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अनि में वही पर्वत ठहरता है । स्वनि विषयिता निरूपित विषयता सम्वन्ध से ग्रंथ में ज्ञान निवास करता है, साथ ही स्वनिष्ठ विषयिता निरूपित विषयिता सम्बन्ध से ज्ञान में अर्थ ठहर जाता है । जन्यत्व सम्बन्ध से बेटे का बात है । उसी समय जनकत्व सम्बन्ध से बार का बेटा है । सनत्राय सम्बन्ध से डालियाँ वृक्ष है, तदैव समवेतस्व सम्बन्ध से वृक्ष में डालियां हैं ।
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यों धर्मोका धर्म बन जाना और धर्म का धर्मी बन जाना जैन दर्शन के सिद्धान्त के अनुसार कोई विरोध नहीं रखता है अग्नि में दारुकत्व, पाचकत्व, स्फोटकत्व, शोषकत्व, प्रकाशत्व धर्मों के साथ ही शैत्यसम्पादकत्व धर्म भी है । अग्नि से फुरसे हुए को से ही सेका जाता है । 'विषस्य विषमवम्' गर्मी का इलाज गर्मी ही है । जल से सोंचने पर तो घात्र में चौगनी दाह बढ़ जाती है । जल से बमाई बर्फ के टुकड़े २ में गर्मी घुड़ी हुई है, समुद्र में बड़वानल है ।"
इससे पाठकों को भली भांति स्पष्ट होगया होगा कि विरोधी धर्म एक स्थान में रह सकते और रहते हैं । संसार के सब पदार्थ अनेक धर्मात्मक है अतः उनको अनेकान्तवाद की दृष्टि से देखना ही अनेकान्तवाद का सार है । इसी श्रनेकान्तवाद को स्याद्वाद भी कहते हैं । स्यात् शब्द का अर्थ है 'कथंचित्' या किसी की अपेक्षा से । इसलिये बहुत से लोग अनेकान्तवाद को कथंचिद्वाद और अपेक्षावाद के नामों से भी पुकारते हैं किन्तु सिद्धान्त वास्तव में एक ही है ।
सप्त भंगी ।
इसी स्याद्वाद को जैन दर्शन में सप्तभंगी के रूप में वर्णन किया है । वस्तु और उसके प्रत्येक धर्म का विधान और निषेध सापेक्ष होने के कारण वस्तु और उसके धर्म का प्रतिपादन सात प्रकार से किया जा सकता है । जैसे:
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