________________
( १९४)
है किन्तु भिन्न २ पार्थिवांश का संयोग होने से भिन्न २ रूप को धारण करता है । वही जल निम्बू के पौधे को दिया हुआ स्वहा हो जाता है, अगूर की लता को सींचने से मीठा हो जाता है और अफीम के पंधेि में जाकर कटु हो जाता है किन्तु बल वास्तव में एक ही है । चन्द्रमा एक ही है कि तु तालाब नदी और समुद्रादि में प्रतिबिम्ब पड़ने से अनेक भासता है। ठीक इसी प्रकार एक ही ब्रह्म भिन्न २ ब वों के रूप में अनेक भासता है । जीवात्मा के लिये इस संसार का अस्तित्व तभी तक है जब तक वह अविद्या या माया के प्रावरण से प्रान्छ:दित है । उस आवरण के दूर होते ही वह ब्रह्मरूप होजाता है। यही अद्वैतवाद
सांख्य में प्रकृति और पुरुष ।
वेदान्त दर्शन में जिस प्रकार ब्रह्म और माया की प्रधानता है इसी तरह से सांख्यदर्शन में प्रकृति और पुरुष की प्रधानता है । अखिल चर और अचर, सूट और सहार का विवेचन करने के पश्चात् सांख्य इस निर्णय पर पहुंचता है कि अन्त में पुरुष और प्रकृत ये ही दो स्वतंत्र तथा अनादि मूलतत्व अवशिष्ट रहते हैं। पुरुष को मोक्ष प्र.प्ति तथा सब दुःखों की निवृत्ति के लिये प्रकृति से अपनी भिन्नता अननी आवश्यक है और त्रिगुणातीत होना परमावश्यक है। जैसे क्षेत्र और क्षेत्र विचार के परिणामस्वरूप द्रम या पुरुष का. निश्चय होता है इसी प्रकार क्षर एवं अनर जगत् के विचारो परिणाम स्वरूप सत्व, रज, तम इस त्रिगुणात्मक प्रकृतिः - अन क्षेम है। पुरुष और प्रकृति से दोनों तत्व एक दूसरे से भिव। पुरुष पेवन
है और प्रकृति जड़ है। चेतन पुरुष बड़ पति के नाप. संयोग Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat
www.umaragyanbhandar.com