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प्रमहंश
श्री शंखेश्वरपार्श्वनाथाय नमः । हिन्दी विवेचन विभूषित स्यावादकल्पलताव्याख्यालंकृत १४४४ ग्रन्थप्रणेत-बहुमुखप्रतिभासम्पन्न-तकसम्राट्
जैनाचार्य श्री हरिभद्रसूरीश्वरजी विरचित 卐 शास्त्रवार्तासमुच्चय ॥
स्तबक-५-६ [ बौद्धमत समीक्षा
व्याख्याग्रन्थ रचयिताःन्यायविशारद-न्यायाचार्य-महामहोपाध्याय श्री यशोविजय गणिवर्य
अभिवीक्षणकार :उग्र तपस्वी, न्यायदर्शनतत्त्वज्ञ धर्मसंरक्षक जैनाचार्य श्रीमद् विजय
भुवनभानुसूरीश्वरजी महाराज
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हिन्दी विवेचन कार :षड्दर्शनविशारद पंडितराज न्याय-वेदान्ताचार्य
श्री बदरीनाथ शुक्ल
भूतपूर्व कुलपति संपूर्णानन्द संस्कृत विश्व विद्यालय, बनारस (यू. पो.)
प्रकाशक :
दिव्य दर्शन ट्रस्ट ६८, गुलालवाड़ी, बम्बई-४००००४
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प्रस्तावना
जगत् में अनेक धर्म हैं और सभी धर्म के प्रस्थापक अपने धार्मिक सिद्धान्तों की पुष्टि के लिये तर्क और प्रमाण की बातें करते हैं। सभी के सिद्धान्त भिन्न भिन्न होते हैं तथा उनके समर्थक, तर्क - दृष्टान्त आदि भी अलग अलग होते हैं। सब अपने अपने दृष्टिकोण से बात करते हैं। याद और प्रतिवाद एवं चर्चा का कमी अन्त नहीं आता । सत्य के जो जिज्ञासु एवं उपासक होते हैं वे भी मतिमंदता के कारण उन वाद-विवादों के बाद भी सम्यक निर्णय कभी कभी नहीं कर पाते । आचार्य श्री हरिभद्रसूरि महाराज तत्व का यथार्थ निर्णय करने में करुणा बुद्धि से सहाय करने के लिये शास्त्रवार्ता समुच्चय प्रन्य रचना में प्रवृत्त हुए ।
इस ग्रन्थराज में उन्होंने अपने काल तक विद्यमान प्रायः सभी वर्शनशास्त्रों के सिद्धान्तों, उनके पक्ष और प्रतिपक्ष को मनोहर ढंग से प्रस्तुत किया है। न इसमें उन्होंने कोई कदाग्रह रखा है, न किसी के प्रति दुर्भाव व्यक्त किया है, केवल शुद्ध बुद्धि से सत्य और तथ्य क्या है इस दिशा में अंगुलिनिर्देश कर रखा है। चौथे स्तबक में बौद्धमत के पक्ष और प्रतिपक्ष का निरूपण किया है । स्तबक ५ और छः में भी बौद्धमतवार्त्ता हो प्रवाहित है। महोपाध्याय श्रीमद् यशोविजय महाराज ने अपनी व्याख्या स्याद्वादकल्पलता में मूल के प्रतनिहित आशय को अच्छे ढंग से उद्भासित किया है।
मंगलाचरण के बाद पांचवे स्तबक में विज्ञानाद्वैतवादी योगाचार बौद्धमत का प्रतिक्षेप करते हुए यह कहा गया है कि बाह्यार्थ के प्रभाव का साधक कोई प्रमाण नहीं है, क्योंकि बौद्धमत में प्रत्यक्ष तो अभाव का स्पर्श ही नहीं करता और अनुमान के लिये कोई सम्यक् लिंग नहीं है । अनुप से प्रभाव की उपलब्धि शक्य तभी होती है जब प्रतियोगि से मिल उसके उपलम्भक हेतुओं का सद्भाव रहे, उनके रहते हुए बाह्यार्थ का सर्वथा कालिक अभाव सिद्ध होना दुष्कर ही हैं, क्योंकि जो अर्थ उपलब्धिलक्षण प्राप्त होता है उसकी उनके उपलम्भक हेतुओं से उपलब्धि होती ही है ।
इस प्रसंग में व्याख्याकार ने उपलब्धियोग्यता का भिन्न भिन्न निर्वचन विस्तृत चर्चा के साथ प्रस्तुत किया है । [ दे० पृष्ठ ८ से २७ ] इसमें उदयताचार्य और चिन्तामणिकार के निर्वचनों का प्रतिवाद किया गया है। अंत में, बौद्ध की ओर से प्रस्थापित अभाषाकार ज्ञान में तत्तत्कुर्वद्रूपसमन्तरप्रत्यय को हेतुता का व्यख्याकार ने निराकरण कर दिया है।
तदनन्तर, प्रत्यक्षत्व को हेतु बना कर 'घटादि ज्ञानभिन्न नहीं है' ऐसा जो अनुमान बौद्ध ने प्रस्तुत किया है [ वे० पृष्ठ २८ से ४२ ], उसकी विस्तृत समीक्षा में उत्तर पक्ष में यह कहा गया है कि विज्ञान की स्वसंवेद्यता अर्थग्रहण के साथ संलग्न ही है, अतः बाह्यार्थ सिद्ध हो जाता है । [ दे० पृष्ठ ४३ से ५७ ]। इसमें बौद्ध की सहोपलम्भ नियम की युक्ति का निराकरण, कर्म-कर्तृ
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भाव प्रतीति का समर्थन, प्रगतिले पूर्टोर ? वास्तु के एकत्व जो जापत्ति, सुखादि और ज्ञान के अमेदवाद का खण्डन इत्यादि दृष्टव्य है।
पुनः बाह्यार्थसिद्धि में, 'मैं घट को जानता हूं' यह प्रतोति, घटावि में प्रवृत्ति, उसको प्राप्ति, उससे साध्य अर्थक्रिया का योग, स्मति और कौतुकमाघ ये छः हेतु [ का० १३ में ] का उपन्यास किया है। विपक्ष में यह दोष दिखाया है कि [फा०१४ ] जगत् को शाममात्ररूप मानने पर लौकिक
और शास्त्रीय सभी प्रकार की प्रवृत्ति का उच्छेद हो जाएगा । का० १५ में यह प्रश्न किया है। कि सन्तानान्तर वृत्ति ज्ञान और प्रथं दोनों में विज्ञानान्तर से असंवेदनावि तुल्य होने से केवल बाह्मार्थ का प्रवेष क्यों ?
अर्थ के ऊपर जैसे विविध विकल्प लगा कर उसकी असत्ता दिखायी जाती है, ज्ञान के लिये मी वैसे विकल्प सावकाश है-का० १७ और १८ से ज्ञान के ऊपर ग्राह्यस्वभावसा, ग्राहकस्वभावता, उभयस्वभावता और अनुभयस्वभावता ये चार विकल्प ऊठाकर व्याख्याकार ने कुशलता से उनका निराकरण दिया है। इसमें बौबवावी देवेन्द्र के चित्रज्ञानवाद को समालोचना को गयो है, [दे० पृष्ठ ६७ से ७४ ] तदनन्तर पुनः बौद्ध ने विज्ञानमात्र की सिद्धि के लिये यह युक्ति लडाई है कि विज्ञान एकमात्र प्रकाशस्वभाव और अकर्मक है, अतः स्व प्रकाश होने से वह अद्वय है। शयनादि लिया जैसे अकर्मक होती है बंसे ज्ञानक्रिया भी अकर्मक ही है फिर भी उसका सकर्मक प्रयोग होता है यह वासना मूलक है । इस युक्ति के विरुद्ध प्रन्यकार का यह सुझाय है कि उक्त मत में कोई प्रमाण है या नहीं यह स्वयं ही सोचिये। यदि ज्ञान अकर्मक ही होगा तो जैसे शयनावि क्रिया स्वप्रकाशक नहीं होती उसी प्रकार ज्ञान भी अपना प्रकाश नहीं कर पायेगा। यदि उसे स्वप्रकाश हो मानना है तो अकर्मकता कैसे होगी ? अन्य ज्ञान से भी उसको स्वप्रकाशता तभी सिद्ध हो सकती है यदि उस दूसरे ज्ञान को सकर्मक माना जाय, अन्यथा नहीं । २८ वो कारिका तक प्रकर्मफरव का निराकरण करके २६ वीं कारिका से ३८ कारिका तक विज्ञानवाद में संसार-मोक्ष के अविशेष हो जाने को आपत्ति का प्रस्थापन करके उपसंहार में यह कहा गया है कि विज्ञानवाद युक्तियुक्त न होने से उसमें प्राज्ञ पुरुषों का अभिनिवेश नहीं होना चाहिए।
[ स्तवक ६ का अभिधेय ] मंगलाचरण के बाद व्याख्याकार ने बौद्ध प्रयुक्त नाशहेतुअयोग आदि चार हेतु (दे० स्तबक
'मीक्षा का मल कारिका के आधार पर प्रारम्भ किया है। यहां से २३ कारिका में नाशहेतु अयोग कर, कारिका २४ से ३० तक अर्थक्रियासमर्थत्व द्वितीय हेतु का, ३१ से ३७ तक परिणाम हेतु का और ३ से ४४ तक 'अन्ते क्षयेक्षण चतुर्थ हेतु का प्रतिक्षप किया गया है।
नाशहेतुअयोग के प्रतिक्षेप में यह कहा है कि भाव स्वतः नश्वर या अनश्वरस्वभाव नहीं किन्तु नाशकसापेक्षनश्वरस्वभाव मानने पर नामहेतुयोग घट जाता है जैसे कारण सापेक्ष उत्पत्ति मानी जाती है। १२वीं कारिका में यह भी एक प्रधान दोष दिखाया है कि यदि नाश । मानेंगे तो कोई किसी का कहीं भी घातक हिसक नहीं रहेगा । १६ वी कारिका से एक प्रतिबन्दी उत्तर भी अन्य मत से प्रस्तुत किया है कि वस्तु को उत्पत्ति को हेतुसापेक्ष मानने पर चार विकल्प शक्य हैं हेतुतथा अभिप्रेत भाव क्या सत्स्वभाव वाले अन्य का जनक होता है ? या असत्स्वभावजन्य का? या उभयस्वभावजन्य का ? अथवा अनुभयसमावजन्य का जनक होता है ? पश्चाद्
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M.
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इन चारों विकल्प का खण्डन किया गया है। दूसरे हेतु अर्थक्रियासमर्थत्व के लिये कहा है कि क्षणिक भाव क्षणमात्रस्थायी होने से उससे अर्थक्रिया की शक्यता ही नहीं हैं, क्योंकि अर्थक्रिया न तो स्वजनक स्वरूप हो सकती है, न तो स्वजनकान्यरूप हो सकती है । ३० वीं कारिका की व्याख्या में स्थिर पदार्थ सेक्रम से और युगपद् अर्थक्क्रिया का सम्भव न होने से क्षणिक में उनको विश्रान्ति होती है इस बौद्ध अभिप्राय का विस्तार से निराकरण किया गया है, तथा सामग्री पदार्थ की समीक्षा भी मननीय है ।
परिणाम हेतु के निराकरण में कहा गया है कि बाल-कुमारादि अवस्थाओं के विभिन्न होने पर भी शरीरावि भाव सर्वथा परिवर्तित नहीं होता किन्तु विद्यमान रहता हैं। क्योंकि परिणाम को यह व्याख्या शिष्टमान्य है कि 'सर्वया अर्थान्तर भाव को प्राप्त न हो जाना और कुछ अंश में प्रर्थातर भाव को प्राप्त होना' यही परिणाम है । श्रतादवस्थ्य यह अनित्यता का लक्षण नहीं है। क्षीर और वधि में गोरस के धन्बय से परिणाम का समर्थन किया है । का० ३७ की व्याख्या में वस्तु की स्थिरता सिद्ध करने पर भी वह नित्याऽनित्य क्यों मानी जाय ? इस वैशेषिकों के प्रश्न का सपूर्वोत्तरपक्ष विस्तृत समाधान दिया गया है। ३ से, तित्यानित्य उभयस्वरूप वस्तु न मानने वाले वैशेषिकों के प्रति चित्ररूप की एकानेकरूपता प्रस्तुत की गयी है। यहाँ प्रसंगतः दार्शनिकों में अति विवादास्पद चित्ररूप को विस्तृत मीमांसा व्याख्याकार के अप्रतिम बुद्धि कौशल का साक्षी है ।
'अन्ते क्षक्षण' इस चतुर्थ हेतु के प्रतिक्षेप में [ का० ३८ ] कहा गया है कि भावमात्र तथास्वभाव यानी 'अन्त में नष्ट हो जाना' इस प्रकार के हो स्वभाववाला होता है अतः क्षणिकत्वसिद्धि प्रयुक्तिक है। यदि प्रारम्भ में हो उसका नाश मानें तो अन्तकाल में नाशदर्शन की उपपत्ति नहीं होगी। यह जो बौद्ध कहता है कि समानवस्तुग्रह से अवरोध के कारण अचरमक्षणों में नाशदर्शन नहीं होता - इसके प्रतिक्षेप में कहा है कि सादृश्य मेदानुविद्ध होता है अतः प्रतिक्षण वस्तुभेद का ग्रह न होने पर समान वस्तु ग्रह भी शक्य नहीं है।
४५ वीं कारिका से क्षणिकवाद में, क्षणिक ज्ञान से अर्थग्रह और क्षणिकत्वग्रह की अनुपपत्ति अनुमान से क्षणिकत्वग्रह को अनुपपत्ति, नित्य वस्तु में अर्थक्रियायोग को अनुपपत्ति इत्यादि दूषण दिखाये गये हैं ।
इस प्रकार स्तबक ४-५ और ६ में बौद्धमत को समालोचना पूर्ण करके उपसंहार में, बौद्ध का क्षणिकत्व-उपदेश और विज्ञानवाद का समीचीन तात्पर्य क्या हो सकता है इस पर मीमांसा करते हुये ग्रन्थकार ने यह दिखाया है कि विषयों पर होने वाली आसक्ति को तोड़ने के लिये क्षणिकत्व का उपदेश उचित है । एवं बाह्य धन-धान्यादि में सतत रत रहने वाले लोगों को ज्ञान समान महत्त्वपूर्ण गुण की ओर ध्यान खांचने के लिये ज्ञाननय का प्रश्रय लेकर विज्ञानवाद का निरूपण भी उचित है ।
५४ व कारिका से प्रत्थकार ने शून्यवादी माध्यमिक के मत की प्रालोचना का प्रारम्भ किया है। शून्यवादी कहता है-भाव न तो नित्य हो सकता है, न अनित्य । उत्पाद- नाशादि की बुद्धि कुमारी स्त्री के पुत्र 'जन्मादि के स्वप्नवत् मिथ्या है । ५६ वीं कारिका को व्यास्था में व्याख्याकार ने माध्यमिक मत र पूर्वपक्ष विस्तार से स्थापित किया है। उसका निष्कर्ष यह दिखाया है कि सर्वधर्मशून्य मध्यमक्षणात्मक संवित् ही परमार्थ सत् वस्तु हैं और कुछ नहीं । ५७ वीं कारिका से इस माध्यमिक मत का खण्डन प्रारम्भ होता है जिसमें माध्यमिक को यह पूछा गया हैं कि आपके मत में कोई प्रमाण है क्या ? यदि प्रमाण है तो वही सत् सिद्ध हो जाने से शून्यवाद का भंग होगा, यदि प्रमाण नहीं
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है सो आपका मत स्वयं अप्रमाण घोषित हो जाता है। शून्यता साधक प्रमाण को ही केवल माना जाय तो भी इष्ट सिद्धि नहीं होगी क्योंकि प्रमाण प्रतिपादन के लिये प्रतिपाद्य, जिसके प्रति शून्यता का प्रतिपादन किया जाता है वह भी मानने के लिये बाध्य होना पड़ेगा अन्यथा प्रतिपादन का परिश्रम ही व्यर्थ हो जायगा। प्रतिपाद्य को मानेंगे तो प्रश्नकर्ता इत्यादि अनेकों को भी मानना ही होगा। इस प्रकार शून्यता ही शून्य हो जायगी। का०६२ की व्याख्या में पुनः ध्याख्याकार ने विस्तार से शून्यवाद का पूर्वपक्ष स्थापित करके अन्त में उसका सयुक्तिक निराकरण कर दिया है । ग्रन्थकार ने अन्त में का० ६३ में शून्यवाद का तात्पर्य यह दिखाया है कि तथा प्रकार के विनेय शिष्य का इसी में प्रानुगुण्य=हित देख कर शून्यवाद का उपदेश दिया गया है।
इस प्रकार स्तबक ४-५-६ में बौद्धमत का विस्तत पूर्णपक्ष और ग्रन्थकार का उत्तर पक्ष प्रतिपादित है । विस्तृत विषयसूचि देखने से सदों को विशेष जिज्ञासा पूत्ति हो सकेगी।
प्रस्तुत विभाग के अभ्रान्त सम्पावन में प० पू० सिद्धान्त महोदधि स्व. आचार्यदेव श्रीमद विज मसरश्वरजी महाराज, एवं उनक पटालंकार न्यायविशारद प.प. आचार्यदेव श्री विजय भुवनमानुसूरीश्वरजी महाराज, तथा उनके प्रशोज्य गीतार्थरत्न आचार्यकल्प पू० पंन्यास श्री जयघोषविजयजी गणिवर्य की महती कृपा साधन्त अनुवर्तमान रही है जिसके प्रभाव से यह विभाग स्तबक ५-६ सम्पादित-प्रकाशित हो कर अधिकृत मुमुक्षुवर्ग के करकमल में सुशोभित हो रहा है। आशा है, इस विभाग के अध्ययन से हम सब एकान्तवाद का परित्याग कर अनेकान्तवाद को उपासना कर के मुक्तिपथ पर शीघ्र प्रयाण करें।
वि० सं० २०३९ अहमदाबाद (गुजरात)
---जयसुन्दर विजय
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* विषयवृन्दर्शिका *
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विषयः
स्तबक-५ १ व्याख्याकार का मंगलाचरण २ विज्ञानवादी योगाचार मत का प्रतिक्षेप २ अर्थाभाव में प्रत्यक्ष प्रमाणभूत नहीं ३ अनुपलब्धि प्रमाण होने की शंका ३ विज्ञानवाद में अनुपलब्धि दुर्घट ४ समनन्तर प्रत्ययान्यत्व का निवेश दुःशक्य ५ अनुपलब्धि की उपपत्ति का बायास व्यर्थ ६ योग्यता के स्वीकार में बाह्यार्थ सिद्धि । ६ बाह्यार्थ के अनुपलम्भक प्रत्ययों में योग्यता
दुर्घट ७ परस्वीकृत योग्यानुपलब्धि के अबलम्बन में
आपत्ति ६ अग्नहण से असत्त्व मानने में अतिप्रसंग ९ उदयनकृत योग्यता के निर्वचन में दोष १० अन्योन्याभावप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार १० परिष्कार युक्त योग्यता का निवंचन १२ यत्किचित् सम्बन्ध से उपलम्भक समवधान
मानने में अतिप्रसंग १३ नयामिकों की ओर से योग्यता निबंचन १४ नंयायिकमत में ब्राह्मणत्वाभाव प्रत्यक्षापत्ति १४ अधिकरण घटित योग्यता की व्याख्या १५ पिशाचत्व प्रत्यक्षापत्ति का निवारण १६ अन्योन्याभाव प्रत्यक्ष के लिये अन्य रीति से
योग्यता की व्याख्या १६ पिशाचत्वानुपलम्भ अयोग्यता प्रयुक्त नहीं १६ ब्राह्मणत्वाभाव प्रत्यक्ष को अनापत्ति १७ भूतल में घटाभाव अयोग्यता की आपत्ति
का निवारण
विषयः १७ संयोगाभाव प्रत्यक्ष न होने की शंका का
वारण १८ अधिकरणघटितयोग्यता की व्याख्या में त्रुटि १६ द्रव्यचाक्षुष में आलोकसंयोगसामान्य हेतुता
की शंका १६ घटाकाशसंयोगाभाव में योग्यत्व की आपत्ति
का निवारण १६ प्रतियोगिसंनिकर्षविरह का निवेश व्यर्थ २० घटाभावभ्रम की अनुपपत्ति का दोष २० प्रतियोगि अंश में दोषनिवेश करने में गौरव मणिकारविरचित योग्यता लक्षण की
समीक्षा २१ लक्षणांश में उपलम्भापादन का निवेश व्यर्थ २२ परमाणु में पृथ्वीत्वाभावप्रत्यक्ष की आपत्ति २२ पक्षावृत्तिविशेषणवैशिष्ट्य का परिष्कार २३ प्रतियोगी उपलम्भक भेदघटित व्याख्या का
पूर्वपक्ष २४ आलोकनियतघटाभाव प्रत्यक्ष की आपत्ति
का बारण २५ लौकिक उपलम्भ विवक्षा में मापत्ति
उत्तर पक्ष २६ अलौकिक उपलम्भ विवक्षा में व्याप्यत्व का
असम्भव २७ भेद और संसर्गाभाव के ग्रह की भिन्न भिन्न
योग्यता की आपत्ति २७ अभावप्रत्यक्ष में भी महत्त्वादि की कारणता २७ बौद्धकृत विस्तृत समालोचना की समीक्षा २९ विज्ञान स्वसंवेद्य होने से बाह्यार्थ और ज्ञान
का अभेद-पूर्वपक्ष
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विषयः २९ ज्ञान और अर्थ में भेदसिद्धि अशक्य है ३० शान-अर्थ का भेद होने पर सम्बन्धानुपपत्ति ३१ ग्राह्य-ग्राहक नियम सर्वथा अमान्य २१ भिन्नरूप ग्रहणक्रिया का भान स्वत: या
परत:? ३२ कर्म-कर्तृ भेदप्रतीति की भ्रमरूपता ३३ रूपादि में चक्षु से प्रकाशमानता का माधान ३४ दृश्यमान और पूर्वदृष्ट में एकत्व असिद्ध ३५ प्रत्यभिज्ञा में बुद्धि-एकत्व की अनुपपत्ति ३६ मथं को अनुमानपूर्व सत्ता सिद्धि अशक्य ३६ कादाचिरक नीलाद्याकार से बाह्यार्य की
सिद्धि मशक्य ३७ अनेक दर्शन साधारण एक नील की असिद्धि ३७ सन्तान भेद से सुखादि का भेद मानने में
अनवस्था ३८ जडरूपता और चिद्रूपता भेदक नहीं है ३८ शक्तिभेद से आकारभेद का निरसन ३६ आधारता की प्रतीति अविद्यामूलक ४० बदर प्रतियोगिकस्वादि की अविवेच्यता ४१ अग्रहण ही बाह्याभावसिद्धि में प्रमाण ४२ पुत्र के दर्शन से शोक प्रसंग का अनिष्ट
बौद्ध को नहीं है ४२ अर्थ के अदर्शन से उसके अभाव के ग्रहण का
तात्पर्य ४३ बाह्याथग्रहण से अनुविद्ध विज्ञान का
स्वसंवेदन- उत्तरपक्ष ४४ एक ही ज्ञान अनेकाकार हो सकता है ४५ सहोपलम्भ नियम की तीन विकल्पों से
समीक्षा ४६ व्याप्ति में पुरुषाभेद के प्रवेश करने पर अनिष्ट ४७ क्रमिकोपलम्भाभाव-दुसरे अर्थ की समीक्षा ४७ कर्म-कर्तृ भाव की प्रतीति अविद्यामूलक नहीं ४८ अनुमान में लिंगात्मकता की आपत्ति ४८ भिन्न प्रत्यासत्ति से अर्थ ग्रहण में आपत्ति
की तुल्यता
विषयः ४९ ग्रहणक्रिया के ऊपर झारोपित दोष का
प्रतिकार ५० बौद्धमत में अनुमान का असम्भव ५० पूर्वोत्तर समारोप क्षण में हेतु-फल भाव
का असम्भव ५१ प्रत्यभिज्ञा से पूर्वदृष्ट अर्थ के एकत्व का
प्रमाणभूत बोष ५२ प्रत्यक्ष के लक्षण की प्रत्यभिज्ञा में अति
__व्याप्ति नहीं है ५३ अर्थ की पूर्वकालीन असत्ता में दर्शन असमर्थ ५४ वह्निविशिष्ट देश के अनुमान की दिग्नाग
उक्ति असार ५५ अपरोक्षरव ग्राह्यत्वाभाव का प्रयोजक नहीं ५६ सुखादि का ज्ञानादि के साथ अत्यन्ताभेद
असिद्ध ५७ सुखादि का उपादान आत्मद्रव्य ५७ आधार-आधेयभाव कल्पनामूलक नहीं ५८ अहमाकार देहालम्बन या निरालम्बन नहीं ५६ जगत् केवल ज्ञानमात्र नहीं है ६० प्रवृत्ति और प्राप्ति से बाह्यार्थ का अस्तित्व ६० घट की प्राप्ति ज्ञानात्मक नहीं है ६० विज्ञानवाद में घट प्राप्ति की अनुपपत्ति ६१ विज्ञानवाद कुम्हार-आजीविका का भंग ६१ अर्थ का नाम पलटने से स:य नहीं बदलता ६२ स्मृति-प्रत्यभिज्ञा और कौतुक से बाह्यार्थ- .
सिद्धि ६३ बौद्ध का पूर्वपक्ष-दृष्टाभेद में अर्थ भेद ६४ पूर्वचित्तसत्तावत् अर्थसत्ता का समर्थन
-उत्तरपक्ष ६४ ज्ञानभिन्नत्वरूप से अनध्यवसित नीलादि
असत् होने की शंका का उत्तर ६५ ज्ञान-अर्थ में अनुमान से अद्वयत्व की सिद्धि
अशक्य ६६ अर्थविरोधी युक्तियाँ ज्ञान के विरोध में
समान
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विषयः ६६ ज्ञान सम्बन्धी विकल्पों की समीक्षा ६७ ग्राह्य-ग्राहक उभय-अनुभयस्वभाव दुर्घट ६८ नियत एकाकार ज्ञान का उपादान
चित्राकार एक दर्शन ६८ देवेन्द्र बौद्धवादी मत का उपक्षेप ६९ एक चित्र ज्ञान की कल्पना असंगत-उत्तर पक्ष ७१ एकत्व-अविधात रूप विवेचन उभयपक्ष में
समान ७२ ज्ञान का अस्तित्व विलुप्त हो जाने की
आपत्ति ७२ चित्रज्ञानवादी को सर्वशून्यता की आपत्ति ७३ बाह्यार्थ विवेचनरूप ज्ञान से बाह्याथ का
असत्त्व कसे? ७३ असत्व अवयविबुद्धि से या अवयवबुद्धि से ७४ अकर्मक होने से विज्ञान का ग्राह्य कोई नहीं
है-पूर्वपक्ष ७५ ज्ञान-क्रिया का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं ? ७६ ज्ञान की अकर्मकता में प्रमाण नहीं है
उत्तर पक्ष ७७ सविषयकत्वस्वरूप सकर्मकत्व अपरिहार्य । ७८ अकर्मक प्रकाशमात्रता के बौद्ध समर्थन का
प्रतिक्षेप ७६ दोषविज्ञान और द्विचन्द्रज्ञान में असाम्य ७६ अकर्मक प्रकाशंकस्वभाव कोई वस्तु नहीं ८० दृष्टान्तमात्र से साध्यसिद्धि असम्भव ८० बिज्ञानवाद में संसार-मोक्ष में समानता ८१ मन ही संसार मन ही मोक्ष १२ क्लिष्टता के हेतु ज्ञानाभिन्न नहीं ८२ क्लिष्टता के हेतु के अपगम से शुद्धि अविर्भाव ८३ बाह्यार्थता शब्द के औचित्य की उपपत्ति । ८३ चित्त को क्लिष्टता सहज होने पर मुक्ति
अयोग ८४ स्वभावतः क्लिष्टता-अक्लिष्टता की
आशंका ८५ चित्त क्लिष्टता अकारण नहीं हो सकती
विषयः ८६ प्रत्येक असत् कार्यजनक नहीं होता-बौद्ध ८६ पूर्ववर्ती क्लिष्टचित्तक्षण अतिरिक्त हेतु नहीं
बन सकता ८७ मुक्ति के अभाव में तत्त्वचिता व्यर्थ ४८ विज्ञानवाद अनुपपन्न-उपसंहार ८९ से २१६ स्तवक ६ ८९ वीर भगवान् के घरण-शरण की भावना १६ भगवान् के चरण की उपासना क्यों ? ६. शंखेश्वर पाश्वनाथ की अजीव महिमा ९१ नाशहेतु अयोग के कथन में बौद्धाशय २२ मा असत्ति हेतु अयोग प्रसंग का
प्रतिकार ६३ अभाव भाव बन जाता है-इस में सम्मति ९४ उत्पत्तिवत् नाश में सहेतुकता की उपपत्ति ९५ सहकारी तो कुछ भी करता है ? ६५ एककालीन पदार्थों में कार्यकारणभाव नहीं ९६ सहकारीकृत विशेषता हेतु में नहीं, फल में
होती है-शंका ६७ सहकारी सांनिध्य को अकिंचित्कर मानने
में आपत्ति-उत्तर १८ पाकार्थी की अग्नि में नियत प्रवृत्ति के
अपलाप का साहस ९९ मुद्गरादि के संनिधान विना कुर्वद्रूपत्व का
असम्भव १६ बौद्ध शुभगुप्तादि के द्वारा पक्षपात का आक्षेप १०० अस्थानपक्षपात बौद्धमत में अनिवार्य-उत्तर १०० मुद्गर से तत्स्वभावता का आधान उभयत्र
तुल्य १०१ नाश्च से नाश के भिन्नाभिन्नत्व की चिता
व्यर्थ १०२ नाश के बाद घट के पुनः उन्मजन की
आपत्ति १०३ सहेतुक पक्ष में नाश की आपत्ति " १०३.घटनाश नाश की परम्परा मानने में
मापत्ति
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विषय: १०४ बौद्धकृत प्रश्नों का समाधान १०५ उत्पत्तिवद् निवृत्ति में घट निरूपितत्व
की उपपत्ति १०६ घटनिवृत्तिरूप से कयाल भंगापत्ति प्रत्युत्तर १०६ घटनिवृत्तिसंतानरूप से कपालसंतति की
चिरकालस्थायिता १०६ 'घटनाशो नष्ट:' इस व्यवहार की आपत्ति
का प्रत्युत्तर १०७ तुच्छत्व के विविध विकल्प का निराकरण १०८ नाश में मुद्गरादिहेतुता अनिवार्य १०६ अभाव भाव हो जाने की आपत्ति का
प्रतिकार १०६ अभाव और भवनशीलता में कोई विरोध
नहीं है ११० 'नास्ति' बुद्धिविषयता से अहेतुकता सिद्ध ११० मुद्गरप्रहार के बाद घटाभाव होने से
बौद्ध कथन असार १११ विनाशवत् उत्पत्ति में स्वरूपभेद की
समान आपत्ति १११ नाश में हेतुभेद से व्यक्तिभेद स्वीकार्य ११२ प्रतिव्यक्ति मुक्तिभेद आपत्ति का उद्धार ११३ "विनाशो नष्टः' यह आपत्ति अशक्य ११४. बौद्धमत में शिकारी हिसक नहीं होगा ११५ सन्तानोत्पत्ति का असंभव । ११६ शूकरादि में स्वहिंसकत्व की बौद्धमत में
प्रसक्ति ११६ निमित्त कारणरूप में जनकता का
परिष्कार निरर्थक ११७ हिंसा के परिणाम से हिंसकत्व की प्रालि
चौद्धमत में अघटित ११८ संक्लेश बौद्धमत में सिद्ध नहीं ११९ शूकरादि के संनिधान में संक्लेशजनन
स्वभावता अन्यत्र समान ११९ आर्थिकत्व में विनिगमनाविरह १२० नाश बत् उत्पादजनकत्वोच्छेद आपत्ति
-अन्य मत
विषयः १२१ सरस्वभावजनकता में व्यापार निष्फलता
आपत्ति १२२ असत्स्वभावजन्य की जनकता का दूसग
विकल्प अयुक्त १२३ उभयानुभयस्वभाव जन्य की जमकता में
विरोधादि दोष १२३ अन्य प्रकार से अनिष्टापादक अन्य
आचार्य का मत १२४ प्रत्यक्षविरोध का उद्भावन ध्यर्थ १२५ प्रमाणाभाव से व्यवहारनिषेध बौद्ध को
मान्य-नाशहेतु अयोग चर्चा समाप्त १२६ अर्थक्रिया समर्थत्व हेतु युक्तिसंगत नहीं १२६ अर्थक्रिया स्वजनक स्वरूप नहीं १२७ अर्थक्रिया का धारकत्व और नाशकत्व
अनुपपन्न १२७ अर्थक्रिया स्वजनक भिन्न है-द्वितीय विकल्प १२८ असत् सत् नहीं हो सकता १२६ भूति ही क्रिया है-इस पक्ष में दोषापत्ति १३० क्षणिकत्व में अर्थक्रिया सामर्थ्य अयुक्त १३१ ऋम-योगपद्य से अर्थक्रिया का स्थिर वस्तु
__ में असंभव नहीं १३१ सर्व अर्थनिया का एक ही क्षण में जनकत्व
का नियम असिद्ध १३२ काल असिद्ध होने पर अक्रियाक्रम भी
असिद्ध
१३२ एक हेतु से ऋमिक कार्य प्रत्यक्षसिद्ध १३४ सामग्री के निर्वचन का असम्भव-पूर्वपक्ष ५३६ सामग्री का स्पष्ट निर्वचन-उत्तरपक्ष १३७ तीसरे परोणाम हेतु की परीक्षा १३८ पंडितमान्य परिणाम व्याख्या १३९ बौद्धसम्मत अनित्यत्व वस्तुधम नहीं १४० 'तदेव' और 'न भवति' का परस्परविरोध १४१ क्षीर-गोरस दृष्टान्त से सान्वय परिणाम
की सिद्धि १४२ असत् सत् नहीं होता, सत् असत् नहीं होता
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पष्ट
विषयः १४३ वस्तु नित्यानित्य उभयरूप कैसे ?- १६२ नव्यमतानुसार अव्याप्यवत्ति रूप की वशेषिकों का पूर्वपक्ष
___कल्पना में गौरब-प्राचीन सम्प्रदाय १४७ नित्यत्व-अनित्यत्व के सहसमावेश में विवाद १६३ नव्यमत की ओर से गौरवापादन-पूर्वपक्ष १४६ वैशेषिकों के विस्तृत पूर्वपक्ष का जैनों को १६४ अन्ततः अव्यायवृत्ति नीलादि पक्ष में ओर से प्रतिकार
लाघव-पूर्वपक्ष चालु १४६ तत्ता-इदन्तानिरूपित एकस्वभाव वस्तु १६५ गौरव के विरुद्ध साम्प्रदायिक चित्ररूपहोने की शंका
वादी का उत्तरपक्ष १५० विशेषणनाश से विशिष्टनाश अवश्यमान्य १६६ अव्याप्यवृत्ति रूपवादी नव्यमत में विशेष १५० परम्परा सम्बन्ध सेमाश अघटित
गौरव १५० शुद्ध-विशिष्ट भेद पक्ष में शुद्धसत्ता संदेह १६७ अवच्छेदकता सम्बन्ध से पुनः स्पोत्पत्ति का निराकरण
के वारण की शंका १५१ शुद्ध-विशिष्ट अभेदरक्ष में गौरव निरसन १६७ एक चित्ररूपपक्ष में ही लाधव १५१ सास जगद् पवित: क्षणभंगुर है
१६७ व्याप्यवृत्तिरूप में सावच्छिन्नत्व की शंका १५२ काल जीबाजीव के वर्तमान पर्यायरूप है १६८ व्याप्यत्तिरूप में सावच्छिन्नत्व की शंका १५३ एक बस्तु में नित्यत्वाऽनित्यत्वोभय की
का परिहार लोकसिद्ध प्रतोति १६९ प्रतिबन्धकता की कल्पना न करने से १५४ दंडत्वादिस्वरूप होने से हेतुता अन्याप्य
___ लाघव-चित्ररूपवादी वृत्ति न होने की शंका १६२ व्याप्यवृत्ति पदार्थ निरवच्छिन्न होता है १५४ बोध एकविशेष्यक होने को शंका का १७० विजातीय चित्र के प्रति रूपकारणता में निराकरण
विशेष मत १५५ विरोधी उभय के एकत्र समावेश पर शंका १७१ चित्रेतररूपाभाव कारणतावादी मत विशेष १५५ वृत्तित्वाभाव अव्याप्य वृत्ति न होने की शंका १७१ भिन्न भिन्न चित्ररूप की विभिन्न कारणता १५६ 'वृक्षे पटे न कपिसंयोगः' इस प्रयोग में
अन्य मत प्रामाण्य संका का निवारण १७२ अनेक चित्ररूपसहोत्पत्तिवादी उच्छ सलमत १५७ चित्ररूपवादप्रारम्भ:
१७३ व्याप्यवृत्ति नीलपीतादि उत्पत्तिवादी १५७ चिअरूप के बारे में नव्यनयायिक .
अन्य मत १५८ एक चित्ररूप के साथ कार्य-कारणभाब
१७३ पीतावयव में नीलचाषापत्ति का प्रतिकार
में गौरवादि १५८ एक चित्ररूप सिद्ध करने का विस्तृत प्रयास
१७५ रूपविहीन घटवादी विशेष मत १५८ नीलाभावादिषट्क की कारणता की आशंका
१७६ चित्ररूप के विषय में व्याख्याकार की
मीमांसा १५२ कार्य सहभावेन अभावषट्क कारणता १५९ निरवच्छिन्नविशेषणताघटितस्वाभयसमवेत
१७६ रूपविहीन घटस्थिति अनुभवविरुद्ध
१७.७ विलक्षणरूप का अनुभव एकस्वपरिणाम सबन्ध से कारणता की शंका १६० एक चित्ररूपवादी को ओर से पुन:
__ का विरोधी नहीं स्वपक्षस्थापन १७७ एक समूहालम्बनज्ञानबत् एकरूपोत्पत्ति १६१ चित्ररूपवाद में नव्यमत समप्ता
-दीधितिकार
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पृष्ठं
विषयः
पृष्ठं
विषयः १७७ समूहालम्बन ज्ञानगत एकत्व संख्यारूप १९३ क्षणिकवाद में अर्थग्रहण की अनुपपत्ति
नहीं है-उत्तरपः६५ सर दर्थ पाकल गाइहण करो ? १७८ अनुगतएकत्वकल्पनावत् द्वित्वकल्पना संगति १६५ क्षणिकत्व बोध में मिथ्यात्वसंशय आपत्ति १७८ अवयवरूपों में एकत्वबुद्धि की आपत्ति १९७ क्षणिकत्वबोध के लिये अनुमान असमर्थ
___ अभेदविवक्षा में स्वीकार्य १९० नित्य वस्तु में अर्थक्रिया असंभव नहीं १७९ 'इदमुभयात्मक' इस प्रतीति के अभाव १९९ रानिवृत्ति के लिये क्षणिकत्वोपदेश
की आशंका २०० बाह्यपदार्थ संगत्याग के लिये विज्ञानमात्र १८० च्याप्य वृत्ति भनेकरूपोत्पत्तिपक्ष में सर्व
का उपदेश रूपोपलम्भापत्ति २०१ बुद्ध का पूर्वोक्त तात्पर्य युक्तियुक्त १८० चित्ररूपप्रत्यक्ष का अपलाप अनुभवविरुद्ध २०१ माध्यमिक के शून्यवाद की मीमांसा १८१ उदयनाचार्य का चित्ररूप प्रत्यक्षोपपत्ति २०२ नित्य पदार्थ में क्रमाक्रम से अत्रियानु. के लिये प्रयास
पपत्ति-शून्यबादी १८१ व्यणुक-चतुरणुवा के चित्ररूप प्रत्यक्ष की २०२ उत्पाद-व्यय की असिद्धि से अनित्यता भंग
उपपत्ति का प्रयास २०३ लौकिक उत्पाद-व्ययबुद्धि भ्रान्त है १८२ अव्याप्यवृत्ति नीलादि अनेकरूप पक्ष में २०४ माध्यमिक सम्प्रदाय का मतसंक्षेप
दोष निवारण का प्रयास २०५ बाधकज्ञान में संवित अनेक प्रकार की १८४ व्याप्यत्ति एकरूपत्रादी स्वतन्त्रमत की
बाधकता असिद्ध आशंका २०५ दुष्टकारण जन्यत्व बाध्यताप्रयोजक संभव १८५ स्वतन्त्र मत की समालोचना, चित्ररूप
नहीं है का स्वरूपत: एकानेकरूपता
२०७ ज्ञानाद्वैत सिद्धि की आपत्ति का निराकरण १८६ चित्ररूप मीमांसा का उपसंहार
२०७ निर्मल ज्ञानज्योति एकमात्र सत्ता अनुभव बाह्य १८७ 'अन्त में क्षयदर्शन' चौथे हेतु का परीक्षण । २०६ सर्व धर्मरहित मध्यक्षणरूप सवित् की १८८ नूतन-नूतन उत्पत्ति से नाश का प्रदर्शन बौद्ध
परमार्थ सत्ता १८९ अन्तिम नाशदर्शन में बौद्ध के प्राचीन
२०६ माध्यमिक के शुन्यबाद की समालोचना ग्रन्थ को सम्मति
२१० शून्यवाद में प्रमाण हो या न हो, अर्थ सिद्ध १९० भेदग्रह न होने पर साक्ष्य का अग्रहण २१० प्रमाण के विना तस्वस्थिति अशक्य १५१ भेदग्रह न होने पर भी सादृश्य ग्रह शक्य २११ शून्यतासाधकप्रमाण से इतर वस्तु शून्य है-बौद्ध शंका
होने पर वादधम निष्फल १६१ शुक्ति में रजतसादृश्य ज्ञान भेदज्ञानमूलक २११ प्रतिपाद्य और प्रश्नकर्ता का अभ्युपगम
नहीं होता २१२ एक ही तत्त्वज्ञानी को अशून्य बताना १६१ बौढमत में अन्त में क्षयदर्शन की अनुपपत्ति
युक्ति शून्य है १९१ सादृश्यग्रह दुःशक्य होने से बौद्ध कथन २१३ बाध्यबाधकभाव का अस्वीकार युक्ति शून्य
अनुचित २१४ शास्त्रसार्थकता उपपत्ति का माध्यमिक १९२ सहशावरोध से भेदाग्रह की बात तुच्छ ।
प्रयास व्यर्थ १६३ भेदज्ञान स्वीकारने में अन्वयीज्ञानसिद्धि २१६ शून्यता का प्रतिपादन अनासक्ति के लिये से क्षणिकत्व का भंग
* समाप्त
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स्तबक ५-६ मूलश्लोक-अकारादिक्रमः श्लोकांशः
श्लोकांशः
पृष्ठं श्लोकांशः अत्राप्यभिदधत्यन्ये २०६ ज्ञानेन गृह्यते चार्थो १९३ प्रमाणमन्तरेणाऽपि ५९ अन्ते क्षयेक्षणं चाय १८७ तथा गतेरभावे च १९२ ।। प्रकृत्यैव तथाभूतं ८३ अन्ते क्षयेक्षणादादी १८९ तथा चित्रस्वभावत्वा १९८ ब्रुवते शून्यमन्ये तु २०१ अन्यत्वेऽन्यस्य सामर्थ्य १२७ ।। तथास्वभाव एवासी ६४ भावे वास्या बलादेक १६२ अन्यथा योग्य ता तेषां ६ तदग्रहणभावश्च
८ भूतिर्येषां क्रिया सोक्ता १२९ भन्ये तु जन्यमाश्रित्य १२० तदन्यग्रहणे चास्य ६३ भ्रान्ताच्चाभ्रान्तिरूपा न ७८ अन्ये त्वभिदधत्येव १९९ तदर्थनियतोऽसौ यत् १९० मानाभावे परेणापि १२५ अर्थक्रिया यतोऽसौ वा १२६ । तदेव न भवत्येतत् १४० मुक्ती च तस्य भेदेन ८२ अर्थक्रियासमर्थत्व १२५ ।। तस्यैव तत्स्वभावत्वात् १९५
मुक्त्यभावे च सर्वेब ८७ अर्थग्रहणरूपं यत् ४३ । तंत्राप्य सरस्पनापत्वाम् १८ यच्चेदमुच्यते ब्रमो १३६ असत्यपि च या बाह्ये ८४ । दृष्टान्तमात्रतः सिद्धि
यञ्चोक्त पूर्वमत्रव ६० भस्त्वेतत्कितु तद्धेतु ८४ न च प्रकाशमानं तु ७९ यथास्ते शेत इत्यादी ७५ मस्थानपक्षपातश्च १६ न चातीतस्य सामर्थ्य १३० यस्मादस्याप्यदस्तुल्यं १०० आदी क्षयस्वभावे च १५८ न चाध्यक्षविरुद्धत्वं १२४ यावतामस्ति तन्मानं २११ उच्यते साम्प्रतमदः ७६ न चापि स्वानुमानेन १९६ युक्त्ययोगश्च योऽर्थस्य ६५ उक्तं बिहाय मानं चेत् २१० न चासदेव तद्धेतु ८५ योग्यतामधिकृत्याय ६ उपकारी विरोधी च ६५ न चाऽस्याऽतत्स्वभावत्वे ९७ रागादिक्लेशवर्गों यद् ८१ उपलब्धिलक्षण प्राप्ति ३ न चतदपि न न्याय्यं २०० विज्ञानमात्रमप्येवं २०० उपलब्धिलक्षणप्राप्तो ३ न चोभयादिभावस्य १२२ विज्ञानमात्रवादोऽपि उत्पादव्ययबुद्धिश्व २०३ न पुनः क्रियते किंचित् ९५ विज्ञानमात्रवादोऽयं एतदप्यसदेयेति १८६ न प्रत्यक्षं यतो भावा
विज्ञानं यत्स्वसंवेद्य २८ एवं च व्यर्थमेवेह न सत्स्वभावजनक
विरोधान्नोभयाकार ६७ एवं च शून्यवादोऽपि २१६ न स्वसंधारणे न्यायात् १२७ विसभागक्षणस्याथ ११५ एवं चाऽग्रहणादेव ४१ नाक्षादिदोषविज्ञान ७९ व्यवस्थापकमस्यैवं एवं न यत्तदारमान. ७६ नासत् सज्जायते जातु १४१ ध्यवस्थितौ च तत्वस्य ७७ कारणत्वात् स संतान ११४ नासत् सज्जायते यस्माद् १२८ शुन्यं चेत्सुस्थितं सर्व २१० कि च निर्हेतुके नाशे ११४ । नार्थान्तरगमो यस्मात् १३८
सहकारिकृतो हेतो ९६ कि च विज्ञानमारत्वे नित्यमर्थक्रियाभावात् २०१
सहार्थेन तज्जनन ४ क्लिष्टं विज्ञानमेवासी २१ नित्यस्याक्रियायोगो १६७ संक्लेशो यद् गुणोत्पादः ११० क्षीरनाशश्न दध्येव १४० मित्येतरदतो न्यायात् १४२ सांवृतत्वाद् व्ययोत्पादौ ११५ ग्रहणेऽपि यदा ज्ञान
नंकान्तग्राह्यभावं तत् ६६ हाम्यनमिति संक्लेशात् ११६ घटादिज्ञानमित्यादि
पराभिप्रायतो ह्येतद् ७ । हेतु प्रतीत्य यदसौ ६३ चित्तमेव हि संसारो ८१ परिणामोऽपि नो हेतुः १३० । हेतोः स्यान्नश्वरो भावो ९१ ज्ञानमात्रे तु विज्ञानं ६२ प्रकाशकस्वभावं हि ७४
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( स्तबक ४-५-६ ) मूल-टीकयोरुद्धृतवाक्याद्यांशाकारादिक्रमः
स्तबक पृष्ठ वाक्यांशः ६१८६ अत एवंकानेकरूप. ! सम्मति टोका ] ४/४७ अत्यन्तासत्यपि ह्यर्थे [खण्डन. १-१] ५/२ अयमेवेति यो ह्यष० [ श्लो. वा. प्रभाव. १५ ] ६/२०६ अधिभागोऽपि बद्धघात्मा बा.२-३५४] ६.३१ अवेद्यवेवकाकारा० [प्र. वा. २-३३०-३३१ ] ६/१७६ अपितानपित सिद्धेः [ तत्वार्थ. ५-३१ ] ६/१४३ असओ नस्थि निसेहो [वि. आ. भाष्य १५७४ ] ४.१०६ असदुत्पत्तिरप्यस्य शान्त रक्षित ] ६/१७९ आश्रयच्यापित्वे..... [ सम्मति टोका ] ४/२१७ इत एकनवते कल्पे० [ ४.४९ एतेनाऽहेतुकत्वेपि० [प्र. वा. २८१-२८२ ] ६/२०७ कतमत संवृतिसत्त्वं [
] ४/२२१
क्खवो! [ ६२१२ किंतु ज्ञानस्याऽसद्विषयत्वम् [सरि ] ६.२०६ कि स्यात् सा चित्र ते० [प्र. वर. २-२१० ]
किमेयं भन्ते ! कालो त्तिा ५.८१ चित्तमेव हि संसारी. ६१५३ चित्रमेकमने च [वी. स्तोत्र८/१] ६:१५१ ज वत्तणादिरूवो० [धर्मसंग्रहणी ] ५.३२ तथा कृतव्यवस्थेयं [प्र. वा, २-३३१-३३२ ] ६१३८ तडावः परिणामो ६.१४३-१४७ तद्भावाध्ययं नित्यम् [ तत्त्वार्थ ५-३० ] ५/८५ तस्मादविद्याशक्ति..... [ धर्मोत्तर ] ४/४६ दुष्टोपलम्भसामग्री० [न्याय कु. ३-३ [ ४/७९ दृष्टस्ताववयं घटोत्र ४१४३ न त किचिद् भवति । प्र. वा. ३.२७९ ] ६.२०२ न स्वतो नापि परतः [ माध्य० कारिका १ ] ४११८६ न विकल्पानुबद्धस्य [प्र. वा. २-२८३ ] ५-६/३०-२०९ नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति [ प्र. वा. २.३२७] ४१०५ नाऽसतो भावकर्तृत्वं [ शान्तरक्षित ]
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स्तवक पृष्ठ
वाक्यांश: ५/६७ मावदिशा - हा RE! ४/२२२ पञ्च बाह्या द्विविज्ञेया [ अभिधर्मकोश ] ५/७४ परस्परापेक्षया तयोर्व्यवस्थानात [ ४/१६० पश्यन्नपि न पश्यती० [ धर्मकोत्ति ] ४/१८६ प्रत्यक्ष कल्पनापोडं [प्र. वा. २-१२३ ] ५,५१ बहिरर्थग्रहणापेक्षया० [स्या. र. पृष्ठ ३१८ ] ६/२०७ मावा येन निरू० [प्र. वा. २-३६० ] ४/३३ भावे ह्यष विकल्प: स्याद् [प्र. वा. ३-२७९-२८०] ६/२०६ मध्यमा प्रतिपत् सैव । ६/१६६ यत्प्रातस्तन्न मध्याह्न [ योगशास्त्र ४-५७ ] ४/१५८ यत्रैव जनयेदेना [ ]
यदि च सुखादयो [स्या. २०] ४१८ यस्मिन्नेव हि संताने [ ]
यो हि ज्ञानोपलाभः [ धर्मोत्तर ]
लिंगस्याऽव्यभिचारस्तु [ दिङ्नाग ] ६/१५७ लोहितो यस्तु वर्णेन [ ] ४/१०६ चस्तुनोइनन्तरं सत्ता [ शान्तरक्षित ] ४/१७६ चारूपता चेद् व्युरनामेत् | वाक्यपदीय ]
व्यक्ताऽध्यक्तात्मरूपं यव [ ] ६/२१२ सर्व एवायमनुमानानुमेय. | आचार्य ] ६/२११ सर्वदा सदुपायान [ श्लो. वा. निरा. १२८ ] ५/२६ सहोपलम्भनियमाद् [प्रमा. वि. परि.१] ४१८६ संहृत्य सर्वतश्चिन्तां [प्र. वा. २-१२४ ] ५/५६ सुखमालादनाकारं [ ] ५/५१ स्पष्टं प्रत्यक्षम् [प्र. न. तश्या . २-२ ]
स्वभावविशेषश्च.... [भ्या
स्वभावोऽपि स तस्येत्थं ४२२४ स्थविषयानन्तर..... .... [ ६६६ हेतवश्चानुपकार्य ... | शुभगुप्त ]
नोधः-- चौथे स्तबक में उद्धरणों को सूचि नहीं दी गई है, उसका समावेश इस सूचि में कर लिया है।
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पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
४ ३२ तजनन
५ २ तखनन
७
१२ ६ छयुणुक
१६ ११ द्रव्याविषयक
२१
१३ चिन्तमणि
२४ ४ लपलम्भ
२७ स्वभावसिद्ध
३० सहितत्य
१२ निश्वतम् १६ प्रप्तो
१० ६ व्याप्यत्वकालिक व्याप्यत्व का सिल
२५ २१ व्याप्यत्वात् २७ १४ तत्कुत्रं ०
२८ १६ उपादन २८ २८ विषयतया १२ जिससे
३१
३२
२० 'शुक्ति
३५ २९ नुपद्यमानात्
३६ ७ दृष्टटयोः
ज्ञान
४६. ३४ ४७ १५ शब्दार्थ
१७ जिनमें
२१ आविधक २४ अशिक्त
५०
५१ १२ वागते
५६ १६ त्वामित्य'
५७ ३ यह
४ क्योंकि ३० कारण
५८ ५ ठीक है ६३ १५ भेदेन ६६ १ भव विरु
१६
शोधनीयम् (स्तवक ५-६ )
पृष्ठ पंक्ति अशुद्ध
८४ २४ पातात:
८५ २४ निर्वतते
१०४ १५ निवृत्त
१०५ १२ घटनिवृत्ति
११३ २४ मानना १४३ १ वदियो मुक्तिविशि
१४४ १९ अनुगमन १४५ २८ से कहा
१४६ २० न्याय
१५१ १८ अमान्य
१५४ १ प्रीतीति १५४ २४ निराकांश १६० ६ बेयररथयात् १७० २८ योगि ताक १७६ १८ होने से कि १६ जिससे
६८ १ सद्भाव ७१ १२ उभपचक्ष
शुद्ध
तज्जनन
तज्जनन
स्वभाव सिद्ध
सहितत्व
== निश्चितम्
प्राप्तो
घणूक द्रव्यविषयक
चिन्तामणि
उपलम्भ
ऽव्याप्यत्वात् तत्तत्कुर्य
उपपादन
विषयताया
जिससे
'शुक्ति में
दृष्टयो:
अज्ञान
'नुपपद्यमानत्वात् १८२ ९ पचिर
१८३ २५ पीतकाल
७
शब्द
जिन लोगों के मत में
आविद्यक
अशक्ति
त्वावगते
स्वमित्य
यह इसलिये
कि
दारण
ठीक नहीं है।
भेदेन
भवविरु
स्वभाव
उभयपक्ष
११० ९ तभिन्न
तन्निष्ट
का उत्पत्ति अणिवस्त्र
शुद्ध
पातत:
१०
१९३ ३०
१६६ १
१६८ १७ सत्तवम्
२०२ २५ यह
२०२ २५ (१)
२०२ २० (२)
२०३
(३)
२०३ २१ कुमारी २०७ १९ यदि यही
२०८ १४ नागार्जुन २१२ ५ [ १ तवैव ]
२१४ २३ तामानाप्य
निवर्त्तते
निवृत्ति
घट निवृत्ति
न मानना
वधियो
युक्तमिति
अनुगम न से यदि कहा
जंन न्याय
मान्य
प्रतीति
परिहार पीतकपाल
१८४ २४ नीलातकवत्वादि नीलत्वापी तत्वादि
तदभिन्न तनिष्ठ
की उत्पत्ति क्षणिकत्व
सत्त्वभू
ये
निराकांक्ष
वैयग्रघात्
योगिताक
होने से
जिससे कि
(A)
(B)
(c)
-कुमारी
यही
धर्मकीति
[ ? तथैव ]
तामनाप्य
