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________________ ( १११) पुष्टि होती है । अस्तु, मेरे अपने विचार से जैनधर्म या श्रमण संस्कृति जिसकी नींव ही 'अहिंसा परमो धर्मः' पर रक्खी गई है उस में मांसमत्स्यादि का विधान अपवाद रूप में भी कर दिया हो यह संभव प्रतीत नहीं होता। अतः प्रारम्भसे ही सूत्रोंका वनस्यतिपरक अर्थ होना चाहिये । जैन दर्शन के धुरंधर विद्वान् श्ची ५० सुखलाल जी संघवी तो सूत्रों के मांसमस्या दपरक अर्थों को श्रापवादिक मानते हैं । उनके निष्पक्ष विचार+ भी पाठकों की शान वृद्धि के लिये यहां दिये जाते है: ___ "कोई भी बुद्धिमान् यह तो सोच ही नहीं सकता कि सूत्रों की रचना के समय रचनाकार को वनस्पति और मांस आदि दोनों अर्थ अभिप्रेत होने चाहिए । निश्चित अर्थ के बोधक सूत्र परस्पर विरोधी ऐसे दो अर्थों का बोध करावें और जिज्ञासुत्रों को संशय या भ्रम में डालें यह संभव ही नहीं है । तब यही मानना पड़ता है कि रचना के समय उन सूत्रों का कोई एक ही अर्थ सूत्रकार को अभिप्रेत था । कौनसा अर्थ अभिप्रेत था इतनां विचारनाभर बाकी रहता है । अगर हम मान लें कि रचना के समय सूत्रोंका वनस्पतिपरक अर्थ था तो हमें यह अगत्या मानना पड़ता है कि मांसमत्स्यादि रूप अर्थ पीछे से किया जाने लगा । ऐसी स्थिति में निम्रन्थ संघ के विषय में यह भी सोचना पड़ेगा कि क्या कोई ऐसी अवस्था प्राई थी जबकि अापत्तिवश निर्ग्रन्थ-सघ-मांस-मत्स्यादि का भी ग्रहण करने लगा हो और उस का समर्थन उन्हीं सूत्रों से करता हो! इतिहास कहता है कि निर्ग्रन्थ-संघ में कोई भी ऐसा छोटा बड़ा दल नहीं हुआ जिस ने आपत्तिकाल में किये गए मांसमत्स्यादि के 'ग्रहण का समर्थन वनस्पति बोधक सूत्रों का मांस-मत्स्यादि अर्थ करके किया हो। अलबत्ता निर्ग्रन्थ-संघ के लम्बे इतिहास में आपत्ति और .. देखों निम्रन्थ सम्प्रदायपृ० १८, २० । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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