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अनेक प्रकार की शिल्पकलात्रों का आविष्कार भी उन्होंने किया। सामाजिक सुव्यवस्था के लिये उन्होंने अनेक नियम बनाये और अनुशासन तथा मर्यादा में रहकर उनका पालन करना लोगों को सिखाया । जब उन्होंने अनुभव किया कि उनका बड़ा पुत्र राज्यभार संभालने में और प्रजापालने में पूर्णरूप से समर्थ होगया है तो वे राज्यभार उस को सौंप कर और स्वयं सव कुछ त्याग करके चले गये और तपश्चर्या करने लगे। इस प्रकार अनादि परंपरा से चली आई श्रमण सस्कृति के निर्माण में आदितीर्थंकर श्री ऋषभ देव स्वामी का कितना हाथ है यह पाठक स्वयं अनुमान कर सकते हैं ।
श्रमण संस्कृति की महानता ।
इस प्रकार श्रमण संस्कृति का वाह्य रूप लोगों को भले ही अाकर्षण करने वाला न लगे किन्तु उस का अान्तरिक स्वरूप बड़े ही महत्व का है। अान्तरिक स्वरूप के महत्त्व का कारण यही है कि इसकी
आधारशिला आध्यात्मिकता है। संसार की अन्य संस्कृतियां वाह्याडम्बर, टीप टाप भौतिकवाद, राजनैतिक चातुर्य और कूटनीतिज्ञता में विश्वास करती हैं किन्तु श्रमण संस्कृति वाह्यरूप में सरलता, निःस्पृहता
और अहिंसा में विश्वास करती है। श्रमण संस्कृति की नींव प्राध्यस्मिता , तपस्या, त्याग, सत्य और विश्व प्रेम पर रखी गई है । पं०
श्री राजीवि नोचन जी अमिहोत्री ने जो भारतीय संस्कृति पर निम्नलिखित पंक्तियां लिखी हैं वे श्रमण संस्कृति पर पूर्णरूप से घटित होती हैं:
“संसार के सभी प्राणियों को प्रात्मवत् मान कर उन से प्रेम, करुणा, उपकार; क्षमा, अहिंसा, और सहिष्णुता का भाव
* हि सं. अं. पृ० ४१० ।
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