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परिहार्य हिंसा की हद तक ले जासकते हैं। क्योंकि आखिरी अहिंसा हमारे हृदय का धर्म है । हम यह नहीं कह सकते कि किसी उद्योग का हिंसा से अनिवार्य सम्बन्ध है । वह तो हमारी भावना पर निर्भर है । हमारा हृदय अहिसक होगा तो हम अपने उद्योग में हिंसा लाएंगे ।
अहिसा केवल वाह्य वस्तु नहीं है । मान लीजिये एक मनुष्य है। काफी कमा लेता है । और सुख से रहता है । किसी का कर्ज़ वगैरह नहीं करता। लेकिन हमेशा दूसरों को इमारत और मिलकियत पर दृ?ि रखता है | एक करोड़ के दस करोड़ करना चाहता है तो मैं उसे हिंसक नहीं कहूंगा । ऐसा कोई धन्धा नहीं जिसमें हिंसा हो ही नहीं । लेकिन चन्द धन्धे ऐसे हैं जो हिंसा को ही बढ़ाते हैं। हिंसक मनुष्य को उन्हें वर्ज्य समझना चाहिये। दूसरे अनेक धन्धों में अगर हिंसा के लिये स्थान है तो हिंसा के लिये भी है । हमारे दिल में अगर हिंसा भरी हुई है तो हम हिंसक वृत्ति से उन धन्धों को करें । हम उन उद्योगों का दुरुपयोग न करें ।
प्राचीन भारत की अर्थ व्यवस्था ।
मेरा कुछ ऐसा ख़याल है कि जिन्होंने हिन्दुस्तान के गावों का निर्माण किया उन्होंने समाज का सङ्गठन ही ऐसा किया जिससे शोषण और हिंसा के लिये कम से कम स्थान रहे। उन्होंने मनुष्य के अधिकार का विचार नहीं किया । उसके धर्म का विचार किया । वह अपनी परम्परा और योग्यता के अनुसार समाज के करता था । उसमें से उसे रोटी भी मिल जाती थी थी । लेकिन उसमें करोड़ों को चूसने की भावना न थी भावना के बदले धर्म की भावना थी । वे अपने धर्म का आचरण
हित का उद्योग
यह
दूसरी बात
।
लाभ की
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