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________________ ( च ) मुनि श्री पुण्य विजय जी म ० जैसे विद्वान् सन्तों की सेवा में रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ । परन्तु पंजाब विभाजन के कारण थीसिस का काम समाप्त नहीं हो सका । उपर्युक्त कथन से भलीभांति विदित होता है कि श्री पुरुषोत्तम चन्द्र जी ने तुलनात्मक अनुसन्धान में पूर्ण योग्यता प्राप्त करने के बाद ही प्रस्तुत ग्रन्थ की रचना की है । यही कारण है कि प्रायः प्रत्येक विषय का विश्लेषण जैन, वैदिक और बौद्ध तीनों के दृष्टिकोण से किया है । वैदिक, जैन और बौद्ध तीनों भारत के महान् धर्मों की संस्कृतियां साथ २ चली आई हैं और तीनों में पारस्परिक प्रभाव पड़ता रहा है । बहुत सी बातों में जैन संस्कृति वैदिक और बौद्ध संस्कृति से प्रभावित हुई और बहुत सी बातें जैन संस्कृतिने वैदिक और बौद्ध संस्कृति को सिखाई । अत: जैन संस्कृति को पूर्णरूप से समझने के लिये वैदिक और बौद्ध संस्कृति का समझना परमावश्यक है । प्रस्तुत पुस्तक में जैनधर्म विषयक कई एक महत्वपूर्ण प्रश्नों पर विचार किया गया है जो इस के अध्याय शीर्षकों से ही प्रकट होता है । पुस्तक की रचना शैली प्रौढ़ होने के साथ २ सरल और सरस भी है । कर्ता ने अपने कथन की पुष्टि के लिये यत्र तत्र अनेक शास्त्रीय प्रमाण दिये हैं । Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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