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अनेक प्रश्नों की उत्पत्ति ।
मानव सोचने लगा कि संसार में जहां अनेक पदार्थ आकर्षक हैं वहां भयावह पदार्थों की भी कमी नहीं । जीवन में माधुर्य है तो कड़वापन उस से भी अधिक छिग पड़ा है । संसार में सुख है तो दुःख का भी अन्त नहीं । श्रात्र जहां सृष्टि फनी फूनी है कल वहां किसी प्राकृतिक कोप से संहार हो जाता है । कुछ क्षण पूर्व ही जो लोग मुस्कराते थे कुछ क्षण बाद ही वे रोते चिल्लाते दिख ई देते हैं
। आज बो क्रीड़ास्थान घाट बन जाता है । आज उजाड़ हो जाता है । एक दूसरे पड़ोस के ही घर में
है अल्प समय के पश्चात् ही वह श्मशान जहां रंगरलियां मनाई जारही हैं कल वहां घर में जीवन की कलियां खिल रही हैं तो मृत्यु की भयानकता दृष्टिगोचर होती है । यह सब क्यों ? संसार में इतनी बड़ी विषमता क्यों ? क्या इस प्रकार के विषमतापूर्ण विश्वको किसी शक्तिविशेष ने पैदा किया था या यह किसी ने उत्पन्न नहीं किया किन्तु अनादिकाल से ऐसा ही था और ऐसा ही चला आया है ? यदि किसी शक्तिविशेष ने संसार को उत्पन्न किया तो ऐसी भयानक विषमता क्यों रखी ? यदि इस का कर्ता या संचालक कोई नहीं तो इस की नियमित व्यवस्था किस प्रकार चल रही है ? क्या यह विश्व की मर्यादित व्यवस्था भी अनादिकाल से यंत्रवत् चली आ रही है ? यह दृश्यमान चराचर संसार क्या इसी रूप में सदा स्थिर रहेगा या इस का कभी पूर्णरूप से सहार भी हो जाता है ? यदि संहार हो जाता है तो क्या वह स्वयं हो बाता है या उसका भी कोई कर्ता होता है ? इन वाह्य प्रश्नों के अतिरिक्त
आन्तरिक प्रश्न भी उठे ।
मानव के मस्तिष्क में विश्व के विषय में कई वह सोचने लगा कि वह तत्र जो अहंरूप से इस दृश्यमान संसार के सुख दुःख का अनुभव करता है वह क्या है ?
भांसित होता है और
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