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________________ ( १६५ ) होने से इस परिदृश्यमान जगत् की रचना होती है। वास्तव में पुरुष तो एक ही है किन्तु त्रिगुणात्मक प्रकृति के साथ संयोग होने से असंख्यरूप में भासता है । पुरुष निर्गुण है और प्रकृति सगुण है पुरुष के लाभ के लिये प्रकृति पुरुष के सामने अपना खेल खेलती है । बहुत से विद्वानों ने प्रकृति पुरुष की सत्ता को मानते हुए उन दोनों से परे परमात्म तत्त्व की सत्ता को माना है। उनका कथन है कि प्रकृति और पुरुष ये परमात्म तत्त्व की ही विभूतियें हैं । महर्षि बेदव्यास सांख्य का वर्णन करते लिखते हैं:हुए - उत्तमः पुरुषस्त्वन्यः परमात्मेत्युदाहृतः । यो लोकत्रयमाविश्य बिभर्त्यव्यय ईश्वरः ॥ गीता १५ | १७ अर्थात् जो पुरुष और प्रकृति इन दोनों से भी भिन्न है वही उत्तम पुरुष है । उसी को परमात्मा कहते हैं । वही अव्यय और सर्वशक्तिमान् है । बोबों लोकोंमें व्यापक होकर उनकी रक्षा वही करता है । यहां प्रकृति और पुरुष दोनों से परे एक तत्त्व को स्वीकार किया गया है जो दोनों से श्रेष्ठ है और इसी कारण पुरुषोत्तम है । इस प्रकार दर्शनशास्त्र के बहुत से विद्वानों ने प्रकृति, पुरुषोत्तम इनको क्रमेण जगत्, जीव और ईश्वर माना है । पुरुष और न्वाय शास्त्र में ईश्वर की परिभाषा । न्याय सिद्धान्त में ईश्वर को निराकार, सर्वज्ञ, जीव के प्रदृष्ट का फलशता, नित्य प्रयत्न और निस्य ऐश्वर्य सम्पन्न माना है । वह परमकारुणिक और सारे विश्व के लिये पितृतुल्य है । वह यज्ञादि Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com
SR No.035261
Book TitleShraman Sanskriti ki Ruprekha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorPurushottam Chandra Jain
PublisherP C Jain
Publication Year1951
Total Pages226
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size12 MB
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