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धर्म के महत्व को समझा जाता था और उस का पालन किया जाता था ठीक उसी प्रकार की मान्यता वर्तमान समय में भी जैन समाज में पाई जाती है । प्रायः सब धर्मों के अनुपायी बड़ी संख्या में श्रामिषाहार में प्रवृत्त हो चुके हैं किन्तु सौभाग्यवश जैनधर्मावलम्बी अब भी पूर्ववत् शाकाहारी हैं और भगवान् के संदेश को नहीं भूले हैं। याज भी जैन समाज के व्यवहारिक, सामाजिक और अध्यात्मिक श्रादि सभी क्षेत्रों में अहिंसा के महत्व की उपेक्षा नहीं की जाती। यत्र तत्र शिथिलता का होना तो अवश्यंभावी है किन्तु व्यापकरूप से जैनमात्र अहिंसाधर्म का पालन करता है।
श्रमण संस्कृति की प्राचार नीति में साधु के लिये पांच महाव्रतों का विधान है । वे व्रत इस प्रकार हैं:
अहिंमा सत्यमस्तेयं ब्रह्मचर्या परिग्रहाः । अर्थात्-अहिंसा, सत्य, अचौर्य, ब्रह्मचर्य, और अपरिग्रह ये पान महाव्रत है । इन पाञ्च महाव्रतों में भी पाठक देखेंगे किं सर्वप्रथम स्थान अहिंसा महाव्रत को दिया गया है। वास्तव में देखा जाए तो जैनधर्म की नीव ही अहिंसा धर्म पर टिकी हुई है। यही कारण है कि जैनमुनियों या श्रावकों के जीवन में अनेक चिन्ह, उपकरण या क्रियाएं अहिंसा के पालन का बोध कराते हैं । मुखवस्त्रिका, रजोहरण और मयूर पिच्छादि सब उपकरण अहिंसा पालन करने के उपकरण हैं। प्रतिलेखन क्रिया भी इसी सिद्धान्त की प्रतीक है। संक्षेप में जैनधर्म की प्रत्येक क्रिया अहिंसा के सिदान्त से ओतप्रोत है। ऐसा लगता है कि अंहिसा ही जैनधर्म है और जैनधर्म ही अहिंसा सिद्धान्त का जागृतरूप है। अहिंसा वास्तव में जैन धर्म की प्रात्मा है। यदि उपयुक्त पाञ्च महाव्रत्तों में से अहिंसा महाव्रत को पृथक् निकाल दिया जाये और जैनधर्म के केवल
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