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________________ ( ६३ ) प्रसिद्ध महर्षि बने। वे भी महामुनि की तरह जब भिक्षा के लिए यज्ञ मण्डप में गए तो याज्ञिकों ने उनका तिरस्कार किया और भिक्षा देने से इन्कार कर दिया। याशिकों की दृष्टि में वे भिक्षा के पात्र ही न थे। उनकी दृष्टि में यज्ञ मण्डप के भिक्षा पात्र बनने के लिये ब्राह्मण कुल में जन्म लेना परमावश्यक था । जब हरिकेशी मुनि ने भिक्षापात्र का वास्तविक स्वरूप बताया तो वह उन्हें कटु लगा और शक्ति में मत्त वे महामुनि को मारने लगे । तत्काल पक्षों ने मुनि की रक्षा की और मारने वालों को उचित्त दंड दिया। इस प्रकार मुनि के तपस्तेज का चमत्कार देखकर सब लोग हैरान रह गए और कहा: सक्खंखु दीसई तवोविससो, न दीसई जाइविसेसेसुकोई । सोवागपुत्तं हरिएस साहुं, जस्सेरिसा इढि महाणभागा ॥३७॥ अर्थात्: तप की विशेषता साक्षात् दिखाई देती है और बाति की विशेषता कहीं दिखाई नहीं देती । और चाण्डाल का पुत्र होकर भी हरिकेशी मुनि तपश्चर्या के प्रभाव से इतनी बड़ी ऋद्धि को प्राप्त इस प्रकार जैन शास्त्रों में जहां भी वर्ण व्यवस्था का प्रकरण आता है । वहां वर्ण व्यवस्था कर्म से ही मानी गई है । जन्म को कोई महत्व नहीं दिया जाता। निस्सन्देह उत्तम कुल में उत्पन्न होना अाज की तरह अच्छी दृष्टि से देखा जाता था किन्तु समाज में श्रादर पाने के लिए उत्तम कुल में जन्म के साथ २ उत्तम गुणों का होना भी जैन समान में परमावश्यक था। कर्मगत वर्ण व्यवस्था की मर्यादा को बैन धर्म के श्रादि तीर्थकर भगवान् ऋषभ Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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