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इतर धर्मो का इस पर प्रभाव है । जैन समाज को चाहिए कि वह अपने उच्च सिद्धान्तों को कभी न भूले |
॥ बौद्धों में वर्णव्यवस्था ||
चौद्ध जातकों में (वा) अर्थात् वर्ण शब्द तो श्राता है किन्तु उसका प्रयोग जाति के अर्थ में नहीं किया गया । "वण्णा" इस शब्द से बौद्ध काल में वर्णव्यवस्था का अस्तित्व तो स्पष्ट प्रतीत होता है किन्तु बौद्धों की वर्णव्यवस्था भी जैनियों की तरह कर्ममूलक थी जन्म मूलक नहीं । कोई भी मनुष्य उत्तम कर्म से उत्तम वर्ण का बन सकता था । बौद्धधर्म में सब से उत्तम धर्म क्षत्रिय का और फिर क्रमेण ब्राह्मण वैश्य और शूद्र का माना जाता है । इस व्यवस्था में भी बौद्धधर्म जैन धर्म से बिल्कुल समानता रखता है । जैन धर्म में भी वास्तव में उत्तम वर्ण क्षत्रिय का माना है । लघ्वई नीति श्रादि राजनैतिक तथा अन्य अनेक जैन धर्म ग्रन्थों में यद्यपि वर्ण व्यवस्था का क्रम ब्राह्मण क्षत्रिय वैश्य शूद्र ही दिया है जिससे वैदिक वर्णव्यवस्था का ही पुष्टिकरण होता है किन्तु श्रादि तीर्थंकर भगवान् ऋषभ स्वामी का मन्तव्य बिन्होंने सर्वप्रथम र्निग्रन्थ प्रवचन के अनुयाइयों को मर्यादा में बान्धा था उक्त सिद्धान्त को पोषण नह करता । श्रादिपुराण में लिखा है कि क्षत्रिय वैश्य और शूद्र इन तीनों वर्णों की व्यवस्था ऋषभ देव ने और ब्राह्मण वर्ण की व्यवस्था ऋषभ देव के पुत्र भरत ने की थी। जिस प्रकार ऋग्वेद में ब्राह्मणोऽस्य मुखमासीत्, इत्यादि मंत्र से यह स्पष्ट है कि ब्रह्मा के मुख से ब्राह्मण भुजानों से क्षत्रिय, उरु से वैश्य और पैरों से शूद्र पैदा हुए उसी प्रकार की इन चार वर्णों की उत्पत्ति जैन ग्रन्थ श्रादि पुराण में भी बताई गई है । श्रादि पुराण में लिखा है कि ऋषभदेव ने हाथ
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