वादिक स्थिति का समर्थन करने के लिये अपने मूल सिद्धान्त अाहिंसा से दूर मकर सूत्रों का बिल्कुल विरुद्ध अर्थ नहीं किया है। सभी निन्य अपव द का अपवाद रूप से जुदा ही वर्णन करते रहे है । जिसकी साक्षी छेद सूत्रों में पद पद है । निर्ग्रन्थसंघ का बधारण भी ऐसा रहा है कि कोई ऐसे विकृत अर्थ को सूत्रों की व्याख्या में पीछे स्थान दे तो वह निर्गन्यतंत्र का अंग रह ही नहीं सकता। तब वही मानना पड़ता है कि रचनाकाल में सूत्रों का असली अर्थ तो मांसमत्स्य ही था और पीछेसे वनस्पति अर्थ भी किया जाने लगा।" "इस के सिवाये कोई २ साहसिक निर्ग्रन्थ प्रचारक नए २ प्रदेश में अपना निरामिष-भोजन का तथा अहिंसा-प्रचार का ध्येय ले कर जाते ये जहां कि उन को पक्के अनुयायी मिलने के पहले मौजूदा खान पान की व्यवस्था में से भिक्षा ले कर गुबर- बसर करना पड़ता था। कभी कभी ऐसे भी रोगादि संकर उपस्थित होते ये जब कि सुवैद्यों की सलाह के अनुसार निर्घन्यों को खान पान में अपवाद मार्ग का भी अवलम्बन करना पड़ता था। वे और इन के बैसी अनेक परिस्थितियां पुराने निम्न्यसंघ के इतिहास में वर्णित है । इन परिनियालियों में निरामिष भोजन और अहिंसा प्रचार के ध्येय का श्रात्यन्तिक ध्यान रखते हुए भी कभी २ निर्घन्य अपनी एषणीय और कल्प्य आहार की मर्यादा को सख्त रूप से पालते हुए मांस-मत्स्यादि का ग्रहण करते हों तो कोई अचरज की बात नहीं। हम जब प्राचार और दशवैकालि. कादि प्रागमों के सामिष श्राहार सूचक सूत्र देखते हैं और उन सूत्रों में वर्णित मर्यादात्रों पर विचार करते हैं तब स्पष्ट प्रतीत होता है कि सामिष पाहारका विधान बिल्कुल प्रापचाविक और अपरिहार्य स्थिति का है।" Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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