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ही पैदा नहीं होता जब कि विवाह के लिये स्वयंवर की प्रथा सबसे उत्तम मानी जाती है । कन्या और वर दोनों को अधिकार था कि वे अपने २ गुण, कर्म, और स्वभाव के अनुकूल स्वयंवर में अपना जीवनसंगी या जीवनसंगिनी चुनें।
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ज़ैन सभ्यता काल में सामाजिक जीवन इतना ऊँचा और आदर्श था कि जिस की प्रशंसा किये बनती है । लोग विपरीत कारणों के सद्भाव में भी मर्यादा का उलंघन नहीं करते थे जहां गुण होंगे वहां दोष भी हो सकते हैं, भूल पुरुष भी करता है और स्त्री भी । हो जाती हैं कोई सभी सर्वंश तो होते नहीं । ऐसी स्थिति में अपने में होने वाली अनेक भूलों की उपेक्षा करके दूसरे की भूल देखकर उस से घृणा करना यह छोटेपन की निशानी है । जैन धर्म ने इन बातों में बड़ी विशालता दिखाई है । यदि कोई स्त्री भूल से या अज्ञानता से सन्मार्ग से फिसल जाती थी तो “समाज उस से घृणा का व्यवहार नहीं करता था । उस को भी अन्य स्त्रियों की भाँति धर्म कार्य करने की पूरी स्वतन्त्रता थी । जैन पुराण में एक कथा आती है कि चंपा नगरी में एक कनकलता नाम की स्त्री थी । उस का एक युवक से अनुचित प्रेम हो गया था । वे पति पत्नी की तरह प्रत्यक्ष रूप से रहने भी लग गए थे तो भी समाज के लोग उन से घृणा नहीं करते थे । दोनों अपने अनुचित सम्बन्ध में लजित प्रवेश्य थे किन्तु मुनियों के व्याख्यान सुनने जाते थे । उन्हें दान देते थे और देवपूजनादि सत्र धार्मिक कृत्य निरंतर किया करते थे। इसी प्रकार अराधना कथाकोष में भी एक ऐसा ही रान्त मिलता है । ज्येष्ठा नाम की एक आर्यिका अपने आचरण से हो गई थी उसे प्रायश्चित्त कराकर पुनः दीक्षा
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दे दी गई थी। लोग पूर्ववत् ही उस में श्रद्धा रखते थे । इस से यह स्पष्ट है कि जैन समाज में अज्ञानवश आचरण तक से
पतित होने वाली
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