________________
.( ६४ )
• स्वामी ने . बांधा था और उनके प्रवचन को अन्तिम तीर्थकर भगवान् महावीर स्वामी तक सारे तीर्थकर. श्रावक रूप से मानते और प्रचार करते रहे हैं। इसी सत्य की पुष्टि "जैन विद्या नामक पत्र में भगवान् महावीर स्वामी के जीवन पर लिखे लेख में जैन विद्वान् मुनि श्री कवि अमर चन्द बी "अमर" • ने भी की है।
श्राप लिखते हैं:.. "तत्कालीन शूद जातियों को भी भगवान् के द्वारा बड़ा सहारा प्राप्त हुश्रा । भगवान् वहां भी गए वहां सर्व प्रथम एक ही संदेश ले गए कि मनुष्य जाति एक है उसमें जातपात की दृष्टि से विभाग की कल्पना करना किसी प्रकार भी उचित नहीं । ऊंच नीच के सम्बन्ध में भगवान के विचार कर्म मूलक थे, जाति मूलक नहीं । भगवान् श्राज के उपदेशकों के समान मात्र उपदेश देकर ही रह गए हों यह बात नहीं । हरिकेशी जैसे चाण्डालो को अपने भिक्षु संघ में सम्मानपूर्ण अधिकार देकर उन्होंने जो कुछ कहा वह करके भी दिखा दिया । श्रागम साहित्य में एक उदाहरण ऐसा नहीं..मिलता . जहां भगवान् किसी राजा महाराजा अथवा ब्राह्मण क्षत्रिय, के महलों में विराजे हों। हां पालासपुर में शब्दाल कुम्हार के यहां, विराजना उनकी पतित बन्धुता का वह उज्ज्वल श्रादशं है जो कोटि कोटि वर्षों तक अबरः अमर रह करे संसारको समभाव' का पाठ पढ़ाता रहेगा।" . . . .
इस प्रकार शास्त्रीय ऐतिहासिक तथा अन्य प्रमाणों से शठकों , को यह भलीभाँति पता चल गया होगा कि अनादिकाल से
जैन धर्म में वर्षयवस्था की मर्यादा कर्म मूलक ही..ही है। बन्म : मूलफ नहीं। श्रावकल कार्यरूप में बो बन्म मूलक बनी हुई है यह
Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com