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यह सर्वदा हानिकारक सिद्ध होगा। ऐसा करने से अहिंसा धर्म का पालन व्यावहारिक जीवन में असंभव हो जाएगा। इससे अहिंसा के प्रचार के स्थान पर हिंसा की वृद्धि होगी और लोगों की दृष्टि में अहिंसा धर्म का महत्त्व लुप्त हो जाएगा।
इसमें कोई सन्देह नहीं कि अहिंसा धर्म का पालन मानव जोवन को उच्च बनाने के लिये एक महान् आदर्श है और हमें भरसक इसके पालन में प्रयत्नशील रहना चाहिये किन्तु सभी प्राणियों के लिये सांसारिक जीवन का निर्माण ही ऐमा है जिसमें कदम कदम पर हिंसा का अस्तित्त्व भरा पड़ा है। जीवन के प्रायः सभी कार्य किसी न किसी प्रकार की हिंसा से लिम हैं और वह हिंसा अनिवार्य है । खाना, पीना, चलना, खेती करना, व्यापार करना आदि सभी जीवन के कार्य हिंसा से भरे पड़े हैं । गर्भाधान से लेकर मृत्यु पर्यन्त संसार का सारा जीवन हिंसा से परिपूर्ण है। तो क्या छोटी से छोटी हिंसा से बचने के लिये मनुष्य सब कामों को छोड़कर निष्कर्मण्य होकर बैठ जाए ? निष्कर्मण्यता जीवन की मृत्यु है और संसार का अन्त है। अहिंसा के अतिवाद पर उतरने वाले सजन संसार को निष्कर्मण्यता की ओर ही ले जाएंगे। उनको चाहिये कि वे अहिंसा के वास्तविक महत्त्व को समझे। अहिंसा की अति. पर उतरने से तो अहिंसा धर्म व्यवहार्य नहीं रह जाएगा। अहिंसा में जितना श्राकर्षण है वह लुप्त हो जाय गा। और लोग इस के पालन को असम्भव समझ कर इसका त्याग कर देंगे जिसका परिणाम यह होगा कि संसार में हिंसा के प्रचार को प्रोत्साहन मिलेगा। अतएव जो जैन धर्मावलम्बी अहिंसा की ऐसी अति पर उतरेंगे वे जैन धर्म को लाभ के स्थान पर हानि ही पहुंचाएँगे । उनको पता होना चाहिये कि जैन धर्म में जीवों के चैतन्य की तरतमता के अनुसार ही हिंसा अहिंसा का विवेचन किया है। फलाहार या शाकाहार और मांसाहार दोनों की विभाजक रेखा को बड़े विस्तार पूर्वक
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