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जीव में व्यापक है, जो 'बोधिचित्त' है, जो अपनी सूक्ष्म अवस्था को प्राप्त होकर संस्कारों और कर्मों से होने वाले घेरों को तोड़ कर निर्माण पद को प्राम करती है। यह नश्वर सम्बन्ध कर्मानुसार स्थूल और सूक्ष्म होचाता है और क्षण-क्षण में परिवर्तन होता रहता है।
नित्य सत्य। महात्मा बुद्ध ने कहा था कि-'नात्र सच्चानि बहूनि नानानि' अर्थात्-इस संसार में नाना प्रकार के बहुत सत्य नहीं हैं । नित्य सत्य संख्या में बहुत थोड़े से ही हैं। उन नित्य-सत्यों के अनुसार चलकर ही मनुष्य सच्चे मार्ग की ओर बढ़ता है। श्रज्ञानान्धकार का नाश करने वाली ज्योति उन्हीं से मिल सकती है और जीवन का वास्तविक लक्ष्य या ध्येय फलीभूत होसकता है। दर्शनों को प्रामाणिक मानने पाले भी अपने २ दर्शनों के मोह रूप चक्कर में फंसे रहते हैं। तर्क भी अप्रतिष्ठ है अतः दर्शन हानिकारक है।
निस्सन्देह बह बात काफी हद तक ठीक भी मालूम होती है किन्तु दर्शन के अभाव में श्रान्तरिक ज्ञान प्राप्त करने का और कोई साधन भी तो दिखाई नहीं देता। इसी प्रकार के सिद्धान्तों और प्रश्नों का चक्रव्यूह महात्मा बुद्ध के शिष्यों में भेद डालने का कारण
ना। उन के शिष्य बाद में दो वर्गों में बँट गए । सर्वप्रथम बौद्धधर्म के दो सम्प्रदाय हुए जो हीनयान और महाबान के नाम से प्रसिद्ध है। हीनयान में भी 'वैभासिक' और सौत्रांतिक नाम के दो भेद हुए । वैसे ही महायान में योगाचार और माध्यमिक नाम के दो वर्ग हुए ।
धर्म निकाय । ईश्वर शब्द का प्रयोग बौद्धदर्शनों में नहीं किया किन्तु उसके
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