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॥ अहम् ॥ 卐शास्त्रवार्तासमुच्चय ॥
॥ पञ्चमः स्तबकः ॥
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[ व्याख्याकार का मंगलाचरण ] स्वामी सतामीहितसिद्धयेऽन्तर्यामी स चामीकरकान्तिराप्तः। वामीभवन्तोऽपि परे बतामी क्षमा न यदर्शनलद्धनाथ ॥ १ ॥ अनाकलितमन्यथाकलितमन्यतीथेश्वरैः
____ स्वरूपनियतं जगद् बहिरिवान्तरालोकते । य एष परमेश्वरश्चरणनम्रशक्रस्फुरस्किरीट
मणिदीधितिस्नापतपादपद्मः श्रिये ॥२॥ समीहितं कल्पतरूपमश्चेत् शङ्केश्वरः पाजिनः पिपर्ति ।
तदाऽऽसदालापसमुद्भवेभ्यो भयं न किञ्चिद् मम दुनयेभ्यः ॥ ३॥ व्याख्याकार ने पश्चम स्तबक की व्याख्या का उपक्रम करते हुये जिनेश्वर भगवान को वन्दना की है और अपनी निर्भयता बताकर अन्य दुर्नयप्रायः मतों की दुर्बलता का संकेत किया है, जो इस प्रकार है
___ अत्यन्त प्रतिकूल चेष्टा करने पर भी बौद्धादि प्रतिवादी जिन के दर्शन का उल्लहुन (खण्डन) करने में समर्थ नहीं हो पाते, ये सुवर्ण के समान कान्ति बाले, एवं वस्तु के यथार्थ दृष्टा और वक्ता, एवं अनन्तज्ञान-अनन्तदर्शन-अनन्तसुख-अनन्तवीर्य इस अनन्त-चतुष्टय के स्वामी, तथा सत्पुरुषों के अन्तःकरण को धर्म और अध्यात्ममार्ग में प्रवृत्त कराने वाले भगवान हमारे मनोरथ को सिद्धि के लिए हो अर्थात् हमारा वांछित सिद्ध करो ॥१॥
अन्य-अन्य शास्त्रों के प्रवर्तक ईश्वर गिने जाने वाले पुरुषवर्ग भी अपने नियत प्रमाणसिद्ध स्वरूप में प्रतिष्ठित जिस जगत् को अनेक अंशों में समझने में निष्फल रहे अथवा अन्यथा= विपरोत रूप में समझ बैठे, उस जगत् का, जो परमेश्वर उसके बाह्य स्थूल स्वरूप के समान आन्तरदुर्जेय सूक्ष्म स्वरूप में भी स्पष्ट अवलोकन करते हैं और जिनके चरण कमल, चरण पर झुके हुये देवराज इन्द्र के चमकते हुये मुकुट के मणि की किरणे प्रक्षालन करती हैं, वे परमेश्वर हमारी श्री यानी अभिमतसिद्धि के अनुकूल हो ॥ २ ॥
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२ ]
[ शास्त्रवास० त० ५ श्लो० १ २
शश्वर तीर्थ के अधिपति, कल्पवृक्ष के समान मनुष्य के सम्पूर्ण मनोरथों को पूर्ण करने वाले, कामक्रोधादि समस्त शत्रुनों के विजेता, भगवान पार्श्वनाथ यदि मेरे रक्षक हैं तो मुझे प्रतिधावियों के मिथ्या वचनों से उत्पन्न होने वाले दुर्नयों-कुमतों से मुझे कोई भय नहीं है ॥ ३ ॥
'विज्ञानमात्रमेव जगत्' इति योगाचा रमतं निराकुरुते -
प्रस्तुत ग्रन्थ के पश्चम स्तबक को प्रथम कारिका में, 'जगत् केवल विज्ञानात्मक है, विज्ञान से उसकी कोई अतिरिक्त सत्ता नहीं है' इस योगाचार मत के निराकरण का उपन्यास किया गया है । मूलम् - विज्ञानमात्रवादोऽपि न सम्यगुपपद्यते 1 मानं यत्तत्त्वतः किञ्चिदर्थाभावे न विद्यते ॥ १ ॥
विज्ञानमात्रवादोऽपि परपरिकल्पतः, सम्यग् विचार्यमाणः नोपपद्यते, यद्यस्मात् तवतः स्वतन्त्रनीत्यैव अर्थाभावे किञ्चिद् मानं प्रमाणं न विद्यते । न चार्थाभावनिश्चयमन्तरेण ज्ञानमात्रमेवेत्यवधारणं युज्यते, तदुक्तम्
"अयमेवेति यो ह्येष भावे भवति निर्णयः । नैष वस्त्वन्तराभावसंविश्य नुगमादृते ॥ १॥” इति ॥ १ ॥
1
[ जगत् विज्ञानमात्ररूप है - योगाचार मत का प्रतिक्षेय ]
बौद्धों द्वारा कल्पित विज्ञानवाद भी अच्छे प्रकार विचार करने पर उपपन्न नहीं होता क्योंकि बाह्यार्थ के अभाव में कोई प्रमाण नहीं है, अतः अर्थाभाव का निश्चय किये विना स्वतन्त्र नीति से प्रमाण निरपेक्ष होकर अर्थात् विना किसी प्रमाण 'सम्पूर्ण विश्व केवल ज्ञानात्मक है' यह अवधारण युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। जैसा कि कहा गया है- 'भाव के सम्बन्ध में जो यह निर्णय लिया जाता है कि 'यह वस्तु एकमात्र अमुक ही हैं वह श्रन्य वस्तु के अभाव की सिद्धि के बिना उचित नहीं
॥१॥
न चाध्यक्षमाभावे मानमित्याह
दूसरी कारिका में अर्थाभाव में प्रत्यक्ष प्रमाण होने का निषेध बताया गया है
मूलम् - न प्रत्यक्षं यतोऽभावालम्बनं न तदिष्यते ।
नानुमानं तथाभूतसल्लिङ्गानुपलब्धितः ॥ २॥
न प्रत्यक्षमर्थाभावे मानम्, यतस्तदभावालम्बनं नेष्यते तस्य तुच्छत्वात् अध्यक्षस्य च स्वलक्षणालम्बनत्वात् । अत एव नानुमानं तत्र मानम्, तस्य तन्मूलत्वेन तदभावे तथाभूतसल्लिङ्गानुपलब्धितः - अर्थाभावप्रतिवद्धसाधुलिङ्गानुपलम्भात् ॥ २ ॥
अर्थाभाव में प्रत्यक्ष प्रमाण नहीं मिल सकता क्योंकि अभाव को प्रत्यक्ष का विषय नहीं माना जाता, यतः प्रभाव तुच्छ होता है, और अध्यक्ष-स्वलक्षण यानी सत्ययस्तुग्राही होता है । अध्यक्ष का सम्भव न होने के कारण हो अनुमान प्रमाण से भी अर्थाभाव की सिद्धि नहीं हो सकतो क्योंकि अनुमान
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स्याक टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
।
अध्यक्षमूलक होता है। अतः अध्यक्ष के अभाव में अर्थाभाव से व्याप्य निर्दोष लिङ्ग की उपलब्धि नहीं हो सकती ॥२॥
तीसरी कारिका में अनुपलब्धि प्रमाण से अर्थाभाध की सिद्धि को सम्भावना को व्यक्त किया गया है
स्वभावकार्यलिङ्गकयोरनुमानयोरत्राभावेऽप्यनुपलब्धिरेव तत्र मानम् , इत्याशङ्कतेमूलम्-उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थो येनोपलभ्यते ।
सतश्चानुपलब्ध्यैव तदभावोऽवसीयते ॥३॥ येन कारणेन उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थः-बाह्यो घटादिः, परनीत्योपलभ्यते, ततश्चानुपलध्यैव = अदर्शनरूपया, तदमायः = बाह्यार्थाभावः अवसीयते ॥ ३ ॥ यद्यपि स्वभावलिङ्गक और कार्यलिङ्गक अनुमान से प्रभाव की सिद्धि सम्भव नहीं
किन्त अनुपलब्धि प्रमाण से बाझो अर्थ के प्रभाव का निश्चय हो सकता है क्योंकि योग्यानुपलरिध अभाव की बोधक होती है और घटादि बाह्यार्थ अन्य मत से प्रत्यक्षयोग्य के लक्षण से सम्पन्न है। अतः उसकी अनुपलब्धि प्रदर्शन योग्यानुपलब्धिरूप है। इसलिये उससे बादार्थ के अभाव की सिद्धि अनिवार्य है ॥३॥
चतुर्थो कारिका में सामार्थ के अभाव का अनुपलब्धिमूलक सिर का निराकरण किया गया हैअत्रोचरमधिकृत्याहमूलम्-उपलब्धिलक्षणप्राप्तिस्तोत्वन्तरसंहतिः ।
तेषां च तत्स्वभावत्वे तस्याऽसिद्धिः कथं भवेत् ॥४॥ उपलब्धिलक्षणप्राप्तिरिह परेपा सत्वन्तरसंहतिः प्रतियोगि-प्रतियोगिव्याप्येतस्यावरप्रतियोग्युपलम्भकसमवधानम् । तेषां च = तदपराभिमतघटाधुपलम्भकानां तत्स्थानाभिषिक्तप्रत्ययान्तराम वा, तत्स्वभावत्वे = बाह्यापिलम्भजननस्वभावत्वे त्वथाभ्युपगम्यमाने, सदसिद्धि = बाह्याऽसिद्धिः, कथं भवेद् ? तदुपलम्भजननस्वभावहेतुसाकल्यविरोधात, बाह्यार्थग्य ज्ञानजनकत्वायत्त्या त्या प्रतियोगि-प्रतियोगिव्याप्येतरत्वस्य निवेशयितुमशक्यत्वात् , तत्स्थाने तदुपलम्भजनकसमनन्तरान्यत्वनिवेशेऽपि सामग्र्यननुप्रविष्टाना हेतुत्वोपगमेऽपसिद्धान्तात् ॥४॥
[विज्ञानवाद में प्रतियोगि अनुपलब्धि की दुर्घटता ] पर मत में उपलब्धिलक्षण को प्राप्ति यह प्रतियोगी को प्रत्यक्षयोग्यता रूप है जो अन्य समस्त हेतुओं का सानिधान रूप है । अर्थात् बाह्यार्थबादी के अनुसार प्रतियोगो एवं प्रतियोगिव्याय से इतर प्रतियोगी के प्रत्यक्ष में जरूरी सम्पूर्ण कारणों का सन्निधान ही योग्यता है। इस योग्यता के रहने पर यदि प्रतियोगी को उपलब्धि नहीं होती है तो निश्चय ही यह अनुपलब्धि प्रतियोगी के अभाव होने से ही होती है, अन्यथा प्रतियोगी के उपलम्भक अन्य सभी कारणों के साथ यदि प्रति
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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ श्लो० ५
योगी का भी सद्भाव होता तो उसकी उपलब्धि अवश्य होती । अतः प्रतीयोगी की इस प्रकार की अनुपलब्धि से उसके अभाव की सिद्धि होती है। किन्तु, विज्ञानवादी के मत में उक्त योग्यता के रहने पर प्रतियोगी को अनुपलब्धि नहीं उपपन्न हो सकती, क्योंकि विज्ञानवादी के मत में वे ही कारण अथवा उनके स्थान में स्वीकृत अन्य प्रत्यय ही अगर बाह्यार्थस्वरूप प्रतियोगी के उपलब्ध कराने के स्वभाव वाले स्वीकार्य हैं तब बाह्यार्थ असिद्ध है ऐसा वे फैले कह सकते हैं ? अन्यथा प्रतियोगी उपलम्भ के समग्र कारण वहां विद्यमान है तब उनके रहने पर प्रतियोगी की अनुपलब्धि का होना सङ्गत नहीं है। क्योंकि तत् की अनुपलब्धि है और तदुपलम्भ के जनक समग्र हेतुओं का सन्निधान है---इन दोनों में विरोध है ।
यदि विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि- 'उक्त स्थल में प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से भिन्न ही प्रतियोगी प्रत्यक्ष के कारणों का सविधान है - प्रतियोगी प्रत्यक्ष के समग्र कारणों का सविधान नहीं है, अतः उस काल में प्रतियोगी की अनुपलब्धि सम्भव है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगी उपलम्भक हेतुओं में प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से इतरत्व का निवेश विज्ञानवादी के लिए शक्य नहीं है, क्योंकि उस निवेश से प्रतियोगीरूप बाह्यार्थ की सिद्धि एवं उसमें प्रत्यक्षजनकता को आपत्ति होती है। यदि प्रतियोगी प्रतियोगीव्याप्येतरत्व स्थान में प्रतियोगी उपलम्भक समनन्तरप्रत्ययेतरत्व कर निवेश किया जाय तो वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि बौद्धमत में स्वरूपयोग्य में कारणता नहीं मानी जाती किन्तु फलोपधायक में ही कारणता होती है । श्रतः प्रतियोगी उपलम्भक सामग्री में जो प्रविष्ट है यही कारण होगा और वही समनन्तर प्रत्यय रूप होगा अथवा उस काल में समनन्तर प्रत्यय का सन्निधान भी अपरिहार्य है । अतः प्रतियोग्युपलम्भक समनन्तर प्रत्ययेतरत्व कर के समनन्तर प्रत्यय के समानकालिक प्रत्ययों का निवेश किया जायगा तो वे प्रत्यय प्रतियोगी उपलम्भक सामग्री के घटक न होने से उन में प्रतियोग्युपलम्भकारणता नहीं रहेगी अन्यथा प्रतियोग्युपलम्भक समनन्तर प्रत्ययेतरत्व ( प्रत्ययfrace) का निवेश निरर्थक होगा और उन्हें यदि कारण माना जायगा तो सामग्री में अननुप्रविष्ट पदार्थ में कारणता की प्रसक्ति होने से श्रपसिद्धान्त होगा ॥ ४ ॥
पांचवी कारिका में प्रतियोगी उपलम्भ की सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में प्रतियोगीउपलम्भ-जनन का स्वभाव कल्पित हैं, वास्तव नहीं, इसलिए प्रपसिद्धान्त नहीं होगा - इस मान्यता को प्रस्तुत कर उसका निराकरण किया गया है
'कल्पितं तत्र तज्जननस्वभावस्वं न तु वास्तवमिति जापसिद्धान्तः' इत्यभिप्रेत्य शङ्कापरिहारा वाह
मूलम् सहार्थेन तज्जननस्वभाषानीति चेन्न । जनयन्त्येव सत्येवमन्यथाऽ तत्स्वभावला ॥२॥
सहार्थेन वरपरिकल्पितेन, तञ्जननस्वभावानि अर्थोपलम्भजननस्वभावानिं प्रत्ययान्तराणि यदाह न्यायवादी- "स्वभावविशेषञ्च यः स्वभावः सरस्वत्येषूपलम्भप्रत्ययेषु सन् प्रत्यक्ष एव भवति" इति । तथाचार्थस्य क्लृप्तत्वात् सत्साहित्येनाथ पलम्भजननस्वभावत्वं
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स्या० क० टोका एवं हिन्धी विवेचन ]
विशिष्टं कटप्समित्याशय' इति चेत् ? नन्वेवं सत्येव क्लुप्तेऽप्यर्थ-जनयन्ति = जनयेयुस्तान्य
र्थोपलम्भम्, तत्साहित्यघटितस्वभावत्वात्, अन्यथाऽतत्स्वभावता-सहार्थेन तञ्जननस्वभावताविलयः स्यादित्यर्थः ॥ ५॥
[ अनुपलब्धि की उपपत्ति का निष्फल आयास ] विज्ञानवादी बौद्ध को ओर से यदि यह कहा जाय कि-"जो प्रत्यय प्रतियोगी उपलम्भ की सामग्री में प्रविष्ट नहीं है उनमें प्रतियोगीरूप अर्थ के साथ प्रतियोगी उपलम्भ के जनन का स्वभाव है और यह स्वभाव वास्तव नहीं किन्तु कल्पित है। आशय यह है कि जो जिस कार्य को सामग्री में प्रविष्ट होता है उसमें उस कार्य के जनन का वास्तवस्वभाव होता है और जो जिस कार्य को सामग्री में प्रविष्ट नहीं होता किन्तु सामग्री प्रविष्ट के सदृश होता है उसमें उस कार्य के जनन का कल्पित स्वभाव होता है। यह स्वभाव लोकव्यवहार के अनुरोध से माना जाता है । जैसे, कुशूलस्थ बीज अङ्कर को सामग्री में प्रविष्ट नहीं होता किन्तु लोग उसमें भी अंतरजनकत्व का व्यवहार करता है । अंकुरार्थों को उसके रक्षण और ग्रहण में प्रवृत्ति होती है । कुशूलस्थ बीज में अङ्करजनन के इस कल्पित स्वभाव को मानने पर उससे अंकुरोत्पत्ति का आपादान नहीं किया जा सकता, क्योंकि अङ्करोत्पादकता को याचि अडकूर जना के तारत तस्वभाव में है जो कुशूलगत बीज़ में न होकर प्रकर सामग्री में प्रविष्ट क्षेत्रगत बीज में होता है। तो इस प्रकार अर्थोपलम्भ सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनन का कल्पितस्वभाव मानने से वे भी अर्थोपलम्भ के हेतु गिने जाते हैं। अतः उन में अपिलम्भजनक समनन्तर प्रत्ययभिन्नत्वरूप से अभिहित कर उनके साकल्य को योग्यता कहा जा सकता है। तथा उस योग्यता के काल में अर्थ की अनुपलब्धि भी हो सकती है क्योंकि उनमें अर्थसहित अपिलम्सजननस्वभावता है। अतः अर्थसहितत्व की अभावदशा में अर्थ की अनुपलब्धि युक्तिसंगत है। अर्कोपलम्भ भी सामग्री में अप्रविष्ट प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव को मानने में न्यायवादी की भी सम्मति प्राप्त है। उन्होंने कहा है कि 'उपलम्भक अन्य प्रत्ययों के रहने पर, जो स्वभाव विद्यमान होने पर प्रत्यक्ष का विषय बन जाता है वह स्वभावविशेष पर मत में कल्पित अर्थस्वरूप है।' न्यायवादी की यह उक्ति स्पष्ट रूप से उपलम्भ के ऐसे प्रत्ययों का संकेत करती है जो उपलम्भ को सामग्री में प्रविष्ट नहीं है, क्योंकि उन्होंने अर्थ के साहित्य में उन प्रत्ययों में अर्थोपलम्भजनकता का कथन किया है। इस प्रकार अर्थ में अर्थोपलम्भअननस्वभावता क्लप्त होने से अर्थ के साहित्य से अन्य प्रत्ययों में भी अर्थोपलम्भजनन का विशिष्टयानी वास्तवस्वभाव से भिन्न कल्पित स्वभावसिद्ध होता है।"
इस पर ग्रन्थकार का कहना है कि विज्ञानवादी बौद्ध का यदि अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव के सम्बन्ध में यही आशय हो तो अर्थोपलम्भ के अन्य प्रत्ययों से अर्थसहित अर्थोपलम्भ की आपत्ति होगी । क्योंकि उनका अर्थोक्लम्भजनन स्वभाव अर्थसहितस्य घटित. अर्थात् उन में अर्थ सहित अर्थोपलम्भजनन का स्वभाव है। यदि वे अर्थसहित प्रर्थोपलम्भ के जनक न होंगे तो उन में अर्थसहित अर्थोपलम्भजनन के स्वभाव की हानि होगी, क्योंकि तब उनके उक्त स्वभाव में कोई प्रमाण न होगा ॥५॥
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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ५ इलो० ६-७
छुट्टी कारिका में, अर्थोपलम्भसामग्री में प्रविष्ट प्रत्ययों को अर्थोपलम्भ के प्रति स्वरूपयोग्य मान कर भी अर्थोपलम्भजनन के कल्पित स्वभाव का अभ्युपगम नहीं हो सकता इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है
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'सति बाह्य ऽर्थे कदाचित् तेन सह तदुपलम्भं जनयेयुरिति योग्यताय तज्जननस्वभाव कल्प्यत' इत्याशये वाह
गलम् — योग्यतामणि तत्स्वभावत्वकल्पना | इन्तैवमपि सिद्धोऽर्थः कदाचिदुपलब्धिः ॥६॥
अथ तेषां प्रत्ययान्तराणां योग्यतामधिकृत्य तत्स्वभावस्वकल्पना-यदाऽर्थो भवति तदा तदुपलम्भं जनयन्ति, हन्त ! एवमपि अर्थः = बाह्यो घटादिः सिद्धः कदाचित् = यस्मिन् कस्मिंश्चित् काले उपलब्धितः = उपलम्भसंभवात् ॥६॥
| बाह्यार्थ के उपलम्भ की आपत्ति ]
'प्रर्थोपलम्भ के अन्य प्रत्यय बाह्यार्थ का सन्निधान होने पर बाह्यार्थ उपलम्भ के जनक होते है' इस प्रकार अन्य प्रत्ययों में बाह्यार्थीपलम्भजनन के स्वभाव की कल्पना हो सकती है। ऐसा मानने पर पूर्वोक्त आपत्ति भी नहीं हो सकती क्योंकि उन में इस प्रकार के स्वभाव की कल्पना से उनके जनन स्वभाव में अर्थसहितत्व का प्रवेश नहीं होता। इस पर ग्रन्थकार का वेदपूर्वक यह कहना है कि ऐसी कल्पना से कभी न कभी बाह्यार्थ की उपलब्धि अवश्य सिद्ध होती है अतः उस उपलम्भ से बाह्यार्थ का सद्भाव प्रसक्त होता है जो विज्ञानवादी को स्वीकार्य नहीं है ॥६॥
aa after में विज्ञानवादी बौद्ध के इस कथन का कि 'जिन प्रत्ययों से बाह्यार्थ की उपलब्धि कभी नहीं होती वे भी बाह्यार्थ उपलम्भ के प्रति स्वरूप योग्य होते हैं अतः उन में बाह्यार्थोपलम्भ के जनन का कल्पित स्वभाव माना जा सकता है'-निराकरण किया गया है-
विपक्षे बाधकमाह
मूलम् - अन्यथा योग्यता तेषां कथं युक्त्योपपद्यते ? | न हि लोकेऽश्वमाषादेः सिद्धा पक्स्यादियोग्यता ॥ ७॥
अन्यथा = कदापि तदुपलम्भाऽजनने, कथं तेषाम् = अभिमतप्रत्ययान्तराणाम् योग्यता: = बाह्य र्थोपलम्भजननयोग्यता, युक्त्या = न्यायेन उपपद्यते ? कारणान्तरवैकल्यप्रयुक्त कार्याभावत्वस्यैव कारणान्तरे योग्यताया लोके व्यवहियमाणत्वात् । एतदेव समर्थयति न हि लोके = व्यवहारिणि लोके अश्वमाषादेः = कंकदुकादेः कदापि पक्त्याद्यजनकस्य पक्त्यादियोग्यता सिद्धेति ॥ ७ ॥
[ बाह्यार्थानुपलम्भक प्रत्ययों में योग्यता दुर्घट है ]
जिन प्रत्ययों से कभी भी बाह्यार्थ का उपलम्भ नहीं होता उन में बाह्यार्योपलम्भ के जनन
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स्या क. टोका एवं हिन्दी विधेचन ]
की योग्यता कैसे न्यायसंगत हो सकती है ? लोक में तो उन्हों वस्तुओं में किसी कार्य की योग्यता मानो जाती है जिन में उस कार्य का प्रभाव कारणान्तर के अभाव से होता है। किन्तु जिन प्रत्ययों में सवा कार्याभाव होगा उनमें वह अभाव कारणान्तर के अभाव से प्रयुक्त नहीं हो सकता । अतः उन में योग्यता का अभ्युपगम लोकव्यवहार विरुद्ध है-जैसे अश्वमाष यानी कंकटुक अर्थात् ऐसा द्रष्य जो देखने में पूरा मुग जैसा होता है किन्तु मूलतः वह पाषाणखण्ड होने से कभी नहीं पकता इसीलिये लोक में यह पाकयोग्य मुग के रूप में नहीं व्यवहृत किया जाता ॥७॥
८वीं कारिका में नैयायिक सम्मत योग्यानुपलब्धि के स्वीकारने से भी बौद्ध की अभिमतसिद्धि नहीं हो सकती । इस तथ्य का प्रतिपादन किया गया है
अधिकृतशेषमाह
मूलम्-पराभिप्रायती ह्येतदेवं चेदुच्यते न यत् ।
- उपलब्धिलक्षणप्राप्तोऽर्थस्तस्योपलभ्यते ॥८॥
पराभिप्रायत्तः = बाह्यार्थवादिनैयायिकाद्यभिप्रायतो हि निश्चतम् एतदेवमुच्यते यदुत-'उपलब्धिलक्षणग्राप्तोऽयों नोपलभ्यते' इति । अत्र किं तदभिमतानुपलब्ध्यङ्गीकारेण तदभावः साध्यते, उत घटज्ञानात् प्रागपि घटसत्ताग्युपगमे तदा तदुपलम्भप्रसङ्गापादनं परं प्रति क्रियत इत्ति ? सो, तदभिरनेशायनमः नाङ्गीकारेणेश्वरादेरभ्युपगमप्रसङ्ग इति स्फुट एव दोषः । अन्त्ये स्वाह-न = नैतदेवम् , यद् = यस्मात् , तस्योपलब्धिलक्षणप्रतोऽर्थस्तेनोपलभ्यत एव, अन्यस्य तु न तदुपलम्भप्रसङ्गः तद्ग्राहकेन्द्रियसंनिकर्षाद्यभावादिति न किञ्चिदेतत् ॥८॥
[ पराभिप्राय से योग्यानुपलब्धि के अवलम्बन में आपत्ति ] पराभिप्राय से अर्थात् बाह्यार्थवादी नैयायिकादि के अभिप्रायानुसार योग्यानुपलब्धि का अवलम्बन करके भी बाझार्थ के प्रभाव का साधन नहीं किया जा सकता। कारण, पराभिमत योग्यानुपलब्धि को स्वीकार करने पर यह प्रश्न होगा कि उक्तानुपलब्धि से क्या अनुपलभ्यमान बाह्य पदार्थ के अभाव की सिद्धि अभिप्रेत है ? अथवा घटादिशान के पूर्व भी घटादि की सत्ता मानने पर उस समय भी घटादि के प्रत्यक्ष का आपादान अभिप्रेत है ? इन प्रश्नों का उचित समाधान बौद्ध को प्रोर से प्राप्त नहीं हो सकता, क्योंकि प्रथम पक्ष स्वीकार करने पर यह आपत्ति होगी कि यदि पराभिमत योग्यानुपलब्धि अभाव को ग्राहक होगी तो ईश्वर का अभाव नहीं सिद्ध हो सकेगा, क्योंकि परमतानुसार ईश्वर की अनुपलमित्र योग्यानुपलब्धि नहीं है, फलतः ईश्वर साधक अनुमान में कोई बाधक न होने से बौद्ध को अनिच्छा से भो ईश्वरानुमान का अभ्युपगम करना होगा, जिसके फलस्वरूप ईश्वर का अस्तित्व बौद्ध के गले में प्रा पड़ेगा। ऐसी हो स्थिति दूसरे पक्ष को भी है, क्योंकि घटज्ञान के पूर्व घटोपलम्भ के आपादन के विषय में बाह्मार्थवादी की अोर से यह कहा जा सकता है कि नियत समय में होने वाले घटज्ञान के पूर्व घटोपलम्भ के आपादन के विषय में, घट जिस व्यक्ति को उपलब्धिलक्षण प्राप्त होता है अर्थात् जिस व्यक्ति को उपलम्भ को सामग्री सन्निहित होती है उसे घट का उपलम्भ होता ही है और जिसे उक्त सामग्री सन्निहित नहीं होती
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[ शास्त्रवासी० स्त० ५ इलो० ९
उसे घटोपलम्भ का प्रापादन नहीं हो सकता क्योंकि घट का उपलम्भ केवल घटाधीन नहीं है किन्तु घट के साथ इन्द्रियसंनिकर्षादि के अधीन भी है अतः जिस व्यक्ति के इन्द्रिय का घट के साथ संनिकर्ष नहीं है उस व्यक्ति को घट के रहते हुये भी घटोपलम्भ का प्रसंग नहीं हो सकता । अतः पराभिमत योग्यानुपलब्धि का श्रवलम्बन बौद्ध के लिये नितान्त नियुं क्तिक है ||८||
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व कारिका में, ' प्रत्ययों - ज्ञानकारणों में बाह्यार्थ ग्रहण का स्वभाव न होने से बाह्यार्थ का ग्रहण नहीं हो सकता, अतः वाह्यार्थ का अभाव है' इस बौद्ध कथन का निराकरण किया गया है
अतत्स्वभावत्वपक्ष आह
मूलम् - तदग्रहणभावैश्च यदि नाम न गृह्यते ।
तन एतावताऽसत्त्वं न तस्यातिप्रसङ्गतः ॥९॥
तदग्रहणभावैश्च = बाह्यार्थाग्रहणस्वभावैश्च प्रत्ययान्तरैः, यदि नाम न गृह्यते बाह्यर्थः, तत एतावता हेतुना न तस्याऽसवम् अतिप्रसङ्गतः पीताऽसंवेदनस्वभावेन तदसंवेदने पीतसंवेदनाभावप्रसङ्गात् ।
नन्यन्यदर्शनाभ्यामवासना चोधादुपस्थितस्थ
बाह्यघटस्यानादिवासना विशेषप्रबोधोपस्थितस्य शशविषाणस्यैवाऽभावग्राहक समनन्तरे सत्यभावग्रहः सर्वदेव भवति घटाकारज्ञानस्यापि बाह्यघटाभावग्रहाऽप्रतिरोधित्वात् वियाणाकारग्रहस्य शशविषाण । भावग्रहाऽप्रतिरोधित्ववत्, अतः किमुच्यते- 'योग्यानुपलब्ध्यभावाद् न बाह्यघटाभावग्रहः' इति ? तत्तदभावाकारज्ञाने तत्तत्समनन्तरस्यैव योग्यतात्वात् । न हि परेणाध्येका योग्यता स्वमतानुरोधेनापि वक्तुं शक्यते, तथाहिप्रतियोगि- तव्द्याप्येतर यावत्प्रतियोग्युपलम्भक समाधानमुदयनाभिमता योग्यता । न चैकत्र कुत्रापि न यावत्तदुपलम्भकसमवधानमिति वाच्यम्, स्वाश्रयसंबन्धेन तदुपलम्भकतावच्छेदकसमवधानोक्तेः । प्रतियोगिव्याप्यत्वं चात्र न कालिकेन, संनिकर्षस्य घटाद्यव्याप्यत्वात्, घटनाशोत्तरं तन्नाशात्, अण पृथिवीत्वाभावग्रहा (ह) प्रसङ्गात्, महन्यादेरपि तव्याप्यत्वात् कालिकेन नित्यव्याप्येतराप्रसिद्धेर्वा । न च दैशिकेन, संनिकर्षस्यापि प्रतियोग्यव्याप्यत्वात्, किन्तु प्रतियोगिग्रहासाधारणकारणत्वम् । अत एव संयोगिनाशजन्य संयोगनाशप्रत्यक्षम्, तत्र संयोगिनो हेतुत्वेऽप्यसाधारणत्वात् । अत एव च प्रतियोग्युपलम्भप्रागभावस्याभावप्रत्यक्षे हेतु - वेऽपि न दोषः, तस्याऽसाधारणत्वात् । संसर्गाभावग्रहे चेयं योग्यता, तेन नातीन्द्रियान्योन्याभावप्रत्यचानुपपत्तदोषः । प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नोपलम्भकसमवधानग्रहणाच न पिशाचचद्घटाभावप्रत्यक्षता । न च गुणे रूपाभावाऽग्रत्यक्षतापत्तिः, तदुपलम्भकमहत्वस्य तत्राभावादिति वाच्यम्, एकार्थसमवायेन तदुपलम्भक महत्वस्य तत्र सच्चादित्येतन्निष्कर्षः I
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
'प्रत्ययों=ज्ञानकारणों में बाह्मार्थ को ग्रहण करने का स्वभाव नहीं होता अत: बाह्यार्यग्रहण नहीं होता'-इस कथन से भी बौद्ध को इष्टसिद्धि यानी बाह्याथ के असत्व की सिद्धि नहीं हो सकती। यदि तद्वस्तु को ग्रहण करने के स्वभाव से होन कारणों से तद्वस्तु का ग्रहण न होने के कारण तद्वस्तु एवं तद्वस्तुग्रहण का असत्व माना जायगा तो अतिप्रसंग होगा । जैसे, पीतग्रहण का स्वभाव जिसमें नहीं है उससे पीत का ग्रहण नहीं होता, किन्तु केवल इतने से पीत का अथवा पीतग्रहण का प्रभाव नहीं होता किन्तु उक्त हेतु से यदि वस्तु का और वस्तुग्रहण का अभाव माना जायगा तो पोत और पौतग्रहण के अभाव को भी आपत्ति होगी।
बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-भावस्थर्यवादी दर्शनों के अभ्यास से जो भावस्थैर्य की वासना मनुष्य में बन जाती है उस वासना का उद्बोधन होने पर बाह्य घट की उपस्थिति होती है, जिससे उसे घटाकारज्ञान होता है। किन्तु उस ज्ञान के होने पर भी बाह्यघटाभाव का ज्ञान हो सकता है। क्योंकि वासनामूलक घटज्ञान बाह्य घटाभाव ज्ञान का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता है । जैसे, शशविषाण के भ्रम से उत्पन्न अनादि वासना के उद्बोधन से शश-विषाण की उपस्थिति होती है किन्तु अमाव के ग्राहक समनन्तरप्रत्ययरूप कारण का सन्निधान होने पर उसका अभावज्ञान सर्ववा होता है। विषाणाकार ज्ञान उक्त वासना से प्रादुर्भूत होने पर भी उससे शश-विषाणाभाव के ज्ञान का प्रतिबन्ध नहीं होता। अतः बाह्यार्थवादी का यह कथन कि योग्यानुपलस्थि के अभाव से बाह्यघटाभाव का ग्रहण नहीं हो सकता-निराधार है। तत्तदभावाकारज्ञान में तत्तत्समनन्तरप्रत्यय ही योग्यता है । अतः योग्यानुपलब्धि का अभाव बताना संगत नहीं है। इस पर यह भी नहीं कहा जा सकता कि'तत्तदभायाकार ज्ञान में तत्तरसमनन्तर प्रत्यय की योग्यता मानने पर सम्पूर्ण अभाधज्ञान के लिये अनुगत योग्यता का प्रतिपादन न हो सकने से 'योग्यानुपलब्धि प्रभाव को ग्राहक है यह सामान्य व्यवस्था नहीं बन सकतो'- क्योंकि बाह्यार्थवादी भी अपने मतानुसार किसी एक अनुगत योग्यता का निर्वचन नहीं कर सकते । अाहें भी तत्तदभावग्रहण करने के लिये उन प्रभावों के प्रतियोगी की अनुपलब्धि की सहकारीभूत योग्यता को भिन्न-भिन्नरूप में ही स्वीकार करना होगा।
[ उदयनकृत योग्यता का नियंचन दोपपूर्ण] जैसे, उदयनाचार्य ने 'प्रतियोगी और प्रतियोगीश्याप्य इन दोनों से भिन्न प्रतियोगी-उपलम्भ के समस्त कारणों के समधान' को योग्यता कहा है। किन्त इसका तर्क शख निर्व सकता-६योंकि किसी भी अभाव के प्रतियोगी के उपलम्भक, प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्य से इतर जितने साधन होते हैं उन सबका समवधान कहीं भी एकत्र नहीं हो सकता। जैसे, घटाभाव का प्रतियोगी घट होता है। घट और घटल्याप्य से इतर घट के उपलम्भ के साधनों में आश्रयगतमहत्त्वउद भूतरूप और आश्रय में आलोक का सन्निधान भी आता है। किन्तु घट का उपलम्भ किसी एक ही आश्रय में नहीं होता, विभिन्नाश्रयों में होता है, अत: विभिन्न आश्रयों का उभूतरूप, महत्त्व और आश्रयों में विद्यमान आलोक घटोपलम्भक समग्र साधनों में आ जाते हैं किन्तु सबका समवधान किसी एक आश्रय में नहीं हो सकता, क्योंकि एक आश्रयगत जो उद्भूतरूपावि है अन्य आश्रय में नहीं रह सकते।
यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि-'प्रतियोगो उपलम्भक सभी साधनों का समवधान योग्यता नहीं है, किन्तु प्रतियोगी के यावत् उपलम्भकतावच्छेदक का स्वाश्रयसम्बन्ध से समवधान ही
हो हो
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१०
[ शास्त्रवार्ता० स्त०५ श्लो..
योग्यता है। इस प्रकार की योग्यता मानने पर पूर्वोक्त दोष को अवकाश नहीं है, क्योंकि घट के यावत् उपलम्भकतावच्छेदक में महत्त्वत्व-उवभूतरूपत्व-प्रालोकत्व आदि का समावेश होगा और वे सभी स्वाश्रय सम्बन्ध से उन आश्रयों में विद्यमान हैं जहां घट और घटेन्द्रियसंनिकर्ष होने पर घट का उपलम्म होता है।'-किन्तु योग्यता का यह निर्वचन भी समोचीन नहीं हो सकता, क्योंकि इसके शरीर में जो प्रतियोगीव्याप्यत्व निविष्ट है उसके सम्बन्ध में इस प्रश्न का उचित समाधान शक्य नहीं है कि प्रतियोगीव्याप्यत्वकालिक सम्बन्ध से ग्राह्य है अथवा दैशिक सम्बन्ध से ?
यदि कालिक सम्बन्ध से प्रतियोगीव्याप्यत्व की विवक्षा की जायेगी तो घट के साथ चक्षु का संयोगरूप संनिकर्ष घटव्याप्य नहीं होगा क्योंकि जब घटनाश के बाद घट-चक्षुसंयोग का नाश होगा तब घटनाश को उत्पत्तिकाल में घटचक्षसंयोग रहता है किन्तु घट नहीं रहता अतः घट-चक्षु संयोग घटन्याय से इतर हो जायगा, जब वह घटव्याप्य से इतर हो गया तब उसका संनिधान अपेक्षित होगा किन्तु घटाभाव प्रत्यक्ष के पूर्व वह सम्भव नहीं है। अतः योग्यानुपलब्धि संपन्न न होने से घटाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा।
तथा दूसरा दोष यह होगा कि महत्व भी कालिकसम्बन्ध से घट का व्याप्य हो जायगा और तब प्रतियोगिव्याप्य से इतर प्रतियोगी उपलम्भक कारणों में उसका समावेश न होने से योग्यता के सन्निधान में महत्त्व को अपेक्षा न होगी अतः अण में पृथ्विवाभाव के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि उसमें भी योग्यानुपलब्धि सुलभ हो जायगो। तीसरा दोष यह होगा कि नित्यवस्तु के अभाव की उपलब्धि ही न हो सकेगी क्योंकि उस प्रभाव का प्रतियोगी नित्य होने से कालिकसम्बन्ध से सभी पदार्थ उसके व्याप्य हो जायेंगे। अत: प्रतियोगी व्याप्येतर की अप्रसिद्धि होने से योग्यता ही दुर्घट हो जायगी।
इसी प्रकार दैशिक सम्बन्ध से भी प्रतियोगीव्याप्यत्व को विवक्षा नहीं हो सकती, क्योंकि चक्षुघटसंयोग दैशिकसम्बन्ध से घट का च्याप्य नहीं होगा क्योंकि घट का दैशिक सम्बन्ध संयोग प्रथवा समवाय ही होगा। घटचक्षसंयोग घट का ध्याय नहीं होगा क्योंकि घट-चक्षुःसंयोग समवायात्मक देशिक सम्बन्ध से घट में है किन्त समवाय अथवा संयोगरूप६शिक सम्बन्ध से घट नहीं है । अत एव घटचक्षुःसंयोग भी प्रतियोगिव्याप्येतर प्रतियोगी उपलम्भकों में समाविष्ट होगा, किन्तु पूर्ववत् घटाभाव के प्रत्यक्ष के पूर्व उससे घटित योग्यता के असम्भव होने से घटाभावप्रत्यक्ष को अनुपपत्ति होगी।
[ परिकारयुक्त योग्यता का निर्वचन ] अतः प्रतियोगीन्याप्यत्व का अर्थ प्रतियोगी उपलम्भ का प्रसाधारण कारण करके प्रतियोगी और प्रतियोगीउपलम्भक असाधारण कारणों से भिन्न प्रतियोगीउपलम्भकथावत्साधनों के समबधान को योग्यता मानना होगा। ऐसा मानने पर संयोगी के नाश से जो संयोगनाश होता है उसके प्रत्यक्ष में भी कोई बाधा न होगी, क्योंकि उसके प्रतियोगीभूत संयोग का यद्यपि संयोगी भी उपलम्भक है किन्तु यह संयोगोपलम्भ का असाधारण कारण है। अतः प्रतियोगी उपलम्भ के अन्य साधनों में उसका समावेश नहीं होगा। अत एव उक्तसंयोग नाश के समय संयोगी न रहने पर भी योग्यता रहने में कोई बाधा नहीं होगी। इसी प्रकार, प्रतियोगी के उपलम्भ का प्रागभाव भी प्रतियोगी के प्रत्यक्ष में हेतु है, किन्तु वह भी उसका असाधारण कारण है अत एक प्रतियोगी उपलम्भ के अन्य
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स्था० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
कारणों में उसका भी समावेश नहीं होगा अतः वायु में रूपाभाव के प्रतियोगी रूप का उपलम्भकप्रागभाव न होने पर भी वायु में रूपाभाव के प्रत्यक्ष में अपेक्षित योग्यता अक्षुण्ण रहने से वायु रूपाभाव के प्रत्यक्ष को अनुपपत्ति नहीं होगी ।
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[ अन्योन्याभावप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार ]
इस संदर्भ में यह ध्यान रखने को बात है कि प्रस्तुत योग्यता संसर्गाभाव के प्रत्यक्ष में अपेक्षित है, अन्योन्याभाव के प्रत्यक्ष में नहीं । अतः स्तम्भ में अतीन्द्रिय पिशाचादि के अन्योन्याभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती । संसर्गाभाव प्रत्यक्ष में भी प्रतियोगी और प्रतियोगी उपलम्भ के असाधारण कारण से भिन्न प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्न के यावत् उपलभ्भ साधनों का समवधान हो योग्यता के रूप में ग्राह्य है । अत एव 'पिशाचवटी नास्ति' इस प्रकार के पिशाचावच्छिनघटनिष्ठप्रतियोगिताक अभाव के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति नहीं हो सकती । गुण में रूपाभाव के प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि रूपाभाव के प्रतियोगी रूपउपलम्भ के प्रति महत्त्व समवायसम्बन्ध से कारण न होकर एकार्थसमवाय यानी स्वसमवायिसमवाय सम्बन्ध से कारण होता है और इस सम्बन्ध से घटादिगत महत्त्व घटादिगत गुण में भी है, अतः गुण में भी रूपाभावप्रत्यक्ष की अपेक्षित योग्यता विद्यमान होने से उसमें भी रूपाभाव का प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं है ।
सोऽयमनुपपन्नः, असाधारणत्वस्य दुर्वचत्वात् विषयतासंबन्धेन हेतुत्वरूपाऽसाधारणत्वविवक्षण आलोकसंयोगादेरप्यसाधारणत्वापत्तौ तमसिं घटाभावादेः प्रत्यक्षतापातात् प्रागभावादर्शय साधारणत्वात् उपलम्भपदेन प्रतियोगितावच्छेदकाश्रयाणां यावतामुपलम्भस्वरूपयोग्यत्वग्रहणे महति वायायुद्भूतरूपाभावाऽप्रत्यक्षतापत्तेः, अणुरूपोपलम्भाऽप्रसिद्धेः यक्तिचिदुपलम्भयोग्यत्वग्रहणे च रूपसामान्याद्यभावप्रत्यक्षतापतेः । किञ्च यत्किञ्चित्संबन्धेन तदुपलम्भकतावच्छेदकाश्रय सच्चमतिप्रसक्तम्, नियतसंबन्धेन च रूपादेवयावभावात् तत्र तदभावप्रत्यक्षतानापत्तिः ।
[ परिष्कृत योग्यता निर्वचन में त्रुटियाँ ]
तो इस प्रकार यद्यपि उदयनाचार्य सम्मत योग्यता का परिष्कृत निर्वाचन आपाततः सम्भव प्रतीत होता है, किन्तु व्याख्याकार सूचित रीति से विचार करने पर यह भी संगतिपूर्ण प्रतीत नहीं होता। क्योंकि प्रतियोगिउपलम्भ के असाधारणकारणत्व को व्याख्या दुर्बच है । जैसे, यदि प्रतियोगी उपलम्भ के प्रसाधारणकारण का अर्थ किया जायगा 'विषयतासम्बन्ध से प्रतियोगीउपलम्भ के प्रति कारण' तो भलोकसंयोग भी घटाभाव प्रतियोगी घट के उपलम्भ का असाधारणकारण हो जायगा क्योंकि विषयतासम्बन्ध से घट उपलम्भ के प्रति आलोकसंयोग समवाय सम्बन्ध से कारण होता है । फलतः प्रतियोगी उपलम्भ के इतर कारणों में आलोकसंयोग का संनिवेश न होने से उसके अभाव में भी योग्यता उपपन्न हो सकेगी अतः अन्धकार में भी घट की योग्यानुपलब्धि बन जाने से घटाभावादि के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति होगी ।
दूसरा दोष यह होगा कि प्रतियोगी के उपलम्भ का प्रागभाव भी प्रतियोगी उपलम्भ का असाधारण कारण न होगा क्योंकि वह आत्मनिष्ठ होने के कारण विषयनिष्ठ न होने से विषमतासम्बन्ध
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[ शास्त्रवार्ताः स्त० ५ श्लो०६
से प्रतियोगीउपलम्भ का कारण न होगा । अतः प्रतियोगीउपलम्भ के अन्य साधनों में ही उसका समावेश होगर, फलतः वायु में रूपाभाव के प्रत्यक्ष को अनुपपत्ति होगी। इन सबके अतिरिक्त यह भी विचारणीय है कि योग्यता के शरीर में प्रतियोगीजपलम्भकपद ले यदि प्रतियोगितावच्छेदकाश्रय जितने हो उन सभी के उपलम्भक स्वरूपयोग्य का ग्रहण किया जायगा तो वायु में उद्भूतरूपाभाव का प्रत्यक्ष न हो सकेगा, क्योंकि उदभूतरूपत्वस्वरूप प्रतियोगितावच्छेदक के यावद् प्राश्यों में परमाणु और द्वयुणुक का भी उद्भूतरूप आयेगा और उसका उपलम्भ अप्रसिद्ध है। यदि उक्त शब्द से प्रतियोगितावच्छेदकाश्रय यत्किश्चित प्रतियोगी के उपलम्भ के प्रति स्वरूपयोग्य का ग्रहण किया जायगा तो पसामान्याभाव आदि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। क्योंकि रूपसामान्याभाव के प्रतियोगितावच्छेदकरूपत्व के यत्किश्चित् अरश्रय रूपसामान्य का उपलम्भ प्रसिद्ध है।
[ यतकिचित् सम्बन्ध से उपलम्भकसमवधान मानने पर अतिप्रसंग ]
यह भी विचारणीय है कि प्रतियोगोउपलम्भकतावच्छेदक के पाश्रयों को यत्किञ्चित सम्बन्ध से सत्ता को योग्यताघटक माना जायगा तो अतिप्रसक्ति होगी। जैसे, घटोपलम्भकतावच्छेदक के आश्रय उद्भूतरूप-महत्त्व आलोक की कालिकसम्बन्ध से सत्ता उद्भूतरूपशून्य-महत्त्वशून्य-आलोकन शून्य देश में भी रहेगी। अतः उन देशों में भी घटाभाव के प्रत्यक्ष को प्रापत्ति होगी। यदि नियत सम्बन्ध से अर्थात् प्रतियोगी के उपलम्भकतावच्छेदक का जो आश्रय जिस सम्बन्ध से प्रतियोगी उपलम्भ का कारण होता है उस सम्बन्ध से उस आश्रय की सत्ता को योग्यताघटक वायु में रूपाभाव के प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति होगी। क्योंकि, रूपाभाव के प्रतियोगी रूप के यावत् उपलम्भकों में उद्भूतरूप भी समाविष्ट होगा। वह इस प्रकार प्रतियोगी उपलम्भक का अर्थ है प्रतियोगीउपलम्भ निष्ठजन्यतानिरूपितजनकतावान् । विशेष्यतासम्बन्ध से द्रव्यविशेष्यक भावविशेषणक चाक्षुष प्रत्यक्ष में समवाय सम्बन्ध से उद्भूतरूप कारण माना जाता है। क्योंकि उद्भूतरूपरहितद्रध्य में किसी भाषपदार्थ का चाक्षषप्रत्यक्ष नहीं होता है। यतः रूपोपलम्भ भो भावविषयक चाक्षुष प्रत्यक्ष है अत एव रूपोपलम्भनिष्ठजन्यता शब्द से द्रव्यविशेषणक चाक्षुषप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नजन्यता भी गृहीत होगी। अत एव उद्भुतरूप भी रूपोपलम्भक यावत् के मध्य में प्रविष्ट होगा क्योंकि उसका परिहार प्रतियोगी और प्रतियोगीव्याप्येतरत्व से नहीं हो सकता है, क्योंकि प्रतियोगीव्याप्य का प्रतियोग्युपलम्भासाधारणकारण' ऐसा अर्थ कर देने पर प्रतियोगी भी उसी से गृहीत हो जाता है अतः प्रतियोगी भिन्नत्व का निवेश निरर्थक हो जाता है। एवं प्रतियोग्युपलम्भक आसाधारणकारण से भिन्नत्व का भी निवेश प्रतियोग्यपलम्भ के साधारण कारणों में नहीं किया जा सकता, क्योंकि ऐसा निवेश करने पर घटाभावग्रह में अपेक्षित योग्यता में चक्ष का भी सम्निवेश नहीं होगा, क्योंकि घटचक्षुःसंयोगाभावदशा में घटचाक्षुषप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिये घटनिष्ठविषयतासम्बन्ध से घटविषयक चाक्षषप्रत्यक्ष के प्रति घटानुयोगिक संयोग सम्बन्ध से चक्षु को कारण मानना पड़ता है । अतः चक्षु घटोपलम्भ का प्रसाधारण कारण होने से घटचाक्षुष के प्रसाधारण कारणों से भिन्न घटोपलम्भ कारणों में नहीं आ सकता। अतः उसके अभाव में भी घटाभावोपलम्भक योग्यता बन जाने से अन्धे को भी घटाभाव के चाक्षुष की आपत्ति होगी। प्रत एव योग्यता के शरीर में प्रतियोग्युपलम्भ के असाधारणकारण भिन्नत्व का प्रतियोग्युपलम्भ के कारणों में निवेश न कर प्रतियोग्युपलम्भनिरूपित असाधारणकारणताभिन्नत्व का प्रतियोग्युपलम्भनिरूपित साधारणकारणता में प्रवेश कर योग्यता का इस प्रकार निर्वचन करना होगा कि 'प्रतियोग्युपलम्भनिरूपित्त
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
असाधारणकारणताभिन्न प्रतियोग्युपलम्भनिष्ठ कार्यतानिरूपितकारणतावच्छेदक सकल घर्मों के प्राश्रय का कारणतावच्छेदक सम्बन्ध से समवधान' योग्यता है। इसका अनिष्ट परिणाम यह होगा कि वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा, क्योंकि रूपाभाषउपलम्भक योग्यता में रूप का भी समावेश होगा क्योंकि रूपोपलम्भ निरूपित असाधारण कारणता जो उपलभ्यमान रूप में है वह
पित तादात्म्यसम्बन्धावच्छिन्न है, क्योंकि विषयतासम्बन्ध से प्रत्यक्ष के प्रति तादात्म्य सम्बन्ध से विषय कारण होता है। उस कारणता से भिन्न रूपोपलम्भनिष्ठद्रव्यविशेष्यक-भावविशेषणक-चाक्षुषप्रत्यक्षत्वाधच्छिम्नकार्यतानिरूपित समवायसम्बन्धावच्छिनकारणता उद्भूतरूप में है, उस कारणता का अवच्छेदक उद्भूतरूपत्व का आश्रय(रूप) का सन्निधान, कारणतावच्छेवक समवायसम्बन्ध से वायु में नहीं है अतः वायु में रूपाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा।
___ एतेन 'प्रतियोगिग्राहकन्याभिमतेन्द्रियजन्यभावविषयक्रयावद्ग्रहनिष्ठकार्यताभिन्नतियोगिनहनिष्टकार्यताप्रतियोगिककारणताकत्वमसाधारणस्वम्, 'भावविषयक.' इति विशेषणाद् नालोकादेरसाधारण्यम् । प्रतियोगिग्राहकत्वाभिमतेन्द्रियजन्यभावविषयकयावद्ग्रहजनकतावच्छेदकावच्छिन्न प्रतियोगिभिन्नं यावत्तत्समधानं योग्यतेति फलितम् । वायौ रूपाभावाऽप्रत्यक्षतावारणाय प्रतियोगिभिन्नती ति निरस्तम्, प्रामण्यानावादेः प्रत्यक्षतापातात्, यावदुपलम्भकावच्छिन्नाभावत्वेन स्वरूपयोग्यत्वेऽविनिगमात , अभावावच्छिन्नतावदुपलम्भकानामपि हेतुल्यसंभवात् , अनुपलब्धिकुक्षिनिक्षिप्तत्वेनेन्द्रियादेरभावप्रत्यक्षहेतुत्वोच्छेदाच्च ।
[नैयायिकों की ओर से योग्यता का नया निर्वचन ] प्रतियोगी उपलम्भ के प्रसाधारणकारणत्व के दुर्ववत्वापत्ति का परिहार करने के लिये यदि उदयनाचार्य के अनुयायी नैयायिकों की ओर से प्रतियोगिउपलम्भ के असाधारणकारणता का निर्वाचन इस प्रकार किया जाय कि 'प्रतियोगिग्राहकत्वरूप से अभिमत इन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले भायविषयकयावद्ग्रहनिष्ठ कार्यता से भिन्न जो प्रतियोग्युपलम्भनिष्ठकार्यता, तन्निरूपित कारमतावान् जो हो वही प्रतियोग्यपलम्भ का असाधारण कारण है-ऐसा निर्वचन करने पर आलोक घट के चाक्ष षोपलम्भ के असाधारण कारणों में नहीं समाविष्ट होमा, क्योंकि आलोक चक्षुजन्य भावविषयकयावग्रह का कारण है क्योंकि आलोक के विना कभी भी भाव का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता है, अतः चक्षुअन्य भावविषयकयावदग्रहनिष्ठ कार्यता से भिन्न घटचाक्षष निष्ठकार्यतानिरूपितकारणता आलोक में नहीं है। प्रतः घटाभावोपलम्भक योग्यता को कुक्षि में आलोक का निवेश होने से अन्धकार में घटाभाव के चाक्षुष प्रत्यक्ष को आपत्ति नहीं हो सकती। एवं रूपचाक्षुष का प्रागभाव रूपाभाव के उपलम्भक योग्यता में प्रविष्ट नहीं होगा क्योंकि रूपचाक्षुष का प्रागभाव चक्षुजन्यभावविषयकयावग्रह का कारण नहीं है । अतः वह चक्षुजन्यभावविषयक यावग्रहनिष्ठकार्यता से भिन्न रूपचाक्षुषनिष्ठकार्यतानिरूपित कारणता का आश्रय होने से रूप चाक्षुष के प्रति असाधारण कारण हो जायगा। प्रसाधारणकारण का इस प्रकार निर्वचन करने से योग्यता का स्वरूप यह फलित होता है कि प्रतियोगिताहकत्वेन अभिमतेन्द्रिय से उत्पन्न होने वाले भावविषयक यावग्रह के जनकताव
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो० ६
च्छेदक से अवच्छिन्न, प्रतियोगिभिन्न जो जो हो उन सब का समधान योग्यता है। योग्यताकुक्षि में प्रतियोगिभिन्नत्व का निवेश करने से घायु में रूपाभाव के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि,-पद्यपि रूप भी चक्षजन्य भावविषयक यावदग्रह के जनकतावच्छेदकोदभूतरूपत्व से विशिष्ट है किन्तु वह रूपाभाव के प्रतियोगी से भिन्न नहीं हैं, अत एव रूपानाच स्पलम्भक योग्यता * शरीर में उसका सन्निवेश नहीं है।"
[नैयायिकमत में ब्राह्मणवाभाव प्रत्यक्ष की आपत्ति ] किन्तु योग्यता के निर्वचन का नैयायिकों का यह प्रयास भी दोषमुक्त नहीं है। क्योंकि इस प्रकार की योग्यता से विशिष्ट प्रतियोगी के अनुपलब्धि को अमाव का ग्राहक मानने पर शूद्रादि में ब्राह्मण्याभाव के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि उन में ब्राह्मण्याभाव की उपलम्भक उक्तविध योग्यता और ब्राह्मण्य की अनुपलब्धि विद्यमान है। दूसरा दोष यह है कि 'उक्तविध यावत्प्रतियोग्युपलम्भकविशिष्ट अनुपलब्धि' प्रभाव को ग्राहक है अथवा 'अनुपलब्धिविशिष्ट उक्तविध यावत्प्रतियोग्युपलम्भक' अभाव का ग्राहक है इस में कोई विनिगमना नहीं है। प्रतः गुरुभूत दो कार्यकारणभाव की आपत्ति होगी। तीसरा दोष यह है कि तथाविधयावतप्रतियोगिउपलम्भकविशिष्टानुपलब्धि को अभाव प्रत्यक्ष के प्रति कारण मानने पर, इन्द्रियाबि का अनुपलब्धिनिष्ठ कारणता का अवच्छेदक कुक्षि में प्रवेश हो जाने से उनमें प्रभावप्रत्यक्षकारणता का लोप हो जायगा, क्योंकि कारणतावच्छेदक प्रथमान्यथासिद्धिग्रस्त होने से कारणलक्षण से गृहीत नहीं हो सकता।
केचिनु-'यद्धर्मावच्छिन्नपतियोगिनि प्रतियोगितन्सन्निकर्पविरहमात्रप्रयुक्तो यदधिकरणविशेष्यकलौकिकोपलम्भविषयत्वाभावस्तदधिकरणे तद्धर्मावच्छिन्नाभात्रो योग्यः । तत्प्रयुक्तन्वं च स्वरूपसंबन्धविशेषः, 'कारणाभावप्रयुक्त कार्याभावः' इति प्रत्ययात् । अस्ति चेदमालोकादिमतिभूतले, तत्र घटानुपलम्भस्य तन्मात्रप्रयुक्तत्वात् । एवं स्तम्भे पिशाचानुपलम्भेऽपि बोध्यम् , पिशाचलादेरयोग्यत्वे मानाभावात, सहकारिविरहादेव कार्याभावाद् नित्यस्येति व्याप्तेरसिद्धः। भृतले पिशाचानुपलम्भस्तु न तन्मात्रप्रयुक्तः उद्धृतरूपाभावस्यापि तत्र प्रयोजकत्वात् ।
[ अधिकरण घटित योग्यता की व्याख्या] कुछ विद्वानों का यह कहना है कि
"यद्धमविशिष्ट प्रतियोगी में यदधिकरणविशेष्यक लौकिकप्रत्यक्षविषयत्वाभाव प्रतियोगि और प्रतियोगि के साथ इन्द्रियसन्निकर्ष इन दोनों के विरहमात्र से प्रयुक्त होता है-तद्धर्मावच्छिन्न अभाव तदधिकरण में प्रत्यक्षयोग्य होता है । इस योग्यता के निर्वचन में जो तादृशोपलम्भविषयत्वाभाव में प्रतियोगी और तत्सग्निकर्षविरहमात्रप्रयुक्तत्व प्रविष्ट है वह जन्यत्व या जन्यजन्यत्यरूप
नहीं किन्तु स्वरूपसम्बन्धविशेष है, जो 'कारणाभावात् कार्याभाव' कार्याभाव कारणाभावप्रयुक्त ! होता है" इस प्रतीति से ही सिद्ध है । आशय यह है कि कारण के प्रभाव से होने वाला कार्याभाव * कार्यानुत्पत्तिरूप होता है और कार्यानुत्पत्ति का अर्थ होता है कार्यप्रागभाव । वह अनादि होने से न तो
कारण भावजन्य हो सकता और न जन्यअन्य हो सकता है किन्तु उसमें कारणभावप्रयुक्तत्व व्यवहत
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स्था०फ टीका एवं हिन्दी वितेजन ]
होता है अतः इस प्रयुक्तत्व को स्वरूपसम्बन्धविशेषरूप मानना ही उचित है । तात्पर्य यह है कि कार्याभाव में जो कारणाभाव से प्रयोज्यत्व है वह कार्याभाव और कारणाभाव से प्रततिरिक्त उन दोनों का एक सम्बन्ध है और वही उक्त प्रतीति का विषय है। झालोकादिविशिष्टभूतल में घट का अनुपलम्भ घटाभाव और घटेन्द्रियसन्निकर्षाभाव मात्र से प्रयुक्त है। क्योंकि उक्त मूतल में घट और घटेन्द्रियसन्निकर्ष से अतिरिक्त घट के सभी उपलम्भक विद्यमान है अतः आलोकादि विशिष्ट सूतल में घटाभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है । स्तम्भ में पिशाचत्व का अनुपलम्भ भी स्तम्भ में पिशाचाव के प्रभाव और पिशाचत्व के साथ इन्द्रियसंनिकर्षाभावमात्र से प्रयुक्त है। न कि पिशाचत्व की प्रयोग्यता से प्रयुक्त है, क्योंकि पिशाचत्वादि की अयोग्यता में कोई प्रमाण नहीं है ।
[ पिशाचत्य प्रत्यक्षापत्ति का निवारण ]
यदि यह कहा जाय कि "पिशाचत्व को योग्य मानने पर कभी न कभी इसके चाक्षुष प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी क्योंकि 'नित्यस्य स्वरूपयोग्यत्वे फलावश्यंभावनियमात् ' जो जिस कार्य के प्रति स्वरूप योग्य एवं निश्य होता है वह कभी न कभी उस कार्य का फलोपधायक अवश्य होता है - यह नियम है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि कार्य का अभाव सर्वत्र सहकारी कारण के विरह से हो होता है। अतः नित्य में यदि कभी भी सहकारी का संविधान न हो तो उसमें सर्वदेव कार्य का अभाव हो सकता है, अतः उक्त नियम प्रसिद्ध है । इसिलिये पिशाचत्व प्रत्यक्ष योग्य होने से स्तम्भ
पिशाचत्वाभाव भी प्रत्यक्षयोग्य है। जैसे स्तम्भ में पिशाचमेव को प्रत्यक्षयोग्य माना गया है उसी प्रकार पिशाचात्वाभाव भी प्रत्यक्ष योग्य है । किन्तु यह ध्यान में रखने की बात है कि पिशाचत्वाभाव के समान सूतलादि में पिशाचाभाव योग्य नहीं हो सकता क्योंकि मूतल में पिशाच का अनुपलम्भ पिशाच के और पिशाच इन्द्रिय सम्बन्ध के अभावमात्र प्रयुक्त नहीं है अपितु उद्भूतरूपाभाव भी उसमें प्रयोजक है। उक्त योग्यता संसर्गाभाव श्रन्योन्याभाव दोनों के लिए समान है। जैसे पिशाचमेव के पिशाचत्वविशिष्टि पिशाचस्वरूप प्रतियोगी में स्तम्भविशेष्यकलौकिक प्रत्यक्षीयतादात्म्यसम्बन्धाबच्छिन्नविषयता का अभाव विशाचरूपप्रतियोगी और पिशाच के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष इन दोनों के विरहमात्र से प्रयुक्त है अतः स्तम्भरूप अधिकरण में पिशाचमेदरूप पिशाचत्वावच्छिन अन्योन्याभाव योग्य है, क्योंकि स्पष्ट है कि स्तम्भ और पिशाच में भेद होने के कारण स्तम्भ के साथ इन्द्रियसम्बन्ध होने पर भी 'स्तम्भ पिशाच है' ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होता है इसलिए न तो वहां पिशाच है और न पिशाच के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष भी है ।
अस्तु वाऽन्योन्याभावे प्रतियोगितावच्छेदकतत्संनिकर्ष विरह मात्रप्रयुक्तस्तदधिकरणीयलौकिकोपलम्भप्रकारत्वाभावः प्रतियोगितावच्छेदकनिष्ठ एव तथा पिशाचादेरनुपलम्भस्यायोग्यत्वप्रयोज्यत्वेऽपि पिशाचत्वादेः स्तम्भेऽनुपलम्भस्यात्तथात्वात्, योग्यव्यक्तिवृत्तित्वेनैव जातेयोग्यत्वात् । अत्यन्ताभावे तु पूर्वच योग्यता । अत एव न जलपरमाणौ पृथिवीत्वाभावप्रत्यक्षम्, तत्र तदनुपलम्भस्य तन्मात्रप्रयुक्तत्वाभावात्, अधिकरणे महत्त्वाभावस्यापि प्रयोजकत्वात् । ब्राह्मण्याभावस्तु शूद्रादौ न प्रत्यक्षः, विशुद्धिज्ञानस्य तद्व्यञ्जकस्याभावात् । न च य एव गगनादौ भूतलविशेष्यकोपलम्भविषयत्वाभावः, स एव घटादौ, आश्रयभेदेनाभावा
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो०६
भेदादित्यनुपपत्तिः, व्याप्यवृत्तिवाऽव्याप्यत्तित्वाभ्यां तभेदाद् , यद्धविच्छिन्नाऽप्रतियोगिखावच्छेदेनोक्तत्वविवक्षणाद् वा। संयोगप्रत्यक्षे च न संयोगिद्वयप्रत्यक्षमपि हेतुः, मिथः संयुक्तयोरन्यावच्छेदेनोपलम्भेऽपि संयोगाऽप्रत्ययात, संयोगिनः संनिकपंघटकतयेवोपयोगित्वात् , इति न तदभावप्रत्यक्षानुपपत्तिः" इत्याहुः ।
[ अन्योन्याभाव प्रत्यक्ष के लिये अन्य रीति से योग्यता की व्याख्या ]
अथवा संसर्गाभाव और अन्योन्याभाव के लिये भिन्न भिन्न प्रकार से योग्यता का निर्वचन किया जा सकता है। जैसे, अन्योन्याभाव के लिये योग्यता का निर्वचन इस प्रकार होगा-जिस अन्योन्याभाव के प्रतियोगितानन में पविकरविलेष्यक लौकिक प्रत्यक्ष की प्रकारता का अभाव प्रतियोगितावच्छेचक और प्रतियोगितावस्छदक के साथ इन्द्रिय संबंध के विरह मात्र से प्रयुक्त होता है वह अन्योन्याभाव उस अधिकरण में प्रत्यक्षयोग्य होता है । पिशाचमेद के प्रतियोगितावच्छेदक पिशाचत्व में स्तम्भविशेष्यक लौकिकप्रत्यक्ष को प्रकारता का अभाव इसीलिये है कि 'स्तम्भ पिशाच है ऐसा प्रत्यक्ष नहीं होता है क्योंकि स्तम्भरूप अधिकरण में पिशाचत्वरूप प्रतियोगितावच्छेदक का और उसके साथ इन्द्रियसंबंध का अभाव है अत: योग्यता के प्रस्तुत निर्वचन के अनुसार स्तम्भ में पिशाचभेद प्रत्यक्षयोग्य होता है ।
[ पिशाचत्वानुपलम्भ अयोग्यता प्रयुक्त नहीं है | यदि यह कहा जाय कि-'स्तम्भ में जो पिशाचत्व का अनुपलम्भ होता है वह भी पिशाचत्य की अयोग्यता प्रयुक्त होने से प्रतियोगितावच्छेवक-तत्संनिकर्षविरहमात्र प्रयुक्त नहीं है, यह ठोक उसी प्रकार जैसे पिशाच का अनुपलभ पिशाच की अयोग्यता प्रयुक्त होने से पिशाच और पिशाच इन्द्रियसम्बन्ध के विरहमात्र से प्रयुक्त नहीं होता" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि पिशाच का अनुपलम्भ यपि अयोग्यता प्रयुक्त है किन्तु पिशाचत्व का अनुपलम्भ अयोग्यताप्रयुक्त नहीं कहा जा सकता। क्योंकि स्तम्भ प्रत्यक्षयोग्य है अतः पिशाचत्व यदि उसमें विद्यमान होता तो योग्य हो जाता क्योंकि जाति की योग्यता योग्य आषय में विद्यमान होने से होती है अतः स्तम्भ में पिशाचत्व के अनुपलम्भ को अयोग्यताप्रयुक्त नहीं कहा जा सकता किन्तु पिशाचत्वाभाव और पिशाचत्व के साथ इन्द्रियसंबन्ध विरह प्रयुक्त ही कहा जा सकता है। अत्यन्ताभाव की योग्यता तो वही है जो इससे पूर्व बतायी गयी है । इसीलिये जलपरमाणु में पृथिवीत्वाभाव का प्रत्यक्ष नहीं होता। क्योंकि जलपरमाणु में पृथ्वोत्य का अनुपलम्भ पृथ्वीत्व और पृथ्वीत्व के साथ इन्द्रियसंबंध इन उभय के विरहमात्र से प्रयुक्त नहीं होता किन्तु परमाणुरूप श्रधिकरण में महत्त्व का अभाव भी परमाणु में पृथ्वीत्व के अनुपलम्भ का प्रयोजक होता है।
[ ब्राह्मणत्वाभाव प्रत्यक्ष की अनापत्ति ] उक्त योग्यता का अभ्युपगम करने पर शुद्रादि में ब्राह्मण्याभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि शूद्रादि में जो ब्राह्मण्य का अनुपलम्भ है वह ब्राह्मण्य और ब्राह्मण्य के साथ इन्द्रियसम्बन्ध के विरहमात्र से प्रयुक्त नहीं है अपितु ब्राह्मण्य के व्यञ्जक विशुद्धताज्ञान के अभाव से भी प्रयुक्त है। अर्थात शूद्र में जो ब्राह्मण्य का अप्रत्यक्ष होता है वह इस लिये भी नहीं होता है कि
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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ब्राह्मणादि में जिस विशुद्धता के ज्ञान से ब्राह्मण्य की अभिव्यक्ति होती है शूद्रादि में उस विशुद्धि का ज्ञान नहीं होता।
[भूतल में घटाभाव अयोग्यता' की आपत्ति का निवारण ] यदि यह पहा जाय कि ' में से जुस बिष्यफ उपलम्भविषयत्वाभाव है उसी प्रकार गगनादि में भी है और आश्रयमेद से अभाव का भेद न होने से गगनादिनिष्ठ और घटादिनिष्ट उक्त उपलम्भ विषयत्व के प्रभाव में ऐक्य है। एवं गगनादि में उक्त अभाव अयोग्यता प्रयुक्त भी है, अत एव उस अभाव में प्रतियोगी प्रौर तत्सं निकर्ष उभय के विरहमात्र प्रयुक्तत्व नहीं है । अतः भूतल में घटामाय अयोग्य हो जायगा" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि गगन में उक्त उपलम्भ विषयत्वाभाव व्याप्यवत्ति है और घटादि में उक्त अभाव अध्याप्यवृत्ति है, क्योंकि घटादि में उक्त अमाव का प्रतियोगी उपलम्भ विषयत्व भी कभी कभी रहता है, अत: दोनों में भेद है। अत एव भूतल में घटाभाव प्रत्यक्षयोग्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती । अथवा योग्यता का निर्यचन इस प्रकार से करना चाहिये कि यधर्मविशिष्ट प्रतियोगिकत्वावच्छेदेन-यद्धर्मावच्छिन्नाधिकरणकरवावच्छेदेन यदधिकरणविशेष्यकोपलम्भविषयत्वाभाव में प्रतियोगितत्संबन्धविरमात्रप्रयुक्तत्व हो तदधिकरण में तद्धर्मावच्छिन्नाभाव योग्य होता है। गगनादि और घटादि में जो भूतलविशेष्यक लौकिकप्रत्यक्षविषयत्वाभाव है. वह गगनवृत्तित्वावच्छेवेन घर और घटइन्द्रिय संबंध विरहमात्र प्रयुक्त है। अतः भूतल में घटाभाव की योग्यता निर्वाध है।
[संयोगाभाव प्रत्यक्ष न होने की शंका का वारण ] यदि यह शंका को जाय कि-'संसर्गाभाव को प्रत्यक्ष योग्यता का उक्त प्रकार से निर्वचन करने पर संयोगाभाव प्रत्यक्षयोग्य न हो सकेगा। क्योंकि, संयोग के प्रत्यक्ष में संयोगिद्वय का प्रत्यक्ष भी कारण होता है, अतः संयोग में भूतलादिविशेष्यक-लौकिकोपलम्भविषयत्वाभाव संयोगिद्वय के प्रत्यक्षाभाव से भी प्रयुक्त होगा प्रतः उसमें प्रतियोगी और प्रतियोगी-इन्द्रियसंबंध विरहमात्र प्रयुक्तत्व नहीं रहेगा फलतः संयोगाभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा" - तो यह ठोक नहीं है। क्योंकि संयोग प्रत्यक्ष के प्रति संयोगिय के प्रत्यक्ष की कारणता प्रसिद्ध है। क्योंकि जब कोई स्थूल दो द्रव्य परस्पर संयुक्त होते हैं और उन स्थलसंयोगिद्रध्य का प्रत्यक्ष उस भाग में होता है जिस भाग में उनका परस्पर संयोग नहीं होता उस समय संयोगिय के प्रत्यक्ष होने पर भी संयोगिप्रत्यक्ष का उदय न होने से उक्त कारणता मानने में अन्वय व्यभिचार है । यदि यह शंका की जाय कि'जहां संयोगिय के नाश से संयोग का नाश होता है वहां संयोगिद्वय के नाशकाल में संयोग के प्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिये संयोगप्रत्यक्ष के प्रति संयोगिप्रत्यक्ष को कारण मानना आवश्यक है तो यह ठीक नहीं है क्यों कि संयोग के प्रत्यक्ष में संयोगी की सत्ता उस प्रत्यक्ष के कारणभूत विषयरूप में अपेक्षित नहीं है किन्तु सयोग के साथ इन्द्रिय संबध के सम्पादन रूप में अपेक्षित है। प्राशय यह है कि संयोगी के अभाव में संयोगी द्वारा संयोग के साथ इन्द्रिय संनिकर्ष न होने से हो संयोगनाशकाल में संयोग का अप्रत्यक्ष होता है।"
लदपि न, धारावाहिकामावप्रत्यक्षानुपपत्तेः, तत्र बाधस्याऽप्यनुपलम्भप्रयोजकत्वात् । न च धर्मितावच्छेदकामिश्रितोपलम्भस्याभावस्तन्मात्रप्रयुक्त इति स एव वाच्यः, बाधाभावोऽपि
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[शास्त्रवार्ता स्त०५ श्लोक
या विरहप्रतियोगिकोटी निवेश्य इति वाच्यम्, तथापि भृतले घटानुपलम्भम्य घटालोक संयोगाभावप्रयुक्तत्वेन नन्मात्रप्रयुक्त्या भावात् ।
[ अधिकरणघटित योग्यता की व्याख्या त्रुटिपूर्ण ] ___निम्नोक्त रीति से विचार करने पर कतिपय विद्वानों द्वारा प्रस्तुत किया गया योग्यता का यह उक्त निर्वचन भी समीचीन प्रतीत नहीं होता । उक्त योग्यता का स्वीकार करने पर प्रभाव के धारावाहीप्रत्यक्ष की उपपत्ति न होगी। क्योंकि उस स्थल में पूर्वपूर्वक्षण में होने वाला प्रभाव प्रत्यक्ष बाधनिश्चयविधया उत्तरोतरक्षण में प्रतियोगी के अनुपलम्भ का प्रयोजक होगा। अतः उत्तरोत्तरक्षरण में भूतलादिविशेष्यक घटादिविशेषणक अनुपलम्भ में पूर्व पूर्व क्षणोत्पन्न बाधनिश्चयप्रयुक्तत्व' भी रहने से प्रतियोगीतत्संनिकर्षविरहमात्रप्रयुक्तत्व न होने के कारण उत्तरोत्तर क्षण में भूतलादि में घटादि का प्रभाव प्रत्यक्षयोग्य नहीं होता।
___ अभाव के धारावाहिक प्रत्यक्ष की उपपत्ति के लिये यदि यह कहा जाय कि--"यदधिकरणविशेष्यक-निमितावच्छेदककलौकिकोपलम्भविषयत्वाभाव यद्धर्मविशिष्ट में प्रतियोगितसंनिकर्षविरहमात्रप्रयुक्त हो तदधिकरण में तद्धर्मावच्छिन्नाभाव योग्य होता है"-तो ऐसा कहने पर यद्यपि अभाव के धारावाहिक प्रत्यक्ष की उपपत्ति सो हो जायगी, क्योंकि धारावाहिक प्रत्यक्षस्थल में जो "भूतलं' 'घटाभावः' इस प्रकार का बाघ निश्चय होता है वह भूतलं घटवत्' इसी बुद्धि का विरोधी हो सकता है, किन्तु 'घटवत्' इस निर्मितावच्छेदककबुद्धि यानी धर्मितावच्छेदकानवशाही बुद्धि का विरोधी नहीं हो सकता। अत एव उत्तरोत्तर क्षण में घटादि में जो इस उपलम्भविषयत्व का प्रभाव होता है वह बाधप्रयुक्त नहीं अपितु प्रतियोगीसनिकर्षविरहमात्र प्रयुक्त होता है। उक्त प्रापत्ति का परिहार करने के लिये दूसरा उपाय यह भी है कि योग्यता के लक्षण में प्रविष्ट विरह के प्रतियोगी कोटि में बाधाभाव का भी प्रवेश करके योग्यता का निर्वचन इस प्रकार किया जाय कि "यद्धर्मविशिष्ट में यदधिकरराविशेष्यक लौक्रिकोपलम्भविषयत्वाभाव प्रतियोगी उसका संनिकर्ष तथा बाधाभाव इन तीनों के विरहमात्र से प्रयुक्त हो, तद्धर्मावच्छिन्न का अभाव तदधिकरण में योग्य होता है। तथापि घटालोकसंयोगाभाव को लेकर प्रापत्ति आयेगी षयोंकि भूतल में घट का अनुपलम्भ घटालोकसंयोग के अभाव से भी प्रयुक्त होता है, अतः प्रतियोगी, तत्संनिकर्ष, बाधाभाव तीनों के विरहमात्र से प्रयुक्तत्व न होने से भूतल में घटाभाव को योग्यता न हो सकेगी।
___ न च तत्तत्सनिकर्षातिरिक्तप्रतियोग्युपलम्मकतायच्छेदकावच्छिन्नविरहप्रयुक्त इति मात्रान्तार्थः, भूतले आलोकसंयोगसत्त्वाद् न तद्विरहः, द्रव्यचाक्षुषे आलोकसंयोगत्वेनैव हेतुत्वात् , अतिप्रसङ्गस्य विषनिष्ठसामानाधिकरण्येनव वास्तित्वात् , अत एव घटाकाशसंयोगाधनध्यक्षत्वस्य घटाकाशसंयोगादीनां गुरुत्वादिवदयोग्यत्वेन प्रयुक्तत्वेऽपि न क्षतिः, गुरुत्वादिभेदस्य सामान्यत एव प्रत्यक्षहेतुत्वादिति वाच्यम्, संनिकस्यापि त्यागापत्तेः, यद्विरह्मात्रप्रयुक्तत्वोपादानेऽपि दोपाभावाचक्षःसंयोगत्वेनैव चाक्षुषहेतुत्वाव , घटाभावभ्रमानुपपत्तेच, तत्र घटानुपलम्भस्य दोपप्रयुक्तत्वात् । न च तत्तद्दोपाभावोऽपि ततुल्यतया निवेश्यः, हृदादौ वहयादि
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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
भ्रमाभावरूपवह्वयाद्यनुपलम्भस्य दोषाभावप्रयुक्तत्वात् , तत्तदोषाणामपि तत्तुल्यतया निवेशे चातिगौरवात् , भङ्गयन्तरेणोदयनीययोग्यतोक्तिरेवेर्यायनि दिक् ।
[ द्रव्यचाक्षुष में आलोक संयोग सामान्य हेतुता की शंका ] इस दोष के परिहार के लिये यदि ऐसा कहा जाय कि
'प्रतियोगी और प्रतियोगी-इन्द्रियसंनिकर्ष के अभाव से अतिरिक्त जो प्रतियोगीउपलम्भकजनकतावच्छेदकावच्छिन्न का प्रभाव, उससे प्रयुक्त यदधिकरणविशेष्यक लौकिकोपलम्भविषयत्याभाव यद्धर्मविशिष्ट में हो, तजविच्छिन्न का प्रभाव तदधिकरण में योग्य होता है। तब यह आपत्ति है कि भूतल में घटानुपलम्भ घट और घटेन्द्रियसंनिकर्ष के अभाव से अतिरिक्त जो घटोपलम्भ• जनकतावच्छेदकावच्छिन्नाभाव, उससे अप्रयुक्त होने से घटामा अयोग्य होगा क्योंकि घटालोकसंयोगत्व यह घटोपलम्भ का जनकतावच्छेदक नहीं है अपितु आलोकसंयोगस्वमात्र है, वह इस प्रकार कि विषयतासम्बन्ध से द्रव्याविषयक चाक्षुषमात्र के प्रति समवायसम्बन्ध से आलोकसंयोग कारण है, इस कार्यकारणभाव में अन्य द्रव्यालोकसंयोग से इध्यान्तर के प्रत्यक्ष का प्रतिप्रसंग न होने से यह सामान्यकार्यकारणभाव ही लाघव से मान्य है किन्तु 'तत्तद्रव्यविषयकचाक्षुष में तत्तद्वव्यालोकसंयोग भी कारण है। यह कार्यकारणभाव मान्य नहीं है। फलतः प्रतियोगीउपलम्भ का जनकतावच्छेवक घटालोकसंयोगत्व नहीं, फिन्तु आलोकसंयोगत्व है और तदवच्छिन्नाभाध, घट में आलोकसंयोग न होने पर भी भूतल में आलोकसंयोग विद्यमान होने के कारण अविद्यमान है। अतः उससे प्रप्रयुक्तत्व भूतलनिष्ठघटानुपलम्भ में अक्षुण्ण है ।
[ घटाकाशसंयोगाभाव में योग्यत्व की आपत्ति का निवारण ] इस पर यह शंका की जाए कि-"घटाकाशसंयोग का भी अनुपलम्भ प्रतियोगीविरह और प्रतियोगिसंनिकर्षविरह से अतिरिक्त प्रतियोगिउपलम्भजनकतावच्छेदकावच्छिन्नाभाव से अप्रयुक्त है, क्योंकि घटाकाशसंयोग का अनुपलम्भ उपलम्भकारणअभाव से नहीं होता फिन्तु घटाकाशसंयोग की अयोग्यता से होता है। इसलिये घटाकाशसंयोगाभाष भी योग्य हो जायगा"-तो यह शंका नहीं की जा सकती क्योंकि गुरुत्व-घटाकाशसंयोगादि जितने भी अतीन्द्रिय पदार्थ हैं और जो उद्भूतरूपबन्महबद्व्यनिष्ठ और चक्षुसनिकृष्ट होने से उनका प्रत्यक्ष प्रसक्त है-उन सभी का भेव सामान्यरूप से चाक्षुषप्रत्यक्ष का कारण है । अत एवं घटाकाशसंयोग में चाक्षुष के कारणतावच्छेदक गुरुवादिभेवत्यावच्छिन्न का प्रभाव उन प्रतीन्द्रिय पदार्थों के अनुपलम्भ का प्रयोजक है, अतः घटाकाशसंयोग के अनुपलम्भ में प्रतियोगिविरह और प्रतियोगिइन्द्रियसनिकर्षविरह से प्रतिरिक्त प्रतियोगिउपलम्भजनकतावच्छेदकावच्छिन्नाभाव-प्रयुक्तत्व होने से घटाकाशसंयोगाभाव में योग्यत्व को प्रापत्ति नहीं हो सकती है।"
[प्रतियोगिसनिकर्षविरह के निवेश की व्यर्थता ] तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार योग्यत्व का निर्वचन करने पर संनिकर्ष का भी योग्यता के शरीर में से त्याग कर देना उचित होगा। क्योंकि प्रतियोगिविरहमात्रप्रयुक्तत्व को रखने पर भी कोई दोष न होगा। वह इस प्रकार चक्षसंयोगस्वरूप से चक्षुसंयोग सामान्य को चाक्षुष सामान्य
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो०६
के प्रति लाघव से कारण माना जाएगा। अत एव धनःसंयोगाभाव भी प्रतियोगिजपलम्भजनकताव
छेदकावच्छिन्नाभाव में प्रविष्ट होगा और वह प्रतियोगी के साथ चक्षुःसंयोग न होने पर भी अधिकरण के साथ चक्षु संयोग होने से अविद्यमान होगा अतः भूतलनिष्ठघटानुपलम्भ में घटाभाव से अतिरिक्त प्रतियोग्युपलम्भजनकतावच्छेदकावछिन्नाभाव का अप्रयुवतत्व होने से भूतलनिष्ठघटाभाव की योग्यता में कोई बाधा न होगी।
[ घटाभावभ्रम की अनुपपत्ति का दोप ] पूर्वोक्त योग्यता के निर्वचन में दूसरा दोष यह है कि घटबदमूतल में घटाभावभ्रम की भी अनुपपत्ति हो जाययो क्योकि घटवद्भूतल में घटानुपलम्भ दोषप्रयुक्त है और दोष प्रतियोगिविरह एवं प्रतियोगिइन्द्रियसंनिकर्षविरह से अतिरिक्त दोषाभावरूप प्रतियोग्यपालम्भक का अभावरूप है। अतः घटवभूसलनिष्ठघटानुपलम्भ में प्रतियोगिविरह व प्रतियोगिन्द्रियसंनिकर्षविरह से अतिरिक्त प्रतियोग्युपलम्भकतावच्छेवकावच्छिन्न का अभाव जो वोषरूप है तत्प्रयुक्तत्व ही है, अप्रयुक्तत्य नहीं है; इसलिये घटवदभनल में घटाभाव योग्यत हो सकते से घटवदभतल में घटाभाव का भ्र सकेगा। यदि विरहप्रतियोगोकोटि में प्रतियोगों के समान तसहोषाभाव का भी प्रवेश कर जाय तो 'तत्तदोषाभाव विरहातिरिक्त' शब्द से दोष का ग्रहण न हो सकने से यद्यपि घटवदर्भातल में घटाभाव के भ्रम की अनुपपत्ति तो नहीं होगी, किन्तु ह्रद में वहन्यभाव अयोग्य हो जायगा क्योंकि हद में वह्नि का अनुपलम्भ बलिभ्रमाभावरूप है अत एव दोषाभावप्रयुक्त है अतः प्रतियोगोविरहातिरिक्त प्रतियोग्युपलम्भकतावच्छेद कावच्छिन्नाभाव में वोषाभाव भी आ गया क्योंकि हद में वह्निरूप प्रतियोगि के उपलम्भ का जनक है दोष । प्रतः एक दोषाभाव भी प्रतियोगिउपलम्भकाभावरूप है । तत्प्रयुक्तत्व हो वह्निनमाभावरूप वह्नि के अनुपलम्भ में है अतः हद में वह्नयभाव के योग्य न होने से हद में वह्नयभाव प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति हो जायगी।
। प्रतियोगिअंश में दोप निवेश करने पर महान गौरव ] __ यदि विरहप्रतियोगि कोटि में प्रतियोमो और तत्तदोषाभाव के समान तत्तदोष का भी निवेश करेंगे तो यद्यपि तत्तद्दोष विरह और प्रतियोगी आदि के विरह से भिन्न जो प्रतियोग्युपलम्भक का प्रभाव उसका अप्रयुक्तस्व ह्रदनिष्टपति के अनुपलम्भ में रहने से हद में बचभाव को अयोग्यता की आपत्ति का परिहार तो हो जायगा किन्तु तथापि योग्यता के शरीर में प्रतियोग्युपलम्भकाभाव में अनेक प्रतियोगिआदिविरहातिरिक्तत्व के निवेश में गौरव होगा क्योंकि जब अनेक विरहभेव का निवेश करना होगा तो एककविरहदविशिष्टापरापरविरहभेदत्वेनैव निवेश करना होगा और भेदों के विशेषणविशेष्यभाय में विनिगमनाविरह होने के कारण ये सम्पूर्णभेद और उस दिरह के प्रतियोगीभतविरह और उस बिरह के प्रतियोगीभूत-प्रतियोगी-तत्तदोषाभाव और तत्तदोषादि का तत्तद्विरहातिरिक्त प्रतियोग्युपलम्भकतावच्छेदकवच्छिन्नाभावप्रयुषतत्वाभाव का प्रतियोगीतावच्छेदकता कोटि में निवेश होगा, अतः गुरुतर उक्त अप्रयुक्तत्व का प्रतियोग्युपलम्भ में प्रयवा प्रतियोगिनिष्ठ यदधिकरणविशेष्यक लौकिकविषयत्वामाव में निवेश करने से अति महान् गौरव की प्रसक्ति होगी।
उक्त सभी दोषों से अतिरिक्त एक दोष यह है कि योग्यता का यह निर्वचन प्रकारान्तर से उदयनाचार्य के योग्यतामिवचन में ही पर्यवसित होगा। क्योंकि उन्होंने अभावग्रहादि योग्यता का समर्थक उसी अधिकरण में किया है जिसमें प्रतियोगो और प्रतियोगी इन्द्रिय संनिकर्ष से अतिरिक्त
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
सकल प्रतियोगी-उपलम्भकों का समवधान हो । यही बात प्रकृतयोग्यता के निधन से भी प्राप्त होती है क्योंकि प्रतियोगी-प्रतियोगोइन्द्रियसंनिकर्षविरह से अतिरिक्त जो प्रतियोग्युपसम्भक का अभाव, प्रतियोगी के अनुपलम्भ में तत्प्रयुक्तरव भी उसो प्रधिकरण में होगा जहाँ प्रतियोगी के अन्य सम्पूर्ण उपलम्भक विद्यमान होंगे। अतः दोनों योग्यता में केवल शारिक भेद है तात्त्विक भेद कुछ भी नहीं रहता।
'प्रतियोगिसच्चप्रसञ्जनप्रसञ्जितप्रतियोग्युपलम्भाभावः' इति चिन्तामणिकारीया योग्यता, प्रतियोगिसत्यव्यापकोपलम्भविष्यप्रतियोगिकाभावत्वं योग्यतावच्छेदकमिति फलितम् । नत्यापादनात्मकज्ञानमप्युफ्युज्यते, तदभावेऽप्यभावप्रत्यक्षात् । तत्र शुद्ध प्रतियोगिसचं ध्यान्यम् ? किञ्चिदवच्छिन्नं वा । नाद्यः, तत्सत्वेऽपि कारणान्तराभावादनुपलम्भेन व्यभिचारात् । न द्वितीयः, जलपरमाणी पृथिवीवाभाव प्रत्यक्षतापातात् , तत्रापि महत्त्वादिविशिष्टपृथिधीत्वेनोपलम्भापादनसंभशत् । न च यक्षाऽवृत्तिविशेषणानवच्छिन्नयासवोक्तौ निस्तारः, तथापि गन्धवदगुभिन्नत्ये सति पृथिवीत्वेन तत्र तदापादनसंभवात् ।
[चिन्तमणिकार विरचित योग्यता लक्षण की समीक्षा ] तस्वचिन्तामणिकार का मत यह है कि प्रतियोगी की सत्ता-प्रतियोगितावरछेदक सम्बन्ध से प्रतियोगी के प्रसञ्जन आरोप से जन्य प्रसञ्जन-आरोप का विषयभूत जो प्रतियोग्युपलम्भ, उसका अभाव योग्यता है । जनका प्राशय यह है कि जिस अधिकरण में जिस प्रभाष के प्रतियोगी का प्रतियोगितावच्छेदकता संबन्ध से प्रारोप होने पर उसके प्रतियोगीउपलम्भ का आरोप हो सकता है, उस प्रधिकरण में यह प्रभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है। जैसे आलोकसंयुक्त महत्त्व-उद्भूतरूपविशिष्ट मूतलादि में घट की असत्त्व दशा में इसप्रकार का आरोप हो सकता है कि 'यदि अत्र घटः स्यात् हि उपलभ्येल'.-अथवा 'योष देशः घटवान् स्यात् हि घटबत्तयोपलभ्येत, विशेष्यता संबन्धेन घटोपलम्भवान स्यात'-अर्थात मालोकावियक्त भतल में यदि घट हो तो उपलब्ध होना चाहिये, अथवा आलोकादियुक्त भूतल में यदि घटधान हो तो घटोपलम्भ का विशेष्य हो अर्थात् 'अत्र भूतले घटः' अथवा 'इदं भूतकं घटवत्' इस प्रकार का भूतलविशेष्यक उपलाभ हो। अत: प्रालोकादियुक्त मूतल में घटाभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है और घटाभाव इन्द्रियसंनिकृष्ट होने पर उसका प्रत्यक्ष भी होता है।
[ लक्षणांश में उपलम्भापादन निवेश की व्यर्थता] व्याख्याकार ने इस योग्यता के निर्वचन का फलितार्थ यह बताया है कि जिस अभाव का प्रतियोगी प्रतियोगीसता के व्यापक उपलम्भ का विषय हो उसका अभाव योग्य है । तादृश अभावस्व ही योग्यतावच्छेवक है। इस फलितार्थ को उपादेयता के समर्थन में व्याख्याकार ने यह कारण बताया है कि प्रतियोगीसत्ता के आरोप से होने वाले प्रतियोग्युपलम्भ के प्रारोप को अभाव प्रत्यक्ष में कारण नहीं माना जा सकता क्योंकि उक्त आरोप के बिना भी अभाव का प्रत्यक्ष होता है, अतः प्रभाव की योग्यता के नियंचन में उक्त आरोप का प्रवेश नहीं किया जा सकता। योग्यता के उस फलित स्वरूप का प्रतिपादन कर उन्होंने इस चिन्तामणिकार.कृत निर्षचन के युक्तायुक्तस्व की परीक्षा
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[ शास्त्रवा० स्त०५ श्लो०६
करने के विचार से वो प्रश्न उठाये हैं -(१) एक यह कि शुद्ध प्रतियोगीससा का योग्यता के शरीर में व्याप्यरूप से प्रवेश माना जाय ? अथया (२) कुछ विशेषणों से विशिष्ट प्रतियोगीसत्ता का? इन दोनों को असमाधेय बताते हुये कहा है कि --
शुद्धप्रतियोगीसत्ता का व्याप्य रूप से प्रवेश नहीं किया जा सकता कि प्रतियोगीमात्र की सत्ता होने पर भी उपलम्भ के अन्य कारण का प्रभाव होने पर प्रतियोगी का उपलम्म नहीं होता अतः शुद्ध प्रतियोगीसत्ता प्रतियोगीउपलम्भ की व्यभिचारिणी है।
[ परमाणु में पृथ्वीत्वाभावप्रत्यक्ष की आपत्ति ] द्वितीय पक्ष में योग्यता के गर्भ में किश्चिद्विशेषणविशिष्ट प्रतियोगीसत्त्व से व्यापकता का निवेश करने पर किश्वित्पद के प्रतियोगी से अतिरिक्त प्रतियोगीउपलम्भक यावत कारणों का ग्रहण अभिमत होने पर यद्यपि उक्तदोष नहीं है तथापि परमाणु में पृथ्वीत्वाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी क्योंकि पृथ्वीस्वोपलम्भ महत्त्वादिविशिष्टपृथ्वीत्व का व्यापक होने से पृथ्वीत्वाभाव योग्य है अतः जैसे स्यूल जल में उसका प्रत्यक्ष होता है वैसे जलपरमाणु में उसके प्रत्यक्ष की आपत्ति अनिवार्य है । यवि उसके उत्तर में यह कहा जाय कि-"योग्याभाव का भी प्रत्यक्ष उसी प्राधिकरण में होता है जिस अधिकरण में उसके प्रतियोग्युपलम्भ का पापादन हो सके । आशय यह है, प्रतियोगीआरोपजन्यप्रतियोग्युपलम्भारोप के प्रतियोगियधिकरणाभाव का अभाव अभायप्रत्यक्ष में कारण होता है। अहाँ भी जिस अभाव का प्रत्यक्ष होता है वहां उस प्रभाव के प्रतियोगी उपलम्भ का जब कभी प्रापावन होने से प्रतियोगीउपालम्भ के प्रतियोगीव्यधिकरणाभाव का प्रभाव उस समय भी रहता है जब प्रभाव प्रत्यक्ष के पूर्व उस अधिकरण में प्रतियोग्युपलम्भ का आरोप विद्यमान नहीं रहता । जल परमाणु में पृथ्वीत्वोपलम्भ का आरोप कदापि न होने से उसमें पृथ्वीत्वोपलम्भ का प्रतियोगियधिकरणाभाव ही रहता है अतः जलपरमाण में पय्यीत्वाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अलपरमाणु में भी महत्त्वादिविशिष्ट पृथ्वीत्व दे. भारोप से पृथ्वीत्योपलम्भ का आरोप सम्भव होने के कारण पृथ्वीवोपलभ के आरोप के प्रतियोगिव्याधिकरणाभाव का अभाव विद्यमान है।
[ पक्षावृत्तिविशेषणवैशिष्ट्य का परिष्कार ! इस दोष के परिहार के लिये यदि प्रतियोगी में पक्षावृत्तिविशेषणानवच्छिन्नत्व यानी पक्षायत्ति विशेषण से अविशिष्टत्व का निवेश कर यदि इस प्रकार निर्वचन किया जाय कि 'पक्षाऽवृत्तिविशेषणशून्य यत्किश्चित् प्रतियोगिसत्त्व व्यापक उपलम्भ का जो विषय है, तत्प्रतियोगिकाभाव ही योग्य है तो उक्त आपत्ति का परिहार हो सकता है क्योंकि पध्वीत्वोपलम्भ में महत्त्वाविविशिष्ट पृथ्वोत्व को व्यापकता को लेकर जलपरमाणु में पृथ्वीत्याभाव योग्य नहीं बताया जा सकता क्योंकि जलपरमाणु में जब पृथ्वीत्वोपलम्भ का आरोप करना होगा तो उस आरोप में पक्ष यानी धर्मा जलपरमाणु होगा। महत्त्व उसमें अवसि है-अतः महस्वविशिष्टपथ्वीत्व पक्षाबसिविशेषण से शून्य नहीं है।"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि 'गन्धवदणभिनस्व'जलपरमाणस्वरूप पक्ष में पति है-अतः उससे विशिष्ट पृथ्वीस्त्र पक्षावृत्तिविशेषणशून्य होने से पक्षावृत्ति विशेषणशून्य, एवं गन्यवदणुभिन्नत्व तथा पृथ्वीत्वातिरिक्त, महत्त्वातिरिक्त, पश्चीत्वोपलम्भ के यावत्कारणों का यत्किश्चित् शब्द से ग्रहण कर एवंभूत यत्किश्चित् विशिष्टपृथ्वीत्व से जलपरमाणु में भी पृथ्वोत्योपलम्भ का पापादान हो सकता है।
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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अथ यदधिकरणवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भकातिरिक्तानवच्छिन्नं यत्सत्रमुपलम्भन्याप्यमिति वाच्यम्, गन्धवदणुभिन्नत्यादिकं च न प्रतियोग्युपलम्भकमिति न दोपः, यद्धर्मावच्छिन्नसच यद्धर्मावच्छिन्नोपलम्भव्याप्यं तदभमाच्छन्नोपल भाभावस्य सविच्छिन्नापात्रमत्यक्षहेतुत्वाद् न गुरुत्त्रवद्घटाभावादिप्रत्यक्षता, न वाकाशादिभेदस्य तथान्त्रम् , शब्दाश्रयत्वादेश्योग्यत्वात् । न चा घटत्वात्यन्ताभावस्य, घटेतरावृत्तित्वघटितत्वेनाऽयोग्यत्वात् । शूद्रादों ब्राह्मणत्वाभावस्तु सुत न प्रत्यक्षा, तदधिकरणवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भकमात्रावच्छिन्नेन तत्सत्वेनापादयितुमशक्यस्वान् , तत्र विशुद्ध मातापितृजन्यत्यज्ञानस्यापि व्यञ्जकत्वात् । न चैवं तमस्यालोकनियतघटायभावप्रत्यक्षापत्तिः, तत्र प्रतियोगिसवस्यैव व्याप्यत्वादिति वाच्यम्: प्रतियोगिसत्त्वस्योपलम्भव्याप्यतायां निरुपाधिसहचारातिरिक्ततकवचस्य विवक्षितत्वात , प्रतियोग्युपलम्मकावच्छिन्नतत्सत्त्वस्य व्याप्यतायाँ कार्यकारणभावस्यापि तर्कत्वात् । न चैवमभावानुपलब्धिर्भाचप्रत्यक्षेऽपि हेतुः स्यात् , भावज्ञानस्य निर्विकल्पादेरधिकरणानिश्रितस्याप्युत्पादार्थ तत्र महत्त्वादेरेव हेतुत्वस्वीकारातः इति चेत् ।
[प्रतियोगी उपलम्भकभेदघटित व्याख्या का पूर्वपक्ष ] यदि यह कहा जाय कि "यदधिकरणवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भक भिन्न विशेषण से विशिष्ट प्रतियोगोसत्त्व जिस प्रभाव के प्रतियोगी के उपलम्भ का व्याप्य हो यह अभाय तदधिकरण में प्रत्यक्षयोग्य होता है, तो उक्त दोष नहीं होगा, क्योंकि गन्धवदणभिन्नव जलपरमाणुरूप अधिकरण में बत्ति होने पर भो प्रतियोग्युपलम्भक नहीं है अतः वह यदधिकरणवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भक से भिन्न विशेषण हुआ। एवं महत्त्व प्रतियोगी का उपलम्भक है किन्तु जलपरमाणु में पत्ति नहीं है अत एव वह भी यदधिकरणबृत्तिप्रतियोग्युपलम्मक से भिन्न विशेषण हुमा, इन दोनों विशेषणों से अधिशेषित पृथ्वीस्वरूप प्रतियोगी को सत्ता पृथ्वीत्वोपलम्भ का व्याप्य नहीं है। अतः जलपरमाणु में पृथ्वोत्थामाव के प्रत्यक्ष का आपादान नहीं हो सकता। प्रस्तुत योग्यता के फलस्वरूप यह कार्यकारणभाष फलित होता है कि उक्त रीति से (यधिकरणवत्तिप्रतियोगीउपलम्भकातिरिक्तविशेषणानवछिन्न यत्किञ्चविशेषणावच्छिन्न ) पद्धविच्छिन्न प्रतियोगी को सत्ता यद्धर्मावच्छिन्न प्रतियोगी के उपलम्भक की व्याप्य हो तचविच्छिन्दप्रतियोगी का अनुपलम्भ तद्धर्मावच्छिन्नाभाव के प्रत्यक्ष का हेतु है । इसलिये 'गुरुत्वषद्घटो नास्ति' इस प्रकार के गुरुत्ववद्घटाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि उक्तविधगुरुत्ववघटत्वावछिन्न की सत्ता गुरुत्ववघटत्वावछिन्न के उपलम्भक की व्याप्य नहीं है क्योंकि गुरुत्व अतीन्द्रिय होने से गुरुत्वसहितघट फा उपलम्भ नहीं होता। इसी प्रकार आकाशभेद का भी प्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि आकाशभेद का प्रतियोगितावच्छेदक शम्बाश्रयत्व है-वह चक्षु से अग्राह्य शब्द से घटित है। प्रत एव शब्दाश्रयत्वविशिष्ट का चाक्षुषोपलम्भ असिद्ध होने से
काशरूप प्रतियोगी की सत्ता भी शब्दाश्रयत्वविशिष्ट प्रतियोगी के उपलम्भ की व्याप्य नहीं है ।
एवं इसी प्रकार घटत्वात्यन्ताभाष रो अयोग्य हो जाता है क्योंकि उसका प्रतियोगिता का
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ५ इलो० ९
अवच्छेदक घटत्वत्व 'घटेतरावत्तित्वे सति सकलघटसमवेतत्व' रूप है उसकी कुक्षि में घटेतर अतोन्द्रिय पदार्थों का भी प्रवेश है और सकलघट का भी प्रवेश है जिसका एक साथ उपलभ सम्भव नहीं हो सकता । श्रतः घटत्वत्वविशिष्ट घटत्वरूप प्रतियोगी के लपलम्भ की असिद्धि होने से घटत्वस्वविशिष्ट घटत्व को सत्ता भो घटत्वत्व विशिष्ट घटत्व के उपलम्भ की व्याप्य नहीं हैं । शूद्र ब्राह्मणत्वाभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति तो कथमपि नहीं हो सकती, क्योंकि विशुद्धभातापितृजन्यत्वज्ञान भी ब्राह्मणत्वाभावप्रतियोगी ब्राह्मणत्व के उपलम्भ का एक कारण है किन्तु वह शूद्ररूप अभिकरण में वृत्ति न होने से वह शूद्रवृत्तिप्रतियोगी उपलम्भकातिरिक्त हो गया । अत एव उससे अविशेषित एवं शुद्रपारिकरण में वृत्ति जितने प्रतियोगी उपलम्भक हैं उतने मात्र से विशेषितबरह्मणत्व को सत्ता ब्राह्मणत्वोपलम्भ की व्याप्य नहीं है व्रत एवं उससे ब्राह्मणत्व का आपादन हो सकता है।
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[ आलोकनियतघटाभावप्रत्यक्ष की आपत्ति का वारण ]
यदि यह शंकर की जाय- "उक्त प्रकार से योग्यता और उसके फलस्वरूप उक्तरूप से कार्यकारणभाव मानने पर भी अन्धकार में आलोक नियत घट के प्रभाव प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी, क्योंकि इस अभाव के आलोक नियतघटरूपप्रतियोगी की सत्ता घटोपलम्भ की व्याप्य है अतः अन्धकार में उस घट के सब से घटोपलम्भ का आपादन हो सकता है ।" तो इसका उत्तर यह है कि यदधिकरण में वृत्ति प्रतिपलम्भ से अतिरिक्त arecaiva किश्विद्विशिष्ट प्रतियोगितागत प्रतियोग्युपलम्भ की व्याप्यता में, निरुपाधिसहचार से अतिरिक्त प्रतियोभ्युपलम्भतिरूपितव्याप्ति के ग्राहक तर्क को तr faafक्षत है। अर्थात् योग्यता का स्वरूप यह है कि यदधिकरण में वृत्ति, प्रतियोगोपलम्भक से प्रतिरिक्तविशेषणानवच्छिन्नयत्किञ्चिद्विशिष्ट यदभावप्रतियोगी की सत्ता में प्रभाव के प्रतियोगी के उपलम्भ की व्याप्ति का ग्राहक निरुपाधिसहचारातिरिवत तर्क हो वह उस अधिकरण में प्रत्यक्षयोग्य होता है ।
योग्यता का इस प्रकार निर्वचन करने पर अन्धकार में लोकनियतघटाभाव के प्रत्यक्ष की प्रपत्ति नहीं होगी क्योंकि श्रन्धकारव्याप्तदेशवृत्तिप्रतियोगि उपलम्भकातिरिक्तविशेषण प्रालोक है । अतः आलोक से प्रविशेषित और उक्त घटोपलम्भ के यावत्कारण से विशिष्ट प्रालोकनियत घट की सत्ता में घटोपलम्भ की व्याप्ति का ग्राहक निरुपाधिसहचार से अतिरिक्त कोई तर्क नहीं है। क्योंकि यह नहीं कहा जा सकता कि 'आलोकातिरिक्तघटोपलम्भकसमस्त कारणों से विशिष्ट उस घट की सत्ता होने पर भी घटोपलम्भ न होने पर घटोपलम्भ के आलोकान्य कारणों से घटोपलम्भ का अन्वय व्यभिचार होगा ।' क्योंकि श्रालोकातिरिक्त रामस्त कारणों के रहते हुए घटोपलम्भ के अभाव को आलोकरूप कारण के अभाव से प्रयुक्त माना जा सकता है । अतः प्रालोकातिरिक्त घटोपलम्भ के समस्त कारणों से विशिष्ट आलोक नियत घट की सत्ता से यदि घटोपलम्भ का व्यभिचार होगा तो तथाविधघट को सत्ता में घटोपलम्भ का जो निरुपाधि सहचार यानी आलोक नियतघट और आलोकातिरिक्त उसके उपलम्भक के कारणों से अतिरिक्त पदार्थ के सविधान से निरपेक्षसहचार उसका भंग होगा। क्योंकि तथाविधघट की सत्ता होने पर यदि घटोपलम्भ नहीं होगा तो यही मानना होगा कि ताश प्रतियोगीता में घटोपलम्भ सहचार ( व्याप्ति) के लिये किसी अन्य का भी सहचार अपेक्षित है तो इस प्रकार प्रालोकनियत और उसके उपलम्भ के अन्य कारणों से अतिरिक्त पदार्थ के सहचाररूप उपाधि से निरपेक्ष घटोपलम्भसहचार का भङ्ग होगा । अतः अन्धकार व्याप्त देश
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स्याक० टोका एवं हिन्वी विवेचन ]
२५
वृत्ति प्रतियोगीउपलम्भकातिरिक्त घटोपलम्भ के आलोक से प्रविशिष्ट एवं घटोपलम्भ के समस्त कारणों से विशिष्ट उक्त घट को सत्ता में घटोपलम्भ को व्याप्ति का ग्राहक निरुपाधिसहवार से अतिरिक्त कार्यकारणभाव रूप कोई तर्क नहीं है। तथा पालोकवदेश में आलोकनियत घट न रहने पर उसके अभाव का प्रत्यक्ष होगा क्योंकि आलोकमद्देशवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भकातिरिक्त पद से आलोक का ग्रहण नहीं होगा किन्तु अन्य किसो उदासीन का ग्रहण होगा। उससे अविशिष्ट घटोपलम्भ के समान कारण में आलोक भो आयेगा, प्रतः उन सभी कारणों से विशिष्ट उक्त घट की सत्ता में घटोपलम्भ को ध्याप्ति का ग्राहक निरुपाधिसहवार से अतिरिक्त कार्यकारणभाव रूप तर्क भी है, क्योंकि आलोकसहित उक्त घट के समस्त उपलम्भकों के रहते हुए भी यदि घटोपलम्भ नहीं होगा तो उन सभी कारणों का अन्धय व्यभिचार होने से उनमें घटोपलम्भ को कारणता का भङ्ग होगा।
यदि यह शंका को जाय कि-"जैसे अभाव के प्रत्यक्ष में भाव को अनुपलब्धि कारण है उसी प्रकार भाव के प्रत्यक्ष में अभाव को अनुपलब्धि भी कारण होगी, क्योंकि युक्ति दोनों पक्ष में समान है"-तो इसका उत्तर यह है कि अमाव की उपलब्धि रहने पर भी भाष का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष भी होता है और अधिकरणाविषयक प्रत्यक्ष भी होता है । अतः भाव प्रत्यक्ष में अभावा. नुपलग्धि कारण नहीं हो सकती, किन्तु महत्व-उद्भूतरूप पालोकादि ही भावप्रत्यक्ष के कारण हैं
न, व्यापकत्वेनाभिमतस्योपलम्भस्य लौकिकस्य विवक्षणे स्तम्भपिशाचान्योन्याभावादेः गुडतिक्तत्वाभावादेवाग्रत्यक्षत्यप्रसङ्गात् । प्रतियोग्यंशेऽधिकरणांशे च तादृशलोकिकोपलम्भरूपसाध्याऽप्रसिद्धया व्याप्यताया असंभवात् । एतेन 'पिशाचत्वं यदि स्तम्भवृत्तिजातिः स्यात् स्तम्भविशेष्यकलौकिकोपलम्भप्रकारः स्यात् , इत्यापादनं संभवत्येव, इति स्तम्भविशेष्यकलौंकिकप्रत्यक्ष पिशाचत्यप्रकारत्वाभावस्य हेतुत्वाद् न दोषः' इत्यपि निरस्तम्, तस्य सदासत्त्वेनाऽहेतुत्वात् : तादृशोपलम्भस्यालौकिकस्य विवक्षणे च प्रतियोगिसवस्याव्याप्यत्वात् , तदधिकरणवृत्त्यलोकिकोपलम्भकावच्छिन्नप्रतियोगिसत्वस्यालाँकिकोपलम्भव्याप्यत्वे च भूतलादौ पिशाचारयन्ताआदिग्रहप्रसङ्गात् । यावत्प्रतियोग्युपलम्भकावच्छिन्नस्य व्याप्यत्वोक्तावुदयनीययोग्यतायामेव पर्यवसानाच्च ।
[ लौकिक उपलम्भ विवक्षा में आपत्ति-उत्तरपक्ष किंतु यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि यदधिकरणवृत्तिप्रतियोग्युपलम्भकभिन्न विशेषण से अविशिष्ट और यत्किञ्चितयधर्मावछिन्न प्रतियोगीसत्त्व, यदधिकरणवृत्तित्वावच्छिन्न प्रतियोग्युपलम्भ का व्याप्य हो तदधिकरण में तनावच्छिन्न का प्रभाव योग्य होता है। इस योग्यता के निर्वचन में यवधिकरणवृत्तियद्धर्मावच्छिन्नोपलम्भरूप व्यापक दल में यदि उपलम्भपद से लौकिकोपलम्भ की विश्वक्षा की जायगी तो स्तम्भ में पिशाधभेद पिशाच लौकिकोपलम्भ के अयोग्य होने से, अप्रत्यक्ष हो जायगा क्योंकि पिशाचत्वावच्छिन्न के लौकिकोपलम्भ को अप्रसिद्धि होने से उसकी व्याप्यता उक्त प्रतियोगीसत्ता में सम्भव नहीं होती। इसी प्रकार गुड में तिक्तत्वाभाव भी अयोग्य होने से अप्रत्यक्ष हो जायगा क्योंकि
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२६
[ शास्त्रवास्ति० ५ श्लो. ६
मुडात्मक अधिकरण वृत्ति तिक्तत्वादि का लौकिकोपलम्भ अप्रसिद्ध होने से उक्त प्रतियोगीसत्व में उस को व्याप्ति का सम्भव न होगा। यदि यह कहा जाय कि "पिशाचस्व यदि स्तम्भवत्तिजाति हो तो उसे स्तम्भविशेष्यक लौकिकोपलम्भ में प्रकार होना चाहिये अर्थात् स्तम्भ में 'एष पिशाचः' इस प्रकार का प्रत्यक्ष होना चाहिए, क्योंकि 'जो स्तम्भवृत्ति जाति होती है वह सब स्तम्भविशेष्यक लौकिकोपलम्भ में प्रकार होती है। इस प्रकार को आपत्ति हो सकती है और इसके फलस्वरूप यह कार्य कारणभाष मान्य हो सकता है कि स्तम्भविशेष्यकलौकिक प्रत्यक्ष में पिशाचत्यप्रकारत्याभाव कारण है। इसके अनुसार जो धर्म जिस अधिकरण में प्रत्यक्ष योग्य हो सकता है उस अदि में तद्धर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताक भेव के प्रत्यक्ष में कोई बाधा नहीं हो सकती, अतः स्तम्भ में पिशाचभेद का प्रत्यक्ष हो सकता है। इसी प्रकार गुड़ में तिक्तस्वाभाव का भी प्रत्यक्ष हो सकता है क्योंकि “तिक्तत्व यदि गुडवृत्ति जाति हो तो उसे गुडविशेष्यफ लौकिकोपलम्भ में प्रकार होना चाहिये इस आपत्ति के फलस्वरूप गुड़विशेष्यक लौकिकतिप्रयोगो में तिक्तत्वप्रकारता का अभाव कारण है यह कार्यकारणभाव बन सकता है और उसके अनुसार जिस अधिकरण में जो जाति प्रत्यक्षयोग्य हो सकती है उस प्राधिकरण में उस जाति के अभाव का प्रत्यक्ष निर्वाध हो सकता है ।" किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि स्तम्भविशेष्यकलौकिकप्रत्यक्ष में पिशाचत्वप्रकारकत्वाभाव सदा रहता है प्रतः जब भी स्तम्भविशेष्यक लौकिकप्रतियोगी की सामग्री सन्निहित होगी तब सदैव स्तम्भ में पिशाच भेद के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी। पिशाच के उक्त प्रत्यक्ष की सामग्नी के संविधानकाल में पिशाचरूप प्रतियोगी का ज्ञान रहने पर पिशाचविशेषितभेद और पिशाच के अज्ञान दशा में पिशाच के अविशेषित मेव के प्रत्यक्ष की आपत्ति अनिवार्य होगी। असः उक्त कार्यकारणभाव स्वीकार्य नहीं हो सकता ।
[अलौकिक उपलम्भ विवक्षा में व्याप्यत्व का असम्भव ] यदि उक्त व्यापक दल में उपलम्भ पद से अलौकिकउपलम्भ की धिवक्षा की जायगी तो तथा विधप्रतियोगीसत्ता प्रतियोगी के अलौकिक उपलम्भ की व्याप्य नहीं होगी क्योंकि जहाँ प्रतियोगी के लौकिक उपलम्भ के समस्त कारणों से विशिष्ट प्रतियोगी की सत्ता होती है वहां प्रतियोगी का लौकिक उपलम्भ ही होता है-अलौकिक नहीं। यदि व्याप्यदल में भी अलौकिकोपलम्भ का निवेश कर इस प्रकार योग्यता का निवंचन किया जाय कि 'यदधिकरणवत्ति अलौकिक उपलम्भकों से विशिष्ट प्रतियोगी को सत्ता, यदधिकरणवृत्ति अलौकिक प्रतियोगीउपलम्भ की व्याप्य हो, तदधिकरण में प्रतियोगिअभाव प्रत्यक्षयोग्य होता है तो उक्त दोषों का परिहार हो जाने पर भी भूतलादि में पिशाच के अत्यन्ताभाव के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी, क्योंकि भूतल में अलौकिक उपलम्भ के साधनों से विशिष्ट पिशाच की सत्ता में भूतलवृत्ति अलौकिक पिशाचोपलम्भ को ध्याप्ति है । चिन्तामणिकारोक्त योग्यता के उक्त निर्वचन में दूसरा दोष यह है कि उसका भी पर्यवसान उदयनाचार्य द्वारा कथित योग्यता में ही हो जाता है क्योंकि यावत प्रतियोगीउपलम्भ के व्याप्यत्व का कथन करने से यही निष्कर्ष निकलता है कि जहां प्रतियोगी और प्रतियोगीहन्द्रियसंनिकर्ष से अतिरिक्त प्रतियोगीउपलम्भ के सम्पूर्ण साधन होंगे वहां ही प्रतियोगी की अनुपलब्धि होने पर अभावग्रह होगा । अतः जो त्रुटियाँ उदयनाचार्य द्वारा कथित योग्यता में बतायी गयी हैं उन त्रुटियों से चिन्तामणिकार द्वारा कथित योग्यता भी मुक्त नहीं रह सकती।।
'योग्यप्रतियोगिकत्वं संसर्गाभावग्रहे योग्यता, योग्याधिकरणत्वं चान्योन्याभावग्रहे'
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
इत्यपि तुच्छम् मनस्त्वात्यन्ताभावादेरप्रत्यक्षत्वापातात् घटादौ परमाणुभेदादेः प्रत्यक्षतापाताच्चेति ।
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[ भेद और संसर्गाभाव के ग्रह की भिन्न भिन्न योग्यता में आपत्ति ]
यह कहना भी अत्यन्त तुच्छ है कि 'प्रत्यक्ष योग्य प्रतियोगित्व' संसर्गाभाव के प्रत्यक्ष की योग्यता है और प्रत्यक्षयोग्याधिकरण वृत्तित्व' अन्योन्याभाव के प्रत्यक्ष की योग्यता है । क्योंकि, यदि योग्यत्रतियोगिक संसर्गाभाव को हो प्रत्यक्ष योग्य माना जायगा तो घटादि में मनस्व के प्रत्यन्ताभाव का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा । जब कि घटादि में मनस्त्व जाति के होने पर उसमें प्रत्यक्ष योग्यत्व सम्भय होने से घटादि में उसके अत्यन्ताभाव का प्रत्यक्ष सिद्धान्त सम्मत है। एवं योग्याकिरणवृत्तित्व ही यदि अन्योन्याभाव की योग्यता का नियामक होगा तो घटादि में परमाणुभेव के प्रत्यक्ष को भी आपत्ति होनी । जब बाद में परमाणुपरिमाणरूप परमाणुत्व में प्रत्यक्ष योग्यता सम्भव न होने से तदछिन प्रतियोगिताक परमाणुभेद का प्रत्यक्ष असैद्धान्तिक है ।
तस्माद् भावप्रत्यक्ष झाभावप्रत्यक्षेऽपि महत्त्वादीनां हेतुत्वाद् विशिष्य घटाभावप्रत्यक्ष आलोक संयोगादीनां हेतुता वाच्या, सापि वक्तुं न शक्यते, पेचकादिचाक्षुषे व्यभिचारात्, इति घटाभावाद्याकारे कुर्वद्र समनन्तरस्येनैव हेतुता युक्तेति चेत् ? न स्ववासनया कथंचित् स्वयं बाह्याभावानुभवेऽपि परं प्रति तत्साधनार्थं प्रयोगानुपपत्तेः तूष्णींभावेन कथायां निग्रहात्, बाह्यत्वस्य ज्ञानभिन्नत्वरूपस्यातीन्द्रियत्वेन तद्द्घटितघटोपलम्भस्य तु पिशाचव द्घटोपलम्भस्वापादयितुमशक्यत्वेन तदद्भावप्रत्यचस्यानुपपादनादिति दिक् ॥ ६ ॥
| अभाव प्रत्यक्ष में भी महत्त्वादि की कारणता ]
बौद्ध के मतानुसार उक्त विचार का निष्कर्ष यह फलित होता है कि जैसे भाव के प्रत्यक्ष में महत्वादि कारण होता है ऐसे अभाव के प्रत्यक्ष में भी महत्त्वादि कारण होता है। विशेषरूप से घटाभावादि के प्रत्यक्ष में तो झालोकसंयोगादि भी कारण होता है किन्तु प्रभावप्रत्यक्ष में उक्त योग्यतादि प्रयोजक नहीं है। इस निष्कर्ष के सम्बन्ध में भी बौद्ध का कहना है कि अन्यमतानुसार योग्यता के बारे में फलित किया गया यह निष्कर्ष भी ठीक नहीं है क्योंकि योगी के प्रत्यक्ष में महत्वादि को कारणता में ओर उलुक-बीडाल आदि के चाक्षुष प्रत्यक्ष में आलोक संयोगादि की कारणता में व्यभिचार है । अतः निर्दोष निष्कर्ष तो यही है कि घटाभावाद्याकारक तत्तत्प्रत्यक्ष में तत्तत्कुर्वद्रूपसमनन्तर प्रत्यय ही कारण हैं। अर्थात् जिस क्षण में यदाकार अभावप्रत्यक्ष होता है उस क्षण का पूर्ववर्ती समनन्तर प्रत्यय हो तत्प्रत्यक्षकुर्यद्रूपत्वेन तत्प्रत्यक्ष के प्रति कारण होता है । अतः समनन्तरप्रत्ययरूप कारण से बाह्यार्थ के अभाव का प्रत्यक्ष हो सकता है । प्रत एव बाह्यार्थ का अभाव प्रत्यक्षसिद्ध है उसमें प्रमाणान्तर के अन्वेषण की अपेक्षा नहीं है ।
[ बौद्ध त विस्तृत समालोचना की समीक्षा ]
व्याख्याकार का कहना है कि बौद्ध का यह कथन अत्यन्तयुक्ति शुन्य है क्योंकि उस की प्रक्रिया के अनुसार उन्हें स्वयं यथाकथञ्चित् बाह्यार्थ के अभाव का अनुभव हो सकता है कारण,
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[ शास्त्रवात स्त० ५ श्लो १०
उनके शास्त्र और सम्प्रदाय से उन में ऐसी वासना चिरकाल से प्रतिष्ठित हो गयी है कि बाह्यज्ञान से भिन्न कोई वस्तु ही नहीं होती । किन्तु दूसरे के प्रति अपना अभिमत बाह्यार्थभाव को सिद्ध करने के लिये किसी प्रमाण का प्रयोग नहीं कर सकते, क्योंकि उन्हें बाह्यार्थ का सार्वबेशक और सार्वकालिक अभाव अभिमत है और वह प्रतिपक्ष में प्रसिद्ध नहीं है । अतः उसकी व्याप्ति का ग्रह किसी हेतुविशेष में न हो सकने से उसके साधनार्थ अनुमान का प्रयोग नहीं हो सकता । यदि प्रमाण का प्रश्न करने पर बौद्धवादी मौनावलम्बन करेगा तो प्रतिवादी के साथ विचारकाल में बौद्ध का निग्रह यानी पराजय होगा । यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि प्रतिवादी के साथ इस विषय में विचार प्रवृत्त होने पर बाह्यार्थ अभाव सिद्ध करने के लिये इस प्रकार के अनुमान का प्रयोग किया जा सकता है कि 'घटपटादिवस्तु ज्ञान से भिन्न नहीं है क्योंकि ज्ञानभिन्नत्वरूप से उनका उपलम्भ नहीं होता।' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अनुपलब्धि से अभाव का ग्रह तभी होता है अब प्रतियोगी को सत्ता से उसके उपलम्भ का आपादन हो सके । ज्ञानभिन्नत्व चक्षु आदि से अग्राह्य ज्ञान से घटित है अतः घटादि के ज्ञानभिन्न होने पर भी ज्ञानभिन्नत्वरूप से उनके उपलम्भ का उपपादन नहीं हो सकता । अतः ज्ञानभिन्नत्वेन घटादि का अनुपलम्भ ज्ञानभिन्न घटादि के प्रभावसाघन में अप्रयोजक है । इसी तथ्य को व्याख्याकार ने पिशाचव के उपलम्भ के समान ज्ञानमित्यविशिष्टघट के उपलम्भ के आपादन को अशक्य बताते हुये ज्ञानभिन्नघटादि के अभाव - fare प्रत्यक्ष के उत्पादन की अशक्यता बताकर प्रकट किया है ॥६॥
२८
बौद्ध का पूर्वपक्ष
विज्ञानवादी बौद्ध का कहना है कि 'घटादि पदार्थ ज्ञान से भिन्न नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष है । जैसे ज्ञानस्वरूप प्रत्यक्ष होने से ज्ञानभित्र नहीं है।' बौद्ध के इस अभिप्राय को १०वीं कारिका में प्रस्तुत किया गया है
'घटादिर्न ज्ञानभिन्नः, प्रत्यक्षत्वात्, तत्स्वरूपवत्' इत्याशवेनाह—
मूलम् — विज्ञानं प्रत्स्वसंवेद्यं न त्वर्धा युक्त्ययोगतः । अतस्तद्वेदने तस्य ग्रहणं नोपपद्यते ॥१०॥
चिज्ञानं यत् = यस्मात्कारणात् स्वसंवेयं = सत एवं रफुरद्रूपम् तथानुभूतेः, न स्वर्थः परपरिकल्पितः स्वसंवेद्यः । कुतः १ इत्याह- युक्त्ययोगतः = युक्त्यभावात् सर्वस्य सर्वज्ञताद्यापत्तेः । अतस्तद्वेदने = विज्ञानानुभव, तस्य परपरिकल्पितस्यार्थस्य ग्रहणं - ज्ञानम्, नोपपद्यते ।
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तथाहि - 'ज्ञानविषयतया इन्द्रियसंनिकर्षादिनियम्यत्वाज्ज्ञानस्यार्थस्य च परतः प्रकाश एव' इति नैयायिकादीनां मतं न युक्तम्, स्वसंवेदनस्य प्रसाधितत्वात् प्रत्यक्ष व्यवहारे प्रत्यक्षवस्यैव प्रयोजकत्वात् क्वचित् प्रत्यक्षत्वस्य काचिच प्रत्यचविषयत्वस्य तथात्वे गौरवात्, नीलज्ञानत्वाद्यपेक्षया नीलत्वादेरेव चक्षुरादिजन्यतावच्छेदकत्वे लाघवाच । एतेन 'ज्ञानाभेदः
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tator ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अर्थ
संनिकर्षादिश्व ज्ञानविषयतायां नियामकः, इति ज्ञानस्य स्वप्रकाशत्वम्, परतः प्रकाशत्वम्' इत्यन्येषामपि मतं प्रत्याख्यातम्, विषयताया ज्ञानस्वरूपत्वात्, ज्ञानभिन्नस्य ज्ञानाविषयत्वात् । अथ 'जीलस्य प्रकाशः' इति प्रतीतेनिलप्रकाशयोगेंद इति चेत् ? न विवेकेनाऽप्रतीयमानयोर्नीलतत्संविदोर्भेदाभावात्, 'अन्यथा नीलस्य स्वरूपम् 'प्रकाशस्य प्रकाशता' इत्यादावपि भेदसिद्धिप्रसङ्गात्, अभेदर्शनवा वकस्याप्युभयत्र तुल्यत्वात् । नानारेलीयाना द्विरर्थस्येति संयोज्य प्रत्येतुं शक्या, शक्यत्वे वा नियतसहोपलम्भयोः पृथगपोद्वार कल्पनाया अभेदनिश्चय पर्यवसायित्वादिति, तदुक्तम्- " सहोपलम्भनिय - मादभेदो नील-तद्वियोः" इति ।
[विज्ञान स्वसंवेद्य होने से बाह्यार्थ - ज्ञान का अभेद पूर्वपक्ष ]
२९
विज्ञान स्वसंवेद्य है अर्थात् उसका स्वरूप स्वतः स्फुरित होता है। क्योंकि उसकी स्वतः ही कारणान्तर की अपेक्षा विना अनुभूति होती है । बाह्यार्थवादी द्वारा कल्पित अर्थ का स्वयंसंवेदन नहीं होता। क्योंकि उसका स्वयंसंवेदन मानने में कोई युक्ति नहीं है, बल्कि उसका स्वयंसंवेदन मानने पर उन सभी का सब मनुष्य को ज्ञान अनायास सम्भव हो सकने से सभी मनुष्यों में सर्वज्ञता की आपत्ति होगी। इसलिये विज्ञान के अनुभव में बाह्यार्थवादियों द्वारा कल्पित अर्थ का भान नहीं उपपन्न हो सकता |
आशय यह है कि ज्ञान के अनुभव में नीलपीतादि श्राकार का भी भान होता है । यह तभी हो सकता है जब वह ज्ञानस्वरूप हो । ज्ञान से भिन्न होने पर वह स्वसंवेदन नहीं होगा । अतः ज्ञान के स्वयंसंवेदनात्मक अनुभव में ज्ञान भिन्न श्राकारों का भाव नहीं हो सकता । श्रतः ज्ञानभिन्न का ग्रहण न हो सकने से उनके अस्तित्व की कल्पना अयुक्त है ।
इसके विरुद्ध नैयायिकावि का यह मत कि "ज्ञान और ज्ञेय दोनों ही स्वसंवेद्य नहीं है । दोनों का ही कारणान्तर से प्रकाश होता है क्योंकि संवेद्यता यह प्रकाशमानता श्रर्थात् ज्ञानविषयतारूप है और ज्ञानविषयता इन्द्रियसंनिकर्ष आदि ज्ञानसाधनों से ही सम्पन्न होती है"-ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञान के स्वयंसंवेदन का साधन किया जा चूका है । दूसरी बात यह है कि यदि ज्ञान और शेय में भेद माना जायगा तो ज्ञान प्रत्यक्ष व्यवहार का प्रयोजक प्रत्यक्षत्व ज्ञानगतधर्मविशेष को मानना होगा और ज्ञेय में प्रत्यक्षव्यवहार का प्रयोजक प्रत्यक्षविषयत्व को मानना होगा । यतः एक विधव्यवहार में प्रयोजकभेद की कल्पना में गौरव होगा ।
इसके अतिरिक्त नीलत्वादि को ज्ञानधर्म न मानकर बाह्यार्थ का धर्म मानने पर नीलज्ञानत्यादि को चक्षु आदि का जन्यतावच्छेदक मानना होगा। इसकी अपेक्षा नोलत्वादि को चाक्षुष अदि ज्ञान का धर्म मानकर उसी को चक्षु घादि का जन्यतावच्छेदक मानने में लाघव है ।
[ ज्ञान और अर्थ में भेदसिद्धि अशत्रय है ]
कुछ अन्य विद्वानों का यह मत कि "ज्ञान में ज्ञानविषयता का नियामक ज्ञानाभेद है और ज्ञेय में ज्ञानविषयता का नियामक संनिकर्षादि है । अतः ज्ञान तो स्वप्रकाश है किन्तु अर्थ पर* स्तबक १ का० ८४ का विवरण दृष्टव्य ।
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[ शास्त्रवार्ता स्त०५ श्लो०९
प्रकाश्य है।" पाख्यानयोग्य यानी स्वीकार्य नहीं किन्तु प्रत्याख्यानयोग्य यानी परिहरणीय है क्योंकि ज्ञान विषयता ज्ञानस्वरूप है। अतः ज्ञानभिन्न में ज्ञान विषयता नहीं हो सकती, क्योंकि जो जिसका स्वरूप होता है वह उससे अन्य में नहीं रहता जैसे पीतादि में नीलस्वरूप नहीं रहता । 'नीलस्य प्रकाशः' इस प्रकार नील और प्रकाश (ज्ञान) में सम्बन्ध की प्रतीति से भी नील और प्रकाश में भेद सिद्ध नहीं हो सकता, क्योंकि नील और नौलज्ञान की अथक प्रतीति न होने से उनमें भेद नहीं माना जा सकता । अन्यथा 'नीलस्य स्वरूपम्' और 'प्रकाशस्य प्रकाशता' इस प्रकार नील और स्वरूप में तथा प्रकाश और उसकी ज्ञानरूपत्ता में सम्बन्ध प्रतीति होने से नील और उसके स्वरूप में तथा प्रकाश ओर उसकी ज्ञानरूपता में भी भेद को सिद्धि होने से उनका अभेद बाधित हो जायगा, क्योंकि 'नोलस्य प्रकाशः' यह प्रतीति जैसे नील और प्रकाश के अमेव दर्शन में बाधक होगी उसी प्रकार 'नीलस्य स्वरूपम्' इत्यादि प्रतीति मो नोल और स्वरूप के अभेददर्शन में बाधक होगी क्योंकि वे सभी प्रतीतियाँ सम्बन्धांश में समान है।
[ ज्ञान-अर्थ में भेद होने पर सम्बन्ध अनुपपत्ति ] ___ यदि यह कहा जाय कि "अर्थ से पृथक् अर्थात् अर्थ को छोडकर बुद्धि प्रतीयमान नहीं होती' इस आधार पर बुद्धि और अर्थ के ऐक्य का साधन नहीं हो सकता क्योंकि यह बात धुद्धि के साथ अर्थ का विषयविषयो भावरूप नियतसम्बन्ध स्वीकार करने पर भी उपपन्न हो सकती है।" तो यह नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ज्ञान और अर्थ को मिन्न मानते हुये उनके बीच इस प्रकार के सम्बन्ध का निर्वचन शक्य नहीं है। यदि शक्य भी माना जाय तो जो ज्ञान और बुद्धि का नियमेन सहोपलभ्भ है उसकी कल्पना भिन्न दो रूपों में होती है और इस कल्पना का पर्यवसान अर्थ और बुद्धि के अभेद निश्चय में ही होता है । क्योंकि, यदि दोनों भिन्न हो तो उन दोनों का ही एक दूसरे के साथ ही उपलम्भ होने का नियम उपपन्न नहीं हो सकता। जैसा कि विज्ञानवादियों की एक प्रसिद्ध कारिका स्पष्टरूप से इस तथ्य का प्रतिरादन करती है कि नील और नीलझान में सहोपलम्भ का नियम अर्थात नीलोपलम्भ के साथ होनोलज्ञान का और नीलज्ञानोपलम्भ के साथ ही नील का उपलम्म होने से नोल और नोलज्ञान में अभेव मानना अनिवार्य है।
नन्वेवं कथमाकारी ग्राह्य एव, बोधाकारस्तु प्राहक एवेति नियमः १ इति चेत् १ न कथंचिद् , भिन्नकालयोांववाहकभावाभावान्, समानकालयोरप्येकस्य ग्राह्यत्वम् , अन्यस्य च ग्राहकत्वमित्यत्राविनिगमात् । 'ग्रहणक्रियाकत ज्ञानं प्राहकम् , तदाश्रयश्चाओं ब्राह्म' इति चेत् ? न, अन्तः सुखाकारव्यतिरेवेण बहिश्च नौलाद्याकारण्यतिरेकेणापराया ग्रहणक्रियाया अभानात् । भाने च तस्य 'स्वतः परतो वा ?' इति विकल्पावतारः । आये, एकदा नील-योध-प्रहणानां खरूपनिमग्नानां प्रतिभानाद् न क कर्म-क्रियाव्यवहृतिः। अन्ये च तत्राप्यपरग्रहण क्रियाग्राहकान्तरापेक्षयामनवस्था, इति विनिमुक्तिनाप-ग्राहक-भावस्वसंवित्तिमात्रवाद एव साधीयान तदुक्तम्- "नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्य नानुभवोऽपरः ।
ब्राह्य-प्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥ १ ॥ [प्रमाणवा• ३।३२७] इति ।
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स्था.. टोका एवं हिन्दी विवेचन ।
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[बाह्य-ग्राहक नियम सर्वथा अमान्य] यदि प्रतिवावो की पोर से यह प्रश्न किया जाय कि-'झान और अर्थ में ऐक्य है तो अर्थ का प्राकार ग्राह्य ही होता है और बोध का आकार ग्राहक ही होता है यह नियम कैसे उपपन्न होगा ?" तो इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यह नियम ही नहीं है। क्योंकि प्राहकाकार और अर्थाकार को भिन्नकालिक मानने पर उनमें ग्राह्य-ग्राहकभाव नहीं होगा और एककालिक मानने पर 'एक ग्राह्य और दूसरा ग्राहक है इसमें कोई मिनिगम्य बुक्ति नहीं है। यदि ऐव: पहें-शान ग्रहणक्रिया का कर्ता होने से ग्राहक है और अर्थ ग्रहण क्रिया का कर्म प्राश्रय होने से प्राह्य है- तो यह भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि 'आन्तर' कही जाने वाली वस्तुओं सुखादि आकार के अतिरिक्त और 'बाहा' कही जाने वाली वस्तुओं में नौलादिआकार से अतिरिक्त कोई ग्रहण क्रिया का भान नहीं होता। आशय यह है कि ज्ञान से सुखादि और नीलादि के ग्रहण होने की क्रिया का अर्थ है सुखाधाकार और नोलाद्याकार ज्ञान का उत्पन्न होना। अतः सुखादि और नीलादि आकार ज्ञान के स्वरूप में ही अन्तर्गत है, उससे भिन्न नहीं है जिससे कि वह उसका कर्ता हो सके। क्योंकि क्रियाकर्तृभाव मेवनियत है। इसी प्रकार अर्थ मी ग्रहण किया का प्राश्रय नहीं हो सकता है क्योंकि सुखादि आकार और नीलादि आकार ज्ञान का स्वरूप है। अत एवं अर्थ ज्ञान से भिन्न होने पर उसका प्राश्रय नहीं हो सकता।
[भिन्नरूप ग्रहण क्रिया का भान स्वतः या परतः ] यदि यह कहा जाय कि-"सुखादि और नीलादि को ग्रहण क्रिया का सुखादि और नीलादि के प्राकार से भिन्न रूप में मान होता है". तो यह प्रश्न होगा कि वह भान स्वतः होता है या परतः होता है । यदि स्वत: भान माना जायगा सो नील-ज्ञान और प्रक्रिया ये तीनों अपने स्वरूपमात्र से ही गृहीत होंगे तर कर्तृ-कर्म-क्रिया माव का व्यवहार नहीं हो सकता। क्योंकि व्यवहार यह स्वभिन्न व्यवहतंव्यज्ञान से साध्य होता है। अब यदि उसका परतः भान माना जायगा तो जिससे उसको ग्रहण क्रिया होगी उस बोध में और उससे होने वाली ग्रहणक्रिया में और ग्राह्य-ग्रहण किया में भी कर्तृ-कर्म-क्रियाभाव के व्यवहार के अनुरोध से उनका भी ग्राहकान्तर से ग्रहण मानना होगा। इसी प्रकार उस ग्राहकान्तर से ग्रहण होने वाली ग्रहण क्रिया के सम्बन्ध में भी इसी मार्ग का अदलम्बन होगा। अतः परतः प्रहणपक्ष में अनवस्था होगी। इसलिये युक्तिसंगत यही है कि ग्रामप्राहकभाष की ही सत्ता अपारमाथिक है। जैसा बौद्ध को प्रसिद्ध कारिका द्वारा स्पष्ट है कि बुद्धि से भिन्न ज्ञेय की सत्ता नहीं है । ग्राह्य ग्राहक-भाव शून्य होने से बुद्धि स्वयं ही प्रकाशित होती है।
_ 'कथं तहि 'नीलमहं वेद्मि' इति कर्मक भावाभिनिवेशी प्रत्ययः, कर्म-कभावस्याभावात् ?' इति चेत् ! यथा रजतमन्तरेणापि शुक्तिकायां रजतावगमः। 'याधकामावाद् न तद्वदस्य भ्रान्तत्वमिति चेत् १ न, स्वरूपाऽसंसक्तयोयोः स्वातन्योपलम्भस्य कर्म-क भावोल्लेख बाधकन्वान् । 'किं तत्र भ्रान्तिबीजम् ?' इति चेत् ? पूर्वभ्रान्तिरेय, तत्रापि पूर्वभ्रान्तिः, इति बीजारस्थलीयाऽनवस्था, तदुक्तम्"अवेद्य-वेदकाकारा यथा भ्रान्तनिरीक्ष्यते । विभक्तलक्षणग्राह्यग्राहकाकारविप्लवा ॥१॥
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ इलो० ९
तथा कृतव्यवस्थेयं केशादिज्ञानभेदवत् । यदा तदा न संनोद्यग्राह्यग्राहकलक्षणा ||२||" इति ।
अनयोरयमर्थः-स्वरूपेणाविद्यमानवेद्यवेदकाकारापि बुद्धिर्यथा भ्रान्तैर्व्यवहत् भिर्निरीक्ष्यते तथैव कृतव्ययस्थेयं व्यवह्रियते, तैस्तु केशादिज्ञानभेदवत् = तिमिराद्युपप्लुताचाणां बोधभिन्नाविद्यमान केशादिप्रतिपत्तिवदियं विभक्तलक्षणग्राह्मग्राहकाकारविप्लवा निरीक्ष्यते विभक्तलक्षण ग्रास ग्राहकाकारावेव विप्लवों = असनिर्भासविभागों यस्याः सा तथोक्ता । यदायमचिद्यानिबन्धनो युद्धेः प्रविभागस्तदा न संनोद्यग्राह्य ग्राहकाकारलक्षणा, संनोद्ये = पर्यनुयोज्ये ग्राह्यग्राहकलक्षणे यस्याः सा तथा न भवति । न ह्यविद्यासमारोपिताकार: पर्यनुयोगमर्हति । अतो न 'आन्तेः प्रकाशमानत्वे नाऽवोधरूपता, बोधरूपतायां वा नासदाकारसंस्पर्शः, तत्स्पर्श वाऽसच्चापत्तिः' इत्यादिपर्यनुयोगावकाशः । - ' नीलमहं वेद्मि' इति परस्परासंसक्तं प्रतीतित्रयं क्रमवत् प्रतिभाति, न कर्म-कट भावः - इत्यन्ये, तेषां द्वितीयाद्यर्थानुपपत्तिः ।
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[ कर्मकर्तृ भेदप्रतीति की भ्रमरूपता ]
इस पर यह कहा जाय कि - "ज्ञेय और ज्ञान में भेद न मानने पर 'नीलमहं वेति' = मैं नील को जानता हूं इस प्रकार नील और ज्ञान में कर्म-कर्तृ भाव की ग्राहक प्रतीति कंसे होगी ? क्योंकि एक ही वस्तु में कर्म-कर्तृ भाव नहीं होता" तो इसका उत्तर यह है कि जैसे रजत के न होने पर भी शुक्ति में रजत की बुद्धि होती है उसी प्रकार नील और नीलज्ञान में कर्म-कर्तृ भाव न होने पर भी कर्म-कर्तृ भाव की भ्रमात्मक बुद्धि हो सकती है। यदि यह कहा जाय कि 'शुक्ति में रजतज्ञान को भ्रमात्मक इसलिये माना जाता है कि उत्तरकाल में उसका बाघ होता है, किन्तु नील और नीलज्ञान में कर्तृकर्मभाव प्रतीति का उत्तरकाल में बाघ न होने से उसे भ्रम मानना उचित नहीं है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नील और नीलज्ञान का जो एक दूसरे के स्वरूप से प्रसंसृष्टरूप में स्वतन्त्रोपलम्भ होता है वही कर्तृकर्मभाव की प्रतीति में बाधक है। अगर कहें 'शुक्ति रजतभ्रम का तो चाकचिषय वीज है किन्तु यहां नील नीलज्ञान में कर्तृ - कर्मभाव के भ्रम का कौन बीज है ?' तो इसका उत्तर है कि इस भ्रम का बीज पूर्व की भ्रान्ति है, और उसका बीज उसके पूर्व की भ्रान्ति है । यह अनवस्था बोजाङ्कर में होने वाली अनवस्था के समान प्रामाणिक होने से दोषरूप नहीं है । जैसे कि "प्रवेश वेद का कारा" इत्यादि दो कारिकाओं में स्पष्ट किया गया है। इनका अर्थ इस प्रकार है
बुद्धि में उससे भिन्न वेद्याकार और वेदकाकार नहीं होता। उसमें जो ग्राह्याकार और ग्राहकाकार प्रतीत होता है उनका कोई विभिन्न लक्षण नहीं है जिनसे उनका ज्ञान से पृथक् और परस्पर भिन अस्तित्व प्रमाणित हो सके। अतः वे ज्ञान के विप्लवरूप है अर्थात् ज्ञान में भासित होने वाले असत्भिन्नतया असिद्ध विभागरूप है । अतः यह बुद्धि ग्राह्यग्राहक रूप से एवं कर्म कर्तृ भावरूप से भ्रान्तों को ही प्रतीत होती है । बुद्धि की इस प्रकार प्रतीयमान होने की व्यवस्था उसी प्रकार होती है जैसे तिमिराविरोगग्रस्त नेत्र वाले पुरुषों को बोध से भिन्नरूप में अविद्यमान भी केशादि को ओर उसकी बुद्धि की प्रतीति की व्यवस्था होती है । तो इस प्रकार जब बुद्धि का ग्राह्यग्राहकाकार विभाग raaree है तब उसके ग्राह्यग्राहकाकार के विषय में कोई प्रश्न नहीं हो सकता है, क्योंकि जो
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स्या० ० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
जो प्राकार अविद्या से आरोपित होता है वह प्रश्न करने योग्य नहीं होता। विद्या की ही यह महिमा होतो है कि वह एक व्यवस्थितरूप में हो किसी आकार का आरोप करती है। उसके पीछे और कोई कारण नहीं होता है। इसीलिये इस भ्रम के सम्बन्ध में ऐसे प्रश्न निरर्थक हैं कि-"भ्रम को प्रकाशमान मानने पर वह अबोधरूप होने से लोक में यथार्थरूप से स्वीकृत बोध से विलक्षण कैसे होगा? और बोधरूप मानने पर प्रसत् आकार के साथ उसका सम्बन्ध फैसे होगा? और असत् आकार के साथ उसका सम्बन्ध होगा तो वह स्वयं भी क्यों प्रसत नहीं हो जायगा ?" ऐसे प्रश्न अविद्या-आरोपित के सम्बन्ध में अवसरोचित नहीं है। कुछ अन्य विद्वानों का यह मत है। "मीलमहं बेमि-मैं नील को जानता हूँ,-यह एक ज्ञान नहीं, किन्तु परस्पर सम्बद्ध क्रमिक तीन ज्ञान हैं। अतः इनमें कर्म-कर्तृभाव का प्रतिभास नहीं होता है।" किन्तु ऐसा मानने पर नोल शब्दोत्तर द्वितीया विभक्ति और विद् धातु के उत्तर मि' आख्याताय को उपपत्ति नहीं हो सकेगी।
अथ सुख-स्तम्भाधाकारव्यतिरिक्तसंवेदनाभावे कथं 'चक्षुरादिना मया रूपं प्रतीयते' इत्यादि प्रतीतिः ? इत्युपलभ्ये रूपादिके चक्षुरभिमुखीभूतं तत्प्रकाशत्वं विदधाति सैव बुद्धिरिति चेत् ? न, 'चक्षरादिना रूपमुपलभ्यते' इत्यादी बाह्यार्थवादिपरिकल्पिते परोक्ष रूपादौ तदाकारा प्रकाशता चक्षुरादिना जन्यत इति वासनाविशेषेण तथा व्यपदेशसंभवान, पूर्वसामग्रीतश्चक्षुरादिरूपायाकारप्रकाशता बुद्धिस्वभायोपजायत इत्येकसामग्रथधीनतया वा तथा व्यपदेशात् । दृश्यते हि प्रदीप-प्रकाशयोः समानकालयोः 'प्रदीपेनघटः प्रकाशितः' इत्येकसामग्रयधीनतया व्यपदेश इति । दर्शनात् प्रागर्थसद्भावे तु न मानमस्ति, येन तत्र प्रकाशतां चक्षुरादिकमादध्यान् । 'दर्शनमेव तत्र मानमित्ति' चेन् ? न, तेन स्वकालावधेरेवाऽर्थस्य ग्रहणात् ।
[रूपादि में चक्ष से प्रकाशमानता का आधान वासनामूलक] जेय और ज्ञान में भेद न मानने पर यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि-'सुख आदि आन्तर और स्तम्भादि बाह्य प्राकारों से भिन्न यवि ज्ञान की सत्ता न मानी जायगी तो 'चक्षु आदि से मुझे रूप का ज्ञान होता है' इस प्रकार की प्रतीति कैसे हो सकेगी? यह प्रतीति होती तो है, अतः यह मानना प्रावश्यक है कि जब चक्षु रूपादि ग्राह्य पदार्थों के अभिमुख होता है तब उन में प्रकाशमानता का आधान करता है । इस प्रकार चक्षु आदि द्वारा रूपादि विषयों में जो प्रकाशमानता का आधान होता है वही बद्धि है और वह रूप आदि विषयों से भिन्न है।"-इस प्रश्न के उत्तर में बौद्धों का यह है कि बाह्यार्थवादियों को चिरकाल से यह वासना बनी हुई है कि रूपादि विषय ज्ञानभिन्न एवं परोक्ष है और चक्षु आदि से उनमें प्रकाशमानता का सम्पादन होता है। इस वासना के कारण ही वे ऐसा व्यवहार करते हैं कि चक्षु आदि से रूप को प्रतीति होती है। बौद्ध मत में भी इस प्रकार का व्यवहार होता है-उनके मतानुसार यह व्यवहार इस कारण होता है कि चक्षु-रूप मोर ज्ञान इन तीनों की कारण सामग्री का युगपत्सन्निधान होने पर ज्ञानात्मक चक्षुरूपाचाकार और प्रकाश का एक साथ उदय होता है। उक्त व्यवहार के इस प्रकार के कारण की कल्पना अन्यत्र दृष्ट भी है जैसे प्रदीप और प्रकाश का एक ही सामग्री से एककाल में संनिधान होने पर प्रदीप से घट प्रकाशित होता है इस प्रकार का व्यवहार लोकसिद्ध है।
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ लो० १०
[दर्शन के पूर्व अर्थसत्ता में दर्शन प्रामाण्य का निराकरण ] रूपादि में चक्षु आदि से प्रकाशता का आधान जो अन्य मतों में माना जाता है-उसके विरुद्ध बौद्ध का यह कहना है कि दर्शन के पूर्व अर्थसत्ता में कोई प्रमाण नहीं है। अत: उसमें घक्षु प्रादि से प्रकाशता के श्रापान का समर्थन नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-"दर्शन के पूर्व अर्थसद्भाव में स्वयं दर्शन ही प्रमाण है क्योंकि यदि पूर्व में अविद्यमान का भी दर्शन माना जायमा तो एकाकार दर्शन के समय सर्वसम्पूर्ण विषयाकार दर्शन की आपत्ति होगी। अत: यह मानना ही उचित है कि जो वस्तु दर्शन के पूर्व विद्यमान होती है तथा जिसके दर्शन की सामग्री पूर्व में सन्निहित होती है उसी का दर्शन होता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि वर्शन में विषयविशेष की व्यवस्था के लिये उसके पूर्व विषय का अस्तित्व मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि उसकी उत्पत्ति यह मानने पर भी हो सकती है कि जो अर्थ जिस ज्ञान का समायुक होता है अर्थात् जो अर्थ जिस ज्ञान के साथ उत्पन्न होकर उसके साथ ही नष्ट हो जाता है वह अर्थ उस ज्ञान से गृहीत होता है । जब ज्ञान और उसका बाह्याकार दोनों समायुष्क होंगे तो उन में भेद मानना अयुक्त है।
अथ 'पूर्वदृष्टं पश्यामि' इति व्यवसायात प्रागर्थः सिध्यति, प्रागर्थसत्तां विना दृश्यमानस्य पूर्वदृष्ट एकत्वगतेरयोगादिति चेत् ? कन तयोरंशत्वं गम्यते ? इदानींतनदर्शनेन, पूर्वदर्शनेन वा ? नायः, इदानींतनदर्शनकाले पूर्वकालस्याऽस्तमयात् , तेनाविद्यमानपूर्वदृग्गभेपूर्वदृष्टताया अश्रणात, अन्यथा वितथत्वप्रसङ्गात् । अत एव न द्वितीयः, पूर्वदर्शनेन वर्तमानकालदर्शनव्याप्तेरनवसायात् । तस्मादपास्तपूर्वगादियोग सर्व वस्तु दृशा गृह्यते, पूर्वदृष्टता तु स्मृतिल्लिखतीति । न च स एवायम्' इति प्रतीतिरेका, 'सः' इत्यस्थ स्मृतिरूपत्वात् , 'अयम्' इत्यस्य च दृषस्वरूपस्यात्, परोक्षसा-ऽपरोक्षस्वाभ्यां तद्दात् । न च 'पश्यामीति प्रतीतेः प्रत्यक्षमेव प्रत्यभिज्ञानम् , न च संस्कारजस्यत्वेन स्मृतित्वापत्तिः, संस्कारमात्रज-यत्वस्यैव स्मृतित्वव्याप्यत्वाद, तत्तास्मृतेरेव वा तत्ताप्रत्यभिज्ञाहेत त्यात' इति नैयायिकादिमतमपि यक्तम् , तेषामपि 'पश्यामि' इत्याद्यनुगतमस्या चानुपत्याऽसिद्धनिर्विकल्पका साधारण्यात् , वैशद्यविशेषस्यैव 'पश्यामि' इति प्रतीतो विषयत्यादिति न किञ्चिदेतत् ।
[ दृश्यमान और पूर्वदृष्ट में एकत्व असिद्ध ] यदि यह कहा जाय कि-"मैं पूर्वदृष्टवस्तु को देखता हूं-इस प्रकार का अनुभव लोक सम्मत है अतः इस अनुभव के अनुरोध से वर्तमान दर्शन के पूर्व भी दृश्यमान अर्थ को सत्ता माननी होगी, क्योंकि पूर्व में सत्ता माने बिना उसकी पूर्वष्टता उपपन्न नहीं हो सकती । फलतः दृश्यमान और पूर्व दृष्ट में जो एकत्व की प्रतीति होती है उसको उपपत्ति पूर्व में प्रर्थसत्ता को माने विना नहीं हो सकती, अतः उक्तानुभव ही अर्थ की पूर्व सत्ता में प्रमाण है।"-इस पर बौद्ध का कहना है कि दृश्यमान और पूर्यदृष्ट अर्थों में एकत्व का ज्ञान असिद्ध है क्योंकि एकत्व का ज्ञान न तो वर्तमान दर्शन से हो सकता है-न तो पूर्व वर्शन से । वर्तमान दर्शन से इसलिये नहीं हो सकता कि वर्तमान दर्शनकाल में पूर्वदर्शन और उसका काल नष्ट हो चुका रहता है, अतः अविद्यमान पूर्वदर्शन से घटित पूर्वदृष्टता का
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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
ज्ञान वर्तमानदर्शन द्वारा नहीं हो सकता । यदि वर्तमान दर्शन प्रविधमानपूर्वदृष्टता का प्रहण करेगा तो भ्रम हो जायगा और भ्रम से विषय की सिद्धि नहीं होती है यह स्पष्ट है । पूर्वदर्शन से भी पूर्वदृष्ट और दृश्यमान में एकत्व का ज्ञान नहीं हो सकता, क्योंकि पूर्वदर्शन के साथ वर्तमान अर्थ के कालिक दर्शन की व्याप्ति अर्थात् 'वर्तमानकाल दर्शन विषयतासम्बन्ध से जिस अर्थ में है उसमें पूर्ववर्शन भी विषयतासम्बन्ध से है' इस व्याप्ति का ग्रहण नहीं हो सकता है। प्राशय यह है कि पूर्ववर्शन वर्तमानकाल में दृश्यभाव अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकता क्योंकि वर्तमानकाल में दृश्यमान को सत्ता पूर्व में एवं पूर्वदर्शन की सत्ता वर्तमान में दृश्यमान नहीं है। अतः सिद्धान्त यह है कि दर्शन पूर्वदर्शनादि के सम्बन्ध से मुक्त हो सम्पूर्ण वस्तुओं को ग्रहण करता है। किसी अर्थ को पूर्वदृष्टता का उल्लेख दर्शन से नहीं अपितु स्मरण से होता है।
[प्रत्यभिज्ञा में बुद्धि-एकल की अनुपपत्ति ] ‘स एवायम्' यह प्रत्यभिज्ञात्मक बुद्धि भी एक नहीं है जो पूर्वष्ट और दृश्यमान के ऐक्य में प्रमाण हो सके क्योंकि यह बुद्धि 'स' 'इस अंश में स्मरणरूप है और 'अयम्' इस अंश में दर्शन रूप है। स्मरण परोक्षज्ञान है और दर्शन अपरोक्ष ज्ञान है। परोक्षत्व और अपरोक्षत्व इन दोनों में विरोध होने से 'सः' इत्याकारक और 'अयम्' इत्याकार ज्ञान में भेव अनिवार्य है । यदि यह कहा जाय कि-"उक्त प्रत्यभिज्ञात्मक बुद्धि का 'पश्यामि' इस रूप में प्रत्यक्षात्मना ज्ञान होता है अतः त्यभिज्ञा केवल प्रत्यक्षरूप ही है, किसी भी अंश में स्मतिरूप नहीं है । 'स:' इस अंश में संस्कारजन्य होने से उसे स्मरणरूप नहीं माना जा सकता क्योंकि संस्कारमात्रअन्यत्व में ही स्मृतित्व की व्याप्ति है। प्रत्यभिज्ञा संस्कार और इन्द्रिय उभय से जन्य होने के कारण संस्कारमात्रजन्य नहीं है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि तत्ता को प्रत्यभिज्ञा तत्ता के संस्कार से नहीं उत्पन्न होतो किन्तु सत्ता के स्मरण से उत्पन्न होती है। अतः प्रत्यभिज्ञा में संस्कारजन्यत्व असिद्ध होने से उसे स्मरणात्मक नहीं माना जा सकता"-तो नयायिक प्रादि का यह कथन भी युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि प्रत्यभिज्ञा की 'पश्यामि' इस प्रतीति से उसमें चाक्षषप्रत्यक्षरूपता का साधन सकता क्योंकि पश्यामि' यह प्रतीति चाक्षषत्व के साधन में इसलिये असमर्थ है कि निर्विकल्पक अतीन्द्रिय होने से 'पश्यामि' इस प्रकार चाक्षुषत्व रूप में उसका अनुभव नहीं होता । अतः यह मानना युक्तिसंगत है 'पश्यामि' यह प्रतोति अपने विषयभूतज्ञान में चाक्षुषत्व को विषय न कर वैशा विशेष को ही विषय करती है । अतः नयायिक का उक्त कथन अकिश्चित्कर है।
अथानुमानात् प्राग भायोऽर्थस्य सिध्यति, प्राक् सत्ता विना पश्चाद्दर्शनायोगादिति चेत् ? न, प्राक् सत्ताया असिद्धया तया सह पश्चाद्दर्शनस्य नियमाऽसिद्धेः । अथ ज्ञाने नीलाधाकारस्य कादाधिकस्यान्यथानुपद्यमानात तत्प्रसिद्धयेऽर्थः परिकल्प्यत इति चेत् ? न, स्वप्नाद्यवस्थायां वासनाविशेपसामर्थ्यवशार विद्यमानकरि-नुरग-रथाधाकारप्रतिपत्तिनियमवज्जााग्रद्दशायामपि तत एष दर्शनस्य प्रतिनियतविषयत्वोपपत्तेः तद् न प्रागर्थसत्यम् । प्रागसत्त्वे तु धर्मिस्वरूपे दर्शनमेव प्रमाणम् , यद् येनैव रूपेणोपलभ्यते तत् तेनैव रूपेणास्ति, यथा नील नीलरूपतयव, इत्थं च वर्तमानत्वेनानुभव एवं पूर्वकाले संबन्धित्वं व्यवच्छिनतीति । अथ नीलं
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ५ श्लो० १०
तद्दर्शनविरतावपि परदृशि प्रतिभातीति साधारणतया ग्राह्यम् विज्ञानं स्वसाधारणतया ग्राहकमिति भेदो युक्त इति चेत् ? न, नीलस्य साधारणतया प्रतीतेः । न हि नीलं परदृशि प्रतिभातीन्यत्र प्रत्यपरोऽति । अतत्साधारणता प्रतीयते, स्वसंताने नीलादानार्थप्रकृतेः नीलदर्शनमूलकत्वदर्शनेन परसंतानेऽपि प्रवृत्तिदर्शनात् तद्विपयदर्शनानुमानादिति चेत् न, परप्रवृत्त्यादिना परदृष्टनीलानुमानेऽपि स्व-परदृष्टयोर क्याऽसिद्धेः, सामान्येनान्वयपरिच्छेदात्, अपरधूमदर्शनादपरवलयनुमानात्, अपरवहीं पूर्वदृष्टवह्निसदृशताविकल्पयत् परदृष्टे स्वदृष्टसदृशता - मात्र विकल्पावतारात् । प्रतिभासभेदेऽपि स्व-परदृष्टयोः सदृशव्यवहारादिकार्यदर्शनाद भेदः स्यात्, तदा सदृशरोमाञ्चवादिकार्यदर्शनात् सुखादेरपि स्त्र- परसंतान वस्तत्त्वं भवेत् ।
[ अर्थ की अनुमानपूर्व सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती ]
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के
यदि यह कहा जाय कि - ' अनुमान के पूर्व अर्थ की सत्ता मानना आवश्यक है क्योंकि अर्थसत्ता अनु यानी पश्चात् अर्थ ज्ञान मानने पर ही उसमें अनुमान शब्द सार्थक हो सकता है। अतः अर्थ की पूर्व सत्ता माने विना अनुमानात्मक ज्ञान का सम्भव न हो सकने के कारण अनुमान के पूर्व अर्थ सत्ता का अभ्युपगम अनिवार्य है ।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि अनुमान से पूर्व अर्थसत्ता की सिद्धि उसके प्रत्यक्ष द्वारा नहीं हो सकती है किन्तु ऋतुमानात्मक लिङ्ग द्वारा आनुमानिक हो सिद्धि हो सकती है, किन्तु वह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि उसके लिये अनुमान में अर्थ को पूर्वसत्ता का याप्तिग्रह होना चाहिये जो अर्थसत्ता के प्रमाणान्तर द्वारा सिद्ध न होने से सम्भव नहीं है ।
[ कादाचित्क नीलाद्याकार से बाह्यार्थ की सिद्धि अशक्य ]
यदि यह कहा जाय कि 'ज्ञान में नीलाद्याकार कादाचित्क है - सादिक नहीं है अर्थात् कोई कोई ज्ञान ही नीलाद्याकार होता है सब ज्ञान नीलाद्याकार नहीं होता है, इस स्थिति को उपपत्ति ज्ञान के नीलाद्यर्थजन्य माने बिना नहीं हो सकती, अतः ज्ञान में कादाचित्क नीलाद्याकार की उपसि 'लिये नीलाद्यर्थ की कल्पना श्रावश्यक है" तो यह टीक नहीं है, क्योंकि जैसे स्वप्नाद्यवस्था में हस्ती अश्व रथ आदि पदार्थों के न होने पर भी वासना विशेष से नियत तत्तदर्थाकार ज्ञान का उदय होता है उसी प्रकार जाग्रत्काल में भी वासना विशेष से ही तत्तत्प्रतिनियत अर्थविषयक दर्शन को उत्पत्ति हो सकती है। अतः ज्ञान में नियतविषयकत्व के अनुरोध से ज्ञान के पूर्व अर्थ की सत्ता मानने में कोई युक्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि "जैसे दर्शन के पूर्व अर्थ सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार दर्शन के पूर्व अर्थ की असत्ता में भी कोई प्रमाण नहीं है ग्रतः 'अर्थ ज्ञान के पूर्व असत् होता है' यह सिद्धान्त युक्तिशून्य है" तो यह ठीक नहीं, क्योंकि दर्शन के पूर्व अर्थ की असत्ता में स्वयं वर्शन ही प्रमाण है क्योंकि 'जो वस्तु जिस रूप से उपलब्ध होती है उस रूप से ही उसका अस्तित्व होता है यह सर्वमान्य है । जैसे नील नीलरूप से उपलब्ध होने के कारण नीलरूप से हो उसकी सत्ता होती है-पीतादिरूप से नहीं । अतः दर्शन भी वस्तु को वर्तमानत्वेनंव अर्थात् स्वसमानकालिरूप से ही ग्रहण करता है श्रत एव वह अर्थ के पूर्वकाल सम्बन्ध का व्यवच्छेद कर वर्तमानकाल अपने अस्तित्वकाल में ही अर्थ सत्ता का साक्षी होता है।
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__ स्याक टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[अनेकदर्शन साधारण एक नील की असिद्धि ] यदि यह कहा जाय कि-"नील अर्थ अपने एक दर्शन के निवृत्त हो जाने पर भी अन्यदर्शन में भासित होता है । अतः नीलादिपदाथ विभिन्न वर्शनों में साधारण होने से ग्राह्य होता है और एकार्थाकार विज्ञान अन्य प्रर्थों का ग्राहक न होने से असाधारण होता है और असाधारण होने से वह ग्राहक होता है । इस प्रकार साधारण्य और असाधारण्य प्रयुक्त ग्राह्यार्थ और ग्राहकज्ञान में भेद का अभ्युपगमे युक्तिसंगत है।"-ती यहीक नहीं है, क्योंकि नील को साधारणतया प्रतीति असिद्ध है। कारण, एक दर्शन के विषयभूत नील का अन्यदर्शन में भासित होना हो उसका साधारण्य है और इस साधारण्य का ग्रहण प्रत्यक्ष द्वारा नहीं हो सकता क्योंकि विभिन्न दर्शनों का ग्रहण किसी एक प्रत्यक्ष द्वारा सम्भव नहीं है। यदि यह कहा जाय कि-"अनुमान से नीलादि की साधारणता सिद्ध हो सकती है क्योंकि एक सन्तान में नीलग्रहण के लिये होने वाली प्रवत्ति में नोलदर्शनपूर्वकत्व देथा जाता है अतः यह व्याप्तिग्रह हो सकता है कि नीलग्रहण में होने घाली प्रवृत्ति नौलदर्शनमूलक होती है-और इस व्याप्ति से अन्य सन्तान में होनेवाली नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति को देखकर उसमें भी नीलदर्शनपूर्वकत्व का अनुमान हो सकता है। इस प्रकार यह सिद्ध हो जाता है कि एक हो नीलपदार्थ विभिन्नसन्तानों में होने वाले विभिन्न दर्शनों का विषय होता है"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अन्य व्यक्ति की प्रवृत्ति से अन्यदृष्ट नील का अनुमान होने पर भी विभिन्नव्यक्तिओं से दृष्ट नोल में ऐक्य को सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि अनुमान के मूलभूत अन्वय (व्याप्ति) का निश्चय साध्य और हेतु में विशेषरूप से न होकर सामान्यरूप से ही होता है। इसलिये जैसे पाकशाला में जिस धूम से जिस वह्नि का सहचार दृष्ट होता है उस धूम से भिन्न धूम को देखकर पर्वत में उस वह्नि से भिन्न वह्नि का अनुमान होता है और उस भिन्न वह्नि में पूर्वदृष्ट वह्नि के सादृश्य का ज्ञान होता है, उसी प्रकार अपनी नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति में जिस नील के अपने दर्शन का नरन्तयं गृहीत है, अन्य व्यक्ति को नील ग्रहणार्थ प्रवृत्ति से अन्य नोल के दर्शन का नरन्तर्य हो अनुमित हो सकता है और अन्यदृष्ट नील में स्वष्ट नील के सादृश्य की बुद्धि हो सकती है। इस प्रकार स्वष्ट और परदृष्ट नोल में नील का भेद ही युक्तिसंगत है। किन्तु यवि स्व और पर के नीलविषयक प्रतिभास में भेद होने पर भी आपके द्वारा स्वदृष्ट और परदृष्ट में इसलिये अभेद माना जायगा कि ये दोनों सदृशव्यवहारादि कार्य के उत्पादक है, तो स्व प्रौर पर के सुखादि में भी अभेद की प्रसक्ति होगी क्योंकि स्व और पर के सुख से स्व और पर में समान रोमान्च के उद्गम आदि कार्य देखा जाता है ।
न च सन्तान भेदाद तद्भेदः, तत्रापि भेदकान्तरगवेषणायामनवस्थानात् । स्वरूयत एव ताझेदे च मुखादेरपि तत एव मेदसंभवात् । न च देशैकत्वात स्व-परदृष्टनीलादीनामेकत्वम् , देशस्थापि स्व-परदृष्टस्योक्तवदेकत्वायोगात् । तस्माद् ग्राहकाकारवत् प्रतिपुरुपमुद्भासमानं नीलादिकमपि भिन्नमेव, तच्चेककालोपलम्भाद् ग्राहकवत् स्वप्रकाशम् ।
[सन्तान भेद से सुखादि का भेद मानने में अनवस्था ] यदि स्व और पर के सुख में ज्ञानमेव से भेद न मानकर सन्तानभेद से भेद माना जायगा तो उन सन्तानों के भेद के लिए भी ज्ञानभेद से भेद न मानकर अन्य भेदक को कल्पना करनी होगी जिसका पर्यवसान अनवस्था में होगा। यदि सन्तानों में स्वरूपतः अर्थात् भेवकान्तरनिरपेक्ष मेव
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[ शास्त्रवासी० स्त० ५ श्लो १०
माना जायगा तो सुखादि में भी स्वरूपतः ही भेद मानना उचित होगा, न कि सन्तानमेद से | अतः जैसे स्व और पर द्वारा अनुभूयमान सुखादि में परस्पर भेद है इसी प्रकार स्व और पर से दृश्यमान
लादि में भी भेद मानना युक्तिसंगत है। यदि यह कहा जाय कि "स्व और पर के सुख में भेद इसलिये मानना आवश्यक है कि उन में देश का ऐक्य नहीं है अर्थात् उन दोनों का प्राश्रयभूत देश एक नहीं है । किन्तु स्वदृष्ट और परहृष्ट नीलादि में एकत्व माना जा सकता है क्योंकि जिस देश एक व्यक्ति नील आदि को देखता है उसी देश में अन्य व्यक्ति भी नील को देखता है।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस युक्ति से स्वदृष्ट और परहृष्ट नील में ऐक्य नहीं है, उसी प्रकार स्वदृष्ट और परदृष्ट देश में भी ऐक्य नहीं है। अतः स्वदृष्ट और परहृष्ट नील को एकदेशाश्रित बताना अयुक्त है । इसलिये जैसे प्रत्येक मनुष्य में श्रवभासित होने वाला ग्राहक आाकार भिन्न है उसी प्रकार प्रत्येक पुरुष को ज्ञात होने वाला तोलादि भी परस्पर में भिन्न हो है। ग्राहक ज्ञान के साथ ही उपलभ्यमान होने के कारण ग्राहक के समान ही यह भी स्वप्रकाश है ।
में
अथ ग्राहकाकारश्चिद्रपत्वाद् वेदकः, नीलाकारस्तु जडत्वाद् ग्राह्य इति चेत् ? न अपरोक्षस्वरूपस्य चिद्रूपत्वस्य नीलादिसाधारण्यात् । 'नीलादेर परोक्ष स्वरूपमन्यस्माद् भवति, न तु बोधस्येति विशेष' इति चेत न, एकत्रापेक्षानपेक्षाऽयोगाद | एवं चान्तर्च हिराकारयोस्तुल्यत्वेऽपि - 'एकत्र ग्राहकताशक्तिः, अन्यत्र च ग्राह्यताशक्तिः ' - दति परेषां वासनामात्रम्, असिद्धे ग्राह्यग्राहकभावे तच्छक्तिकल्पनाया अयोगात्, तस्याः कार्यानुमेयत्वात् । च 'यदवभासते तज्ज्ञानम्, यथा सुखादिकम्, अवभासते व नीलादिकम्, अतो 'ज्ञानमेव' इति स्वभावहेतुः ।
[ जडरूपता और चिद्रूपता भेदक नहीं है ]
I
यदि यह कहा जाय कि 'ग्राहकाकार चित्स्वरूप- प्रत्यक्षात्मकप्रकाशस्वरूप होने से ग्राहक है और नीलादि आकार जड़ यानी प्रकाश भिन्न होने से ग्राह्य है ।" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि चिप प्रपरोक्षस्वरूप होने से नीलादि साधारण है, क्योंकि जैसे ज्ञान अपरोक्षव्यवहार का विषय होने से अपरोक्ष होता है उसी प्रकार नीलादि भी अपरोक्षव्यवहार का विषय होने से अपरोक्षस्वरूप है । यदि यह कहा जाय कि - " नीलावि की प्रपरोक्षरूपता अन्य प्रयुक्त है और बोध को अपरोक्षता सहज है यह नीलादि आकार और ग्राहक ज्ञान दोनों के बीच अन्तर है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि बोध भी इन्द्रियादि सापेक्ष है। यदि यह कहा जाय कि-बोध अपनी उत्पत्ति में ही इन्द्रियादि की अपेक्षा करता है अपनी अपरोक्षता में नहीं करता है, अतः उसकी अपरोक्षता सहज है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि एकबोध में ही 'इन्द्रियादिसापेक्षत्व' और 'इन्द्रियादिनिरपे क्षत्व' इन परस्पर विरोधी भावाभाव का समावेश नहीं हो सकता ।
[ शक्तिभेद से आकार भेद का निरसन ]
अतः अन्य कतिपय विद्वानों का यह कथन कि- 'ज्ञान के ग्रहणात्मक आन्तराकार और नीलाद्यात्मक बाह्याकार इन दोनों में एककालिक सामग्री प्रभवता होने से समानता होने पर भी श्रान्तराकार में ग्राहकताशक्ति और बाह्याकार में ग्राह्यताशक्ति होती है । अतः इस शक्तिभेद
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स्या०क • टीका एवं हिन्दी विवेचन )
से दोनों में ग्राहकाकार पार ग्राह्याफार में भेद मानना प्रायश्यक है।"-तो यह कयन एकमात्र उनकी चिरप्ररुद बासना का ही परिणाम है क्योकि जब मोलाकार और जानाकार में ग्राह्यगाहकभाव हो असिद्ध है तब ग्राहकताशक्ति और ग्राह्यताशक्ति को कल्पना ही नहीं हो सकती, क्योंकि शक्ति कार्यानुमेय होती है। अतः ग्रहण करना और गहीत होना इस प्रकार कार्यभेद को सिद्धि के विना ग्रहण करने की और गृहीत होने की विभिन्न शक्ति का अनुमान नहीं हो सकता। इसलिये सारे विचारों का निष्कर्ष इस स्वभावहेतुक अनुमान में फलित होता है कि 'जो अबभासित होता है वह ज्ञानात्मक होता है जैसे सुखादि आन्तररस्तु। नीलादि प्रवभासित होता है अतः वह भी ज्ञानात्मक ही है। इस प्रनुमान में सुखादि इस अभिप्राय से दृष्टान्तरूप में उपन्यस्त हुआ है कि जैसे ज्ञान आन्तर धम्न है ऐसे सुख यो आन्दररहनों से कोई भी बहिरिन्द्रिय से गृहीत नहीं होता। प्रतः दोनों को एकजातीय मानने में कोई बाधा नहीं है। अथवा वह दृष्टान्तरूप में उस मत से उपन्यस्त है जिस मत में ज्ञान-सुखादि एक ही अन्तःकरण के परिणाम होने से परिणामी द्वारा अभिन्न होते हैं। ___कथं तर्हि 'भूतले घटः' इति प्रतीतिः, न तु 'भृतले न घटज्ञानवत' इतिवद् 'भूतलं न घटवत' इति ! कथं वा 'अहं घटज्ञानान' इतिवत् 'अहं घटवान' इति न प्रतीतिः ?" इति चेत् ?, पृच्छतद् नियताधाराधेयभावकल्पनाबीजम् । न हि परेणाप्याधाराधेयभावो वास्तवो वस्तुं शक्यते, संयोगमात्रस्य तत्वे कुण्ड-बदस्योस्तद्विषययस्य विनिगन्तुमशक्यत्वात्, तिर्यसंयुक्तयोद्धयोस्तदव्यवहाराच्च । न च बदरादिप्रतियोगिकत्वविशिष्टसंयोगादिरेव बदराद्याधास्ता, क्षणभङ्गापच्या रिशिष्टस्यानिरिक्तस्यानभ्युपगमात् , प्रतियोगित्वाद्यविवेचनाय । न च कुण्डादिस्वरूपैव बदराद्याधारसा, तस्वरूपस्य साधारणत्वाद् बदरं प्रतीव करभं प्रत्यप्यविशेषात् । तस्माद् भूतलादी घटायाधारताप्रतीतिरविद्याविशेषादेव नियतेति प्रतिपत्तव्यम् ।
एतेन 'अर्थाभावेऽन्तहिविभाग एव न स्यात्' इति निरस्तम्, भिन्नदेशसंबन्धित्वेन तदसंभवेऽपि विश्वरूपभेदेन तत्संभकात, अन्यथा स्वप्नादौ स्थादिज्ञाने बहिज्ञानत्वं न स्यात् । एतेन चाहमिदमाकार भेदोऽपि व्याख्यातः स्वरूयतस्तद्देदाद , 'इदं नीलं' इत्यत्रेदमाकार-नीलाकारयोदोषादेवकज्ञानत्वाभिमानात् । पहिर्नीलादिस्वरूपमिदंत्वं स्वनुपयन्नम, असत्यप्यर्थे दोपवशात् 'इदम्' इति प्रतीतेः । 'इदं नीलम्' इत्यादिसह प्रयोगानुपपत्तेश्च' 'घटो घटः' इत्यादिवदिति दिग् ॥१०॥
[ आधारता की प्रतीति अविद्यामूलक ] जय और ज्ञान में ऐक्य मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि ज्ञेय और ज्ञान अभिन्न है तो क्यों "भूतल में घट है' यह प्रतीति होती है ? और 'भूतल में घटज्ञान नहीं है। इस प्रकार 'भूतल में घट नहीं है' यह प्रतीति नहीं होती? और क्यों 'मुझ में घटशान है' इस प्रतीति के समान मुझ में घट है यह प्रतीति नहीं होतो ?" -तो बौज को ओर से इसका यह उत्तर है कि इसका कारण नियत आधारआधेयभाव की कल्पना है। इस विषय में कुछ भी पुखना हो तो उक्त कल्पना के कारण को
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो०१०
ही पूछना चाहिये न कि इस कल्पना के प्राधार पर व्यवहार करने काले मनुष्य को। इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि बाह्यार्थवादी भी वास्तविक ग्राधाराधेयभाव का समर्थन नहीं कर सकते। उन्हें भी कल्पित ही आधाराधेयभाव मानना पड़ता है। अन्यथा कुण्ड और बदर (= बेर) में संयोगमात्र से वास्तविक आधाराधेयभाव मानने पर कुण्ड जैसे बदर का आधार है वैसे बदर कुण्ड का आधार हो उसमें विनिगमना नहीं प्राप्त हो सकती, पयोंकि संयोग दोनों में ही समान है। तथा जो दो द्रव्य तिर्यक् अर्थात् पार्श्व देशों से संयुक्त होते हैं उनमें प्राधाराधेयभाव का ध्यवहार नहीं होता है इसलिये भी संयोग वास्तयिक आधाराधेयभाव का निमित्त नहीं हो सकता।
यदि यह कहा जाय कि-"कुण्ड और बदर में संयोग समान होने पर भी संयोगमात्र को आधारता नहीं माना जाता किन्तु बदरप्रतियोगिकस्वविशिष्ट संयोग ही बदर की आधारता है। यतः वह संयोग कुण्ड में ही रहता है बदर में नहीं । अतः कुरड ही बदर का आधार होता है, बदर कुण्ड का आधार नहीं होता और बवर कुण्ड का प्राधार इसलिये भी नहीं होता कि कुण्ड और बदर में जो संयोग होता है वह कुण्डप्रतियोगिक नहीं होता है और कुण्ठप्रतियोमिकस्वविशिष्ट संयोग हो कुण्ड की आधारता होती है। किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि यह समाधान तब हो सकता है जब बदरप्रतियोगिकत्वविशिष्ट संयोग और शुद्ध संयोग में भेद हो। अन्यथा बदर-कुण्ड का संयोग जैसे कुण्ड में है वैसे बदर में भी है और उस संयोग में बदरप्रतियोगित्य भी है अतः जब बदर में संयोग और संयोग में धचरप्रतियोगिकत्व विद्यमान है तो बबर में बदरप्रतियोगिकत्त विशिष्ट संयोग नहीं हैयह कहना असम्भव होगा। अतः बदर में भी बदर को प्राधारता को आपत्ति अपरिहार्य होगी। जब दोनों में भेद मानना है तब यह तभी सम्भव होगा जब कुण्ड में बदर के शुद्धसंयोग और बदरप्रतियोगिक संयोग को कम से उत्पत्ति मानी जाय, क्योंकि किसी द्वध्य में एक बच्य के दो संयोग की उत्पत्ति एक साथ नहीं होती और क्रम से उत्पत्ति भी पूर्वसंयोग का नाश होने पर ही हो सकती है क्योंकि एक द्रव्य का वो संयोग किसी दय्य में एक साथ नहीं रहता किन्तु ऐसा मानने पर संयोग में क्षणभङ्ग को प्रापत्ति होगी।
__ उसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह भी है कि संयोग में बरप्रतियोगिकत्वादि क्या है उसका विवेचन भी नहीं हो सकता है । क्योंकि बदरप्रतियोगिफत्व का अर्थ यदि बदरवृत्तित्व किया जायगा तो बदरवृत्तिश्वविशिष्ट संयोग बदर में ही रहेगा न कि कुण्ड में अतः बदर ही स्वयं अपना प्राधार हो जायगा, कुण्ड न हो सकेगा। यदि बदरप्रतियोगिकत्व का 'सामानाधिकरप्येन बदरवशिष्टच' अर्थ किया जाय तो कुण्ड में किसी अन्य सम्बन्ध से बदर की अधिकरणता सिद्ध करनी होगी क्योंकि
|संयोग में बदर सामानाधिकरण्य का उपपादन नहीं हो सकेगा। यदि बदरप्रतियोगिकत्व का बदरजन्यत्व अर्थ किया जाय, तो बदरजन्य संयोग बदर में रहने से बदर में बदराधिकरणता का परिहार न हो सकेगा। इस प्रकार प्रतियोगिकत्व का विवेचन शक्य न हो सकने से बदरप्रतियोगिकत्व विशिष्ट संयोग को बदराधारतारूप नहीं माना जा सकता । यदि यह कहा जाय कि-"कुण्डादि में बदर की आधारता बदरस्वरूप होने से कुण्डादि ही बदर का प्राधार होता है बदर नहीं, क्योंकि कुण्डादि का स्वरूप बदर में नहीं रहता" तो यह कहना ठीक नहीं है क्योंकि बदर के प्रति जसे कुण्ड का स्वरूप है वैसे ही करभ के प्रति भी कुण्ड का स्वरूप है, अतः कुण्डस्वरूप तो बदर और बबर से अन्य अनन्तपदार्थों के प्रति साधारण है, और साधारण होने से कुण्ड में बदर की आधारता के समान करभावि प्रन्यान्य अनन्त पदार्थों की आधारता को भी प्रसक्ति होगी। इसलिये यही मानना न्याय
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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
संगत है कि भूतलादि में घटादि की प्राधारता की प्रतीति-अविधा वासनाविशेष से ही नियन्त्रित होती है अतः आधाराधेयभाव के सम्बन्ध में कोई नया प्रश्न नहीं किया जा सकता।
__कुछ लोगों को यह कल्पना है कि-"ज्ञान के आकार में जो 'अन्तर' 'बाह्य का विभाग होता है-जैसे ग्रहणाकार ज्ञान का अन्तराकार है और नीलादि प्राकार उसका बाह्य आकार है- यह विभाग अर्थ की अतिरिक्त सत्ता न मानने पर नहीं हो सकता'; किन्तु यह कल्पना भी निरस्तप्रायः है क्योंकि ज्ञान से अतिरिक्त अर्थसत्ता न मानने पर भिन्नवेश के साथ सम्बन्त्र होने और न होने के आधार पर उक्त विभाग का भले सम्भव न हो किन्तु ज्ञान में विभिन्न रूपों के होने से रूपभेद से उक्त विभाग हो सकता है । अन्यथा यदि ज्ञान में बाह्याकारता बाह्याथं की भिन्न देश में सत्ता होने से हो मानी आयगी तो स्वप्नादि अवस्थाओं में जो भिनादेशसम्बन्धो रथादि न होने पर भी उनके ज्ञान में बाह्माकारता होती है वह उपपन्न न हो सकेगी। अत: ज्ञान को बाह्याकारत को असत्ता मूलक में मान कर शासनामूलक मानना ही उचित है। इसी प्रकार ज्ञान के अहमाकार और इदमाकार के भेद को भी समान लेना चाहिये । अर्थात वे दोनों आकार भी विभिन्न अर्थों की सत्ता के अधीन न हो कर स्वरूपाधीन ही है-अर्थात ज्ञान के प्रहमाकार और इदमाकार में भेवकान्तरनिरपेक्ष स्वाभाविक भेद है। 'इदं नीलम्' इस प्रकार के नानस्थल में इदमाकार नीलाकार भी वास्तव में एक दूसरे से स्वरूपतः भिन्न है, उनमें एकज्ञानरूपता की भ्रान्ति दोनों में भेद के अज्ञानरूप दोष से ही होती है। यह भी नहीं कहा जा सकता कि-"अर्थ में जो इदन्त्व प्रतीत होता है वह ज्ञान का धर्म न होकर अर्थ का धर्म है । क्योंकि 'इदं' शब्द का प्रयोग बाह्यार्थ में ही लोक में दृष्ट है आन्तर अर्थ में नहीं। अतः नीलादि बाह्य पदार्थ को माने विना तत्स्वरूप इदन्त्य की उपपत्ति नहीं हो सकती";-क्योंकि शुक्ति. स्थल में विद्यमान रजत में भी दोषवश 'रजतमिदम्' इस प्रकार इदस्व को प्रतीति होती है अतः इदत्व नोलाविरूप बाह्य अर्थस्वरूप नहीं माना जा सकता। इसके अतिरिक्त इदन्त्य को नीलावि स्वरूप मानने पर भी दोष है कि जैसे 'घटो घट:' 'घट: कलशः' इत्यादि समानार्थक पदों का सहप्रयोग नहीं होता उसी प्रकार 'इदं नीलम्' इस प्रकार का सहप्रयोग भी नहीं हो सकेगा जब कि यह प्रयोग सर्वमान्य है ॥१०॥
११ वी कारिका में बाह्यार्थ के अभाव के सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है।
निगमयतिमूलम्-एवं चाऽग्रहणादेव तदभावोऽवसीयते ।
___ अनः किमुच्यते मानमर्थाभावे न विद्यते ! ॥११॥ एवं च-उकारीत्या अग्रहणादेव-अदर्शनादेव तदभावा-बाह्यार्थाभावः अवसीयते । अतः किमुच्यते-'अर्थाभावे मानं न विद्यते' इति ! नीलादी ज्ञानाभिन्नत्वग्रहे समीहितसिद्धः।
उक्त रीति से ज्ञान के अभाव में ब्राह्मार्थ के अदर्शन से ही बाहार्थ के प्रभाव की सिद्धि होती है। अतः इस कथन का कोई अर्थ नहीं है कि 'बाह्मार्थ के अभाव में कोई प्रमाण नहीं है।' क्योंकि उक्त युवितओं से नोलादि में ज्ञान का अभेद है अर्थात् नीलादि ज्ञान से अभिन्न है, ज्ञानस्वरूप ही है, यह सिद्ध होने से विज्ञानयादी को अभीष्ट विज्ञानमात्र की सत्ता सिद्ध होती है । 'बायार्थ नहीं
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[ शास्त्रधार्ता० स्त० ५ श्लो० ११
है' इस कथन से विज्ञानवादी को यही अभीष्ट है कि नीलादिस्वरूप में प्रतीत होने वाले सारे अर्थ जान से भिन्न नहीं है।
एतेन 'अदर्शनादेवाभावनिश्चये पुत्रादर्शनात् तदभावनिश्चयेनोरस्ताडनादिना शोकप्रसंगः' इति दुर्भाषितमपास्तम्, परंप पुत्रध्वंसबहसामधनियतत्वात् तदाकारम्य, पुत्रधंसनहस्य च शोकहेतुत्वादिति । कथं तहि प्राक् पूर्वकालसंबन्धित्वेनादर्शनात् तदभावप्रहः उक्तः १ इति चेत् ? धम्यतिरिक्तस्य तस्य दुर्वचत्वाद् धर्मिस्वरूपत्वे योग्यस्वेन तदापादनसंभवादित्याकलय । एवं च विज्ञानस्वसंवेदनस्यत्र मानवादित्याशयव्याख्याने 'मानत्वात्' इत्यस्य 'मानोत्थापकत्वात्' इत्यों बोध्यः ॥ ११ ॥
[पुत्र के अदर्शन से शोकप्रसंग का अनिष्ट बौद्ध को नहीं है । कुछ लोगों का ऐसा कथन है कि-'प्रदर्शन से ही प्रभाव का निश्चय मानने पर घर से बाहर गये हुये मनुष्य को गृहस्थित प्रश्न का प्रदर्शन होने से पुत्र के अभाव का निश्चय हो जायगा जिसके फलस्वरूप गृह से बाहर गये हये मनुष्य को छाती कुट्टन करते हुये शोकाक्रान्त होना अनिवार्य है ।'किन्तु यह कथन युषितहीन होने से नितान्त दुर्भाषण मात्र है क्योंकि पुत्रवान् मनुष्य के शोक का कारण पुत्र के सामान्य अभाय का ज्ञान नहीं होता किन्तु पुत्रध्वंस का ज्ञान होता है और पुत्रध्वंसाकार ज्ञान तभी होता है जब उस प्रकार के ज्ञान को सामग्री होती है। उस सामग्री में पुत्र का ध्वंस भी घटक होता है। अतः गह के बाहर गये हुए मनुष्य के समक्ष पुत्रध्वंस न होने से अथवा पुत्रध्वंस को कोई सूचना न होने से पुत्रध्वंस का ज्ञान न होने के कारण गह के बाहर पुत्र के अदर्शन मात्र से शोक का प्रसंग नहीं हो सकता।
[अर्थ के अदर्शन से उसके अभाव के ग्रहण का तात्पर्य ] इस पर यदि यह कहा जाय कि-"यदि अर्थ के प्रदर्शन मात्र से उसके प्रभाव का ग्रहण नहीं होता तो पहले यह कैसे कहा गया कि दृश्यमान अर्थ में पूर्वकालसम्बन्ध के प्रदर्शन से पूर्वकालसम्बन्ध के अभाव का ग्रहण होता है ? यहां यह नहीं कह सकते कि-'दृश्यमान अर्थ में पर्वकाल के सम्बन्ध के प्रभाव का ग्रहण भी पूर्वकाल के सम्बन्ध के ध्वस का ही ग्रहण है';-क्योंकि दृश्यमान अर्थ में पूर्वकालसम्बन्ध के ध्वंस का ग्रहा अनुभूयमान नहीं है किन्तु पूर्वकाससम्बन्ध के अभावमात्र का अनुभव होता है"-इसका उत्तर यह है कि पूर्वकाल सम्बन्ध धर्मी से भिन्न दुर्वच है । अतः 'दृश्यमान अर्थ में यदि पूर्वकालसम्बन्ध होता तो वह धर्मोस्वरूप होने से प्रत्यक्षयोग्य होता।' इस प्रकार उसके सत्त्व से उसके प्रत्यक्ष का आपादान हो सकता है। अतः पूर्वकालसम्बन्ध का अदर्शन पूर्वकालसम्बन्ध को योग्यानुपलब्धिरूप है इसलिये पूर्वकालसम्बन्ध के अदर्शन से पूर्वकालसम्बन्ध के प्रभाध का ज्ञान होता है यह जो कहा गया है वह केवल प्रदर्शनमात्र से नहीं किन्तु योग्यतासहकृत अदर्शन से। उस रीति से बाहाथ के अवशन को बाह्यार्थ के प्रभाव में प्रमाण मानने वाले विज्ञानमात्रवादी बौद्ध के प्राशय को जो यह व्याख्या की जाती है कि-'विज्ञान का स्वयंसवेदन हो वाह्मार्थ के अभाव में प्रमाण है। उसे 'विज्ञान का स्वसंवेवन ही बाह्याभाव के साधक प्रमाण का उत्थापक है' इस अर्थ में ग्रहण करना चाहिये । तात्पर्य यह है कि विज्ञानवादी की ओर से बाह्यार्थ के अभाव में विज्ञान
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
स्वयंसंवेवन को इस दृष्टि से प्रमाण कहा गया है कि विज्ञान स्वसंवेदी होने से स्व में भासित होने वाले नोलावि आकार को अपने से अभिन्नरूप में ग्रहण करता है। अतः वह स्वयं ही नीलावि आकार बाह्य न होने में प्रमाण होता है। किन्तु उपर्युक्त रीति से बाह्यार्थ का अदर्शन अर्थात् ज्ञानभिन्नरूप में नीलादि के प्रदर्शन को ज्ञानभिन्न नोलाधि के अभाव में साधक प्रमाण रूप से सिद्ध न होने से उक्त कथन का अभिप्राय यही निर्धारित करना होगा कि स्वसंबेदी विज्ञान यतः नीलादि प्राकार को अपने से अभिन्न रूप में ग्रहण करता है अतः उससे यह फलित होता है कि नीलादि का ज्ञानमिन्नत्वरूप से अवर्शन होता है । अत: ज्ञान का स्वसंवेदन ज्ञानभिन्न अर्थ के अदर्शनरूप प्रमाण का उत्थायक-उद्भावक होकर ज्ञान भिन्न अर्थ को प्रभावसिद्धि में सहायक होता है ।।११॥
'विज्ञान स्वयंसंवेदी होने से बाद्यार्थाभाव के साधकप्रमाण का जत्थापक है।' इस के विरुद्ध १२ वीं कारिका में युक्ति प्रस्तुत की गई है
अत्रोच्यतेमूलम् ... तपासात् तत्स्वसंवेद्य मिष्यते ।
तदने ग्रहस्तस्य ततः किं नोपपद्यते ॥ १२॥ यद्-यस्मात् तद्-विज्ञानम्, अर्थग्रहणरूपं मायार्थयरिकछेदात्मकं सत, स्वसंवेद्यमिष्यते–'नीलमह वेनि' इति विच्छिन्नार्थग्रहणरूपतयाऽनुभूतेः, तसेवने एवंभूराविज्ञानानुभवे तद्ग्रहः बाह्यार्थग्रहः ततः तस्मात् कारणात् किं नोपपद्यते ? अधिकृतवेदनस्यैवार्थमन्तरेणायोगात् १ इति ।
खलस्य योगाचारण्य ज्ञात्वार्थद्व पितामिव ।
सभायामधुना सभ्याः ! अनर्थ उपतिष्ठते ॥ १ ॥ तथाहि-यत् तावदुक्तम्-'ज्ञानभिन्नस्य ज्ञानाविषयत्वाद् न बाह्यार्थः, इति तद् विपरीतम्, तद्विषयताप्रयोगस्य भेदगर्भत्वात् । किञ्च, आद्यग्राहकाकारस्वरूपभेदः प्रत्यक्षसिद्ध एव । अत एव नीलाकारं नाहमाद्याकारमिति चेत् ? न, अनेकाकारकरम्बितकविज्ञानानभ्युपगमे नील-धवलाद्यवगाहिचित्रज्ञानानुपपत्तेः । 'ऋमिकाण्येव तज्ज्ञानानि' इत्यभ्युपगमेऽप्येकमपि नीलादिज्ञानं न व्यवतिष्ठेत, नीलाकारेऽपि नीलवोपरागाद, एकापलापेऽन्याफ्लापस्य तुल्यत्वात् । चित्रज्ञानाभ्युपगमे च चित्रार्थोऽप्यनिवारितः, ग्राह्य-ग्राहकमेदस्य सत्यस्य प्रतिभासात् । एतेन 'विवेकेनाऽग्रहणाद् न तद्भेदः सत्यः' इति निरस्तम्, आकारयोरसंभेदेन वेदनस्यैव विवेचनत्वात् प्रकाश-प्रकाशसयोस्तु मिथोऽनुपरागलक्षणेनाऽसंभेदेन वेदनाभावात् ।
[वाद्यार्थग्रहण से अनुविद्ध विज्ञान का स्वसंवेदन-उत्तरपक्ष ] जिस कारण से विज्ञान को स्वसंवेद्य माना गया वह बाह्यार्थग्रहण रूप माना गया है इसीलिए ऐसे विज्ञान के अनुभव में ज्ञानभिन्न बाह्मार्थ का ग्रहण क्यों नहीं उपपन्न हुआ?
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४४ ]
[ शास्त्रवार्ता स्त० ५ श्लो० १२
विज्ञान बाह्यार्थ का निश्चायक होते हये स्वसंवेद्य होता है। क्योंकि 'नीलमहं वेधि' =मैं नोल को जानता है इस प्रकार ज्ञान से भिन्न नीलादि अर्थ के ग्रहण रूप में विज्ञान की अनुभूति होती है । प्रतः विज्ञान के इस प्रकार के अनुभव में बादार्थ का भान होना क्यों नहीं उपपन्न होता है ? सच बात तो यह है कि ज्ञान के ऐसे अनुभव में बाह्यार्थ का भान होता ही है, क्योंकि बाह्यार्थ को माने विना स्वसंवेदीरूप में अभिमत ज्ञान की ही उपपति नहीं हो सकती । ध्याख्याकार ने योगाचारमत के खंडन का उपक्रम फरले हये परिहास की सुन्दर शैली में कहा है कि 'सभासद विद्वानों को यह देखना चाहिये कि जैसे खलहिताहित के विवेक को न समझने वाला व्यक्ति, निष्कारण ही द्वेष करने लगता है उसी प्रकार योमाचार ने भी अर्थ के साथ वेष प्रदर्शित किया है, और ऐसा लगता है कि उसके अर्थवष को जान कर ही विचार सभा में अब उसके पक्ष में अनर्थ उपस्थित होने जा रहा है । जो इस प्रकार प्रस्तुत किया जा सकता है
योगाचार का यह कहना कि-'ज्ञान से भिन्न वस्तु ज्ञान का विषय नहीं होती अतः ज्ञान का विषयभूत अर्थ नाम भन्न नहीं हो स की नहीं है गयोंकि तद्विषयता का व्यवहार तभेदनियत होता है अर्थात् तद्भिन्न में ही तद्विषयता का व्यवहार होता है। योगाचार ने जो दूसरी बात यह कही थी कि -"ग्राहाकार और ग्राहकाकार में भेव नहीं होता'-वह भी ठीक नहीं है क्योंकि दोनों का स्वरूपभेद प्रत्यक्ष सिद्ध है।
[ एक ही ज्ञान अनेकाकार भी हो सकता है ] किन्तु ग्राह्याकार और ग्राहकाकार के भेद में साक्षीरूप से बाहार्थवादी बौद्ध का यह कथन कि-'ग्राह्यरकार और ग्राहकाकार का स्वरूप भेद प्रत्यक्षसिद्ध है इसलिये नीलाकार अहमाद्याकाररूप नहीं होता है'-ठीक नहीं है क्योंकि अनेक आकारों से युक्त एक विज्ञान स्वीकार न करने पर नीलधवलादि के ग्राहक चित्र ज्ञान को उपपत्ति न हो सकेगी। यदि इसके विरुद्ध बाह्यार्थवादी बौद्धों को प्रोर से यह कहा जाय कि नील-धवलादि का एक जान नहीं होता किन्तु क्रम से भिन्न भिन्न ज्ञान उत्पन्न होते हैं-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर नीलादि एकक अथं के ज्ञान को भी उपपत्ति न हो सकेगी, क्योंकि नोलादि के ज्ञान में नौलत्वादि का भी भान होता है। अतः नीलधवलादि अनेक अर्थों के ग्राहक एक ज्ञान का अपलाप किया जायगा तो नीलादि और नोलत्यादि के प्राहक एक ज्ञान का भी अपलाप, समान होने से परिहार्य न हो सकेगा। तो इस प्रकार जब चित्रझान मानना आवश्यक है तो जैसे ज्ञान चित्र त्मक होता है से ही अर्थ की चिनात्मकता=अनेकान्तरूपता अनिवार्य होगी। क्योंकि ग्राह्य और ग्राहक का भेद सत्य रूप में प्रतिभासित होता है अतः ग्राहक से भिन्न ग्राह्य की सत्ता है और ग्राह्य अनेकान्तरूप है ।
___ योगाचार की ओर से जो यह कहा गया था कि-'ग्राहकाकार और ग्राह्याकार का विभक्तरूप में ग्रहण न होने से उनका भेद सत्य नहीं है" वह भी निरस्त है। क्योंकि ग्राहाकार और ग्राहकाकार इन दोनों का. असंभेव=परस्परानुपराग रूप से अनुभव होता है अतः यह अनुभव ही दोनों के मेद का साधक है। ग्राह्याकार और ग्राहकाकार के समान जो प्रकाश और प्रकाशता में भेद की प्रसक्ति योगाचार द्वारा आपारित की गई थी यह भी नहीं हो सकती क्योंकि उन दोनों का परस्परानुपरागरूप असंमेद के साय अनुभव नहीं होता।
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स्था० कटोका एवं हिन्दी विवेचन ]
यदपि 'सहोपलम्भनियमान्' इत्यायुक्तम् तदपि न युक्तम् । यतः सहोपलम्भो १. युगपदुपलम्भः, २. क्रमेणोपलम्भोभारः, ३. एकोपलम्भो वाभिप्रेतः ? आये, बुद्धचित्तसन्तानान्तरचित्तानां सहोपलम्भनियमेऽपि तदभेदाभावेन व्यभिचार: 1 यत्त-"यो हि ज्ञानोपलम्भ एव ज्ञेयोपलम्भः, ज्ञेयोपलम्भ एव च ज्ञानोयलम्भः स युगपदुलम्भनियमोऽभिधीयते' इति धर्मोत्तरानुसारिणः समाधानम् , बुद्धज्ञाने च नायं नियमः, पृथक् संतानान्तरैः स्वचित्तसंवेदनादिति" तन्न, 'यज्ज्ञेयं यज्ज्ञानोपलम्भनियतसहोपलम्भं तत् तज्ज्ञानाभिन्नम्' इत्यर्थ पारमार्थिकज्ञाने सांवृत्तज्ञेयाभेदसाधने वाधात् , 'यज्ज्ञयोपलम्भी यज्ज्ञानोपलम्भसहभावनियतः स तज्ज्ञानाभिमः' इत्युक्तौ च पूर्वोक्तदोषानतिवृतेः, यदीयत्वस्यापि व्याप्तौ निवेशे च बुद्धचित्तस्य संतानान्तराहिल्यवद भेदं विनापि कयाचित् प्रत्यासच्या ज्ञेयवाहित्योपपत्तावप्रयोजकत्वम् , तदअाहित्वं च तस्य सार्वयानुपपत्तिः । 'विशुद्धज्ञानत्वेनैव तस्य गलितग्राह्यप्राहकाकारकलंकत्वात् सर्वज्ञत्वम्' इति पश्चद, तबलात, मा सज्ञिवायदारवाऽघटमानत्वादिति न किश्चिदेतत् । द्वितीये, तुच्छस्य तस्य न प्रतीतिः । तृतोये च साध्याऽविशेषः । किञ्च, एकान्तक्ये सहशब्दार्थानुपपत्तिरिति न किश्चिदेतत् ।
एवं च 'नीलमहं वेग्मि' इत्यत्र कर्म-क भावप्रत्ययस्याविद्यकत्वं परास्तम् , बाधाभावात , अन्यथा नीलादिप्रत्ययानामपि तथात्वायत्त्या शून्यतायां पर्यवसानप्रसङ्गाः । न च स्वातन्त्र्योपलम्भो बाधकः' इत्युक्तं युक्तम् , 'नीलमहं वेमि' इति परस्परोपरागेणैव प्रतीतेः । न च समकालयोभिनकालयोर्वा ग्राह्य-ग्राहकभावाऽसंभवाद 'अर्थाऽग्राहि ज्ञानम् इति युक्तम् , अनुमानोच्छेदप्रसङ्गात् , तत्रापि लिङ्गा-ऽनुमानयोः कार्यकारणभावे उक्तविकल्पदोषानतिवृत्तः । एतेन 'नीलादि ज्ञानम् , ज्ञानकाययात् , उत्तरज्ञानवत्' इत्यपि निरस्तम् , अनुमानस्यापि लिङ्गजन्यत्वेनोत्तरलिङ्गक्षणवल्लिङ्गतायत्तेः, उपादाननिमित्तशक्तिस्वभावभेदाभ्यां समाधानस्यापि तुल्यत्वात् ।
एवं च 'यया प्रत्यासच्या ज्ञानं स्वरूपं गोवरयति तयैव चेदर्थम् , तदा तयोरक्यापत्तिः, अन्यथा चेन, स्वभावद्वयापत्तिः, तदपि वापरेण स्वभावद्वयन, तदपि चान्येन तेन प्राद्यमित्यनवस्था, स्वसंविदितस्यासंविदितरूपायोगात्' इत्यपि निरस्तम् , लिङ्गस्य समानक्षणानुमानकरणेऽप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात् । 'लिङ्ग तदुभयकरणैकस्वभाव' चेत् ? 'ज्ञानमपि स्वपरग्रहणकस्वभावम्' इति स्वीकारे कस्तव कर्णशूलनिवारणोपायः ?
[ सहोपलम्भ नियम की तीन विकल्पों से समीक्षा ] 'सहोपलम्भ के नियम से ज्ञान और ज्ञेय में ऐक्यसिद्धि' की जो बात कही गयो वह भी युक्ति
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[ शास्त्रया० स्त० ५ श्लो० १२ ।
संगत नहीं है, क्योंकि सहोपालम्भ शब्द के जो अर्थ सम्भव हैं उनमें कोई भी दोषमुक्त नहीं हैं । जैसे सहोपलम्भ के तीन अर्थ सम्भाध है-१. युगपद (एक साथ उपलम्भ, २.क्रमिकोपलम्भ ३. एकोपलम्भ ( अथवा एकविषयकोपलम्भ)। प्रथम अर्थ को स्वीकार करने पर यह नियम बनेगा कि जिन पदार्थों का युगपदुपलम्भ होता है उनमें अमेव होता है'-किन्तु यह नियम व्यभिचारग्रस्त है क्योंकि बुद्ध को स्वचित्त और सन्तानान्तरवर्ती चित्तों का युगपर उपलम्म होता है किन्तु दोनों में प्रभेद नहीं है। इस विषय में 'धर्मोत्तर' के अनुयायिओं का समाधान यह है कि-'युगपदुपलम्भ नियम से ज्ञानोपलम्भ में जयोपलम्भ का और जेयोपलाभ में ज्ञानोपलम्भ का अभेद अभिमत है । इस नियम के फलस्वरूप ज्ञेय और ज्ञान का ऐक्य सिद्ध होता है। बुद्ध के ज्ञान में यह नियम नहीं है अर्थात् उनके ज्ञानोपलम्भ और जेयोपलम्भ में अथवा योपलम्भ और ज्ञानोपलम्भ में अभेद नहीं है । क्योंकि बुद्ध को स्वचित्त और सन्तानान्तरवत्तिचित्त का पृथक संवेदन होता है ।'-किन्तु यह समाधान ठीक नहीं है क्योंकि युगपदुपलम्म नियम का उक्तार्थ में अभिप्राय मानने पर यह ध्याप्ति फलित होती है कि--"जो जेय जिस ज्ञान के उपलम्भ के साथ अवध्यमेव उपलब्ध होता है वह शेय उस ज्ञान से अभिन्न होता है।"-किन्तु इसमें बाघ है, क्योंकि विज्ञानवादी के मत में ज्ञान पारमाथिक होता है और जेय सांवृत्त=आविद्यक-अधिद्याकल्पित होता है और दोनों का उपालम्भ नियमेन साथ ही होता है। अत: उक्त व्याप्ति के अनसार पारमाथिकान में सांवत- अपारमाथिक जेय के प्रो मान करने में बाघ अनिवार्य है । यदि उक्त नियम का पर्यवसान इस व्याप्ति में माना जायगा कि-जो ज्ञेयोपलम्भ जिस ज्ञानोपलम्भ का नियमेन सहभावी होता है वह ज्ञेयोपलम्भ उस ज्ञानोपलम्भ से अभिन्न होता है और इस प्रकार शेयोपलम्भ और शानोपलम्भ में ऐक्य सिद्ध कर के एकोपलम्भविषयत्व से ज्ञेय-शान में ऐक्य का साधन माना जायगा तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उसमें पूर्वोक्स दोष-अर्थात् बुद्ध के सन्तानान्तरवर्ती चित्तोपलम्भरूप ज्ञयोपलम्भ में बुद्धचित्तात्मक ज्ञानोपलम्भ का नियत सहभाव होने पर भी उन उपलम्भों में अभेद न होने से पूर्वोक्तव्यभिचार की निवृत्ति नहीं होती।
[व्याप्ति में पुरुषाभेद के प्रवेश करने पर अनिष्ट ] यदि यह कहा जाय कि अनन्तरोस्त व्याप्ति के शरीर में ज्ञेयोपलम्भ और ज्ञानोपलम्भ में यत्पुरुषोयत्व का निवेश कर उसे पुरषभेद से नियन्त्रित कर देने पर बुद्ध का अन्तर्भाव कर के उक्त क्याप्ति में प्रब व्यभिचार दोष नहीं हो सकता-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि उक्त ध्याप्ति जब बुद्धोपलम्भ साधारण न होगी तो बुद्ध का ज्ञान जैसे अपने से भिन्न सन्तानान्तरवर्तीचित्त का ग्राहक होता है वैसे ही ज्ञान किसी प्रत्यासत्तिविशेष यानी योगजप्रत्यासत्ति से स्वभिन्न ज्ञेय का भी ग्राहक हो सकता है अतः शान से भिन्न ज्ञेय की सिद्धि अनिवार्य हो जायगी। यदि ज्ञेय का ग्राहक न माना जायगा तो बुद्ध को सर्वज्ञता का भङ्ग होगा। इस पर किसी विद्वान् का यह कहना है कि--"बुद्ध की सर्वज्ञता का अर्थ सर्वविषयक ज्ञान को आश्रयता नहीं है किन्तु 'ग्राह्याकार और ग्राहकाकार ये दोनों वासनामूलकज्ञान के कलङ्क है। इन कलङ्गों से मुक्त विशुद्धज्ञानात्मकता' ही सर्वज्ञता है, अतः मेथ का अग्राहक होना बुद्ध की सर्वज्ञता को अनुकूल हो है।'-किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि सभी वस्तुमों का अज्ञान अर्थात् किसी वस्तु का भी ज्ञान रहने पर 'सर्वज' पद का अर्थ हो नहीं घटित हो सकता, अत: यह कथन निसान्त तुच्छ है ।
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[ क्रमिकोपलम्भाभाव-दूसरे अर्थ की समीक्षा ] सहोपलम्भ का क्रमिकोपलम्भाभावरूप दूसरा अर्थ भी ठीक नहीं है, क्योंकि वह अभावात्मक होने से तुच्छ है, अतः उसकी प्रतीति न हो सकने से व्याप्ति आदि का ज्ञान दुर्घट होने के कारण उससे विज्ञानवादी को अभिमतसिद्धि नहीं हो सकती । सहोपलम्भ का तीसरा अर्थ भी युक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि एकोपलम्भ का एकविषयकोपलम्भ अर्थ करने पर उस का अर्थ होगा स्वविषयकत्व और स्वभिन्न विषयकाम-उभय सम्बन्ध से वस्तुशून्योपलम्भ अर्थात जिस उपलम्भ का परस्पर भिन्न दो विषय न हो । तथा व्याप्ति इस प्रकार बनेगी कि जो विषयता सम्बन्ध से इशोपलम्म से विशिष्ट होता है वह स्वविषयनिष्ठभेदप्रतियोगिताशून्यत्व सम्बन्ध से भी इशोपलम्भ विशिष्ट होता है। अर्थात इशोफ्लम्भ के विषय में इडशोपलम्म के विषय का भेद नहीं होगा किन्तु इस में साध्य और हेतु में कोई विशेष अन्तर नहीं रह जाता, क्योंकि हेतु के शरीर में ज्ञान में भिन्नद्वयाविषयकत्व प्रविष्ट है और यही विज्ञानवादी को सिद्ध करना है। यदि एकोपलम्भ का 'एक उपलम्भ' अथ किया जायेगा तो यह व्याप्ति बनेगी कि जो यद्विषयकोपलम्भ का विषय होता है वह उस से अभिन्न होता है तो इस में समूहालम्बन ज्ञान के विषयों में व्यभिचार होगा।
यह भी ज्ञातव्य है कि ज्ञेयोपलम्भ और ज्ञानोपलम्भ में ऐक्य मानने पर दोनों के बीच सहशब्दार्थ का प्रयोग भी नहीं हो सकेगा क्योंकि 'चत्रः मत्रेण सहागतः' इस ध्यवहार की भाँति 'चैत्र: प्रात्मना सहागतः' यह व्यवहार नहीं होता । अतः सह शब्दार्थ को भेदघटित मानना आवश्यक होता है । इसलिये जिन में लवथा ऐक्य होगा उन के भत में सहशब्द का प्रयोग नहीं हो सकता अतः सहोपलम्भ नियम से ज्ञेय और ज्ञान में ऐक्य के साधन का प्रयत्न प्रकिश्चित्कर है।
[कमकत भाव की प्रतीति अविद्यामूलक नहीं है] विज्ञानयादी को ओर से जो यह बात कही गयी थी कि मैं 'नील को जानता हूं' इस प्रकार जो नील और महमर्थ ज्ञान में कर्म-कर्तृ भाव की प्रतीति होली है वह प्राविधक अविद्याकल्पित है-यह कथन भी अयुक्त है क्योंकि कर्म-कर्तृ भाव की प्रतीति का उत्तरकाल में बाघ नहीं होता । यदि अबाधित ज्ञान को भी भ्रम माना जायगा तो नील-पीतादि प्रतीतियाँ भी भ्रम हो जायगी और भ्रम से विषयसिद्धि नहीं होतो अत: शून्यता में विज्ञानवाद के पर्यवसान को आपत्ति होगी। 'नील, अहमर्थ,
और ग्रहण किया इनका स्वतन्त्र रुप से यानी परस्परासम्बदरूप से उपलम्भ कर्म-क प्रतीति में बाधक है - यह भी युक्त नहीं है क्योकि 'मैं नील को अ.नता हूँ' - इस प्रतीति में उक्त तीनों का परस्परसम्बद्ध रूप में भान स्पष्ट है। यह जो बात कही गयी थी कि ज्ञेय और ज्ञान को समकालीन मानने पर विनिगमनाधिरह से और भिन्नकालीन मानने पर ग्रहणकाल में ज्ञेय के विद्यमान न होने से ज्ञेय और ज्ञान में ग्राह्य-प्राहक भाव नहीं हो सकता अतः ज्ञान अर्थ का ग्राहक नहीं हो सकता,वह भी ठीक नहीं है क्योंकि ग्राह्यप्राहकभाव के खण्डन को उक्त रोति अपनाने पर अनुमान के कार्यकारणभाव में भी उक्त विकल्प में होनेवाले दोषों का प्रवेश अनिवार्य है। अर्थात् लिङ्ग और अनुमान को समकालीन मानने पर उन में कौन कारण और कौन कार्य इस में कोई विनिगमना न होगी और भिन्नकालीन मानने पर कार्यकारणभाव इसलिए नहीं होगा कि क्षणिक कारण अपने काल में अविद्यमान का भी जनक होगा तो अन्य भावि कार्यों में भी अविद्यमानत्व समान होने से उन सभी के जनकत्व की आपत्ति होगी।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० १२ ।
[अनुमान में लिंगात्मकता की आपत्ति ] यदि यह कहा जाय कि-'नीलादि में ज्ञान का ऐक्य अनुमानसिद्ध है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-'नीलादि ज्ञान से अभिन्न है क्योंकि वह ज्ञानका कार्य है, जैसे उत्तरवर्तीज्ञान" को यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जो जिस का कार्य हो वह उस से अभिन हो ऐसा नियम मानने पर जैसे उत्तरलिगक्षण पूर्वलिंगक्षण से अन्य होता है उसी-प्रकार अनुमान भी लिंगजन्य होने से अनुमान में भी लिंगात्मकत्य की प्रापति होगी। यदि यह कहा जाय कि-उपादानशक्ति एवं उपादान स्वभाव से सम्पन्न जिस हेतु से जो जन्म होता है वह उस से अभिन्न होता है-यह व्याप्ति है। अनुमान का जनक लिगउपादानस्वभाव सम्पन्न नहीं है किन्तु निमितशक्ति एवं निमित्तस्वभावसम्पन्न है अत: लिंगजन्यत्व से अनुमान में लिंगरूपता का आपादन नहीं हो सकता"-तो यह समाधान ज्ञान और ज्ञेय के मध्य भी समान है क्योंकि नीलादि ज्ञेयपदार्थ ज्ञाननिमित्तक है, न कि ज्ञानोपासनक । अतः ज्ञानअन्यत्व से नीलादि में जान भिन्नत्व का साधन अशक्य है।
[भिन्न प्रत्यासत्ति से अर्थ ग्रहण में आपत्ति की तुल्यता] जेय-ज्ञान के ऐक्य पक्ष में यह भी एक युक्ति प्रस्तुत की जाती है कि-'ज्ञान जिस प्रत्यासत्ति से अपने स्वरूप को ग्रहण करता है उसी प्रत्यासति से यदि प्रर्थ को भी ग्रहण करेगा तो दोनों में ऐक्य अनिवार्य है क्योंकि स्वरूप के साथ ज्ञान की तादात्म्यप्रत्यासत्ति है । अतः वही प्रत्यासत्ति यदि अर्थ के साथ भी होगी तो अर्थ को ज्ञान से भिन्न मानना या कहना असम्भव होगा । यदि कहेंगे'अपने स्वरूप के ग्राहक प्रत्यासत्ति से भिन्न प्रत्यासत्ति द्वारा प्रर्थ का ग्रहण करेगा' तो भिन्न दो प्रत्यासत्ति से ग्रहणकर्तृत्वरूप स्वभावय को आपत्ति होगी। फिर उस स्वभावद्वय को भी दूसरे स्वभावसूय से ग्रहण करेगा और उस स्वभावद्वय को मो अन्य स्वभावदय से ग्रहण करेगा-ता अनन्त स्वभावभेद की कल्पना होने से अनवस्था होगी। इसके साथ यह भी नयो आपत्ति होगी कि ज्ञान स्वसंविदित होता है अत एव उस पदार्थ में ऐसे स्वभाव को कल्पना उचित नहीं हो सकती जो कि स्वसंविवित न हो। अतः भिन्नप्रत्यासत्ति से अपने स्वरूप और अर्थ का ग्रहण मानना सम्भव न होने से दोनों को एक प्रत्यासत्ति से ग्राह्य मानना आवश्यक होगा और इसके कारण उक्त रीति से दोनों में ऐक्य की सिद्धि अनिवार्य होगी-, किन्तु यह युक्ति भी मनादरणीय है क्योंकि उक्त प्रश्न के समान ही लिंग के विषय में भी यह प्रश्न हो सकता है कि वह समानक्षण का और अनुमानक्षण का एकरूप से कारण होता है ? या भिन्नरूप से ? एकरूप से कारण होने पर दोनों में ऐक्यापत्ति होगी और भिन्नरूप से कारण मानने पर लिंग में स्वभावद्वय की प्रापत्ति होगी। फिर उस स्वभावद्वय से उपेतलिंग को उपपत्ति के लिये उस के कारणों में भी स्वभावद्वय की कल्पना करनी होगी। इस प्रकार पूर्व-पूर्व करणों में स्वभावभेद करने से अनवस्था होगी । यदि यह कहा जाय कि लिग अपने एक हो स्वभाव से परस्पर भिन्न समानक्षण और अनुमानरूप वो कार्यों का जनक होता है तो फिर ज्ञान भी एक हो स्वभाव से अपने स्वरूप और अर्थ का ग्राहक होता है । इन शब्दों से यदि विज्ञानवादी के कान में पोडा होती है तो इस के प्रतिकार का क्या उपाय है ? कहने का आशय यह है कि'ज्ञान अपने स्वभाव से ही अपने स्वरूप और अपने से भिन्न अर्थ का ग्राहक होता है- ऐसा यह मानने में कोई बाधा नहीं है।
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
एवं ज्ञानाद् ग्रहणक्रियाया अर्थान्तरत्वा ऽनर्थान्तरत्व पक्षदोषेऽप्यनुमाने लिंगादुत्पत्तेस्तत्पक्षदोष तौल्यं विभावनीयम् ।
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[ ग्रहणक्रिया के ऊपर आरोपित दोष का प्रतीकार ]
'ज्ञान से ग्रहण क्रिया होती है' इस मान्यता में विज्ञानवादी को ओर से ग्राह्यग्राहकभाव के विरुद्ध जो यह दोष प्रदर्शित किया गया था कि- 'ज्ञान से होने वाली ग्रहणक्रिया को ज्ञान से प्रर्थान्तर मानने गए जिस को तो जायगा तो ग्रहणक्रिया का ग्रहणस्वरूपात्मनंब ज्ञान होगा उसमें ज्ञानकर्तृ कता का ज्ञान न हो सकेगा। यदि परतः ग्राह्य माना जायगा तो ग्रहणक्रिया की परकग्रहणक्रिया होगी, उस के विषय में भी इस प्रकार का प्रश्न उठाने पर और उस का इसी प्रकार का समाधान करने पर अनवस्था होगी। और यदि ग्रहणक्रिया को ज्ञान से प्रर्थान्तर न माना जायगा तो अभिन्न में कर्तृ - क्रिया भाव सम्भव न होने से ग्राहकभाव असिद्ध होगा ।" किन्तु यह दोष विज्ञानयादी के मत में लिंग और अनुमान के कार्यकारणभाव में भी समान है जैसे, लिंग-श्रनुमान के कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में भी यह प्रश्न ऊठना स्वाभाविक है कि कार्यकारणभाव को यदि लिंग और अनुमान से भिन्न यानी ज्ञानानात्मक मानने पर विज्ञानवादी को सिद्धान्तहानि होगी । ज्ञानात्मक मानने पर यदि उस का स्वतोग्रहण माना जायगा तो उस के स्वरूपमात्र का ग्रहण होगा, लिंगानुमाननिष्ठतया उस का ज्ञान नहीं हो सकेगा । यदि परतो ग्रहण होगा तो वहाँ पर अनुमान ही होगा, अतः यह अनुमान और उस के कारणभूत लिंग के कार्यकारणभाव के सम्बन्ध में भी इसीप्रकार का समाधान करने में अनवस्था चलेगी । अतः लिंग और अनुमान के हेतु हेतुमद्भाव की निर्दोषता जिस प्रकार विज्ञानवाद में सिद्ध होगी उसीप्रकार ग्राह्य ग्राहकभाव अर्थात् 'ग्रहण का कर्त्ता ग्राहक है और ग्रहणक्रिया का आश्रय ग्राह्य है' इस मान्यता को भी निर्दोषता सिद्ध हो सकती है ।
'परमार्थतो लिंगं नानुमानकारणम्, व्यवहाराच तथेष्यत' इति चेत् ? अर्थस्यापि तत एव ज्ञानप्रात्वं किं नेष्यते ! 'व्यवहाराप्रामाण्याल्लिङ्गमप्यनुमानकारणं तच्वतो नेष्यत एव, ग्राह्य-ग्राहकभाववत् कार्यकारणभावस्यापि निषेधात् समारोपच्यवच्छेदकरणात् त्वनुमानं प्रमाणमिष्यते ' इति चेत ? न तत्र समारोपव्यवच्छेदस्य तन्मते कथमपि कतुमशक्यत्वात्, नाशस्य निर्हेतुकत्वाभ्युपगमात्, तत्कारणानां सामर्थ्येऽसामर्थ्य वा तदुत्पत्तिप्रतिबन्धस्यायि वक्तुमशक्यन्दात् ;
"यस्य शक्तिरशक्ति या स्वभावेन संस्थिता | नित्यत्वादचिकित्स्यस्य कस्तां क्षपयितुं चमः १ ॥ "
इति स्वयमेवाभ्युपगमात् ।
यदि यह कहा जाय कि 'लिंग परमार्थतः अनुमान का कारण हो नहीं किन्तु व्यवहारवश उसे अनुमान का कारण माना जाता है ।' तब लिंग और अनुमान के हेतु हेतुमद्भाव के दृष्टान्त से अर्थ और ज्ञान में व्यवहार से ग्राह्य ग्राहकभाव का उपपादन क्यों नहीं हो सकता ?" क्योंकि जैसे लिंग में व्यवहारवश अनुमानकारणता मानी जाती है उसीप्रकार अर्थ में व्यवहारगत ज्ञानग्राहिता
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| शास्त्रवासी० स्त० ५ इलो १२
भी मानी जा सकती है जिससे अर्थग्रहण व ज्ञान में कार्यकारणभाव बन सकता है और इस से बाह्य अर्थ की वास्तविकता भी सुरक्षित रहती है। यदि यह कहा जाय कि लिंग में अनुमान कारणता का व्यवहार अप्रामाणिक है अतः लिंग भो वस्तुतः अनुमान का कारण नहीं हो है ।' ग्राह्यग्राहकभाव के समान कार्यकारणभाव भी विज्ञानवादी को अमान्य है । फिर भी अनुमान में जो प्रमाणव्यवहार होता है वह भी समारोप के व्यवच्छेद का जनक होने से तो यह ठीक नहीं है क्योंकि समारोप का व्यवच्छेद समारोप की निवृत्तिरूप हैं । और निवृत्ति नाश रूप होती है एवं नाश बौद्धमत में निर्हेतुक है | अतः समारोपव्यवच्छेद को अनुमानहेत का शक्य नहीं है।
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[ बौद्धमत में अनुमान का असंभव ]
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि समारोपव्यवच्छेद को इसलिये भी अनुमानहेतुक नहीं कहा जा सकता कि अनुमान स्वयं ही सम्भवित नहीं है । पर्वत में वह्नि के समारोप का व्यवच्छेद वह्नि के अनुमान से होगा और वह्नि का अनुमान धूमात्मक लिंग से होगा और उसमें धम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान अपेक्षित है। किन्तु धूम में वह्नि का व्याप्तिज्ञान तादात्म्य से तो सम्भावित नहीं है क्योंकि दोनों में ऋत्यन्त भेद है। अतः वह्नि से धूम की उत्पत्ति द्वारा ही इस व्याप्ति का ज्ञान होगा, किन्तु यह भी सम्भव नहीं है, क्योंकि धूम में वह्नि से उत्पत्ति होने का निर्णय धूम और वह्नि के कार्यकारणभाव के निर्णय से ही हो सकता है किन्तु वह बौद्धमतानुसार असम्भव है क्योंकि वह्नि को घूम के प्रति वह्नित्वरूप से कारण मानने पर
सामान्य में घूमजनन का सामर्थ्य मानना होगा । जिसके फलस्वरूप इन्धन के संविधान में भी वह्नि से धूमोत्पत्ति का प्रसंग होगा, एवं श्रसमर्थ मानने पर धनसंयुक्तर्वाह्न से भी धूम की उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि वह्नि को धूम के प्रति धूमकुर्वद्रूपत्वेन कारण मानेंगे, तो धूम विशेष में वह्निविशेष का हो व्याप्तिज्ञान हो सकेगा किंतु धूम सामान्य में बह्निसामान्य का व्याप्तिज्ञान नहीं होगा । फलतः अनुमान का उदय शक्य न होने से समारोपच्यवच्छेद को अनुमान हेतुक कहना सम्भव नहीं हो सकता । उक्तरोति से व्याप्तिज्ञान की असम्भाव्यता को स्फुट करने के लिये व्याख्याकार ने बौद्धों के हो 'स्य शक्तिरशक्तिर्वा ....' इत्यादि वचन को उपन्यस्त किया है जिस का अर्थ यह है कि- 'जिस वस्तु में कार्य को शक्ति अथवा अशक्ति सहज होती है उस शक्ति अथवा अशिक से वह वस्तु सदा अपने पूरे अस्तित्वकाल में संसृष्ट होती है अतः वह वस्तु अचिकित्स्य अर्थात् उस शक्ति अथवा अशक्ति से पृथक् करने के लिये अयोग्य होती है । अतः उस शक्ति अथवा शक्ति को कौन निवृत्त कर सकता है !' बौद्ध ने स्वयं हो ऐसा माना है ।
न चानुमानसहायस्य प्राक्तनसमारोपक्षणस्योत्तरसमारोपक्षणान्तरजननासमर्थक्षणजननादू द्वितीयक्षणे कारणाभावादेव समारोपानुत्पत्तेरनुमानप्रामाण्यम् लिङ्गाऽनुमानयोरिव पूर्वोत्तरसमारोप क्षणयोर्हेतुफलभावाभावात्, न्यायस्य समानत्यात् ।
[ पूर्वोत्तर समारोपक्षण में हेतु-फल भाव का असंभव ]
यदि यह कहा जाय कि - "अनुमान लिङ्गज्ञान सहकृत पूर्वकालिक समारोपक्षण ऐसे क्षण का जनक होता है जो क्षण अपने उत्तरकाल में नये समारोपक्षण को उत्पन्न नहीं कर सकता । आशय यह है कि जब पर्यंत में वह्नि अभाव के किसी समारोपक्षण में वह्निव्याप्तिविषयक धूमज्ञान
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स्या०क० टोफा एवं हिन्दी विवेचन ]
रूप लिङ्गजान उत्पन्न होता है तो उसके द्वितीयक्षण में वह्नि प्रभाव का समारोपक्षण और वह्नि अनुमान दोनों का उदय होता है क्योंकि पूर्व में उक्त समारोप का विरोधी वह्रि अनुमान संनिहित नहीं रहता। किन्तु उसके अग्रिमक्षरए में अति प्रभाव के समारोप का जन्म नहीं हो सकता क्योंकि उसका विरोधी वह्नि-अनुमान द्वितीयक्षण में उत्पन्न हो जाता है । अतः द्वितीयक्षण में प्रतिबन्धकाभावविशिष्ट समारोपक्षण रूप कारण का प्रभाव होने से अग्रिमक्षण में समारोप की उत्पत्ति नहीं हो सकती। इस प्रकार वह्निप्रभाव के समारोप का व्यवच्छेद होने से वह्निअनुमान में प्रामाण्य उपपन्न हो सकता है ।"
तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि जिस न्याय से लिन और अनुमान में कार्यकारणभाव नहीं हो सकता उसी न्याय से पूर्वोत्तरवर्ती समारोपक्षण में भी कार्यकारणभाव नहीं हो सकता । अतः यह नहीं कह सकते कि-लिझान-सहत पूर्वकालिक समारोपक्षण ऐसे क्षण का जनक होता है जो अपने उत्तरकाल में समारोपक्षण को नहीं उत्पन्न कर सकता।
___ यदपि 'पूर्वदृष्टैकत्यागतेरयोगाद् नानुभवात् प्रागर्थसिद्धिः' इत्यभिहितम् , तत्रापि न सम्यगवाहितम् , प्रत्यभिज्ञयेव तदेकरवानगतेः । न च -'सोऽयमिति नैकं ज्ञानम्इत्युक्तं युक्तम्', प्रत्यक्षस्वजातिवादिनां तदेक्यासंगतावप्यस्माकं स्वरूप इवेदमंशेऽपि स्पष्टतया प्रत्यक्षत्वेऽपि तदुपयोगसामान्ये विलक्षणक्षयोपशमवलायातप्रत्यभिज्ञात्वाऽविरोधात, 'इदं पश्यामि' इतिवत् 'तमिमं प्रत्यभिजानामि' इत्यनुभवात् । न च "स्पष्टं प्रत्यक्षम्" [प्र० न० तत्व० २-२ ] इति लक्षणातिव्याप्तिः, बहिर्विषयसामान्ये स्पष्टताया लक्षणघटकत्यान् , 'वहिरर्थग्रहणापेक्षया हि०' इत्याकरस्वारस्याऽविरोधादित्यन्यत्र विस्तरः । यदप्यर्थ विनापि स्वापादाविव जाग्रहशायां भानमुक्तम् , तदसिद्धमसिद्धन साधयतः स्वस्य महामोहमग्नता व्यञ्जयति, न हि स्वनादावप्यर्थं विना भानं भवादृशं विना स्वीकरतेऽन्यः कश्चित् , अनुभृतस्यैव रथादेस्तदा सन्निहितत्वेन दोषमहिम्ना मानात, असदाकारस्यैव जनने च वासना शशविषाणमपि किं न जनयेत ? न यत्र न पर्यनुयोग इति राज्ञामाज्ञा । 'प्रतिनियतशक्तिविशेषचाविद्यायामेव, न शशविषाणे' इत्यत्र श्रद्धामात्रमेव शरणम् ।
[प्रत्यभिज्ञा से पूर्वदृष्ट अर्थ के एकत्व का प्रमाणभूत वोध ] विज्ञानवादी की ओर से जो यह बात कही गयी थी कि-'पूर्वदृष्ट और दृश्यमान अर्थों में एकत्वज्ञान के न होने से वर्तमान अनुभव के पूर्व उसके विषयभूत अर्थ को सिद्धि नहीं हो सकती'उस कथन में भी उचित ध्यान नहीं दिया गया, क्योंकि पूर्वेदृष्ट और दृश्यमान में एकत्व का ज्ञान प्रत्यभिज्ञा से ही सम्पन्न हो जाता है । इस संदर्भ में जो यह बात कहो गयी थी कि-'सोऽयम्' = 'यह उससे अभिन्न है-यह एक ज्ञान नहीं है किन्तु 'सः' अंश में स्मरण और 'प्रय' अंश में प्रत्यक्ष
वहिरर्थापेक्षया हि विज्ञानानां प्रत्यक्षपरोक्षव्यपदेशो न तु स्वरूपापेक्षया, स्वरूपे सर्वज्ञानानां स्पष्टप्रतिभासत्वेन प्रत्यक्षतयंव व्यवस्थितत्वात् । [ स्या० २० पृ० ३१८ ]
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[ शास्त्रधार्ता० स्त० ५ श्लो० १२
रूप दो ज्ञान है-वह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्षत्व जातिवादी नैयायिक के मत में उक्तज्ञान में ऐक्य संगत न होने पर भी जैन मत में उसे एक मानने में कोई बाधा नहीं है। वह ज्ञान जैसे अपने स्वरूप में स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष है ऐसे इदमंश में भी स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष है. लदेश में अस्पष्ट होने से पराक्ष है। किन्तु उभयांश में बह उपयोगरूप है। अतः उपयोगात्मना उसमें प्रत्यासिज्ञारव धर्म मानने में कोई विरोध नहीं है क्योंकि तदंश और इदमंश के ऐक्य के प्रावरणीय कर्म के विलक्षणक्षयोपशम से उस अंश में प्रत्यभिज्ञात्व निर्वाध है।
[प्रत्यक्ष के लक्षण की प्रत्यभिज्ञा में अतिव्याप्ति नहीं है ] दूसरी बात यह है कि जैसे . 'इदं पश्यामि' इस अनभव से उक्त ज्ञान में इदमंश में प्रत्यक्षत्व सिद्ध होता है उसी प्रकार ताममं अत्यभिजानामि-उससे अभिन्न इस को पहचानता हूं' इस अनुभव से उक्त ज्ञान में तत और इद के अमेवांश में प्रत्यभिज्ञात्व भी सिद्ध है। उक्तज्ञान को इदमंश में स्पष्ट
नने पर प्रत्यक्षलक्षण को अतिव्याप्ति का मापादन नहीं किया जा सकता, क्योंकि प्रत्यक्ष के लक्षण में बाह्यविषयसामान्य में स्पष्टता का संनिवेश नै । अर्थात जो ज्ञान अपने समस्त बाह्य विषयों में स्पष्ट होता है वह प्रत्यक्ष होता है। उक्त ज्ञान अपने विषयभूत तदंश रूप बाह्य अर्थ में स्पष्ट नहीं है अतः उसमें प्रत्यक्षलक्षण को प्रतिव्याप्ति नहीं हो सकती । इस संदर्भ में स्याहादरत्नाकर में आये हुए 'अहिरर्थग्रहणापेक्षया ही विज्ञानानां इस वचन का भी अनुकल अभिप्राय उल्लेखनीय है कि अपने विषयभूत समस्त बाह्यार्थों में स्पष्ट होने से विज्ञान अपरोक्ष होता है। स्वरूपांश या केवल किसी बाह्मविशेषमात्र में स्पष्ट होने से प्रत्यक्ष नहीं कहा जाता।
विज्ञानवादी की ओर से जो यह बात कही गयो कि "स्वप्नादि में जैसे अर्थ के दिना भी अर्थाकार का भान होता है उसी प्रकार जाग्रतकाल में अर्थ के विना भी अर्याकार का ज्ञान हो सकता है अतः ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता नहीं है"-यह कथन तो असिद्ध से ही अमिद्ध का साधन असा प्रयास करने वाले विज्ञानवादी के महामोह का सूचक है, क्योंकि स्वप्नादि में भी अर्थ के बिना प्रकार का भान विज्ञानवादी को छोड अन्य कोई स्वीकार नहीं करता। कारण स्पष्ट है कि स्वप्नावस्था में भी जाग्रत्काल के अनुभूत रथादि का ही दोषवशात् संनिहितरूप में परिज्ञान होता है । क्योंकि स्वघ्नादि में वासना यदि असत् रथादि आकार की जनक होगी तो असदाकार शश-विषाण आदि को भी जनक होने को प्रापत्ति होगी। क्योंकि इस बात में विनिगमक दुष्प्राप्य है कि वासना अमुक प्रसत का जनक हो और नमक कान हो। यह जो कहा गया कि-'वासना अथवा अविद्या एवं तन्मुलक कल्पनाओं के सम्बन्ध में कोई विपरीत प्रश्न नहीं हो सकता।' वह कर क्योंकि ऐसी कोई राजाज्ञा नहीं है जिसके कारण प्रश्नकर्ता की वाणी पर प्रतिबन्ध लग जाय । यह कहना कि 'वासना में असदाकार ज्ञान के ही अनन की शक्ति होती है शशविषाण की नहीं' यह भी युक्तिहीन होने से श्रद्धामात्र का हो द्योतक है।
यदपि 'प्रागसत्त्वे तु दर्शनमेव मानम्' इति । तदपि न पेशलम् , तपेणाऽनिश्चयात, अन्यथा संशयाऽयोगात् । यदपि 'स्व-परदृष्टनीलयोझेदान् न साधारणं नीलं ब्राह्यतयाभिमतं सियति, किन्तु ग्राहकत्वाभिमतमेव तद् युक्तं' इति ।' तदप्यसत्, विना साधारणतां पर
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स्या० का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
दृष्टे नीलेऽनुमानस्यैवानवतारात् । न हि धूमेऽप्यसाधारणहिना समं व्याप्तिग्रहोऽस्ति । न चागृहीतव्याप्तिकमनुमाने विषयीभवितुमर्हतीति ।
[अथ की पूर्वकालीन असत्ता में दर्शन समर्थ नहीं है ] जो यह बात कही गयी थी कि 'दर्शन के पूर्व अर्थ के प्रसत्त्व में दर्शन ही प्रमाण है।' वह भी समोचोन नहीं है क्योंकि दर्शन के बाद अर्थ का पूर्वकालअसत्त्वरूप से निश्चय नहीं होता। अतः निश्चित अर्थ में हो दर्शन प्रमाण होने से अर्थ की असत्ता में दर्शनप्रमाण नहीं हो सकता । यदि उसे अर्थ की असत्ता में प्रमाण मान लिया जायगा तो अर्थ में स्थाविश्व और क्षणिकत्व का संशय भी न होने से इस विषय का विचार ही न हो सकेगा।
इस के अतिरिक्त जो यह बात कही गयी थी कि-'स्वदृष्ट और परदृष्ट नील में भेद है, अतः स्वदर्शन और परदर्शन में भासित होनेवाला एक साधारण नील ग्रामार्थ के रूप में सिद्ध नहीं हो सकता किन्तु ग्राहक ज्ञान से अभिन्न होकर असाधारणरूप में ही सिद्ध हो सकता है। वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि स्वष्ट और परष्ट नील को साधारण माने विना परदृष्ट नील का अनुमान ही नहीं हो सकता । प्राशय यह है कि हकीकत में स्वसन्तान में नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति को मोलदर्शनपूर्वक देखकर परसन्तान में भी नीलमणार्थ प्रवृत्ति से नीलदर्शन का अनुमान होता है-यह बात पहले कही गयी है, किन्तु यह अनुमान तब हो सकता है जब स्वसन्तानान्तर्गत नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति और नोलदर्शन एवं परसन्तानगत नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति और नोलदर्शन में साधारणता हो और यह साधारणता प्रवृत्ति और दर्शन के विषयभूत नील को साधारणता पर हो निर्भर है । यदि उक्त दोनों प्रवृत्ति और दर्शन में नोलसाधारणताप्रयुक्त साधारणता न मानी जायगो तो अनुमान करने वालो व्यक्ति को अपने संतान को नीलग्रहणार्थ प्रवत्ति और नोलशन में ही व्याप्यव्यापकमाव का ग्रहण होगा, अतः परसन्ता नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति में परसन्तानगतनील दर्शन का च्याप्तिग्रह न होने से परसन्तान में नीलप्रवृत्ति से नीलदर्शन का अनुमान न हो सकेगा।
यदि यह कहा जाय कि-'जैसे पर्वतीयधूम में पर्वतीयवति का व्याप्तिग्रह न होने पर भी पाकशाला के धुम में पाकशाला के अग्नि का व्याप्तिबह होने से हो पर्वत के धूम से पर्वतीय वह्नि का अनुमान होता है, उसोप्रकार परसन्तान में भी नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति से नीलदर्शन का अनुमान हो सकता है तो यह ठोक नहीं है क्योंकि धम से वह्नि का अनुमान भी धूमसामान्य और वह्निसामान्य के बीच व्याप्तिज्ञान से ही होता है । यदि धूम और वह्नि में भी सामान्यरूप से च्याप्तिज्ञान न माना जाय तो धूम से भी वह्नि का अनुमान नहीं हो सकेगा, क्योंकि पूर्वदृष्ट बह्निसहचारबाला जो घम था, यह यहां नहीं है, और यहां जो धूम है उसके सहचारवाला वह्नि पहेले च्याप्तिरूप में देखा नहीं है । और जिसको व्याप्ति गृहीत नहीं होती वह अनुमान का विषय नहीं हो सकता, अन्यथा सब से सब के अनुमान को आपत्ति होगी। एलेन-'लिंगस्थाऽव्यभिचारस्तु धर्मिणोऽन्यत्र गृह्यते ।
तत्र प्रसिद्धं उद्युक्तं धर्मिणं गर्मायध्यति ॥ १॥ इति यसिविशिष्टदेश एवानुमेयः' इति दिङ्नागोक्तमपास्तम, असाधारणेन तेनापि
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो० १२
समं व्याप्त्यग्रहात् । नन्वेचं सुखादिकमपि साधारण स्यादिति चेत् ? स्यादेव नियक् सामान्येन । 'एवं नीलादिसाधारण्यं न दोपायति चेत् ? न, “इदं देवदत्तदर्शनविषयः, देवदत्तप्रवृत्तिविषयत्वात्' इत्यूर्जतासामान्येनापि साधारण्यसिद्धः, क्षणभङ्गस्य निरस्तस्यात् , निरसिष्यमाणत्वाच ।
[ वह्निविशिष्ट देश के अनुमान की दिग्नागोक्ति असार ] ____इस संदर्भ में दिङ्नाग का यह कहना है कि-'लिङ्ग में साध्य का अव्यभिचार यानी साध्य की व्याप्ति का ज्ञान धर्मों भिन्न यानी पक्षभिन्न में होता है तथा पक्षभिन्न में साध्य व्याप्यत्वरूप से निर्णीत लिङ्ग साध्य विशिष्ट धर्मो-पक्ष का अनुमापक होता है। इस प्रकार धूम से वह्नि नहीं किन्तु वाहविशिष्ट के नुमेय होता है। अतः परसन्तानरूप पक्ष से भिन्न स्वसन्तान में नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति में नीलदर्शनपूर्वकत्व के अव्यभिचारज्ञान से नीलग्रहणार्थ प्रवृत्ति द्वारा नोलदर्शनाविशिष्ट परसन्तान का अनुमान हो सकता है" तो यह कहना भी टोफ नहीं है क्योंकि साध्यविशिष्ट असाधारण देश के साथ भी लिङ्गविशिष्ट प्रसाधारण देश का व्याप्तिग्रह न होने से साध्यविशिष्ट देश का भी अनुमान नहीं हो सकता। कहने का तात्पर्य यह है कि साध्यविशिष्ट देश के अनुमानार्थ इस प्रकार का व्याप्तिज्ञान आवश्यक है कि जो देश लिङ्गविशिष्ट होता है वह साध्यविशिष्ट होता है। यह व्याप्ति यदि धूमविशिष्ट पाकशाला और ह्निविशिष्ट पाकशाला के मध्य हो गहोत होगी तो धूमविशिष्ट पर्वत से वह्निविशिष्ट पवत का अनुमान नहीं हो सकेगा, अतः उसके लिये भी धम और वह्नि के साधारणता की और उसके द्वारा धुम वाले देश और वह्नि वाले देश को साधारणता अपेक्षित है।
इस पर यदि यह शंका की जाय कि-"इस प्रकार विभिन्नदर्शनों में भासमान नीलावि को साधारण मानने पर विभिन्न सन्तानों में भासमान सुखादि भी साधारण हो जायगा"-तो इसका उत्तर है कि विभिन्न सन्तानों में भासमान सुखादि में सुखत्वादि तिर्यक सामान्यरूप से साधारणता इष्ट हो है । इस पर विज्ञानवादी की ओर से यह कहना उचित नहीं है कि-'नीलत्वादि तिर्यक् सामान्यरूप से विभिन्न दर्शनों में भासमान नीलादि को भी साधारण मान लेने से उनके मत में भी कोई दोष नहीं होगा क्योंकि अमुक वस्तु देवदत्त की प्रवृत्ति का विषय होने से सिद्ध है कि वह देवदत्त के दर्शन का भो विषय है" इसप्रकार के अनुमान से देवदत्त के दर्शनकाल से प्रवत्तिकाल तक उस विषय के ऊर्यतासामान्य द्वारा भी साधारणता सिद्ध हो जायगी और यह साधारणता उसे मान्य नहीं हो सकती क्योंकि ऊवंता सामान्य उस वस्तु का नाम है जो वस्तु द्रध्यरूप में क्रमिकविभिन्न पर्यायों में अनुस्यूत हो अनुगत हो। यदि यह कहा जाय फि-यतः भावमात्र क्षणिक होता है अत: इसप्रकार का उतासामान्य सम्भव न होने से उस रूप से देवदत्त की प्रवृत्ति और वर्शन के विषयों में साधारणता नहीं हो सकती"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'भावमात्र क्षणभडगुर है' इस मत का निराकरण किया जा चुका है और आगे भी उसका खंडन किये जाने वाला है।
यदपि 'चिद्रूपत्वस्याऽपरोक्षरूपस्य नीलादिसाधारण्याज्ज्ञानवद् न प्राह्यत्वम्' इति । तदप्यवधम् , स्फुरदूपत्वेनाऽपरोक्षत्वे बयादेपि तथास्त्रे प्रत्यक्षा-ऽनुमानविभागव्याघातात् ।
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स्या० १० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
'तच्चतस्तदविभागाद् न दोप' इति चेत ? नील-पीताधाकाराणामपि कथं तस्यतो विभागः १ । 'प्रतिभासभेदादिति' चेन् ? प्रत्यक्षा-ऽनुमानयोरपि किं न विशदाऽविशदप्रतिभासभेदः । 'नीलाघाकारव्यतिरेकेण तत्र वैशबाद्याकाराननुभवाद् न तद्भेद' इति चेत् ? न, प्रदीर्याध्यवसाये तदनुभवस्याऽवाधितत्वात, क्षणिकाध्यवसाये तु प्रतिनियतकाकारानुभवस्यापि दुर्घटत्वात् ।
[ अपरोक्षत्व ग्राह्यत्वाभाव का प्रयोजक नहीं है ] विज्ञानयादी की ओर से जो यह बात कही गयी थी "चिपत्व अपरोक्ष का स्वरूप है और यह अपरोक्ष नीलादि में भी विद्यमान होने से ज्ञान के समान नोलावि भी ग्राह्य नहीं हो सकता"वड़ भी युक्त नहीं है । क्योंकि नीलादि को यदि, स्कुरणशील विज्ञानस्वरूप मानने से, अपरोक्ष माना जायगा तो अनुमेय वह्नि आदि भी स्फुरणशील अनुमानात्मक ज्ञान से अभिन्न होने के कारण अपरोक्ष हो जायगा । अतः प्रत्यक्ष और अनुमान में विषय की अपरोक्षता और परोक्षता के कारण जो विभाग होता है उसका ध्याघात हो जायगा । यदि यह कहा जाय कि-'प्रत्यक्ष और अनुमान में तस्वतः कोई भेद नहीं है ऐसा मान लेने पर यह दोष नहीं हो सकता"-तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रकार प्रत्यक्षअनुमान में तास्विफविभाग अस्वीकार करने पर नीलाकार-पीताकार में भी तात्त्विक विभाग कैसे हो सकेगा? । यदि नोलप्रतिभास एवं पोतप्रतिभास के भेद से उन में भेद माना जापगा तो प्रत्यक्ष और अनुमान में भी प्रतिभास के भेव से भेद अपरिहार्य होगा। क्योंकि प्रत्यक्ष का प्रतिभास विशवप्रतिभास के रूप में होता है और अनुमान का प्रतिभास अविशद रूप में होता है।
यदि यह कहा जाय कि-'प्रतिभास में नोलादि प्रकार से अतिरिक्त वंशवाद्याकार का अनुभव नहीं होता अतः प्रत्यक्ष और अनुमान की, विशव प्रतिभास और अविशद प्रतिभासरूप में सिद्धि न होने से उन में भेद नहीं हो सकता'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंफि-दीर्घकाल तफ अनुवर्तमान अध्यवसाय में वैशव का अनुभव निर्बाधरूप से सम्पन्न हो सकता है । जो अध्यवसाय क्षणिक है एक क्षण तक ही रहता है उस में तो नीलादि एकैक नियताकार का भी अनुभव नहीं हो सकता। कहने का आशय यह है कि जब किसो अर्थ का अध्यवसाय उत्पन्न होता है तो तत्काल उस में अर्थवेशद्य का ग्रहण नहीं हो सकता क्योंकि अथवेशद्य, अध्यवसाय उत्पन्न होने पर उसमें सम्पन्न होता है। प्रतः अर्थ में वैशद्य प्रथमतः न होने से अर्याध्यवसाय के उदय के साथ उसके वैशय फा ग्रहण नहीं हो सकता। किन्तु यदि वह अध्यवसाय दीर्घकाल तक उस विषय को ग्रहण करे तो उस विषय में उद्भत वैशद्य का भी उत्तरक्षणों में ग्रहण हो सकता है। यह घट और प्रदीप के दृष्टान्त से समझा जा सकता है। जैसे घट का प्रदीप से प्रकाश होते ही घर पर प्रथमत: अविद्यमान वस्त्रादि का प्रकाश नहीं होता फिन्तु कुछ समय तक घट और प्रदीप का सम्बन्ध रहने पर दूसरे क्षण में घट पर रखे नये वस्त्रादि का भी उसी प्रदीप से प्रकाश होने लगता है, उसीप्रकार प्रदीप-स्थानीय दीर्घकालस्थायी अध्यवसाय से भी अर्थ में अव्यवसाय के उदय के बारे में अर्थ में सम्पन्न होने वाले वैश झाकार का भी ग्रहण युक्तिसंगत है । किन्तु यदि अध्यवसाय क्षणिक होगा, तब तो वैशयाकार की बात तो दूर रही किन्तु उस से नीलायाकार का भी ग्रहण होना दुर्घट हो जायगा । यह इस प्रकार,-जैसे घट के साथ मेघविद्युत का सम्पर्क होने पर घर के सामान्यस्वरूप का तो ग्रहण हो जाता है किन्तु दूसरे ही क्षण जल आलोक का सम्पर्क तुट जाने पर उस के रूपादि विशेष का ग्रहण नहीं होता है उस
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[ शास्त्रवार्ता स्त० ५ श्लो० १२
प्रकार क्षणिक अध्यवसाय से उस के स्वरूप का ग्रहण तो हो सकता है किन्तु दूसरे ही क्षण में नीलादि श्रध्यवसाय टूट जाने से नीलाद्याकार विशेष का ग्रहण नहीं हो सकता ।
"
एवं च 'यदवभासते तज्ज्ञानं यथा सुखादिकम् ' इत्यनुमानमपि निरस्तम्, सुखादीनां सर्वथा ज्ञानाऽभिन्नत्वाभावेन दृष्टान्ताऽसिद्धेश्व । न च 'सुखादयो ज्ञानात्मकाः, ज्ञानाभिन्नहेतुजवात्' इत्यतः सुखादीनां ज्ञानात्मकतासिद्धिः कुम्भादिभङ्गजस्य शब्दस्य कपालखण्डादिना तुल्यहेतुत्वेऽप्यतद्रूपत्वेन व्यभिचारात्, सुखादीनां विशिष्टादृष्टविपाक - सग्-अनितादिनिमित्तजन्यत्वेन सर्वथा ज्ञानाऽभिम्नहेतुत्वाभावाच अन्यथा विभिन्नस्वभावत्वानुपपत्तेः । नच तदसिद्धिरेव सुखादेराह्लादनाद्याकारत्वात् ज्ञानस्य च प्रमेयानुभव स्वभावत्वात् । तदुक्तम्“सुखमाहादाकारं विज्ञानं मेयोधनम्" इति । न च ज्ञानक्षणोपादानत्वादुत्तरज्ञानक्षचन दीनां इभिवम् आत्मद्रव्योपादानत्वात् तेषाम् । न तु पर्यायाणां पर्यायान्तरोत्यचानुपादानत्वं क्वचिद् दृष्टम्, द्रव्यस्यैवान्तर्वपादानत्वोपपत्तेः । तदुक्तम्"व्यक्ताव्यक्तात्मरूपं यत् पौर्वापर्येण वर्तते ।
कालत्रयेऽपि तद् द्रव्यमुपादानमिति स्मृतम् ||१||" इति |
५६
'यदि च सुखादयो ज्ञानात् सर्वथाऽप्यभिन्नाः तहिं तद्वदेवपामप्यर्थप्रकाशकत्वं स्यात्, न चात्र तदस्ति, सुखादीनामपि स्वज्ञानप्रकाश्यत्वेन बहिरर्थाविशिष्टत्वात्' इति देवसूरिप्रभृतयः । अन्ये तु 'सुखादीनामहङ्कार - क्रोधादिवदन्तमुखत्वेऽपि विभिन्नकर्मजत्वात् ज्ञानभिन्नत्वामित्य' भिमन्यन्ते ।
[ सुखादि का ज्ञानादि के साथ अत्यन्नामेट असिद्ध ]
इसी प्रकार 'जो अवभासित होता है वह ज्ञानात्मक होता है जैसे सुखादि।' इस अनुमान से भी अवभासमान अर्थ में ज्ञान की अभिनता का साधन नहीं हो सकता क्योंकि सुखादि में ज्ञान का अत्यन्त अमेव न होने से दृष्टान्त प्रसिद्ध है । इस दोष के वारणार्थ 'सुखादि ज्ञानात्मक है क्योंकि ज्ञानभिन्न हेतु से प्रजन्य है' - इस अनुमान से सुखादि में ज्ञानात्मकता को सिद्धि नहीं की जा सकती, क्योंकि 'जो यद्भिन्त हेतु से अजन्य होता है वह तदात्मक होता है' इस व्याप्ति से व्यभिचार है. क्योंकि कुम्भादि के ध्वंस से उत्पन्न होने वाला शब्द कुम्भव्वंस से भिन्न कपालखण्डादिरूप हेतु से अजन्य होते हुये भी कपालखण्डाद्यात्मक नहीं होता। दूसरी बात यह है कि सुखादि में ज्ञान भित्र हेतुजन्यत्व का अभाव स्वरूपासिद्ध भी है क्योंकि वह विशिष्ट अदृष्ट के परिपाक और माला- वनिता आदि ज्ञानभिन हेतुओं से भी उत्पन्न होता है । यदि सुखादि को ज्ञानभिन्न हेतु से जन्य न मान कर ज्ञानमात्र से ही जन्य माना जायगा तो ज्ञान और सुखावि में भिन्नस्वभावता की प्रनुपपत्ति हो जायगी । उनमें भिन्नस्वभावत्व असिद्ध है यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि सुखादि श्राह्लादनादिरूप होता है और ज्ञान अर्थानुभवरूप होता है। जैसा कि कहा गया है कि- 'सूख आह्लादनाकार और विज्ञान मेयबोधस्वरूप होता है ।'
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स्या०० टीका एवं हिन्वी विवेचन ]
५७
[ सुखादि का उपादान आत्मद्रव्य है ] यह भी नहीं कहा जा सकता कि सुखादि ज्ञानक्षणोपादानक होने से उसी प्रकार झानाभिन्न है जैसे उत्तरकालिक ज्ञानक्षण ज्ञानक्षणोपादानक होने से ज्ञान से अमिन्न होता है ।"- यह ठीक नहीं है क्योंकि सुखावि प्रात्मब्रव्योपादानक होता है अतः उसमें ज्ञानक्षणोपादानकत्व असिद्ध है। एक पर्याय को पार को हाति। 31EIR होता इस कहीं भी नहीं देखा गया। सर्वत्र आन्तर और बाहा सभी अर्थों का उपादान द्रव्य हो होता है जैसा कि एक कारिका में कहा गया है कि'प्रतीत और अनागत पर्यायों के रूप में अध्यक्त. एवं विद्यमान पर्याय के रूप में व्यक्त, जो दृश्य वर्तमान-मूत-भविष्य तीनों काल में पौर्वापर्यभाव से विद्यमान होता है, वही उपादान होता है ।'इसके अतिरिक्त सुखादि को ज्ञान से सर्वथा अभिन्न मानने में यह भी आपत्ति होगी कि सुखादि यदि ज्ञान से सर्वथा अभिन्न होगा तो उससे भी अर्थप्रकाश की प्रापत्ति होगी । वास्तविकता यह है कि सुखादि से अर्थ का प्रकाश नहीं होता । अतः सुखादि भी अपने ज्ञान से प्रकाश्य होने के कारण वाग्रार्थों से समान हो है। इस विषय को वेवसरि आदि विद्वानों ने यथास्थान स्पष्ट किया है कुछ अन्य विद्वानों का यह अभिमत है कि सुखादि यह अहंकार-क्रोध आदि के समान अन्तर्मुख होने पर भी यह ज्ञानभिन्न है, क्योंकि ज्ञानोत्पादक कम से भिन्न कर्म द्वारा उसकी उत्पत्ति होती है और कारणभेव होने पर कार्यमेव स्वाभाविक होता है।
यदपि घटादेानाकारत्वेऽपि 'भृतले न घटः' इत्यादेनियताधाराधेयभारकल्पनाबीजसाम्राज्याद् वारणामकारि, तदप्यसत्, आधारा-5ऽधेयाभ्यां कथंचिदपृथग्भूतस्याधाराधेयभावस्याबाधितानुभवसिद्धत्वेनाऽकाल्पनिकत्वात् , अन्यथा नीलादायप्यनाश्वासात् । यदपि अर्थाभावेऽपि धियामन्तहिर्विभागः स्वरूपभेदादेव' इति भणितम् , तदपि न तथ्यम्, व्यक्तिभेदस्यातिप्रसङ्गित्वान् , जातिभेदस्य चानभ्युपगमात् । न चान्तर्बहिर्षिभागो मिथ्या, सुख-नीलाद्यनुभवानामन्तबर्भािवस्यागोपालाङ्गनं प्रसिद्धत्वात । एतेनामिदमाकारभेद व्याख्यानमपि सुप्रत्याख्यातम्, अहमाकारस्य शरीरालम्बनत्वे 'इदं गौरम्' इत्यनुपपत्तेः, निरालम्बनत्वे च भ्रान्तन्यापत्तः, दानाधाकारकालेऽहमाकारानुपयत्तश्च । न चेदंताया अन्यस्या अनुपपत्तेज्ञानाकारमात्रत्वं युक्तम्, प्रत्यक्षसमानकालीनार्थपर्यायविशेषरूपन्यात् तस्याः । अनन्तधर्मात्मकवस्त्वभ्युपगमे दोपलेशस्याप्यमानादिति न किश्चिदेतत् ।
इत्थं विलक्षीभूतस्य तूष्णीभावमुपेषुषः । योगाचारस्य योगाय च्छलमद्य विजृम्भते ॥ १२ ॥
[ आधार-आधेय भाव कल्पनामूलक नहीं है ] विज्ञानवावी की ओर से घटादि को ज्ञानाफार मानने पर 'भूतले न घटज्ञान' इस प्रतीति के समान 'भूतले ने घटः' इस प्रतीति की आपत्ति का कारण जो वासना को नियत प्राधाराधेय भाव की कल्पना का बीज बताकर किया गया-यह भी ठीक नहीं है। क्योंकि आधाराधेयभाव, यह आधार और प्राधेय से कश्चिअभिन्न होने के कारण, अबाधित अनुभव द्वारा सिद्ध होने से काल्प
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५८ ]
[ शास्त्रयाता० स्त०५ श्लो०१२
निक नहीं, किन्तु पारमार्थिक है। अतः उसे वासनामूलक कहना ठीक नहीं है। अन्यथा जानाकार मौलादि की सत्ता अविश्वसनीय हो जायगी, क्योंकि अबाधित होते हुये भी उसे प्राधाराधेयभाव के समान हो काल्पनिक कहा जा सकेगा। विज्ञानवादी की ओर से जो यह बात कही गयो कि-'ज्ञान का अन्तर और बाह्यरूप से जो विभाग है वह अर्थ को सत्ता न मानने पर भी स्वरूपभेद प्रयुक्त हैवह भी ठीक है क्योंकि उक्त विभाग को यदि व्यक्तिमेद-प्रयुक्त माना जायगा तो अतिप्रसंग होगा अर्थात जान के दो रूप न होकर अनन्त रूप प्रलक्त होगा और जातिभेद से द्विधा विभाग को उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि जातिभेद विज्ञानवादी को मान्य नहीं है। यह कहना कि-ज्ञान का प्रान्तर और बाह्य विभाग भो मिथ्या है-वह ठीक नहीं है क्योंकि सुखादि और नीलादि के अनुभव में आन्तर और बाहर का भेष गोपालक और स्त्री आदि प्रशिक्षित जनों में भी प्रसिद्ध है। इसी से ज्ञान के अहमाकार और इदमाकार के विभाग की व्याख्या जो स्वरूपभेद के आधार पर की गयी उसे भो निरस्त प्राय समझना चाहिये।
[ अहमाकार शरीरालम्बन या निगलम्बन नहीं है ] दूसरी चात यह है कि अहमाकार को यदि शरीरालम्बन माना जायगा तो 'अहं गौरः' यह प्रतीति तो ठोक, किन्तु 'इदं गौर' यह प्रतीति नहीं हो सकेगी क्योंकि 'गौरं' यह शरीरालम्बनक है अतएव इदमाकार के साथ उसका सामानाधिकरण्यन हो सकता। यदि अहमाकार को । म्बन माना जायमा तो शविषाणादि के समान ग्रहमाकार ज्ञान भ्रमात्मक हो जायगा । दानाद्याकारकाल में ग्रहमाकार की अर्थात 'प्रहं ददामि'=मैं दान करता हूँ' इस प्रतीति की अनुपपत्ति हो जायगी क्योंकि वदामि' यह प्रतीति सालम्बन है प्रतः प्रहमाकार प्रतीति के निरालम्बन होने पर उसके साथ उसका सामाधिकरप्य अनुपपन्न होगा। यदि यह कहा जाय कि-'अन्य प्रकार की इदन्ता की उपपत्ति न होने से इदाता ज्ञानाकार मात्र ही है। अतः अहमाकार और इदमाकार दोनों के ज्ञानात्मक होने से उन दोनों में वास्तव मेद नहीं-यह ठीक नहीं है क्योंकि इदन्ता प्रर्य का प्रत्यक्षसमानकालीनपर्यायधिशेषरूप है। वह प्रत्यक्षसमानकालीन इसलिये है कि वह अर्थ के प्रत्यक्षकाल में ही अर्थ में व्यवहृत होती है अर्थात् जब किसी अर्थ का प्रत्यक्ष होता है तब उसका 'इ' शब्द से निर्देश होता है । इदन्ता को अर्थ का पर्यायविशेष मानने में कोई दोष नहीं है क्योंकि वस्तु अनन्तधर्मात्मक होती है। अतः ज्ञेय और ज्ञान के ऐक्य के सम्बन्ध में विज्ञानवादी की ओर से जो कुछ कहा गया यह तस्वतः कुछ नहीं है, असार है।
व्याख्याकार ने पहले जैसे परिहास की शैली में ज्ञेय और ज्ञान के ऐलय मत के वण्डन का उपक्रम किया था उसी प्रकार परिहास की हो शैली में एक पद्य द्वारा इस चर्चा का उपसंहार भी किया है। पद्य का अर्थ इस प्रकार है---
उक्तरोति से ज्ञान-ज्ञेय का ऐक्य सिद्ध करने के लिये प्रस्तुत की गई सब युक्तियों का निरास होने से तथा जेय और ज्ञान की भिन्नता साधक युक्ति के प्रदर्शन से जब योगाचार लज्जित होकर मौनावलम्बन कर लेता है तो उसका सम्पूर्ण छल जिसका कि वह प्रतिवादी को अभिमूत करने के लिये प्रयोग करना चाहता था वह उसी के साथ संलग्न होने के लिये आतुर हो गया है ।।१२॥
१३वीं कारिका में प्रस्तुत विषय की पुष्टि करने के लिये उसी की भावना का पुनः अनुसन्धान किया गया है--
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
प्रकृतमेव भावयन्नाह -
मूलम् — घटादिज्ञानमित्यादिसंवित्ते स्तत्प्रवृत्तितः । प्राप्तेरर्थक्रियायोगात्स्मृतेः कौतुकभावतः ॥ १३॥
५
+
घटादिज्ञानमित्यादिसंवित्तेः-‘घटमहं जानामि इत्या॒द्यन्तर्बहिमु खसांशानुभवात् विमुखज्ञानमात्रस्यावेदनात्, अनुभवापलापे निराकारस्यैव दर्शनस्य सिद्धेः, आकारव्यवस्थायाः कल्पनयोपपत्तेरतिंप्रसंगात् न ज्ञानमात्रं जगत् । तथा तत्प्रवृत्तित:= :- तंत्र घटादावेव प्रवृत्तेः, बहिरर्थाभावे तु वहिष्प्रवृत्तिर्न स्यात् । तथा प्राप्तः = घटज्ञानात् प्रवृत्तस्य घटोपलम्भात् । एतेन 'घटाकारज्ञानस्य स्वभावतो घटप्रवृत्तिहेतुत्वात् शुक्तौ रजतज्ञानादिव चहिष्प्रवृत्तिः' इति निरस्तम् प्रवृतिसंवादाऽसंवाद निर्वाहार्थं प्राप्याऽप्राप्य घटविषयकज्ञान भेद स्वीकारस्यावश्यक स्वात् । अथ प्राप्तिरपि प्रवृत्तस्य सतो घटोपलम्भ एत्र, तथा च घटप्राप्तौ सत्यघटाकारज्ञानस्य हेतुत्वाद् न दोष इति चेत् ? न, सत्यघटज्ञानोत्तरं घटभंगेऽपि तत्प्राप्तेः प्रसङ्गात् मम स्वर्थाऽसंनिधानाधीनत्वात् तदप्राप्तेः । न च तवापि घटाभावज्ञानात् तद्ाप्तिः, तदज्ञानेऽपि तत्र प्राप्तेरयोगात् । न च घटाकाशानमात्रात् तत्प्राप्तिः, भूतले घटज्ञानात पर्वते तत्प्राप्तिप्रसंगात् । न च विशिष्टज्ञानं तवास्ति । न चागृहीतासंसर्गकज्ञानद्वयं प्रापकम्, भ्रमादपि प्राप्तिप्रसंगात् सत्यत्वस्य चार्थाभावेऽव्यवस्थानात् । तथा, अर्थक्रियायोगात् जलानयनादिसिद्धेः । यदि च ज्ञानाकार एव घटो जलानयनसमर्थः स्यात् तदा घटं बुद्ध्यैव जनो जलमानयेत् इति हता देवानांप्रियेण कुम्भकारादीनामाजीविका !
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[ जगत् केवल ज्ञानमात्र नहीं है ]
विश्व केवल ज्ञानस्वरूप ही नहीं है किन्तु ज्ञान से पृथक् उसका अस्तित्व है। यह विषय कई युक्तियों से प्रमाणित होता है। जैसे एक युक्ति है 'घटमहं जानामि' इस प्रकार घटादिज्ञान का संवेदन | अर्थात् घटज्ञान का अन्तर्मुख यानी अन्तर और बाह्य इन दो अंशों में अनुभव । आशय यह है कि घटज्ञान का जो अनुभव होता है वह 'ज्ञान' इस आन्तर अंश को और 'घट' इस बाह्यांश को विषय करता है । विषयमुक्त ज्ञानमात्र का ग्रहण उससे नहीं होता । अत एव इस अनुभव के अनुरोध से यह मानना आवश्यक है कि अर्थ ज्ञान से भिन्न होता है । श्रत एव ज्ञान के अनुभव में अर्थ ज्ञान के स्वरूप में ही निमग्न होकर अवभासित नहीं होता किन्तु उससे पृथक प्रतीत होता है। यदि इस अनुभव का अपलाप कर दिया जायगा प्रर्थात् इस अनुभव को बाह्यांश में भ्रमात्मक मान लिया जायगा तो निराकार हो ज्ञान की सिद्धि होगी । जब ज्ञान निराकार होगा तो उसमें आकार की व्यवस्था को कल्पनामूलक मानना होगा जिसका परिणाम यह होगा कि ज्ञान में नियताकारतान होकर सर्वाकारता का अतिप्रसङ्ग होगा क्योंकि स्वभावतः निराकार ज्ञान में नियताकार की ही यवस्था हो इसका कोई मूल नहीं हो सकता ।
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[ शास्त्रवार्त्ता स्त० ५ इलो० १३
[ प्रवृत्ति और प्राप्ति से बाह्यार्थी का अस्तित्व ]
दूसरे युक्ति यह है- घटादि अर्थों में प्रवृत्ति । यदि ज्ञान से अतिरिक्त घटादि का बहिदेश में after न हो तो घटादिज्ञान के बाद घटादि के ग्रहण के लिये बाह्यदेश में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं हो सकती।
तीसरी युक्ति है घटज्ञान के पश्चाद- 'घट को प्राप्त करने के लिये प्रवृत्त मनुष्य को घट की प्राप्ति । यदि घट यह ज्ञान से भिन्न न हो तो जैसे ज्ञान की बाह्यदेश में प्राप्ति नहीं होतो वैसे घट की भी देश में प्राप्ति नहीं होती । इस तीसरी युक्ति से ज्ञान से पृथक् घटादि के अस्तित्व की सिद्धि सम्भव होने से ही दूसरी युक्ति के सम्बन्ध में विज्ञानवादी का यह कथन कि - " बाह्यदेश में घटद के ग्रहण को प्रवृत्ति के अनुरोध से ज्ञान से पृथक् घटादि की सत्ता नहीं सिद्ध हो सकती क्योंकि घट के प्रभाव में भी घटाकारज्ञान से घट ग्रहण की प्रवृत्ति स्वभाविक रोति से उसी प्रकार हो सकती है जैसे शुक्ति रजतस्थल में ज्ञान से भिन्न रजत के न होने पर भी रजतज्ञान से ही रजतग्रहण लिये बहिर्देश में रजतार्थी की प्रवृत्ति होती है ।" वह निरस्त हो जाता है, क्योंकि घटज्ञानोत्तर होने वाली किसी प्रवृत्ति में प्राप्ति का संवाद और किसी प्रवृत्ति में प्राप्ति का विसंवाद होता है । श्रतः इसकी उपपत्ति के लिए घटग्रहणार्थं होने वालो प्रवृत्ति के कारणभूत ज्ञानों में प्राप्य अप्राप्य विषयों के भेद से भेद मानना आवश्यक है ।
[ घट की प्राप्ति ज्ञानात्मक नहीं है ]
तृतीय युक्ति के विषय में विज्ञानवादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि "घटग्रहण के लिये प्रवृत्त मनुष्य को जो घट की प्राप्ति होती है वह भी घट के उपलम्भरूप ही है । उस उपलम्भ में घटाकर सत्यज्ञान कारण होता है। जिस घटाकार ज्ञान के बाद घटग्रहण के लिये प्रवृत्त मनुष्य को घटोपलम्भरूप घटप्राप्ति नहीं होती वह घटाकारज्ञान असत्य होता है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर सत्यवज्ञान के पश्चात् घट का विनाश हो जाने पर भी घट प्राप्ति की आपत्ति होगी क्योंकि घट प्राप्ति जब घटोपलम्भरूप है और उपलम्भ ज्ञानात्मक होने से अर्ध सापेक्ष नहीं है तो घट का विनाश उस प्राप्ति के होने में बाधक नहीं हो सकता । जैन मत में यह आपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि घट की प्राप्ति घटसंनिधान साध्य है । घटभङ्ग हो जाने पर घट संनिधान न रहने से घट प्राप्ति को आपत्ति नहीं हो सकती है। यहां विज्ञानवादी इस संकट से यह कह कर मुक्ति प्राप्त नहीं कर सकते कि- "घटभङ्ग होने पर घटाभावज्ञान होने से घट की अप्राप्ति होती है"क्योंकि घटाभाव का ज्ञान न हो तो भी घटभङ्गस्थल में घटप्राप्ति नहीं होती । इसलिये घट की अप्राप्ति को घटाभावज्ञानमूलक नहीं कहा जा सकता ।
[विज्ञानवाद में घट प्राप्ति की अनुपपत्ति |
विज्ञानवाद में दूसरा दोष यह है कि घटप्राप्ति का उत्पादन विज्ञानवादी के मत में कथमपि शक्य नहीं है । जैसे, घटाकार ज्ञानमात्र से घटप्राप्ति मानने पर भूतल में घटज्ञान से पर्वत में भी घट प्राप्ति की आपत्ति होगी। यह नहीं कहा जा सकता कि ततद्देश में तत्तदर्थं की प्राप्ति के प्रति तत्तदर्थ से विशिष्ट ततद्देशज्ञान कारण है, क्योंकि ज्ञान से भिन्न अर्थ का अस्तित्व न होने से घटादिविशिष्ट भूतलाद की अप्रसिद्धि होने के कारण घटादिविशिष्ट भूतलादि ज्ञान दुर्घट है। विज्ञानवादी की ओर से
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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
यह कहना कि-"तत्तद्देश में तत्तवर्थ की प्राप्ति तत्तदर्थ और ततद्देश के दो ज्ञानों से उस समय होती है जब तत्तद्देश और ततदर्थ में असंसर्ग का अज्ञान होता है। इस प्रकार तत्तद्देश में तत्तदर्थ के असंसर्गज्ञान के अभाव से सहकृत तत्तद्देश और तत्तदर्थ का ज्ञान द्वय तत्तद्देश में तत्तद्देश की प्राप्ति का जनक है"-वह भी युक्तियुक्त नहीं है, क्योंकि ऐसा मानने पर भ्रम से भी अर्थप्राप्ति का प्रसंग आता है । जैसे-भ्रमलस्थल में भी आरोप्य और धर्मों के दो ज्ञान होते हैं और आरोष्य और धमो के मध्य प्रसंसर्ग का अज्ञान रहता है क्योंकि यह ज्ञान यवि न हो तो भ्रमस्थल में प्रवृत्ति नहीं हो सकती । दूसरी बात यह है कि 'सत्य अर्थज्ञान से अर्थ को प्राप्ति होती है और असत्यज्ञान से अर्थ प्राप्ति नहीं होती है यह व्यवस्था भी ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता न मानने पर नहीं हो सकती क्योंकि ज्ञान की सत्यता और असत्यता अर्थ को सत्यता और असत्यता पर हो निर्भर है।
[विज्ञानवाद में कुम्हार की आजीविका का भंग ] ज्ञान के भिन्न अर्थसिद्धि में चतुर्थी युक्ति है अर्थक्रियाऽयोग यानी-घटादि ज्ञान से जलानयन आदि कार्यों को सिद्धि । प्राशय यह है कि घट यदि ज्ञान से भिन्न न हो तो घट से जलानयनादि कार्य नहीं हो सकता । क्योंकि ज्ञान आन्तरवस्तु है और जलाहरण बाहर होता है । प्रत एव उस के लिये उस के साधन मत घट का बाद्यअस्तित्व मानना आवश्यक है, और उस का बाह्य अस्तित्व होने पर आन्तरज्ञान के साथ उस का ऐक्य दुर्घट है। विज्ञानवादी को ओर से यह भी कहना कि "ज्ञानाकार ही घट जलानयन का कारण होता है, वह इसलिये कि जैसे जानाकार घट की बाह्य सत्ता नहीं है ऐसे जलानयन की भी बाह्य सता नहीं है, वे सब ज्ञानाकार रूप ही है, उस के बाह्य होने की प्रतीति वासनामूलक मिथ्या प्रतीति है"-वह युक्ति संमत नहीं है क्योंकि ज्ञानाकार घट से जलानयन का समर्थन करने पर, घटज्ञानमात्र से ही जलानयन को शक्यता हो जाने से विज्ञानवादी को प्रज्ञानवश कुम्भकारादि को आजोविका के लोप करने का प्रपराध प्रसक्त होगा।
'घटप्रवृत्त्याख्यज्ञानं घटानयनारुयज्ञानजनकम्' इति पुनरथ विज्ञप्तिरिति नामान्तरकरणं प्रतारकस्यायुप्मतः । तथा, स्मृतेः-गृहीतस्य घटादेः 'स घटः' इति स्मरणात्, उपलक्षणमेतत् 'सोऽयं घटः' इति प्रत्यभिज्ञायाः, निरूपिततत्त्वमेतत् । कौतुकभावतो चुभुत्सादिरूपकौतुकयोगात् । न चासत्यर्थे तुरङ्ग-शृङ्गादाविव बुझुन्सादिकमिति ॥ १३ ।।
[अर्थ का नाम बदल देने से सत्य नहीं बदलता ] विज्ञानवादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'घट प्रवृत्ति' शब्द से व्यवहत होने वाला शान 'घटानयन' शब्द से व्यवहत होने वाले ज्ञान का जनक है । अतः घर-प्रवृत्ति जसका आनयनादि शान से भिन्न नहीं है। ऐसा मानने पर कुम्भकार आदि की आजीविका के लोप को आपत्ति नहीं होगी क्योंकि इस प्रकार का ज्ञान कुम्भकार द्वारा घट कर उत्पावन-विनयादि तथा अन्य मनुष्यों द्वारा घट का क्रयण-आनयन आदि होने पर हो सम्भव है।" सो यह कथन अर्थ को ही ज्ञान का नामान्तर वेने से केवल प्रतारणामात्र है । अतः इस प्रतारणा के लिये यवि विज्ञानवादी जीवित रहना चाहता है तो उसको आयुष्मान होने का प्रार्शीवाद देने में बाह्यार्थवादी को कुछ संकोच नहीं हो सकता क्योंकि उस को प्रतारणा का यह प्रकार इतना दुर्बल है कि जिससे कोई भी बुद्धिमान मनुष्य घोखे में पड़े ऐसा सम्भव नहीं है ।
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ५ दलो० १४
| स्मृति अत्यभिज्ञा और कौतुक सेवाह्यार्य सिद्धि ]
अर्य को ज्ञान से भिन्न सिद्ध करने को पांचवी युक्ति है स्मृति । आशय यह है कि पूर्व में अनुभूत घटादि का 'स घट:' इस रूप में स्मरण होता है। यदि पूर्वानुभूत घट ज्ञानात्मक होगा तो पूर्वानुभव के साथ ही वह प्रतीत हो जायगा । अतः कालान्तर में होने वाले स्मरण का यह विषय न हो सकेगा, क्योंकि ज्ञान की विषयता वस्तु का एक धर्म है जो धर्मों के प्रभाव में उपपन्न नहीं हो सकता । अतः यह मानना आवश्यक है कि पूर्वानुभूत घट यह ज्ञान से भिन्न होता है अतः ज्ञान के साय सर्वथा अतोत नहीं होता किन्तु किसी रूप में स्मरणकाल में भी विद्यमान होता है ।
स्मरणरूप पांचवी युक्ति अपने तुल्य एक अन्य युक्ति की भी सूचक है, वह है प्रत्यभिज्ञा-'सोऽयं घटः = यह घट उस (पूर्वानुभूत घट) से अभिन्न हैं'। ज्ञान से भिन्न अर्थ की सत्ता मानने पर ही यह प्रत्यभिज्ञा उपपन्न हो सकती है इस तथ्य का निरूपण पहले कर चुके हैं ।
छट्ठी युक्ति है - कौतुक का होना --कौतुक होने का अर्थ है किसी अर्थ को विशेष रूप से ज्ञात करने को प्राकांक्षा का होना यह कौतुक भी ज्ञान से भिन्न अर्थ का प्रस्तित्व मानने पर हो सम्भव है । यदि ज्ञान से भिन्न अर्थ असत् होगा तो तुरङ्गभृंग से उसमें कोई अन्तर नहीं होगा क्योंकि तुरङ्गज्ञानाकार से प्रतिरिक्त नहीं है उसी प्रकार विज्ञानवादी के मत में घटादि कोई भी अर्थ ज्ञानकार से free नहीं हो सकता । श्रतः जैसे तुरङ्गशृग आदि के विषय में मनुष्य को कोई जिज्ञासा नहीं होती उसी प्रकार अर्थ के विषय में भी जिज्ञासा न होगी ।। १३ ।।
विपक्ष में प्रदर्शित दोष का १०वीं कारिका में संक्षेप से उपसंहार किया गया है - उक्तमेव विपक्षे दोषं वत्रयति
मूलम् — ज्ञानमात्रे तु विज्ञानं ज्ञानमेवेत्यदो भवेत् ।
प्रवृत्यादि ततो न स्यात्प्रसिद्धं लोक-शास्त्रयोः ॥ १४ ॥
ज्ञानमात्रे तु जगत्यभ्युपगम्यमाने, 'विज्ञानं ज्ञानमेव घटादि' इत्यदो भवेत् इत्येतत् स्यात्, परिच्छेद्यान्तराभावात् । ततो लोक- शास्त्रयोः प्रसिद्धं मवृत्त्यादि - घटार्थि-स्वर्गार्थयत्नादि, न स्यात् उक्तरीत्या नोपपद्येत ॥ १४ ॥
कारिका का अर्थ यह है कि यदि जगत् को केवल ज्ञानात्मक माना जायगा तो घटपटादि जितने भी पदार्थ विज्ञेय हैं वे सब ज्ञानमात्र स्वरूप है यही मनुष्य के हाथ लगेगा, क्योंकि घटपटादि से भिन्न कोई प्रोर परिच्छेद्य-ज्ञेय है नहीं । अतः लोक धौर शास्त्र में प्रसिद्ध जो घटादि लौकिक पदार्थ और स्वर्गादि अलौकिक पदार्थ के लिये प्रवृत्ति आदि व्यवहार मनुष्य द्वारा होते हैं उन सब की उपपत्ति न होगी क्योंकि प्रवृत्ति आदि बाह्य प्रथों के लिये होती है। जब उसका ज्ञान से भिन यदि कोई अस्तित्व ही नहीं होगा तो बाह्य व्यवहार को उपपन्न करने का कोई श्रन्य प्रकार हो ही नहीं सकता ॥ १४ ॥
१५वीं कारिका में उक्त दोष के उत्तर में विज्ञानवादी के इस कथन कि- 'बाह्य व्यवहारों की उपपत्ति के लिये ज्ञान से भिन्न घटादि का ज्ञान होना उसे भी मान्य है किन्तु वह ज्ञान भ्रम है अत उससे बाह्यार्थ की सिद्धि नहीं हो सकती'- इस कथन का निराकरण किया गया है
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स्याक टोका एवं हिन्धी विवेचन ]
अस्तु तहिं घटादिग्रहणमित्यत आहमूलम् तदन्यग्रहणे चास्य प्रवेषोऽर्थेऽनिषन्धनः ।
ज्ञानान्तरेऽपि सदृशं तदसंवेदनादि यत् ॥ १५ ॥ तदन्यग्रहणे च–ज्ञानान्यघटादिहणे चाभ्युपगम्यमाने, अस्य-ज्ञानस्य, अर्थे प्रदेषा अनभ्युपगमलक्षणः अनिवन्धन: निनिमित्तः, यद्-यस्मात, ज्ञानान्तरेऽपि सन्तानान्तरवृत्तिज्ञानेऽपि तवसंवेदनादि-विज्ञानान्तरासंवेदनादपि तत्सत्तादि, तुल्यम् अऽपि तुल्यसमर्थनम् , अनुपलभ्यमानस्याऽसच्चे संतानान्तरचित्तस्यापि तथावप्रसङ्गात् ।
___'यदपलभ्यमानं यथा नोपलभ्यते तत् तथा नास्ति, उपलभ्यमानं च नीलादि बाह्यत्वेन नोपलभ्यत इति तथा नास्तीति न, २६ हि नीलाधाकाराणामद्ववपनाननुभूयमानानां तथात्वेनाऽभावप्रसङ्गात् । “गृहीतोऽपि तस्मिन् निरंशवादद्वयबोधरूपे भ्रान्तिबीजानुगमनाद्न यथानोधमध्यवसायो जायत इति गृहितमपि तदगृहीतकल्पम् , इत्यननुभूतिरद्वयस्य न तस्यत" इति चेत् ? न, एवं द्वयानुभवमनुभूयमानमपलप्याननुभूयमानाद्वयानुभवसमथेनेऽतिप्रसङ्गात् नीलाघाकारबोधादप्यन्यरूप एव बोधोऽनुभूयत, नीलादिभ्रान्तिबीजानुगमनात्तु न यथायोधमवसीयत इत्यस्यापि वक्तुं शक्यत्वात् । तत्राऽद्वयत्वमनुमास्यत इति तु न पेशलम् , स्व-परदृष्टयोरिव साक्षास्क्रियमाणानुमीयमानयोभेदेन तत्राद्वयत्वानुमानस्य वामशक्यत्वाद, अन्यथा नीलादी बाह्यत्वानुमानस्यापि सुवचत्वादिति न किश्चिदेतत् ॥ १५॥
यदि बाह्यप्रवृत्ति को उपपत्ति के लिये ज्ञानभिन्न घटादि का ग्रहण विज्ञानवादी को मान्य होगा तो अर्थ के साथ उस का द्वेष यानी ज्ञानभिन्न अर्थ का अस्वीकार अहेतुक होगा।
[बौद्ध का पूर्वपक्ष-दृष्टाभेद से अर्थ भेद ] यदि ज्ञान से भिन्न अर्थ को स्वीकार न करने में यह युक्ति दी जायगी कि-'एक मनुष्य जिस घट को देखता है उसे अन्य मनुष्य नहीं देखता है, क्योंकि ज्ञान भिन्न रूप में घट को देखने के लिये ज्ञान मेद के प्रतियोगी ज्ञान का ग्रहण आवश्यक है मनुष्य को अपने हो ज्ञान का ग्रहण होने से वह अपने ही ज्ञान से भिन्नरूप में देख सकता है। अतः घट के साथ भेद का स्वरूपसम्बन्ध प्रौर मेक के साथ ज्ञान का प्रतियोगितानामक स्वरूपसम्बन्ध होने से घट वस्तुतः ज्ञानात्मक हो होता है। किन्तु ज्ञानभिन्नत्वेन घट का ज्ञान होते समय उस में ज्ञानात्मकता का ग्रहण नहीं होता। इसीलिये उस के सम्बन्ध में बाह्मप्रवृत्ति सम्पन्न होती है अतः उक्त प्रकार से दृष्टा के ज्ञानात्मक होने से दृष्टा के भेद से घटादि पदार्थ भिन्न होते हैं। दृष्टा के भेद से घटादि का भेद शुक्ति स्थल में दृश्यमान रजत के दृष्टान्त से समझा जा सकता है क्योंकि उस स्थल में दृष्टा के भेद से दृश्यमान रजत का भेव स्पष्ट
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[ शास्त्रवास्ति०५ श्लो०१५
सिद्ध है क्योंकि अब एक समय शुक्ति में अनेक पुरुषों को रजत का दर्शन होता है तब उस में जिस पुरुष को पहले बाधज्ञान हो जाता है उस का दृश्यमान रजत निवस हो जाता है किन्तु उस समय भी अन्य व्यक्तियों को रजत का दर्शन होने से अन्य व्यक्तियों को दृश्यमान रहता है अतः जैसे यहां दृष्टा के भेद से दृश्य का भेव होता है उसी प्रकार सर्वत्र दृष्टा के भेद से इश्य का भेद माना जा सकता है। अत: जैसे एक मनुष्य का ज्ञान दूसरे मनुष्य से गृहीत नहीं होता अतः एक मनुष्य के ज्ञान और उस के विषय मूत घट-दोनों में अन्य मनुष्य को अगह्यमाणता में कोई अन्तर न होने से ऐसा अनुमान हो सकता है कि एक मनुष्य से गृहीत होने वाला घट उस मनुष्य के ज्ञान से अभिन्न है क्योंकि अन्य मनुष्य को वह अहश्यमान है-जैसे अन्य मनुष्य से अदृश्यमान पूर्व मनुष्य का ज्ञान । इसलिये ज्ञान और घटादि में अभेव आवश्यक है।"
( पूर्वचित्तसत्तावत् अर्थसत्ता का समर्थन-उत्तर पक्ष ] तो यह युक्ति भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे अन्य सन्तानवृत्ति ज्ञान-चित्त का अन्य विज्ञानअन्य सन्तान से संवेदन न होने पर भी जैसे पूर्व चित्त को सत्ता विज्ञानवादी में भी मान्य है उसी प्रकार अर्थ की भी सत्ता का समर्थन हो सकता है। यदि समानान्तर से अनुपलभ्यम कारण ही एक सन्तान से उपलभ्यमान घटादि को असत् माना जायगा तो सन्तानान्तरवत्ति चित्त के भी असत्त्व को प्रसक्ति होगी। आशय यह है कि-'जो चैत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान है वह चौतर मनुष्यों से अदृश्यमान दूसरी वस्तु से भिन्नरूप में असत् है। इस व्याप्ति पर हो चैत्र से दृश्य मान घटादि की चैत्र के ज्ञान से भिन्न रूप में असत्ता का साधन अवलम्बित है। किन्तु यह व्यास्ति मानने पर विज्ञानवादी को सन्तानान्तरवृत्ति चित्त का भी असत्त्व स्वीकार करना पड़ेगा। क्योंकि चैत्रात्मक चित्तसन्तान चैत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान है अतः चैत्रतर मनुष्य से अदृश्यमान चैत्रात्मकसन्तानवृत्ति चैत्र वर्मों से भिन्न रूप में उसको सत्ता न होसकेगी। यदि उक्त च्याप्ति में पत्रेतर मनुष्यों से अदृश्यमान में चत्रेतर मनुष्य से अदृश्यमान के विजातीय रूप में प्रसत्व का व्यापक विधया प्रवेश करके यह कहा जाय कि-चैत्रात्मक चित्त सन्तान में चैत्रात्मक सन्तानवृत्ति चैत्र के विजातीय रूप में उक्त चित्त को सत्ता न होने से उक्त दोष नहीं हो सकता और चैत्र से दृश्यमान घटादि में चैत्रगत शान के विजातीयरूप में घट असत्ता सिद्ध होने से बाह्यार्थ के अभाव की सिद्धि हो जायगी तो यह कथन विज्ञानवादी के लिये उपयुक्त नहीं हो सकता क्योंकि उसके मत में जाति को सत्ता प्रसिद्ध है।
[ ज्ञानभिन्नत्वरूप से अनध्यवसित नीलादि असत् होने की शंका का उत्तर ]
यदि यह कहा जाय कि-"जो जिस प्रकार से उपलभ्यमान-दृश्यमान होता है, यदि उस प्रकार से वह अनुपलभ्यमान =अनध्ययसित है तो वह उस रूप से असत् होता है-यह व्याप्ति है। इसके अनुसार नीलावि पदार्थ के दर्शन को यदि ज्ञानभिन्न नीलादि का ग्राहक माना जाय तो भी जानभिन्नत्वरूप से नीलादि को सत्ता सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि ज्ञानभिन्नत्वरूप से यह उपलरध= अध्यवसित नहीं होता।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर नीलादि प्राकारों का भी ज्ञानाऽनुयत्वज्ञानाभिन्नत्व रूप से अभान हो जायगा-क्योंकि ज्ञानभिनत्वरूप से उसका अध्यवसाय नहीं होता। इस पर विज्ञानवादी को प्रोर से यदि यह कहा जाय कि-नीलादि पदार्थ निरंशत्व रूप अद्वयस्वशाली बोधरूप में दर्शन द्वारा गृहीत होता है अर्थात् नीलादि दर्शन का
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन |
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विषय होता है और दर्शन निरंश है। इसलिये उस दर्शक बोध का अद्वयत्व अमेद उसके faranीलादि में है । इस प्रकार नोलादि का ज्ञानाद्वयत्व-ज्ञानाऽभिन्नरूप में ही वर्णनात्मक अनुभव होता है । किन्तु नाम जात्यादि द्वारा नीलादि के भ्रमात्मक बोध के वासनात्मक बीज का अनुवर्तन होने से बौद्ध दर्शन अनुसार उसका अध्यवसाय नहीं होता है। अतः दर्शन द्वारा गृहोत = अनुभूत होने पर भी अगृहीत प्रननुभूत के समान हो जाता है इसलिये नीलादि का ज्ञानाsयरूप से प्रननुभव कहा जाता है । किन्तु वस्तुतः ज्ञानाहयरूप में नीलादि की अननुभूति नहीं है, क्योंकि नोलादि का ज्ञानाभित्र रूप में जो प्रथम दर्शन होता है यह भी अनुमय है और वही वस्तुत: प्रमाण है। अतः नीलादि का ज्ञानाभिज्ञरूप में प्रसत्व नहीं हो सकता"तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि नीलादि के ज्ञानाद्वयरूप में अनुभव को प्रतीति नहीं होती है किन्तु ज्ञानरूप में ही नीलादि का अनुभव प्रतीयमान होता है। क्योंकि 'नीलं पश्यामि' इस प्रकार का अनुभव सर्वमान्य है । यह अनुभव नीलारि और उसके ज्ञान में भेदनियत कर्म क्रिया भाव का ग्राहक होने से नीलादि का ज्ञानद्वय-ज्ञानभिरूप में अनुभव सिद्ध होता है । फिर इस अनुमसिद्ध द्वयानुभव का अपलाप कर यदि ज्ञान अगोचर ( अप्रतीयमान) अद्वयानुभव का समर्थन किया Start तो अन्यत्र भी अतिप्रसङ्ग होगा। जैसे -यह भी कहा जा सकता है कि नीलाद्याकार बोध अनुमान होने पर भी असत् है, किन्तु उससे भिन्न प्रकार का हो खोत्र दर्शनात्मक अनुभव से गृहीत होता है । किन्तु वह अन्य प्रकार का बोध दर्शनानुसार अध्ययसित नहीं होता, क्योंकि नीलावि arrer उसके भ्रम का बोज अनुवर्त्तमान रहता है । फलतः नीलाथाकार बोध की भी सिद्धिन हो सकेगी।
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[ ज्ञान और अर्थ में अनुमान से अद्वयत्व की सिद्धि अशक्य ]
यदि यह कहा जाय कि नीलादि में ज्ञानाद्वयत्व अनुमान से सिद्ध होगा जैसे 'चंत्र से ज्ञायमानघटादि तंत्रीयज्ञान से अभिन्न है क्योंकि चत्रादि ज्ञान के साथ ही नियम से उपलब्ध होता है अर्थात् चत्रीयज्ञान को विषय न करने वाले ज्ञान का विषय है, जैसे चंत्रीयज्ञान का अपना स्वरूप"तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जैसे विज्ञानवादी ने यह कहा था कि अनुमान से स्वदृष्ट और परहृष्ट नीलादि में अभेद सिद्धि नहीं होती है, उसी प्रकार साक्षात्क्रियमाण और अनुमीयमान में भेद होने से उनमें श्रद्धय का अनुमान नहीं हो सकता । अन्यथा नीलादि में ज्ञानभित्र का और स्वदृष्ट परहृष्ट नीलादि में ऐक्य का अनुमान भी सुवच हो सकेगा। अत: ज्ञान और नीलादि में अनुमान द्वारा अद्वयत्व को सिद्ध करने की चेष्टा अकिश्वित्र है ।। १५ ।।
विज्ञानवादी की थोर से जो यह कहा गया था कि ज्ञानभिन्न अर्थ को सत्ता की सिद्ध करने में युक्ति का अभाव है, १६वों कारिका में ज्ञान के विषय में भी उसकी तुल्यता का प्रतिपादन किया गया है
यश्चार्थे युक्त्ययोग *उक्तस्तस्य ज्ञानेऽपि तुल्यतामुपदर्शयन्नाह -
मूलं- युक्त्ययोगश्च योऽर्थस्य गोयते जातिवादतः । ग्राह्यादिभावद्वारेण ज्ञानवादेऽप्यसौ समः ॥ १६॥
* 'विज्ञानं यत्स्वसंवेद्य' इति दशम्या कारिकया।
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[ शास्त्रवाता० स्त० ५ श्लो १७
युक्त्ययोगवार्थम्य यः पर महता प्रबन्धेन, जातिवादतः-अनुभव विरुद्धवादेन, गोयनेस्वेच्छामात्रेण प्रकल्प्यते, असा युक्त्ययोगः, ग्रात्यादिमावद्वारेण-वक्ष्यमागलक्षणेन बाधादिभाव विकल्पेन ज्ञानवादेऽपि समः, तत्पशनिराकरणव्यापाराविशेषात् ॥१६॥
[अर्थ विरोधी युक्तियाँ ज्ञान के विरोध में समान है ] 'अर्थ को ज्ञानभिन्न सत्ता प्रमाणित करने के लिये कोई उचित युक्ति नहीं है। यह बात जो विज्ञानवादियों की प्रोर से असद उत्तररूप में अनुभवविरुद्धवाद का आश्रय लेकर बडे विस्तार से
की इच्छानुसार कही गयी, यह बात ज्ञान के सम्बन्ध में भी समान है। ज्ञान के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि ज्ञान को सता को प्रमाणित करने के लिये भी उचित युक्ति का प्रभाव है क्योंकि उसके पक्ष में भी 'वह ग्राह्यरूप है ? अथवा प्राहकरूप है ?' ऐसे विकल्पों को उठाकर ज्ञान को सत्ता के निराकरण का भी प्रयत्न उसी प्रकार हो सकता है जैसे ज्ञान भिन्न अर्थ की सत्ता के निराकरण का प्रयास हुआ है ॥१६॥
१८वीं कारिका में पूर्व कारिका में किये गये संकेत अनुसार ज्ञान के सम्बन्ध में सम्भावित विकल्पों की प्रसंगति बताने का उपक्रम किया गया है
अत्र ज्ञानं हि ग्राह्यमात्रस्वभावम् , ग्राहकमात्रस्वभावम् , उभयस्वभावम् अनुभवस्वभावं वा स्यात् ? इति विकल्प्याह
मूलं-नैकान्तग्राह्यभावं तद् ग्राहकामावतो भुचि ।
ग्राहकैकान्तभावं तु ग्राह्याभावादसंगतम् ॥११॥ नैकान्तग्राह्यभावं तत्-न सर्वथा ग्राह्यस्वभात्र ज्ञानम् । कुतः ? इत्याह-भुवि पृथिव्याम् , ग्राहकाभावतात्राहकस्वभावस्य कस्याप्यभावात् । संबन्धिशब्दश्वायं न संबन्ध्यन्तरेण बिना प्रवतंत इति । अत एव ग्राहकैकान्तभावं तु-सर्वथा प्राह कस्वभावं तु, प्राधाभारादसंगतम् अयुक्तमेतत् । न हि ग्राहकस्वभावाज्ज्ञानाद् ग्राह्य किश्चिदन्यदन्ति, यदपेक्षया नियतस्वभावतां विभृयादिमिति भावः ॥१७॥
[ ज्ञान के सम्बन्ध में विकल्पों की समीक्षा ] ज्ञान के सम्बन्ध में ४ विकल्प सम्भावित हैं। (१) एक यह कि ज्ञान केवल ग्राह्यमात्रस्वभाव है। (२) दूसरा, ज्ञान केवल ग्राहकस्वरूप है। (३) तोसरा ग्रााग्राहक उभय स्वभाव है। (४) अनभय-अग्रान-अम्राहक स्वभाव है। इनमें दो विकल्पों का निराकरण प्रस्तुत कारिका में इस प्रकार किया गया है कि-ज्ञान को केवल ग्राह्य स्वभाव नहीं माना जा सकता क्योंकि विश्व में ग्राहकस्वभाव ज्ञान से अतिरिक्त किसी पदार्थ में न होने से ज्ञान में ग्राह्यस्वभाव की सिद्धि नहीं हो सकतो, क्योंकि ग्राह्य-ग्राहक ये दोनों शब्द सम्बन्धो-धोतक शब्द हैं । एक सम्बन्धि की सम्बन्धिता भिन्न दो पदार्थों के बिना सम्भव नहीं है। इसीलिये ज्ञान को केवल ग्राहकस्वभाव भी मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि ग्राहक के विना जैसे ग्राह्य को उपपत्ति नहीं हो सकती इसी प्रकार ग्राह्य के बिना
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
ग्राहक को भी उपपत्ति नहीं हो सकती । अतः यदि ज्ञान को केवल ग्राहक स्वभाव माना जायगा और उससे भिन्न किसी ग्राह्य कामात होना दुर्घट होगा, क्योंकि ग्राहकस्वभावता ग्राह्य की अपेक्षा से ही हो सकती है ।।१७।
१८ व कारिका में अन्तिम दो विकल्पों को अयुक्त बताया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मूलं - विरोधान्नोभयाकारमन्यथा तदसद्भवेत् । निःस्वभावत्वतस्तस्य सत्तैवं युज्यते कथम् १ ॥ १८ ॥
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विरोधात - एकस्य ग्राह्यग्राहकाकारो भयविमिश्रणेन द्वित्वविरोधात्, नोभयाकारं = न प्राह्यग्राहकोभयस्वभावम् । अन्यथा - अनुभयस्वभावत्वपक्षे, तत् ज्ञानम्, स्वभावविशेषनिषेधेन निःस्वभावत्वतः स्वभाव सामान्याभावात् असद् भवेत् । एवं तस्य शशविषाणस्येव सत्ता कथं युज्यते ? | अत्र केचिदू ताथागताचित्रप्रतिभासामेकां बुद्धिं स्वीकुर्वन्तस्तृतीयपक्षे विरोधमाहुः, तदुक्तम् —
"नीलादिश्वित्र विज्ञाने ज्ञानोपाधिरनन्यभाक् ।
अशक्यदर्शनस्तं हि पतत्यर्थे विवेचयन् ॥ | १ || ”
अत्र देवेन्द्रध्याख्या - "चित्रज्ञाने हि यो नीलादिः प्रत्यवभासते, ज्ञानोपाधिर्ज्ञानविशेषणोऽनुभवात्मभूत इति यावत् स एवैकोऽनन्यभाक् = तज्ज्ञानस्वभावत्वादन्यमर्थ ज्ञानवदेव न भजते । तादृशश्च सन्नसौं तचित्रदर्शनप्रतिभासी तदन्यपीतादिप्रतिभासविवेकेन न केवलः शक्यते द्रष्टुम् तस्मिन प्रतिभासमाने सर्वेषामेव तज्ज्ञानतया तदन्येषामपि नियोगतः प्रतिभासनात् । तस्माद् यदैवमेकं नीलादिकमाकारं तदन्येभ्यः पीतादिभ्यः 'अयं नीलः' इति ज्ञानान्तरेण विवेचयति प्रमाता, तदेव तथा विवेचयन्नसौ न तज्ज्ञानमामृशति, अतद्रूपत्वात्तस्य, किं तर्हि ? अर्थे पतति अर्थ एव तज्ज्ञानं प्रवृत्तं भवतीत्यर्थः । तस्मादेकस्मिन्नप्याकारे प्रतिभासमाने सर्वमाभाति न वा किञ्चिदपि इत्यशक्यो विवेकतो दर्शने नीलादिप्रतिभास इति ।
चित्राया चरिर्थधर्मता, नीलादिनामवयविभेदाभेदाभ्यामनुपपत्तेः । सुखादीनां च ज्ञानाऽभिन्न हेतुत्वादपि ज्ञानात्मकत्वम्" इति ।
ज्ञान ग्राह्यग्राहक उभयाकार भी नहीं माना जा रुकता क्योंकि ग्राह्याकार- ग्राहकाकार इन दोनों का यदि एक में समावेश हो जायगा तो एक की हो सत्ता रह जाने से उभयत्व का विरोध होगा, और जब कोई उभय नहीं होगा तो ज्ञान का उभयाकार कहना भी सम्भव नहीं हो सकता । इसी प्रकार ज्ञान को अन्यथा उक्त तीनों स्वभावों से चौथे प्रकार का अनुभव स्वभाव भी नहीं माना जा सकता क्योंकि वस्तु के दो हो स्वभाव सम्भव है ग्राह्यस्वभाव और ग्राह्यस्वभाव । अतः इन
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स्वार्ताः स्त०५ श्लो०१८
दोनों स्वभाव का निषेध कर देने पर तृतीय सद्भाव का कोई सद्भाव न होने से ज्ञान निःस्वभाव हो जायगा। जिसके परिणामस्वरूप ज्ञान असत् हो जायगा । क्योंकि शविषाण के समान नि.स्वभाव हो जाने पर उसकी सत्ता किसी भी प्रकार सम्भव न हो सकेगी।
शान के विषय में विज्ञानवादी के उक्त तृतीय विकल्प का जैनों को प्रोर से यह निराकरण सुनकर विज्ञानवादी कतिपय विद्वानों की प्रोर से कुछ विरोघ उपस्थित किया जा रहा है।
[नियत एकाकार ज्ञान का उपादान चित्राकार एक दर्शन ] उन विद्वानों का मत यह है कि-चित्राकार में प्रतिभासित होने वाली एकमात्र बुद्धि की हो पारमार्थिक सत्ता है । अर्थात विश्वाफार ज्ञान ही परमार्थ सत है उसी से नियत एकाकार ज्ञान का जन्म होने से संसार के विभिन्न व्यवहारों को उपपत्ति होती है। इस मत को उपस्थित करते हुए व्याख्याकार ने यहां एक प्राचीन कारिका का उल्लेख कर उसकी देवेन्द्रकृत व्याख्या को प्रस्तुत किया है, जो इस प्रकार है -चित्राकार जान में जो नोलावि अघासित होता है वह ज्ञान की उपाधि है अर्थात् ज्ञान का विशेषण है जो ज्ञान का आत्मभूत है । तथा वह अनन्यभाफ है अर्थात् ज्ञान के समान हो ज्ञानस्वभावत्व से अन्य कोई स्वभाव का आश्रय नहीं है । अत: ज्ञानस्वभाव भूत नीलादि जब चित्राकारदर्शन में प्रतिभासित होता है तब अपने से अन्य प्रतिभासमान पीतादि से विविक्त होकर केवल अपने आकार में नहीं देखा जा सकता, क्योंकि चित्राकार ज्ञान में जब वह प्रतिभासित होता है तो पीतावि अन्य सभी आकार के चित्राकार ज्ञानस्वरूप होने से उन आकारों का भी उसी ज्ञान के द्वारा अविविक्तरूप से भान होता है। इसलिये यह मानना आवश्यक होता है कि प्रमाता को नोलेतर पीतादि से नील को विविक्त रूप में ग्रहण करने वाला 'अयनोल:' इसप्रकार अन्य ज्ञान जब उत्पन्न होता है उसी समय प्रमाता नील को पीतादि से विविक्ताप में ग्रहण करते हये चित्राकार ज्ञान को ग्रहण नहीं करता. क्योंकि उक्त विवेचनात्मक ज्ञान चित्राकार ज्ञानस्वरूप नहीं होता । अत: उसमें उसका ग्रहण सम्भव नहीं होता। क्योंकि ज्ञान अपने स्वरूप को तथा अपने नियताकार को हो ग्रहण करता है। उक्त चित्राकार ज्ञान उसका न प्राकार होता है, न उसका स्वरूप है। अतः वह ज्ञान चित्राकार ज्ञान के ग्रहण में प्रवृत्त न होकर उस ज्ञान के एक अर्थ-प्राकार-नील के हो ग्रहण में प्रवृत्त होता है । निष्कर्ष यह है कि चित्राकारज्ञान के प्रतिभास के समय एक प्राकार का प्रतिभास होने पर सब का प्रतिभास होगा अथवा किसी का भी प्रतिभास नहीं होगा। अतः चित्राकार दर्शन में नीलादि का पीतादि विविक्तरूप में प्रतिभास अशक्य है। फलित यह हआ कि चित्राकार एक ज्ञान में नीलपीताधि नाना प्राकारों का समावेश होने पर भी नोल-पीतादि नियताकार को ग्रहण करने वाले विवेचनात्मक ज्ञानों से नोल-पीतादि का नानात्व सुरक्षित रहता है । अतः किसी एक में ग्राह्य-ग्राहक जमय श्राकार का समावेश होने पर उभयत्व के विरोध का आपादन कर के जो ज्ञान के ग्राह्म-ग्राहक उभयाकारतापक्ष का निराकरण किया गया वह उचित नहीं है । यदि इसके विरुद्ध यह कहा जाय कि-"चित्रता ज्ञान का धर्म नहीं है किन्तु बाह्य अर्थ का धर्म है"-तो वह ठीक नहीं है क्योंकि नील-पीतादि स्वरूप चित्रता को अवयवो के साथ भेद और अभेद दोनों ही रूप में उपपत्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि चित्रता-नीलपीतादि रूपों को एक अवयबी द्रव्य से भिन्न मानने पर एक चित्रात्मक बाह्याथं को सिद्धि न हो सकेगी किन्तु नील पीतादि अर्थों का एकत्रित समूह सिद्ध होगा और अवयवी से अभिन्न मानने
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स्या क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
पर नोल-पोतावि में भो परस्पर अभेद हो जाने से उनको भिन्नस्वभावता का लोप हो जाने के कारण नोलपीलादि विविध रूपात्मक चित्रता की सिद्धि नहीं होगी।
इस पर दियः शमी - स रीति से चित्रता में बाह्यार्थधर्मता का निषेध करने पर सुख-दुखादि में भी ज्ञानधर्मता का निषेध हो जायगा, क्योंकि उन्हें एक ज्ञान का धर्म मानने पर उनके स्वभावभेद का लोप हो जायगा, भिन्न ज्ञान का धर्म मानने पर उनमें एकनिष्ठता के व्यवहार को अनुपपत्ति होगी, अतः सुख-दुःखादि में ज्ञानधर्मता सिद्ध न होने से उनमें ज्ञानात्मकता की सिद्धि न हो सकेगो"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सुख-दुःखादि को विभिन्न ज्ञान का धर्म मानकर ज्ञानात्मक सिद्ध किया जा सकता है और सुख-दुःखादि में एकनिष्ठता के व्यवहार को उपपत्ति भी सन्तान को एकता के आधार पर की जा सकती है। दूसरी बात यह है कि सुख-दुःखादि में ज्ञानास्मकता केवल ज्ञानधर्मता से ही नहीं सिद्ध होतो अपितु ज्ञान भिन्न हेतु से अजन्य होने के कारण भी उनकी ज्ञानात्मकता सिद्ध होती है।"
तदसत-बाह्यस्यापि द्रव्यस्य चित्रपर्यायात्मकस्याऽशक्यविवेचनत्वेन चित्रैकरूपताया दुरपह्नवत्वात्, अन्तर्विज्ञानात् तदाकाराणामिव वहिप्पुद्गलादे रूपादीनामशक्यविवेचनत्वात् । "मणिसमूहे 'पद्मरागोऽयम्' 'चन्द्रकान्तोऽयम्' इत्यादिपृथग्बुद्धिरूपं विवेचनमस्त्येवेति" चेत ? नीलाधाकार कज्ञानेऽपि 'नीलाकारोऽयम्' 'पीताकारोऽयम्' इति विवेचनं किं न प्रतीतम् ? । 'चित्रप्रतिभासकाले नेहग विवेचनम् , पञ्चासु नीलाद्याभासानि ज्ञानान्तराण्यविद्योदयाद् विवेकेन प्रतीयन्त' इति चेत् ? तर्हि मणिराशिप्रतिभासकाले पद्मरागादिविवेचनमपि नास्त्येव, पश्चात्तु तत्प्रतीतिरविद्योदेयादिति शक्यं वक्तुम् । 'मणिराशेदेशभेदेन विभजनं विवेचनमि'ति चेत् ? न, एकमण्याकारेषु तदभावात् । 'मणेरेकस्य खण्डने तदाकारेषु देशविभजनमस्त्येवेति चेत् ? ज्ञानस्याप्येकस्य बुद्धथा खण्डने तदस्त्येव । 'बुद्धथन्तरण्येव तत्खण्डने तानी ति चेत् ! पराण्येव मणिखण्डने मणिखण्डद्रव्याणि तानीति समानम् 1 'चित्रज्ञानं विवेचयार्थे पततीति तदविवेचनमिति चेत? एकत्वपरिणतव्याकारान् विवेचयन् नानाद्रव्याकारेषु एततीति तदविवेचनं तुल्यम् ।
[ एक चित्र ज्ञान की कल्पना असंगत-उत्तर पक्ष ) इस प्रकार ज्ञान के ग्राह-ग्राहक उभपाकारता पक्ष को कतिपय विज्ञानवादियों के मतानुसार उपस्थित कर व्याख्याकार ने उसको आलोचना करते हुये यह कहा है कि उक्त प्रकार से नील. पीतादि एक नियत आकार में अशक्य विवेचन होने से नोल-पोतादि विविधाकार एक चित्र ज्ञान की कल्पना कर ज्ञान के ग्राह्य-ग्राहक उभयाकारता का समर्थन करना असङ्गत है। क्योंकि उक्त प्रकार से चित्र पर्यायात्मक बाह्यद्रव्य का अंगीकार करके अशक्यविवेचन होने से उसकी एक चित्रद्रव्यरूपता का अपलाप दुष्कर होगा । क्योंकि, जैसे चित्राकार आन्तरविज्ञान से उसके प्रतिभास काल में नील पोतादि एक एक प्राकार का विवेचन अशक्य होता है उसीप्रकार चित्रात्मक द्रध्य से बाह्य पुद्गलादि के रूपादि का भी विवेचन प्रशश्य होता है ।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० १८
प्राशय यह है कि चित्रात्मक एक द्रव्य का जब प्रतिभास होता है तब उससे पृथक् पुद्गल आदि के रूपादि का प्रतिभास नहीं होता है। यह तब होता है जब मनुष्य को धुद्धि चित्रद्रव्य को प्राधान्येन ग्रहण करने के उन्मुख न होकर किसी पुदगलद्रव्यविशेष को प्रधानरूप से ग्रहण करने को उन्मुख होता है। यदि यह शंका हो कि "विभिन्न मणिओं की बनी हुई चित्रमालात्मक द्रव्य में 'अमुक पद्यराय मणि है' 'अमुक चन्द्रकान्त मणि है' इस प्रकार उस द्रव्य का पृथगबुद्धिरूप विवेचन हालाही है मतः किर, शा ठर शकजियेनमत्व सम्भव नहीं है।"-तो इसके समाधान में चित्राकार ज्ञानवादी से भी यह प्रश्न हो सकता है कि-"उक्त ज्ञान में यह नोलाकार है' यह पोलाकार हैं। इस प्रकार का विवेचन क्या नहीं प्रतीत होता ?-यदि इसका उत्तर विज्ञानवादी को ओर से यह दिया जाय कि चित्राकार ज्ञान के प्रतिभास काल में इस प्रकार का विवेचन नहीं होता, किन्तु बाद में अविद्या[=वासना] के उरोध से नीलादि एक-एक नियताकार अन्य ज्ञान का उदय होने पर विवेचन प्रतीत होता है ।" तो इस प्रकार का उत्तर चित्रद्ध्यबादी की ओर से भी दिया जा सकता है कि विभिन्न मरिणओं से बने हुये मालात्मक द्रव्य के प्रतिभासकाल में पारागादि एक एक मणि का विवेचन ही नहीं होता । अपितु बाद में अविद्या स्थानीय-नयज्ञान के उदय होने से पनरागादि के विवेचन को प्रतीति होतो है । तात्पर्य यह है कि मनुष्य को दृष्टि जब मुख्यरूप से अखण्ड मालाद्रव्य को ग्रहण करती है, तो उस समय मणिनों का एक मालामात्र का भान होता है। किन्तु जब मनुष्य उसके एक एक खण्ड कर विशेषरूप से दृष्टिनिक्षेप करता है तब उसे एक एक मणि का पृथक विवेचन[बोध] होता है। अतः चित्रनान और चित्रदय को कल्पना में एक अवस्था में उसकी अशक्य विवेचनता और अन्य अवस्था में उसका विवेचन समान है। अतः चित्र वन्य को कल्पना की उपेक्षा नहीं को जा सकती ।
इस पर चित्र ज्ञानवादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'मालात्मक मणिसमूह से एक एक मणि आदि देश मेद द्वारा विभाजनरूप विवेचन होता है। किन्तु चित्रज्ञान से नीलादि एक एक आकार का ऐसा विवेचत नहीं होता है। इसलिये दोनों के अशक्यविवेचनत्व में समानता म होने से उक्त चित्रज्ञान के दृष्टान्त से चित्रद्रव्य को कल्पना नहीं की जा सकती।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विविध वर्णात्मक एक मणि के आकारों में देश मेव से एक एक वर्गाकार का विभाजनरूप विवेचन नहीं होता। अतः उसका अशक्य विवेचनत्व चित्रज्ञान के अशक्यविवेचनत्व के समान है। अत: विधिधवर्णात्मक एकमणि रूप चित्रद्रव्य चित्रज्ञान के दृष्टान्त से माना जा सकता है। यदि इसके विरोध में चित्रज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-विविधवर्णात्मक एकमणि का भी खण्ड करने पर उसके विभिन्न प्राकारों में देशभेद मूलक विभाजन होता ही है-"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चित्रज्ञान के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि एकचित्रज्ञान का बुद्धि द्वारा खण्डन-विश्लेषण करने पर उसके आकारों का भी वैशिक विभाजनरूप विवेचन होता ही है।
__यदि इसके उत्तर में चित्रज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-"एक चित्रज्ञान का बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जो नील-पीतादि एक एक नियताकार ज्ञान प्रतीत होता है वह उस चित्रज्ञान से भिन्न ज्ञान है ।"-तो चित्रद्रव्यवादी की ओर से भी इसके समान यह कहा जा सकता है कि विविधवर्णाकार एक मणि का खण्डन करने पर जो मणिखण्डात्मक द्रव्य प्रतीत होते हैं वे भी नानावर्णाकार एकमणिद्रव्य से खण्डदृष्ट या भिन्न हो है। यदि चित्रमानवावी की ओर से चित्रज्ञान ी अशक्य
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
विवेचनता का यह रूप बताया जाय कि चित्रज्ञान का विवेचन करने वाली बद्धि चित्रज्ञान को ग्रहण न कर उसके अर्थ-आकार विशेष को हो ग्रहण करती है । इस प्रकार नीलादि एक-एक आकार के ग्रहण के समय चित्रज्ञान का पूर्णतया ग्रहण न होना हो उसका अविवेचन है" तो इस प्रकार का अविवेचन चित्रद्रव्य के सम्बन्ध में भी समान है। अर्थात चित्रव्यवादीको प्रोर से यह कहा जा सकता है कि जब एकस्व में परिणत चित्रव्य को विवेचन करने वाला बोध उदित होता है तो वह द्रव्य के विभिन्न आकारों को हो ग्रहण करता है। चित्रव्य को पूर्णतया ग्रहण नहीं करता । तो इस प्रकार द्रव्य के एक-एक आकार के ग्रहण काल में पूर्णरूप से चित्रव्य का प्रग्रहण ही उसका अविवेचन है । अतः यह स्पष्ट है कि चित्रज्ञान और चित्रद्रव्य के प्रशश्यविवेचनत्व में कोई अन्तर नहीं है ।
एतेन 'ग्राहकै कस्वरूपस्य नानाग्राह्याकारकृतवास्तवैकत्याविघातोऽविवेचनम्' इत्यपि निरस्तम्, वस्तुत एकस्य वाह्यस्य नानाधर्मकृतैकत्वाविध ततौल्यात, शब्दपरवृत्तिमात्रत्वात् । एतेन विविच्यमानस्यावास्तवाकवपरिश्रहोऽपि व्याख्यातः ।।
[एकत्व के अविधातरूप अविवेचन उभपचक्ष में समान ] चित्रज्ञानवादी की ओर से यदि उसके अविवेचन को यह व्याख्या को जाय कि-"ज्ञान एकमात्रग्राहकस्वरूप है, उसका एकत्व वास्तविक है, जिसका विघात नीलपोलादि विभिन्न बाह्याकारों से नहीं हो सकता। इस प्रकार ग्राहकस्वरूप चित्रज्ञान के नीलपीतादि विभिन्न आकारों से वास्तव एकत्व का अविधात हो अविवेचन है"-तो इससे भी चित्रज्ञान के अविवेचन में चित्रद्रव्य के अविवेचन के वैषम्य स्थापन का प्रयास निष्फल हो जाता है। क्योंकि चित्रव्य के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि चित्रद्रय्य वस्सतः ज्ञान से भिन्न है और एक है। उसके विभिन्न धर्मों से उसके एकत्व का विघात नहीं हो सकता अत: एक चित्रद्रव्य के वास्तव एकत्व का उस के धर्मों से विघात न होना ही उसका अविवेचन है । फलत: अर्थ में कोई भेद नहीं होता है। केवल अविवेचन के व्याख्यात्मक शब्दों में परिवर्तनमात्र हो जाता है। इसीलिये प्रविवेचन की -'विविध्यमान के अनेकत्व का अवास्तव होना हो विविच्यमान चित्र ज्ञान का अविषेचन है' ऐसी व्याख्या करके चित्रज्ञान के अविवेचन में चित्रवत्य के प्रविवेचन का भेज-वैषम्य नहीं बताया जा सकता, क्योंकि चित्रव्य के अविवेचन को भी यही व्याख्या हो सकती है। अतः अविवेचन की इस व्याख्या में भी मात्र शब्दों का ही परिवर्तन है, अर्थ का नहीं।
'बाह्यस्य विवेव्यमानस्यानुपपद्यमानत्वाज्ञानस्यैव चित्ररूपते' ति चेत् ? न, बाह्यस्यास्यन्तानुपलभ्यस्य स्वभावस्य तथात्वासंभवात् , ज्ञानस्यैशेपलम्भयोग्यस्य तथावसंभवात् , 'जानाकारस्य बाह्यत्वेनाभिमतस्य दृश्यत्वाद् विवेचनोपपत्तिरिति चेत् ? तद्विवेचनात् तस्यैवानुपपत्तिः, अन्यस्य वा ?। आये, ज्ञानस्य नीलाद्याकारत्वायोगाच्चित्रकरूपताव्याघातः । द्वितीय, अतिप्रसङ्गः, अन्यश्वेिवनादन्यानुपपत्ती त्रैलोक्यस्याप्यभावप्रसङ्गात् ।
* 'भ्यस्य' इति प्रत्यन्तरे ।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो०१८
[ ज्ञान का अस्तित्व विलुप्त हो जाने की आपत्ति ] यदि चित्रज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-"विवेचन से ज्ञानभिन्न वस्तु को अनुपपत्ति होती है। अत एव ज्ञान ही चित्ररुप हो सकता है, ज्ञानभिन्न अर्थ नहीं। जैसे किसी एक कट का उसके चक्र-घरी-आरे आदि का विवेचन करने पर शकट का कोई अलग अस्तित्व नहीं रहता औ एक-एक खण्ड का भी उसके घटक भागों में विवेचन करने पर उसका भी कोई पृथक् अस्तित्व नहीं होता । इस प्रकार ज्ञानभिन्न वस्तु विवेचन की स्थिति में अस्तित्व युक्त स्वीकार नहीं की जा सकती। इसलिये ज्ञान ही चित्रात्मक हो सकता है, ज्ञानभिन्न नहीं"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ज्ञानभिन्न वस्तु जब विज्ञानवादी को दृष्टि में अत्यन्त अनुपलभ्य है तब उसके स्वभाव के विषय में यह कल्पना सम्भव नहीं है कि विवेचन से अनुपपद्यमान स्वभाव होने के कारण उसे स्वीकार नहीं किया जा सकता । अपितु उस मत में ज्ञान ही उपलम्भयोग्य है। प्रत एवं उसीके सम्बन्ध में यह कल्पना हो सकती है कि विवेचन से उसका स्वभाव उपनाम हो जाने के काग हवीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उसके विषय में यह कहा जा सकता है कि नील-पीतादि विविधाकार जो एक जान उपलब्ध होता है। उसका नियत एक एक आकार ज्ञान के रूप में विवेचन करने पर विविधाकार एक ज्ञान का अस्तित्व नहीं सिद्ध हो सकता।
