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मन्दिर में भगवान की प्रतिमा के दर्शन करने से और स्थानक में बैठ कर भगवान् का चिन्तन करने से अन्त:करण निर्मलता की ओर बढ़ता है । आत्मा भगवान् के गुणों को अपनाने लगता है और राग द्वेष दि विकारों को त्यागने का प्रयत्न करने लगता है। श्रात्मा में विवेक शनि का विकास होने लगता है अं.र आत्मा अपनी अशुद्ध के मूल कारण श्रज्ञान और मोह से छुटकारा पाता है। श्रात्मा की उन्नति प्रारम्भ होती है और वह पूर्णता की ओर बढ़ने लगता है । परमात्मा में जो गुण हैं वे अत्मा में भी हैं किन्तु राग द्वेषादि के प्रावरण के कारण वे छिपे हुए है । भगवान् के पूजन या चिन्तन करने से श्रात्मा उस पथ की ओर बढ़ने लगता है वहां राग द्वेषादि का पर्दा अत्मा से दूर हः जाता है। भगवान् के निरन्तर अर्चन या चिन्तन में आत्मा अपने वास्तविक स्वरूप को समझने लगता है । अतः आध्यात्मिक उन्नति और मानव जवन के कल्याण के लिये भ वान् का पूजन, चिन्तन. स्मरण और कीर्तन नितान्त श्रावश्यक
बौद्ध धर्म में ईश्वर की मान्यता ।
महात्मा बुद्ध ने ईश्वर के अस्तित्व और नास्तित्व में पड़ना ही ठीक नहीं समझा। ईश्वरीय ज्ञान को मानना यां न मानना यह बौद्ध दृष्टिकोस से कोई आवश्यक या महत्त्वप्रद सिक्षात नहीं है। यह संसार कब प्रारम्भ हुआ, इसका कब अन्त होगा, यह किसी ने बनाया यह अनादि और अनन्त है, इस प्रकार के वादविवाने को बुद्ध मिरर्थक और मूर्खतापूर्ण समझते थे तो विरोष तारामसुधार पर और संयम पालन पर देते थे। जब कभी भी उनके शिष्यों ने इस प्रकार के संसार की उत्पति विषषक प्रम उनसे पूछे उन्होंने
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