SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 87
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ( ६८ ) हुए सुयोग्य वैदिक विद्वान् पं० गंगाप्रसाद जी एम. ए. अपनी 'धर्म का श्रादि श्रोत' नामक पुस्तक के ३६ पृष्ठ पर लिखते है: "बुद्ध के प्रादुर्भाव के कुछ पूर्व वैदिकधर्म के इतिहास में घोर अन्धकार का समय था। वेद और उपनिषदों का पवित्र और प्रशस्त धर्म अवनत होकर निरर्थक कृत्य और हिंसापूर्ण 'यज्ञादि' का स्वरूप प्रहण कर चुका था। वैदिक वर्णव्यवस्था जो प्रारम्भ में गुण कर्मानुसार थी बिगड़ कर वंश परम्परागत जातिभेद में परिवर्तित हो गई थी। इस का यह परिणाम हुअा कि ब्राह्मण लोगों ने केवल 'जन्म से' अपनेको बड़ा मान कर वेदाध्ययन तथा उन सद्ग्रन्थों को त्याग दिया जिनक कारण उनके पूर्वजों की समुचित प्रतिष्ठा की जाती थी। यह सदाचारिक और धार्मिक अधः पतन केवल ब्राह्मणों तक ही सीमित न रह सका। सन्यासी लोग भी धार्मिक-ज्ञान प्रान्तरिक पवित्रता, मधुरशीलता प्रादि बातें छोड़ कर तपस्या का केवल बाहरी श्राडम्बर दिखलाने को रखते थे। साधारण लोग भी वैसे सीधे, सच्चे, पवित्र और सद्गुण सम्पन्न न रहे जैसे कि वैदिक काल में थे। वे लकीर के फकीर और विलास प्रियता के चेले चन गए। प्राचीन आर्यों के सात्विक भोजन का स्थान प्रामिषाहार ने छीन लिया। उसे शास्त्रोक्त सिद्ध करने के अभिप्राय से यशों में पशुओं का वध किया जाता था और उनके मांस से पाहुति दी जाती थी। बुद्ध के प्रादुर्भाव के समय वैदिकधर्म या यों कहिये कि श्राओं की ममाजिक स्थिति इस प्रकार को हो गई थी। बुद्धदेव के हृदय पर पशुबलि दान और जातिभेद इन दो बुराइयों का बड़ा प्रभाव पड़ा। उन का कोमल और प्रेम-पूर्ण हृदय धर्म के नाम पर इतने निरपरात्र पशुओं के रक्त प्रवाह को न सह सका। उनका पवित्र श्रात्मा इस Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy