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सब पर यहां विस्तारभय से नहीं लिखा जा सकता। यहां तो पाठकों के साधारण ज्ञान के लिये केवल वेद, वेदान्त दर्शन, सांस्य और न्याय. दर्शन के ईश्वर विषयक मन्तव्यों पर ही संक्षे। से प्रकरश डाला जायगा।
वेद में ईश्वर सत्ता। वैदिक धर्म का सबसे प्राचीन ग्रन्थ ऋग्वेद है। चारों वेदों में भी ऋग्वेद ही प्राचीनतम है। इस वेद के अध्ययन से यह तो स्पष्ट है कि इसके रचनाकाल के या मान्यता के समय ईश्वर विषयक खोज का इतना प्रावत्य नहीं था जितना कि बाद में हुआ। हां ऋग्वैदिक काल में लोगों के ईश्वर के विषय में और शृष्टि को उत्पत्ति के विषय में क्या विचार थे वे भलीभांति समझे जासकते हैं । उस काल में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीनों पदार्थों को अनादि माना जाता था। नीचे लिखा मंत्र इसकी साक्षी देता है:
द्वा तुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते । तयोरन्थः पिप्पलं स्महत्यनममन्यो अमिचाक शीति ।। __ अर्थात्- *जैसे दो ममान आयु वाले और मित्रतायुक्त पक्षी एक वृक्ष पर बैठते हैं, इसी प्रकार दो अनादि और मित्रतायुक्त अात्मा अर्थात्- जीवात्मा और परमात्मा अनादि प्रकृति में रहते हैं । इन दोनो में से एक ( अर्थात् जीवात्मा) इस प्रकृतिरूपी वृक्ष के फल को चखता है (अर्थातू-सुख दुःख भोगता है जो भौतिक शरीर में बंधने का परिणाम है) और दूसरा परमात्मा इसके फल को न खाता हुआ (अर्थात्-सुख दुःख न भोगता हुअा) सब कुछ देखता हुन प्रकाशमान हो रहा है।'
* धर्मका आदि सोत पृ० १३४
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