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________________ । ११८) पाञ्च इन्द्रियों वाले मनुष्य श्रादि जीव । इनमें से किसी जीव को भी मारना या मारने की इच्छा करना हिंसा प्राजाता है किन्तु सबके मारने में एक सी हिंसा नहीं होती। सबसे अधिक हिंसा पञ्च न्द्रिय जीव को मारने में, उससे कम चार इन्द्रिय वाले को इस प्रकार उत्तरोत्तर हिंसा की सामा कम होती जाती है। पञ्चेन्द्रिय जीव को मारने में जो हिंसा होता है उसकी तुलना फल तोड़ने या खाने को हिना से नहीं कर सकते। फलादि वनस्पति को तोड़ने में कम से कम हिंसा होती है जो सामाजिक या गृहस्थ जीवन में निन्द्य नहीं कही जा सकता। __ अाजकल बहुत से लोग तो अहिंसा धर्म के अतिवाद पर उतर पाए हैं और फलादि वनस्पति के आहार क! भो अभिषाहार के समान ही हिंसापणं समझकर उसका सेवन करने में पाप मानते हैं । उनको पता होना चाहिये कि वनस्पति और पशु पक्षी आदि जीवों के जीवन के प्रकार में आकाश पाताल का अन्तर है। वृक्षों के फलों को यदि हम न भी तोड़े तो वे पकने पर सयं उनको गिरा देते हैं । और फिर अपनी २ ऋतु में पौधे पुनः पूर्ववत् फनों से लद जाते हैं। कुछ पेड़ जैसे सहतूत और गुलाबाद तो ऐसे हैं जो काटने छांटने से ही अधिक फलते फूलते हैं। यदि उनको समय समय पर कारा बांटा न जाए तो शीघ्र ही सूख कर नष्ट हो जाते हैं। वनस्पति संसार के लिये जो प्राकृतिक नियम है वे जंगम संसार पर लागू नहीं किए जा सकते । उदाहरण के लिये यदि बकरे के सिर, टांग, या कान श्रादि अंग कार लिये जाएं तो वे किसी भी काल में पुनः नहीं उग सकते। इससे यह स्पष्ट है कि स्थावर और जंगम दोनों तरह के संसारों के लिये प्राकृतिक नियम मिन्न २ प्रकार के हैं। अतः दोनों के जीवन को समान समझना या दोनों की हिंसा को समान समझना निरी अज्ञानता होगी। इसका अभिप्राय यह नहीं कि हमें वनस्पति-संसार के प्रति दयाभाव नहीं रखना चाहिये किन्तु अहिंसा के अतिवाद पर उतरना और मिथ्याष्टि रखना Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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