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________________ [ ६] निकृष्ट और अन्यायपूर्ण जातिभेद के विरुद्ध संग्राम करने को उद्यत हो गया । और इसमें उन्होंने मनुष्यमात्र के लिये सच्चा प्रेम और उनके अाधार के लिये विशेष उत्साह दिखाया। वस्तुतः यह बुराई इतनी अधिक हो गई थी कि बुद्ध भगवान् के पूर्ववर्ती अनेक ग्रन्थकारों ने भी उसे बुरा कहा था। सामाजिक, धार्मिक और राजनैतिक सब बातोंमें इस जातिभेद की व्यापकता हो गई थी। यहां तक कि देश के कानून पर भी उस का प्रभाव पड़ चुका था। उस समय ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्रों के लिये पृथक् पृथक कानून बन गए थे । ब्राह्मणों के ऊपर अनुचित दया और शूद्रों के साथ अनुचित कठोरता का व्यवहार किया जाता था। ये बातें बहुत दिनों तक नहीं ठहर सकती थीं । शूद्र कितने ही धार्मिक और गुणवान् क्यों न हों परन्तु न तो उन्हें धार्मिक शिक्षा देने का ही कहीं प्रबन्ध था और न उनकी समाज में ही कुछ प्रतिक्षा थी। वे लोग इन बेड़ियों को तोड़ फेंकने के अवसर की त.क में बैठे थे। वे इस निर्दय प्रथा के पंजे में फंसे हुए थे, जिस ने उन्हें उच्च सोसाइटी के संसर्ग से बुरी तरह बहिष्कृत कर रखा था। उनकी लालसा थी कि इस स्थिति में परिवर्तन हो । द्विज अर्थात् ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्यों में भी ऐसे अनेक उच्चाशय उदार प्रकृति पुरुष थे जो उनकी इस लालसा से सहानुभूति रखते थे। अतएव 'कान्ति' का समय आगया था और इस विचार के लिये असाधारण दूरदर्शिता की आवश्यकता न थी कि समय आवेगा जब लोग इस हानिकर प्रथा के विरुद्ध युद्ध मचा कर अपनी बेड़ियों को तोड़ डालेंगे। वह अवसर प्रागया । राजकुलो. त्पन्न एक क्षत्रिय ने घोषणा की कि समाज में मनुष्य की स्थिति जन्मसे नहीं प्रत्युत गुणों से होती है । असंख्य मनुष्य उसके चारों ओर एकत्रित हो गए । ऐसी दशा में हम सहज ही में इस बात का अनुमान कर सकते है कि अत्याचार के भार से दबे हुए शुद्र लोग किस उत्साह से उनकी Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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