[चित्रज्ञानवादी को सर्वशून्यता की आपत्ति | यदि चित्रज्ञानवादी की पोर से यह कहा जाय कि-"बाह्यरूप से अभिमत ज्ञानाकार दृश्य है और वास्तव ज्ञानाकार दृष्टा ग्राहक है। इस प्रकार एक एक आकार घाले ज्ञान से नानाकार ज्ञान का विवेचन हो सकता है। किन्तु इस प्रकार एकचिन द्रव्य विवेचन से उपपन्न नहीं हो सकता" तो इस कथन के सम्बन्ध में चित्रज्ञानवादी से यह प्रश्न होगा कि विवेचन से एक चित्रव्य को अनुपपत्ति के आपादन का प्राधार क्या है ? (१) क्या यह नियम आधार है कि 'जिसका विवेचन होता हैविवेचन से उसी की अनुपपत्ति होती है ?' अथवा (२) यह नियम कि-'जिसका विवेचन होता हैविवेचन करने पर उससे अन्य को अनुपपत्ति होती है ? इन में प्रथम पक्ष मान्य नहीं हो सकता, क्योंकि चित्राकार ज्ञान का नीलादि एक एक नियताकाररूप से विवेचन करने पर उसमें नी विविध आकारत्व न होने से उसकी एक चित्रात्मकता का ही व्याधाप्त होगा। इसी प्रकार दूसरा पक्ष भी स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि उस पक्ष को प्रवलम्बन कर यह आशा नहीं की जा सकती कि ज्ञान का विवेचन करने से ज्ञानभिन्न अर्थ की अनुपपत्ति होगी और ज्ञान सुरक्षित रह जायगा क्योंकि उस पक्ष में अतिप्रसङ्ग होगा, अर्थात् एक के विवेचन से अन्य की अनुपपत्ति मानने पर परस्पर के विवेचन से परस्पर को अनुपपत्ति हो जाने से फलतः नौलोक्य अन्तर्गत वस्तुमात्र का अभाव हो जायगा । आशय यह है कि जब एक चित्र ज्ञान का विवेचन होगा तब अन्य में दूसरे चित्रज्ञान भी आ जायेंगे और जब इस चित्रज्ञान का विवेचन होगा तो उससे अन्य में पहला चित्रज्ञान भी आ जायगा। तो इस प्रकार चित्रज्ञान भी सिद्ध न हो सकेगा। अत: यह पक्ष सर्वशून्यता में पर्यवसित होगा।
किञ्च, बाह्यस्य विवेचनं ज्ञानम् , इति कथं तेन तदसच्चव्यवस्था, अतिप्रसंगात ?। 'भ्रान्तं तदिति चेत् १ न, तस्याप्रमाणत्वात् । 'भ्रान्तिरप्यर्थसंबन्धतः अमेति चेत् १ न, असता : सह संबन्धाभावात् । 'असंवन्धेऽपि दोषमहिम्ना तज्ज्ञानसंभवाद् न होप' इति चेत् ? तथापि
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I
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
आन्तं ज्ञानं भ्रान्तत्वेन प्रतिसंधीयमानमर्थासश्वव्यवस्थापकम्, अन्यथा शुक्तों रजतज्ञानं प्रागेत्र रजताऽसचं व्यवस्थापयेत् तत्वप्रतिसंघाई वादक तन तद्मयव्यवस्थे त्यन्योन्याश्रयः ।
[ वाह्यार्थ विवेचनरूप ज्ञान से बाह्यार्थ का असन्ध कैसे ? ]
इस संदर्भ में यह भी दृष्टव्य है कि विवेचन से बाह्यार्थ का असत्य कैसे होगा ? क्योंकि विवेचन ज्ञानस्वरूप होता है और ज्ञान से वस्तु की व्यवस्था होती है । अतः ज्ञान से बाह्य अर्थ के अश्व को सिद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि ज्ञान से बाह्य वस्तु के असत्य की सिद्धि मानने पर अतिप्रसंग होगा । अर्थात् ज्ञान को विषयभूत कोई भी वस्तु सत् न हो सकेगी । एवं अज्ञात की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है । फलतः सर्वाsसत्व की प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि 'बाह्यार्थ का ज्ञान भ्रम है इसलिये बाह्यार्थ की असत्ता सिद्ध होती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि बाह्यार्थ का ज्ञान जब भ्रम है तो वह प्रमाण नहीं है, अतः उससे बाह्यार्थ की प्रसत्ता सिद्ध नहीं हो सकती । क्योंकि सत्ता या असत्ता किसी की भी सिद्धि प्रमाणाधीन ही होती है। यदि उसके उत्तर में यह कहा जय कि- 'बाह्यार्थ का ज्ञान असत् अर्थसम्बन्धी होने से भ्रमरूप होने पर भी स्वरूपतः प्रमा है । अतः उससे यर्थ के असत्य की सिद्धि हो सकती है।' तो यह ठोक नहीं है क्योंकि अर्थ असत् होने पर ज्ञान के साथ उसका सम्बन्ध होने से अर्थसम्बन्ध से उसको भ्रम कहना असम्भव है । यदि यह कहा जाय कि- ज्ञान के साथ अर्थ का सम्बन्ध न होने पर भी दोषवश ज्ञान के साथ अर्थ का सम्बन्ध भासमान हो सकता है, प्रत उक्त दोष नहीं है' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि भ्रमात्मक ज्ञान भ्रमत्वरूप से ज्ञात होते पर ही अर्थ के असत्य का व्यवस्थापक होता है, भ्रमत्वज्ञान के पूर्व नहीं । अभ्यथा शुक्ति में रजतज्ञान भ्रमत्वज्ञान के पहले ही रजत के प्रसत्व का साधक हो जायगा तो भ्रम से रजतार्थी की प्रवृत्ति कभी न हो सकेगी। यदि बाह्यार्थ ज्ञान में भ्रमत्व का ज्ञान होने पर उससे बाह्यार्थ के असत्व की सिद्धि मानी जायगी तो अन्योन्याश्रय होगा। क्योंकि अर्थ का असत्त्व सिद्ध हो जाने पर असवर्थाकारत्व के ज्ञान से भ्रमत्व का ज्ञान हो सकेगा और ज्ञान में भ्रमत्य का ज्ञान हो जाने पर ज्ञान के विषयभूत प्रर्थ में असस्व की सिद्धि हो सकेगी- इस प्रकार अन्योन्याश्रव स्पष्ट है ।
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कि, नीलादेखयविनोऽवयविबुद्धया विवेच्यमानस्याऽसत्त्वम् अत्रयवबुद्धया वा ? | नाद्यः, तद्बुद्ध्या तत्सत्त्वस्यैवात् । न द्वितीयः, अवयवबुद्धेश्वयविनः सत्यं विधातु निषेद्धुं वाऽसमर्थत्वात् ।
[ असत्त्व अवयविबुद्धि से या अवयवबुद्धि से ? ]
यह भी ज्ञातव्य है कि - (१) नीलपीतादि विविधाकार चित्रद्रव्य का, क्या अवयवीरूप में होने वाली बुद्धि से विवेचन करने पर उसका असस्थ होगा ? या ( २ ) अवयवरूप में होने वाली उसकी बुद्धि से उसका विवेचन करने पर उसका असत्त्व होगा ? इसमें प्रथम पक्ष युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि जिस विषय की जो बुद्धि होती है उससे उसकी सत्ता ही सिद्ध होती है न कि सत्ता । दूसरा पक्ष भी मान्य नहीं हो सकता क्योंकि श्रवयवरूप में होने वालो बुद्धि अवयवी को विषय नहीं करती अतः यह श्रवयवी की सत्ता के साधन अथवा निषेध दोनों में असमर्थ है, क्योंकि अन्य वस्तु की
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ बलो०१६
बुद्धि अन्य वस्तु को सत्ता या असत्ता के प्रति तटस्थ होतो है, क्योंकि वह अन्य वस्तु को अब ग्रहण हो नहीं कर सकती तो उसका कोई स्वरूपधर्म जैसे कि सत्त्व अथवा असत्त्व फैसे बता सकती है? क्योंकि धर्मों का ग्रहण हुये विना धर्म का ग्रहण नहीं हो सकता। ___यापि नीलादेरवयविभेदा-उभेदाभ्यामनुपपत्तिरुक्ता, माप्ययुक्ता कथञ्चिद् वैरूप्यस्वीकार दोषाभावात; अन्यथा नवाप्येतदोषानतिवृत्तेः, एकज्ञानस्यैव नानाकारतादात्म्ये प्रत्याकारं भेदप्रसंगात , नानाकाराणां चैकज्ञाननादात्म्ये नानात्वव्याहतेः। सुखादीनां ज्ञानात्मकत्वं तु प्रागेव पराहतमिति नेदानी प्रयास इति ॥१८॥
इस संदर्भ में प्रतीत होने वाले नीलपीतादि की अवयवी से भेद - अभेद दोनों पक्ष में जो अनुपपत्ति बतायी गयी थो वह भी युक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उसमें कश्चित् अवयवों का भेदप्रभेद विविधरूप स्वीकार करने में कोई दोष नहीं है। यदि वस्तु में कश्चिद् वैविध्य नहीं स्वीकार किया जायगा तो विज्ञानवादी के पक्ष में इस दोष की निवृत्ति नहीं हो सकतो, क्योंकि एक चित्रज्ञान का नील-पीतादि अनेक आकारों के साथ अभेद मानने पर प्राकारभेव से उसका मेव हो जायगा। विभिन्न आकारों का एक ज्ञान के साथ तादात्म्य मानने पर उन प्राकारों के अनेकत्व का व्याघात होगा। उक्त विचारों के निष्कर्ष स्वरूप बाह्यरूप से प्रतीत होने वाले अर्थों में ज्ञानाऽभेद की सिद्धि असम्भव ही हो जाती है, किन्तु उल्लेखनीय यह है कि सुखदुःखादि आन्तरवस्तु में भी ज्ञानात्मकता नहीं सिद्ध हो सकती। क्योंकि ज्ञान भिन्न हेतु से अजन्य होने के कारण हो सुखादि को ज्ञानात्मक कहा जा सकता है किन्तु सुखादि में माला-चन्वन-वनितादि ज्ञानभिन्न वस्तुओं से उत्पत्ति बताकर उक्त हेतु की असिद्धि होने से सखादि की ज्ञानात्मकता का निरास पहले ही कर दिया गया है, अतः इस समय उसके लिये अधिक प्रयास आवश्यक नहीं है ।।१८॥
१९वों कारिका में इस सम्बन्ध में विज्ञानवादो का एक अन्य अभिप्राय प्रदर्शित किया गया हैपरः स्वाभिप्रायमाहमूलम्-प्रकाशैकस्वभावं हि विज्ञानं तत्त्वतो मतम् ।
अकर्मकं तथा चैतत्स्वयमेव प्रकाशते ॥१९॥ प्रकाशैकस्वभावं हि-गगनतलवृत्त्यालोककल्पम्' मतम् इष्टम्, तत्त्वतः परमार्थतः अकर्मकम्-विचाराक्षमत्वेन ग्राह्यस्याभाशत् तदपेक्षाप्रकल्पितग्राहकवाभावात् कत-कर्मभारोपरागरहितम् । तदुक्तम्-"परस्परापेक्षया तयोव्यवस्थानात्" इति । तथा च ग्राह्य-ग्राहकाकारासंस्पर्श च एतत्-विज्ञानम् , स्वयमेव स्वसंविदितमेव प्रकाशते । तदुक्तम्
[ अकर्मक होने से विज्ञान का ग्राह्य कोई नहीं है-पूर्व पक्ष ] विज्ञानवादी का आशय यह है कि विज्ञान आकाशतल में विद्यमान प्रालोक के समान केवल प्रकाशस्वभाव है । अतः वह परमार्थतः अकर्मक है क्योंकि विचार करने पर ग्राह्य नहीं सिद्ध होता । ग्राह्य की अपेक्षा से हो ग्राहकत्व होता है अतः ग्राह्य का प्रभाव होने से ग्राहक भी नहीं हो सकता। अतः यह कर्तृ-कर्म भाव के सम्बन्ध से शून्य है-न वह ग्रहण का कर्ता है न वह ग्रहण का कर्म है।
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स्या०० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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यह बात 'ग्राह्य और ग्राहक की सिद्धि एक दूसरे की अपेक्षा से होती है'-कह कर बतायी गई है। इस प्रकार ग्राह्याकार और ग्राहकाकार से शुन्य होने के कारण विज्ञान स्वसंविदित होकर ही प्रकाशित होता है, जैसा कि 'नीलपोतादिः' इन दो कारिकामों से कहा गया है। जिन का अर्थ इस प्रकार है
"नील-पीतादि यज्ज्ञानाद् वहिदबभासते । तद् न सत्यमतो नास्ति विज्ञानं तत्वतो बहिः ॥ १।। तदपेना च संवित्तमंता या कत रूपता । साप्यतत्यमतः संविदद्वयेति विभाव्यते ॥२॥ इति ॥ १६ ॥
[ देखिये- अने० जय० भाग-२ पृ० ८२ ] नौल-पीतादि जो अर्थ ज्ञानभिन्न के समान प्रवभासित होता है वह सत्य नहीं है अत एव विज्ञान ही बाह्यरूप में प्रतीत होता है, अलबत्ता परमार्थतः यह बाह्य नहीं है। इस प्रकार जब नीलपीतादि ग्राह्य का अभाव है तो उसकी अपेक्षा से हो संवित्ति-विज्ञान में सम्भव होने वाली ग्रहणकर्तृता प्रतात्त्विक हो जाती है, इसलिये अद्वितीय संवित ही पारमार्थिक वस्तु रूप में सिद्ध होती है ।
अकर्मकज्ञान को मान्यता के सम्बन्ध में यह प्रश्न कि यदि विज्ञान अकर्मक है तो विज्ञानबोधक क्रियापद का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं देखा जाता ? उत्तर २०वों कारिका में प्रशित किया
नन्धकमको न कश्चित् प्रयोगो दृष्ट इत्यत आहमूलम्-यथास्ते शेत इत्यादौ विना कर्म स एव हि ।
तथोच्यते जगत्यस्मिंस्तथा ज्ञानमपोष्यताम् ॥ २० ॥ यथा 'आस्ते 'शेते' इत्यादी प्रयोगे विना कर्म स एव आसनादिक्रियोपरक्तो देवदत्तः तथा कानुपरागेण उच्यते, न तु 'कटं करोति' इत्यादाविव कोपरागेण, उपवेशनादि क्रियाणामकर्मकत्वात् । तथा अस्मिन् जगति, ज्ञानमायकर्मकमिष्यताम् , क्रियात्वात् । न चैर्य तद्वदेवाऽकर्मकप्रयोगप्रसङ्गः 'उप्रयोगादेवाप्रयोगात्, शब्दानां विकल्पयोनिस्वेन वासनासामथ्यांत कोपसंदानेनैव 'जानाति' इत्यादिप्रयोगात् ॥ २० ॥
[ ज्ञान क्रिया का अकर्मक प्रयोग क्यों नहीं होता ? ] जैसे 'प्रास्ते शेते'-'बैठा है 'सोता है' इत्यादि प्रयोग में कर्म न होने पर भी आसन शयनादि क्रियाओं से युक्त देवदत्त को कर्मसम्बन्ध के बिना प्रतीति होती है, किन्तु 'कटं करोति' इत्यादि प्रयोगों में कर्म सम्बन्ध से कृतियुक्त क्रिया से युक्त देवदत्त प्रादि के समान नहीं होती क्योंकि प्रासन शयन आदि क्रिया अकर्मक होती है । उसो प्रकार जगत् में ज्ञान को भी अकर्मक माना जा सकता है
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१. लोके तस्याकर्मकरबेन प्रयोगाभावादेवाकर्मकत्वेनाप्रयुज्यमानत्वादिति हृदयम् ।
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[ शास्त्रवार्ता स्त० ५ श्लो० २१-२२
क्योंकि वह क्रिया है । आशय यह है कि यह नियम नहीं है कि जो क्रिया हो वह सकर्मक अवश्य हो । अतः प्रासनादि क्रियाओं के समान ज्ञान क्रिया को भी प्रकर्मक माना जा सकता है । इस पर यह शंका कि यदि वह आसनादि क्रिया के समान अकर्मक है तो जैसे कर्म के विना आसनादि क्रियापदों का प्रयोग होता है वैसे उसका भी प्रयोग क्यों नहीं होता'-इसका उत्तर यह है कि यतः ज्ञानक्रिया के बोषक पदों का कर्म बोधक पद के विना अनादि काल से ही प्रयोग नहीं होता आया है इसीलिये उसका अकर्मक क्रिया जैसा प्रयोग नहीं होता है, बल्कि शब्द विकल्पयोनि विकल्पजन्य होते हैं इसलिये वासना के बल से कम बोधक पद के साथ हो 'जानाति' इत्यादि ज्ञानार्थक क्रियापदों का प्रयोग होता है ॥ २० ॥
२१ वी कारिका में बौद्ध के उक्त अभिप्राय का उत्तर दिया गया हैअत्रोत्तरम्मूलं- उच्यते सांप्रतमदः स्वयमेव विचिन्त्यताम् ।
प्रमाणाभावतस्तन्न यधेतदुपपद्यते ॥२१॥ उच्यते सांप्रतम् अदः-एतव, अभिनिवेशत्यागेन स्वयमेव विचिन्त्यताम् आलोच्यताम् , प्रमाणाभावतः तत्र-अविशिष्टप्रकाशमात्रे विज्ञाने, यद्यतत्-एवं तत्वव्यवस्थापनमुपपद्यते ॥२१॥
[ ज्ञान अकर्मक होने की बात में प्रमाणाभाव-उत्तरपक्ष ] ग्रन्थकार का कहना है कि विज्ञानवादी औद्ध को आग्रह त्याग कर प्रशान्तचित्त से यह सोचना चाहिये कि प्रमाण के अमाव में ग्राह्य-ग्राहक आकार से मुक्त केवल प्रकाशात्मक विज्ञान को तात्विकता का प्रवधारण क्या उपपन्न हो सकता है ? ॥२१॥
२२ वीं कारिका में विज्ञानवादी को सम्मत विज्ञानस्वरूप की अनुपपद्यमानता स्पष्ट की गई है ---
कथं नोपपद्यते ? इत्याह___ मुलं--एवं न यत्तदात्मानमपि हन्त ! प्रकाशयेत् ।
अतस्तदित्थं नो युक्तमन्यथा न व्यवस्थितिः ॥२२॥ एवं गगनतलवालोककल्पनायां प्रकाशैकमात्रस्वभावत्वाद् निविषयं तदात्मानमपि-तत्स्वरूपमपि न प्रकाशयेत् । अत इत्थं तत्काशमात्रं न युक्तम् , अबुध्यमानस्य योधरूपत्वायोगात, अन्यथा प्रकाशकमात्रत्वे तस्य न व्यवस्थितिस्कर्मकस्वरूपस्य ॥ २२ ॥
विज्ञान यदि आकाशतल में विद्यमान आलोक के समान ग्राह्यत्व और ग्राहकत्व उभय से मुक्त होगा तो केवल प्रकाशात्मक स्वभाव होने से सर्वथा निविषयक होगा फलत: वह अपने स्व. रूपमात्र का भी प्रकाशक न हो सकेगा। अतः उसे प्रकाश मात्र बताना प्रयुक्त है क्योंषि अब वह अबोद्धा-किसी का बोधक नहीं है तो वह बोधरूप नहीं हो सकता। यदि वह एक मात्र प्रकाशस्वरूप होगा तो उस के अकर्मकस्वरूप-कमहोनस्वरूप की उपपत्ति न हो सकेगी।॥ २२ ॥
२३ वी कारिका में प्रकाश के अफर्मकस्वरूप की अनुपपत्ति का समर्थन किया गया है
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स्मा०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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एतदेव समर्थयतिमूलं व्यवस्थितो' च तत्त्वस्य तथाभावप्रकाशकम् ।
ध्रुवं यतस्ततोऽकर्मकत्वमस्य कथं भवेत् ? ॥ २३ ॥ व्यवस्थितौ तत्त्वस्थ-तत्तथाभावस्य, ध्रुवं निश्चितम्, तद्-विज्ञानम् , तथाभावप्रकाशक व्यवस्थाप्यज्ञानस्याकर्मकरकाशमात्रत्वद्योतकम् यतः यस्मातः ततोऽस्य-ज्ञानस्य, अकर्मकत्वं कथं भवेत ? सविषयकन्यस्यैव सकर्मकत्वात् १ । न हि शाब्दं सकर्मकत्वमत्र विचार्यत इति ॥ २३ ॥
[ सविषपकत्वरूप सकर्मकत्व ज्ञान में अपरिहार्य ] यदि विज्ञान का प्रककत्वस्वरूप व्यवस्थित होगा तो निश्चय यह विज्ञान ही अपने अकर्मक प्रकाशमानरूपता का ग्राहक होगा । इसप्रकार अकर्मक प्रकाशमात्ररूपता और ज्ञान स्वयं उस विज्ञान का विषय हो जाता है ऐसी स्थिति में वह अकर्मक कैसे हो सकता है क्योंकि ज्ञान का सकर्मकत्व सविषयकस्वरूप ही होता है।
यदि यह कहा जाय कि सकर्मक वही किया होती है जो फलविशिष्टच्यापारवाचकशब्द से गम्य होती है-जैसे गतिक्रिया संयोगरूपफल से विशिष्ट स्पन्वरूप व्यापारवाचक गम् पातु से घोधित होती है । किन्तु ज्ञानक्रिया तो फल से अविशिष्ट शुद्ध ज्ञान के बोधक शब्द से घोधित होती है अतः बह सकर्मक नहीं हो सकती-तो इसका उत्तर यह है कि यह सकर्मकस्व शाब सकर्मकत्व है उसका विचार प्रकृत में नहीं है क्योंकि यदि शाब्दसकर्मकत्य को दृष्टि से उसे अकर्मक कहना हो तो उसमें किसी को विमति नहीं हो सकती। विमति केवल उसके सविषयकत्वरूप सफर्मकत्व के सद्भाव और अभाव के सम्बन्ध में है। उपयुक्त युक्ति से उसमें सविषयकस्य की सिद्धि अपरिहार्य हो जाती है । अत एव उसके अकर्मकत्व स्वरूप की व्यवस्था नहीं हो सकती ।। २३ ॥
२८वीं कारिका में पुनः बौद्ध के अभिप्राय को शङ्कारूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है
पराभिप्रायमाशक्य परिहरबाहमूलं-व्यवस्थापकमस्यैवं भ्रान्तं चैतत्तु भावतः ।
तथेत्यभ्रान्तमन्त्रापि ननु मानं न विद्यते ॥२४॥ अस्य व्यवस्थाप्यस्य एवं व्यवस्थापकम् प्रकाशमात्रत्वद्योतकं ज्ञानान्तरमस्ति, एतत्तु भावतः परमार्थतः, तयेति-सविषयकमिति भ्रान्तम् । व्यवस्थाप्यं तु स्वतः स्फुरदूपत्वाद् ग्रामग्राहकभावविनिमक्तत्वात प्रमाणम् , स्वाविषयकत्वेऽपि परानपेक्षस्फूर्तिकत्वेन स्वसंविदित१ सर्वत्र मलादर्श 'ती च त' इनि पार्टऽपि, टीकाकाराभित्रायेण 'ती तत् त' इति युज्यते, 'तद्-विज्ञानम्' इत्यस्य टोकापाटस्यान्यथानुपपद्यमानत्वात् ।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० २५
त्वाऽव्याहतेः । 'ज्ञानाकार' वा तद् नीलाद्याकारं वे 'ति चेत् ? नीलादिस्वलक्षणाकारमेव, न तु सामान्याकारमिति । नन्वेव मन्त्रापि अकर्मकप्रकाशमात्रत्वेऽपि अभ्रान्तं मानं न विद्यते, सविषयकत्वेनास्यापि भ्रान्तत्वादित्यर्थः ||२४||
७८
[ अकर्मक प्रकाशमात्रता के बौद्ध समर्थन का प्रतिक्षेप ]
प्रकाशमात्रात्मक रूप में जिस विज्ञान को व्यवस्थित करना है उसकी प्रकाशमात्रता का ग्राहक वह स्वयं नहीं है किन्तु ज्ञानान्तर है अतः व्यवस्थाप्य विज्ञान को सविषयक समझना भ्रम है। क्योंकि वह परमार्थतः निर्विषयक है और वह स्वतः स्फुरणशील है - प्राह्य ग्राहकभाव से सर्वथा मुक्त है। श्रत एव कल्पना से प्रसंसृष्ट होने के कारण प्रमाण है । एवं स्वविषयक न होने पर भी अपनी स्फुतिस्वरूप भाव में अन्यनिरपेक्ष होने के कारण स्वसंविवित है। प्रकाशमात्रात्मक विज्ञान के सम्बन्ध में यदि यह प्रश्न किया जाय कि वह सामान्यरूप से जानाकार है अथवा नोलाचाकार है ? यदि ज्ञानश्कार होगा तो नीलादि व्यवहार को उपपत्ति न होगी। क्योंकि व्यवहार और व्यवहार निर्वर्तक ज्ञान में समानाकारत्व का नियम है। यदि नोलायाकार होगा तो नीलादि का ग्राहक हो जायगा । अतः उसकी ग्राह्यग्राहक ग्राकारमुक्त प्रकाशस्वरूपता नहीं उपपन्न हो सकती है। विज्ञानबादी की ओर से इस प्रश्न का उत्तर यह है कि वह सामान्यतः ज्ञानाकार नहीं है किन्तु नीलाद्याकार हो है और नीलादि श्राकार विज्ञान का स्वलक्षणस्वरूप हो है उससे मित्र नहीं है अतः उसके द्वारा उसमें ग्राहकता की प्रसक्ति नहीं हो सकती ।' ग्रन्थकार ने इस अभिप्राय का प्रतिकार कारिका के चौथे पाद में करते हुये कहा है कि ज्ञान को अकर्मक प्रकाशमात्रता में भी कोई प्रभ्रान्त प्रमाण नहीं है, क्योंकि जिस ज्ञान से विज्ञान में अकर्मक प्रकाशमात्य का अवधारण होगा यह भी सविषयक होने से भ्रमरूप ही है ।। २४॥
ज्ञान को अकर्मक प्रकाशमात्रता में प्रभ्रान्त प्रमाण न होने से विज्ञानवादी की सम्भावित हानि का प्रदर्शन २५ वीं कारिका में किया गया है
यदि नामैव ततः किम् ? इत्याह
मूलं - भ्रान्ताच्चाऽभ्रान्तिरूपा न युक्तियुक्ता व्यवस्थितिः । 'दृष्टा तैमिरिकादीनामक्षादाविति चेन्न तत् ॥ २५ ॥
भ्रान्ताञ्च–व्यवस्थापकात् अभ्रान्तरूपा व्यवस्थितिरधिकता न युक्तियुक्तान न्यायो - पन्ना | पर आह- ननु नायं नियमो यत् 'भ्रान्तादभ्रान्त व्यवस्थितिर्न' इति, यतस्तै मिरिकादीनां तिमिरादिदोषवताम्, तज्ञ्जनितद्विचन्द्रादिज्ञानाद् भ्रान्तादपि अक्षादौ तिमिराद्यक्षदोपाद अभ्रान्तव्यवस्थितिदृष्येति चेत् ? अत्रोत्तरम् - न तत्-नैतदेवम् ॥२५॥
व्यवस्थापक के भ्रान्त होने पर व्यवस्थिति को प्रभ्रान्तता युक्तिसंगत नहीं हो सकती । यदि इसके विरुद्ध विज्ञानवादी की ओर से कहा जाय कि - 'भ्रान्तव्यवस्थापक से अभ्रान्त व्यवस्था नहीं होती है - यह नियम नहीं है क्योंकि तिमिररोगग्रस्त चक्षुवाले मनुष्यों को उस दोष से जो चन्द्रद्रय का
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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
ज्ञान होता है वह भ्रान्त है फिर भी उससे तिमिराविरूप नेत्र दोष को अभ्रान्त व्यवस्था देखी जाती है अतः भ्रान्त ज्ञान से भी विज्ञान में प्रकाशमात्रता को अभ्रान्त व्यवस्था हो सकती हैं तो यह कथन भी ग्रन्थकार की दृष्टि से समीचीन नहीं है ॥२५॥
२६ व कारिका में ग्रन्थकार के उक्त कथन का उपपादन है
कथम् ? इत्याह-
मूलं—नाक्षादिदोषविज्ञानं तदन्यभ्रान्तिवद्यतः
1
भ्रान्तं तस्य तथाभावे भ्रान्तस्याऽभ्रान्तता भवेत् ॥ २३ ॥
यतः=यस्मात् तदन्यभ्रान्तिवत् - द्विचन्द्रादिभ्रमवत्, अक्षादिदोषविज्ञानं तिमिरादिदोषविज्ञानम् न भ्रान्तं किन्त्वभ्रान्तमेव, कार्यलिङ्गकानुमानादिप्रभवत्वात् । विपक्षे बाचकमाह - तस्य = अचादिदोपविज्ञानस्य, तथाभावे भ्रान्तत्वे, भावतोऽतादीनां दोषाऽनुपप्लुतत्वात्, भ्रान्तस्य द्विचन्द्रादिज्ञानस्य अभ्रान्तता भवेत्, निर्दोषहेतुत्वादिति भावः ॥ २६ ॥
=
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अक्ष आदि में जो वोष का ज्ञान होता है वह चन्द्रद्वयादि के अन्य भ्रमों के समान भ्रमरूप नहीं है - किन्तु अभ्रान्त है क्योंकि वह चन्द्रद्रयज्ञानरूप कार्यलिंगक समीचीन अनुमान से उत्पन्न है । fe नेत्रगत दोषज्ञान को भी भ्रम माना जायगा तो नेत्र वस्तुतः निर्दोष हो जायगा क्योंकि भ्रम का विषय असत् होता है । अतः चन्द्रद्वय का ज्ञान जो भ्रम माना जाता है वह निर्दोष हेतुजन्य होने से अभ्रान्त हो जायगा ॥२६॥
२७ व कारिका में उक्त विज्ञानवादी के मत में एक और दोष का प्रतिपादन किया गया हैदोषान्तरमाह
मूलम् - - न च प्रकाशमात्रं तु लोके क्वचिदकर्मकम् ।
दीपादौ युज्यते न्यायादतश्चैतदपार्थकम् ॥ २७ ॥
न च प्रकाशमानं तु सर्वथैकस्वभावमेव लोके क्वचित् = अनवलम्बनदीपादौ न्यायाद् रूपं युज्यते, प्रकाशकत्वेनोपलब्धेः । अतश्चैतत्-विज्ञानाज्ञ, मत्वकल्पनम् अपार्थकम् = निष्प्रयोजनम् ॥ २७ ॥
I
लोक में कोई भी प्रकाश सर्वथा प्रकाशमात्रैकस्वभाव नहीं देखा गया है । जैसे प्रदीप-एक लोकप्रसिद्ध प्रकाश है किन्तु वह भी अवलम्बन प्रकाश्य-विवध से मुक्त होकर शुद्ध प्रकाश के रूप में नहीं सिद्ध होता है किन्तु किसी वस्तु के प्रकाशकत्व रूप से ही उसकी सिद्धि होती है। तो इसप्रकार जब प्रकाश प्रकाशकत्व के रूप से सिद्ध होता है तो विज्ञानात्मकप्रकाश में प्रकर्मकश्व की कल्पना निष्प्रयोजन है ||२७||
२८ कारिका में आसन शयनादि अकर्मक क्रियाओं के समान अकर्मक ज्ञान को सिद्ध करने के पूर्वकृत प्रयास का निराकरण किया गया है-
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[ शास्त्रवा० स्त० ५ श्लो० २८.२९
'यथास्ते' [ का. २० ] इत्यादावाहमृलम्-दृष्टान्तमानतः सिद्धिस्तदत्यन्तविधर्मिणः ।
न च साध्यस्य यत्तेन शब्दमात्रमसावपि ॥२८॥ दृष्टान्तमात्रात् परपरिभाषितान 'आस्ते' 'शेते' इत्यादेस्तत्र तन्क्रियाकतु : अत्यन्तविधर्मिणः-नानाधर्मानुविद्धान , न च साध्यस्य-चोधमात्रस्य सिद्धिः, यत् तेनासावपिउक्तदृष्टान्तोऽपि शब्दमात्रं-न तु लक्षणयुक्त इति यत्किश्चिदेतत् ।। २८ ॥
विज्ञानवादी को प्रोर से दृष्टान्त शब्द से अभिहित आसनशयन आदि क्रिया के कर्ता देवदत्त के सादृश्य से शुद्ध अकर्मक बोघमात्र की सिद्धि की जो बात कही गयी वह उचित नहीं है क्योंकि उक्त क्रियाओं का कर्ता अनेक धर्मों से अनुविद्ध होने के कारण निर्धमंक बोधरूप साध्य से अत्यन्त विसदृश है । अतः उससे अभिमत बोध को सिद्धि विज्ञानवादी के लिये सम्भव नहीं है । जो विज्ञानयादी को ओर से आसनादि क्रिया के कर्ता को दृष्टान्त कहा गया है वह भी शब्दमात्र हो है, दृष्टान्त के लक्षण से वह युक्त नहीं है । क्योंकि दृष्टान्त ऐसा होता है जिसमें हेतु-साध्य दोनों वावी-प्रतिवादी उभय सम्मत हो । प्रकृति में बोध में निधर्मकत्व साध्यभूत है जो दृष्टान्तरूप में कहे गये उक्त क्रिया के कर्ता में नहीं है । अतः विज्ञानवादी का उक्त कथन अश्वित्कर है ॥ २८ ॥
२९धौं कारिका में विज्ञानवाद में जो सब से प्रधान दोष कहा जाता है उसका प्रदर्शन किया गया है
अत्रैव प्रधानदोषमाह-- मूलम्-किञ्च विज्ञानमात्रत्त्वे न संसाराऽपवर्गयोः ।
विशेषो विद्यते कश्चित्तथाचैतद् वृथोदितम् ॥२९॥ किञ्च, विज्ञानमात्रत्वे-ज्ञानाऽद्वयत्वे जगतोऽभ्युपगम्यमाने, संसाराऽपवर्गयोविशेषः कश्चिद् न विद्यते, ज्ञानमात्रस्योमयदशयोरविशेषात्, अधिकस्यापत्रगें प्राप्यस्याभावात्, भावे बाऽद्वैतव्याघातात् । तथा चैतद् पृथोदितं भवतामागमे- ॥ २६ ॥
जगत को प्रद्वितीय ज्ञानरूप मानने पर संसार और मोक्ष में कोई भेद नहीं हो सकता है। क्योंकि दोनों ही दशा में केवल ज्ञान ही विद्यमान है और उस ज्ञान में दोनों वशा में कोई अन्तर नहीं है । फलतः अपवर्ग [=मुक्ति] में संसार की अपेक्षा कुछ अधिक प्राप्तव्य नहीं रह जाता। यदि ज्ञान से अतिरिक्त किसी प्राप्य का अभ्युपगम किया जायगा तो ज्ञानाद्वयवाद का च्याघात होगा । निष्कर्ष यह है कि एकमात्र ज्ञान की ही सत्ता मानने पर बौद्ध प्रागम में मोक्ष के विषय में जो कुछ कहा गया है वह असंगत हो जायगा ॥२९ ।।
३०वीं कारिका में मोक्ष के विषय में बौडागम में क्या कहा गया है-इस बात का प्रदर्शन किया गया है
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
किम् ? इत्याह
"
हि संसारो रागादिक्लेशवासितम् । तदेव विनिर्मुक्तं भवान्त इति कथ्यते ॥ ३० ॥" रागादिक्लेशवासितं चित्तमेव हि संसारः, तैर्विनिर्मुक्तं च तदेव - चित्तमेव 'भवान्तः' इति कथ्यते - 'मोक्ष' इत्युपदिश्यत इति ॥ ३० ॥
| मन ही संसार है-मन ही मोक्ष हैं ]
बौद्ध श्रागम में ऐसा कहा जाता है कि रागादि क्लेशों से वासित चित्त ही संसार है और उत्क्लेशों से नितान्तनिर्मुक्त चित्त हो भवान्त यानी संसार का उपरम श्रर्थात् मोक्ष है । मोक्ष के विषय में बौद्धगम का उक्त कथन किस प्रकार वृथा = असङ्गत होता है इसका प्रतिपादन ३१ व कारिका में किया गया है
कथमेतद् वृथा ? इत्याह
मूलं - रागादिक्लेशवर्गो यन्त्र विज्ञानात्पृथग्मतः । एकान्तकस्वभावे च तस्मिल्किं केन वासितम् ? ||३१||
८१
यदु = यस्मात् रागादिक्लेशवर्गो विज्ञानात् पृथग भिन्नः न मतः, द्वैतापतेः । एकान्तकस्वभावे च तस्मिन् विज्ञाने, किं केन चासितम् ? वासकाभावात् ॥३१॥
विज्ञानवाद में रागादि क्लेशों का समूह विज्ञान से भिन्न नहीं माना गया है क्योंकि विज्ञान से भिन्न किसी भी वस्तु का अभ्युपगम करने पर द्वैत की यानी ज्ञानभिन्न अर्थ की सत्ता की आपत्ति होगी । यदि सब कुछ एकान्ततः एक विज्ञानस्वभाव ही है तो फिर वासक के अभाव में क्या एवं किस से वासित होगा ? ॥३१ ।।
३२ वीं कारिका में विज्ञानवाद की ओर से चित्त के वासक को बता कर उसका निराकरण किया गया है
पर आह
मूलं – क्लिष्टं विज्ञानमेवासी, क्लिष्टता तत्र यहशात् ।
नील्यादिवदसौ वस्तु तद्वदेव प्रसज्यते ॥३२॥
असी = रागादिक्लेश वर्गः क्लिष्यं विज्ञानमेव, न तु ततो भिन्नः । एवं चाऽक्लिष्टत्वं क्लिष्टभिन्नत्वं, न तु पृथग्भूतक्लेशादिराहित्यमिति न दोषः, अक्लिष्टस्य प्राप्यस्य सत्वाच्च नापवर्गप्रवृत्यनुपपत्तिरित्याशयः । अत्राह तत्र संसारिचित्त यद्वशात् क्लिष्टता नोल्यादिवत् - नीलीव्याद्युपरागात् पटादिविलष्टतावत् असौ - चित्त क्लिष्टतापादकः, तद्वदेव - ज्ञानवदेव वस्तु प्रसज्यते - पृथगू वस्त्वापद्यते, क्लिष्टताया उभयजनितत्वादिति भावः ||३२|| तथा,
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८२
[ शास्त्रबार्ता० स्त० ५ श्लो० ३३
[क्लिष्टता के हेतु ज्ञान से अभिन्न नहीं है ] 'रागादि क्लेशों का वर्ग क्लिष्ट विज्ञानस्वरूप ही है उससे भिन्न नहीं है। अश्लिष्टविज्ञान जो मुमुक्ष को अभीष्ट है उसको अक्लिष्टता पिलष्टभिन्नतारूप है न कि विज्ञान से पृथक् क्लेशादि का अभावरूप है। अतः उक्त दोष नहीं हो सकता, क्योंकि अक्लिष्टविज्ञान एक ऐसी प्राप्य वस्तु है जो संसारवशा में नहीं है-अतः अपवर्ग के लिये प्रवृत्ति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती।' इसके उत्सर में ग्रन्थकार ने यह कहा है कि संसारी चित्त में जिस कारण से क्लिष्टता होती है उस कारण को ज्ञान के समान ही पृथक वस्तु मानना होगा। यह ठीक उसी प्रकार जैसे पटादि में नीलाद्यात्मक क्लिष्टता का जनक=उपरचक नीलीद्रव्य की पटादि से पृथक सत्ता होती है, क्योंकि क्लिष्टता पलेश के आश्रय और प्राश्रय से भिन्न कारण उभय से जन्य होती है ॥३२।। ३३वीं कारिका में इसी विषय को स्पष्ट किया गया है-- मूलम्-मुक्तौ च तस्य भेदेन भावः स्यात्पदशद्विवत् ।
ततो पाह्यार्थतासिद्धिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥ ३३ ॥ मुक्तौ च तस्य-क्लिष्टतापादकस्य, भेदेन-पृथग्भावन भावः स्यात्-स्वरूमाविर्भावलक्षणा शुद्धिः स्यात् । किन ? इत्याह-पशुभियम-यथा पानील्यादिद्रव्यसंसर्गापगमे प्राक्तनस्वरूपाविर्भावस्तद्वदित्यर्थः। यत एवम् ततो वाह्मार्थतासिद्धिः अनिष्टा भवदनभिमता संप्रसज्यते । तेनाऽक्लिष्टत्वं क्लेशगहित्यं क्लिष्टभिन्नत्वं वोच्यताम् , नोभयथापि विशेषः, प्रतियोगिनस्तदवच्छेदकस्य वा पृथग्भावावश्यकन्वेऽद्वतासाम्राज्यात् । 'याह्यार्थता' इत्यत्र तल: 'तत्स्वभावत्वम्' इत्यादाविव प्रकृत्यर्थमात्रे निष्टलक्षणायामपि तस्याः प्रयोगविशेषनियन्त्रितस्वादत्रासंभवरप्रसरत्वेऽपि 'सत्पदप्ररूपणता' इत्यादाविवायत्वाद् न दोपः । वस्तुतो यथाश्रुताथेऽपि नानुफ्पचिः, बाह्यत्यसमानाधिकरणार्थतापादनेऽर्थताया बाह्यत्वसामानाधिकरण्यमात्रस्य फलत आपादनादिति ध्येयम् ॥ ३३ ॥
[क्लिष्टता हेतु के अपगम से शुद्धि का आविर्भाव ] मोक्ष में यह मानना होगा कि जैसे उक्त रीति से संसारीचित्त में चित्त से अतिरिक्त क्लिष्टता के जनक वस्तु का मानना आवश्यक प्रतीत होता है उसी प्रकार मोक्ष में क्लिष्टता के जनक का चित्त से पृथक भाव मानना भी आवश्यक होगा जिस से शुद्धस्वरूप के आविर्भाव रूप चित्तशुद्धि सम्भव हो । यह उसी प्रकार मानना होगा जैसे पट से नीलो आदि लक्ष्य के सम्बन्ध की निवृत्ति होने पर पट के पूर्ववत्ति शुद्धस्वरूप का आविर्भाव होता है और इस प्रकार जब संसारदशा में चित्त में क्लिष्टता के अतिरिक्त कारण का सम्बन्ध और मोक्ष दशा में चित्त से उसकी निवृत्ति मानना आवश्यक है तो बाह्यार्थ की सिद्धि जो विज्ञानवावी को अनिष्ट है उसकी प्रसक्ति अनिवार्य होगी । विज्ञानवादी को ओर से अविलण्टता का पलेशराहित्य अर्थ त्याग कर क्लिष्टभिन्नता अर्थ स्वीकार करना भी निरर्थक ही है क्योंकि अविलष्टता चाहे क्लेशराहित्यरूप हो चाहे क्लिष्टभिन्नतारूप हो-दोनों ही स्थितियों में कोई अन्तर नहीं होता। क्योंकि यदि प्रक्लिष्टता क्लेशराहित्यरूप
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स्मा० ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
होगी तो क्लेश उसका प्रतियोगी होगा। यदि क्लिष्टभिन्नता रूप होगी तो क्लेश उसका प्रतियोगितावच्छेदक होगा। दोनों ही दशा में विज्ञान से उसका पृथग्भाव आवश्यक होने से ज्ञानाद्वैत के साम्राज्य का उच्छेद हो जायगा ।
[ 'बायायक्षा शव पं. औचित्य की उत्पत्ति ] व्याख्याफार ने कारिका में आये 'बाह्यार्थता' शब्द के सम्बन्ध में एक विचार करते हुये यह कहा है कि उक्त शब्द में 'तल' प्रत्यय की, प्रकृतिभुत 'बाह्यार्थ' शब्द के अर्थमात्र में उसी प्रकार निरूतुलक्षणा है जैसे तत्स्वभावत्व शब्द में 'त्व प्रत्यय की 'तत्स्वभाव' रूप प्रकृत्यर्थ में निरूवलक्षणा होती है । यद्यपि निरूढलक्षणा मानने पर यह बाधा हो सकती है कि-निरूवलक्षणा तो विशेष प्रयोगों में नियन्त्रित होती है। 'बाहार्यता' शब्द ऐसा कोई प्रयोगविशेष नहीं है, अतः उस में निरू. ढलक्षणा का प्रसार सम्मव नहीं है' किन्तु इस का उत्तर यह है कि प्रयोगविशेष में निरुदलक्षणा के नियन्त्रण का नियम लौकिक प्रयोगों तक ही सीमित है-बाशार्थता' शब्द 'सस्पदप्ररूपरपता' के समान आर्ष है प्रत एव जैसे यहाँ 'तल' प्रत्यय प्रकृत्यर्थ मात्र में निरूढलाक्षणिक है उसी प्रकार बाह्यार्थता शब्द भी आर्ष होने से उसमें भी 'तल्' प्रत्यय को निरूद्धलाक्षणिक मानने में दोष नहीं हो सकता। सच बात तो यह है कि निरूढलक्षणा न मानकर यदि 'बाह्यार्थता' शरद का यथाश्रुत अर्थ ही लिया जाय तो भी कोई अनुपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उसका यथाश्रुत अर्थ है 'बाहात्वसमानाधिरणअर्थता'। यदि वाद्यवसमानाधिकरण अर्थता का प्रापादान किया जाता है तो उसका भी फलतः पर्यवसान अर्थता में बाह्यत्वसामानाधिकरण्य के अ पादन में ही होता है क्योंकि जहाँ विशिष्ट आपाच होता है वहाँ विशेष्य उभय सम्मत होने पर विशेषण ही पापाद्य होता है ।। ३३ ।।
३४वीं कारिका में चित्त की क्लिष्टता को पटादि क्लिष्टता से विलक्षण बताते हुए उससे
कारणभस बाझार्थ की सिद्धि की असम्भाव्यता की शंका उठा कर उसका निराकरण किया गया है
दनु पटादेः क्लिष्टतावद् न चिनक्लिष्टता येन तञ्जनकबाह्यार्थसिद्धिः स्यात्, किन्त्वन्यथा, इत्याशङ्कतेमूलम्--प्रकृत्यैव तथाभूतं तदेव क्लिष्टनेति चेत् ?
तदन्यूनातिरिक्तत्वे केन मुक्तिर्विचिन्त्यताम् ॥ ३४ ॥ प्रकृत्यैव-स्वभावेनैव, नयाभूतं-क्लिष्ट चित्तं, तदेव क्लिष्टता नातिरिक्तेति न दोषः । अत्रोत्तरम् तदन्यूनातिरिक्तत्वबोधाद् न्यूनस्याधिकस्य वाऽभावे चित्तमात्राश्चित्तभावे सति केन मुक्तिः १ क्लिष्टस्य चित्तस्य सभावतस्तथाभूतस्य प्रवाहविच्छेदायोगादिति भावः ॥३४॥
[चित्त की क्लिष्टता सहन होने पर मुक्ति का अयोग] विज्ञानवादी का यह कहना है कि-विज्ञान की क्लिष्टता प्राकृतिक=सहज है। अर्थात् चित्त की क्लिष्टता क्लिष्टचित से भिन्न नहीं है अत एव चित्त के समान उसको क्लिष्टता भी सहज हो है । अतः उससे उसके कारण का अनुमान नहीं किया जा सकता । अत एव उसके कारण रूप
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[ शास्त्रवात०] स्त० ५ श्लो० ३५-३६
में बाह्यार्थ सिद्धि की प्रापत्ति रूप दोष नहीं हो सकता ।' -ग्रन्थकार ने इसका उत्तर देते हुये कहा है कि यदि क्लिष्टचित्त को चित्त से अन्यूनमनतिरिक्त माना जायगा तो क्लिष्टचित भी चित्त के समान सतत अविच्छिन्न प्रवाहशाली होगा । अत एव क्लिष्टचित के प्रवाह का विच्छेद सम्भव न होने से मुक्ति का विचार किस प्रकार हो सकता है ? ||३४||
૪
३५ व कारिका में मुक्ति के उपर्युक्त प्राक्षेप के उपर इस प्रकार की शंका प्रदर्शित की गई। है कि कोई द्रव्य जैसे स्वभावतः क्लिष्ट मलीन होता है यथा नीलोद्रव्य और कोई स्वभावतः निर्मल होता है जैसे प्रदोष, उसी प्रकार कोई चित्त स्वभावत: क्लिष्ट होता है और कोई चित्त स्वभावतः अक्लिष्ट होता है, अक्लिष्ट चित्त ही मोक्ष है
ननु स्वभावादपि किञ्चिदेव नील्यादिवत् क्लिष्टं किञ्चिदेव च प्रदीपादिवदक्लिष्टं चि भविष्यतीत्याशङ्कते -
मूलं असत्यपि च या बाह्ये ग्राथे ग्राहकलक्षणे |
द्विचन्द्रभ्रान्तिवद् भ्रान्तिरियं नः क्तेति चेत् ॥ ३५ ॥
असत्यपि वा ग्राह्ये ग्राहकलक्षणे च परस्परापेक्ष (प्रकल्पिता ग्राह्य ग्राहक- भावावगाहिनी 'नीलमहं वेद्मि' इत्याद्याकारा या द्विचन्द्रभ्रान्तिवद् आन्तिः इयं = अनुभवसिद्धा नः अस्माकं क्लिष्टता । अत्रोत्तरम् - इति चेत् यद्येवमुपगम्यते । ३५॥
ग्राह्य और ग्राहक इन दोनों की परस्पर अपेक्षा से ही सम्भव होता है। किन्तु विज्ञानवादी के मत में ज्ञानभिन्नग्राह्य और उसका ग्राहक दोनों के असत् होने पर भी ग्राह्य ग्राहकभाव के रूप में विज्ञान की चन्द्रको भ्रान्ति के समान 'नीलमहं वेति' इस प्रकार भ्रान्तिरूप अनुभूति होती है । विज्ञान का ग्राह्यग्राहकभाव रूप में यह अनुभव ही उसकी क्लिष्टता है और यह क्लिष्ट सम्पूर्ण चित्रात्मक विज्ञानों में न होकर कतिपय चित्रात्मक विज्ञानों में ही होती है। अतः उक्तरूप में अनुभूयमान विज्ञानरूप क्लिष्टचित्त हो बद्धचित्त है और उक्त रूप से अननुभूयमान विज्ञान अक्लिष्टचित्तरूप है। वही मोक्ष है
विज्ञानवादी की इस शङ्का के उत्तर का संकेत कारिका के ' इति चेत्' शब्द से किया गया है३६ वीं कारिका में पूर्व कारिका में किये गये संकेत अनुसार उत्तर का प्रतिपादन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है
मूलं - अस्त्वेतत्किन्तु
तद्धेतुभिन्नस्वन्तरोद्भवा
1
इयं स्यात्तिमिराभावे न हो दुयदर्शनम् ॥ ३६ ॥
1
अस्त्वेतदायातातः किन्त्वियं क्लिष्टता तद्धेतुभिन्नहेत्वन्तरोद्भवा अविलष्टचित्तहेत्व तिरि क्तहेत्वपेक्षा स्यात् । हि यतः, तिमिराभाव इन्दुद्वयदर्शनम् न दृष्टम्, शङ्खीतिमादिदर्शनहेतुकामाद्युपलक्षणमेतत् । इत्थं च यथा तिमिरादि एकचन्द्रादिबोध हेतुभ्योऽधिकम्, तथा सत्यबोथहेतोधमात्रादधिकेन क्लिष्टबोधहेतुना भवितव्यमित्यैदं पर्यम् ॥ ३६ ॥
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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[चित्त क्लिष्टता अकारण नहीं हो सकती ] विज्ञानवादी का उक्त कथन आपाततः ठोक मान लेने पर भी यह बात तो माननी ही पड़ेगी चित्त को क्लिष्टता यानी ग्राह्य-कभाव के अभाव में भी तद्रप से विज्ञान की भ्रमात्मक अनुभूति को अक्लिष्टचित्त =चित्तसामान्यशब्दोल्लेस्सी चित्तानुभव के हेतु से अतिरिक्त हेतु से अवश्य उत्पन्न होने वाली है क्योंकि तिमिर के अभाव में इन्दुवय का दर्शन एवं कामलादि के अभाव में शंख के पोलेपन आदि का दर्शन नहीं देखा जाता । अतः यह नियम सिद्ध होता है कि किसी अर्थ के सामान्यशब्दोल्लेखो अनुभव से अतिरिक्त जो उस अर्थ का अनुभव होता है वह सामान्यशब्दोल्लेखी अनुभव के कारण से अतिरिक्त कारण से उत्पन्न होता है। अतः जैसे 'एकः चन्द्रः' इस सामान्य शब्द से उल्लिख्यमान एकचन्द्र दर्शन से भिन्न 'दौ चन्द्रों' इन शब्दों से उल्लित्यमान चन्द्रद्वयवर्शन, सामान्यचन्द्रशब्द से उल्लिख्यमान चन्द्रदर्शन के कारणभूत नेत्रादि से भिन्न तिमिरदोषरूप कारण से अन्य होता है, उसी प्रकार क्लिटबोध का मो, अक्लिटबोध चित्तसामान्य के कारणभूत चित्तमात्र से अतिरिक्त कारण मानना आवश्यक है । अतः चित्त को क्लिष्टता को स्वाभाविक-अकारणक बताना अयुक्त है ।। ३६ ॥
उपर्युक्त के प्रतिकार में विज्ञानवादी को ओर से यदि यह कहा जाय कि-'जैसे चन्द्रद्धय के ज्ञान में उपप्लववासना यानी-अपने उत्पाद्य बोध के समीपत्तिकाल में हो विलीन होने वाली वासना कारण होती है उसी प्रकार विज्ञान में सकर्मकत्वको भ्रान्ति में अनादि वासना कारण होती हैं-तो वह कथन उस वासना के सत्त्व पक्ष में द्वैतापत्ति से प्रयुक्त होने पर भी उसके असत्त्व पक्ष में भी इस कथन को प्रयुक्तता है, यह ३७ वीं कारिका में बतायी जा रही है
ननु द्विवन्द्रादिज्ञान उपलबवासनायन सकर्मकत्वभ्रान्तावप्यनादिवासना हेतुभूतोक्नैवेति चेत् ? सा किं सती, असती ना ?। आय द्वैतापत्तिः । अन्त्ये त्याह-- मूलम् --न चासदेव तहेतुर्योधमात्रं न थापि तत् ।
सदेच श्लिष्टतापत्तरिति मुक्तिर्न युज्यते ।। ३७ ॥ न चासदेव-तुच्छमेव सद्धेतुः, शशविषाणादेराय तवासनात् । अथ सदिवासदपि किञ्चिदेव कस्यचिजनकम् , एवं पानाधविद्याख्यवासनैव बिलप्टचित्तजननी, नियतते च साऽद्वयतत्त्वज्ञानात् , असतो ज्ञाननिवत्यत्व नियमात , असत्यरजताकारे शुक्तितत्त्वज्ञाननिवरयंत्वदर्शनात् । अत एव प्रकाशमात्रमपि संसारदशायामविद्याशक्तिप्राबल्यादन्यथा प्रकाशते । तदाह धर्मोत्तर:-"तस्मादविद्याशक्तियुका ज्ञानमसत्यरूपमादर्शयति, इत्यविद्याक्शात् प्रकाशत इत्युच्यते" इत्यनक्द्यमिति चेत् ? न, अविद्याया इव तन्निवृत्तेरप्यसत्त्वे तन्निवृत्या मुक्तस्य पुनः संसारितापत्तेः, सत्वे च द्वैतापत्तेः, ज्ञानरूपत्वे च ज्ञानमात्रस्य सर्वदा सत्वेन सदा मुक्त्यापत्तेः।
'अस्तु तर्हि प्राच्यः क्लिष्टचित्तक्षण एवोनविलष्टचित्तहेतु रिन्यवाह-न वायि बोधमात्रं
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[ शास्त्रवार्त्ता० त० ५ श्लो० ३७
तदिति तद्धेतुः सदैव क्लिष्टतापत्तेः, मुक्तिग्राच्य क्षणस्यापि क्लिष्टत्वेनोत्तर क्लिष्ट क्षण जननस्वभावत्वात् इति हेतोः, मुक्तिर्न युज्यते भवताम् । अथ संसारपान्त्यक्षणेनोत्तर क्लिष्टवित क्षणजननाऽसमर्थस्यैवान्त्य क्षणस्य जननाद् न दोष इति चेत् ? । कुत एतत् १ | स्वभावादिति चेत् ? न, मुक्तेः स्वभावत उपपत्ती तदर्थं प्रवृत्यनुपपत्तेः । भ्रमात् प्रवृतौ च तदर्थशास्त्रप्रणयनानुपपत्तेः । तस्मात् काल्पनिकीयं मुक्तिः, न तु परमानन्दादिमयीति न किश्चिदेतत् ॥३७॥
८६
यदि विज्ञान में सकर्मकत्व भ्रान्तिरूप विलष्टता के कारणभूत वासना को असत् माना जायगा अर्थात् यदि असत् भी वासना विलष्टता का कारण है तो असत् वासना के समान शशविषाणादि में सो कारणत्व की आपत्ति होगी ।
[ प्रत्येक असत् कार्यजनक नहीं होता बौद्ध ]
यदि इसके उत्तर में विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि "जैसे सत्कारणपक्ष में भी सभी सत् कार्य का जनक नहीं होता किन्तु कोई सत् किसी कार्य का ही जनक होता है, जैसे न्यायमत में प्रणुपरिमाणाः, अद्वैतवेदान्त में तुरीय ब्रह्म, सांख्य मत में पुरुष सत् होते हुये भी कार्य का जनक नहीं होता तथा जो सत् जनक भी होता है वह भी सब कार्यों का जनक नहीं होता। उसी प्रकार असत् कारणपक्ष में भी यह बात कही जा सकती है कि सब प्रसद्वस्तु कार्य की जनक नहीं होती है- . जैसे शशविषाणादि, एवं जो प्रसत् जनक होता है वह भी सब कार्यों का जनक नहीं होता किन्तु कार्यविशेष का ही जनक होता है । इसलिये यह कथन सर्वया न्यायतः उपपन्न है कि अविद्या शब्द से trafate होने वाली अनादि वासना हो लिष्टचित्त को उत्पन्न करने वाला अतिरिक्त कारण है और उसकी निवृत्ति ज्ञानाऽद्वय रूप तत्त्वज्ञान से होती है क्योंकि असत् को ज्ञान से निवृत्ति नियमप्राप्त है । यशः शुक्ति के तत्वज्ञान से असत् रजत की निवृत्ति देखी जाती है। अतः यह पूर्णतया युक्तिसंगत है कि प्रकाशमात्रात्मकज्ञान भी संसारावस्था में अविद्याशक्ति को प्रबलता से अन्य प्रकार अर्थात् सकर्मकरूप में प्रकाशित होता है। जैसा कि धर्मोतर ने कहा है कि- "अविद्याशक्ति के सहयोग से ज्ञान असत्य अर्थ का ग्राहक होता है और अविद्यावश हो ग्राह्य ग्राहकभाव से गृहीत होता है । अत: विज्ञानवाद नितान्त निर्दोष है"- यह ठीक नहीं है क्योंकि अविद्या की निवृत्ति को असत् यानी असत्य मानने पर अविद्या के समान हो उसकी भी निवृत्ति होने से मुक्त पुरुष में पुनः संसारित्व की प्रापत्ति होगी और सत् मानने पर द्वैतापत्ति होने से ज्ञानाद्वैतवाद का भंग होगा । यदि अविद्या निवृत्ति को ज्ञानरूप ही माना जायगा तो ज्ञान के संसारदशा में मुक्ति के भी सद्भाव की आपत्ति होगी।
[ पूर्ववर्ती क्लिष्टचित्तक्षण अतिरिक्त हेतु नहीं बन सकता ]
यदि उक्त आपत्ति के परिहार के लिये विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि 'पूर्ववृत्ति विष्टचित्तक्षण हो उत्तरवर्ती क्लिष्ट चित्त का चित्तसामान्य के हेतु से अतिरिक्त हेतु है।' तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि यदि पूर्वयत चित्तक्षण बोधात्मक होने से ही उत्तरकाल में क्लिष्टचित्त का हेतु होगा तो सदा अर्थात् मुक्तिकाल में भी चित में क्लिष्टता की आपत्ति होगी अर्थात् मुक्ति काल में चित्त क्लिष्ट न हो सकेगा क्योंकि मुक्त का पूर्वबत्तों वित्तक्षण भी क्लिष्ट होने से उत्तरकाल
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स्या 2 टीका एवं हिन्दी विवेचन]
८७
में स्वभावतः क्लिष्ट चित्तक्षण का ही उपपादक होगा। प्रतः विज्ञानवावी के मत में मुक्ति उपपन्न न हो सकेगी। यदि इसके उत्तर में विज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-"संसार काल का उपा-त्यक्षण मुक्ति का पूर्व तृतीपक्षण ऐसे प्रत्यक्षण का जनक होता है जो उत्तर काल में क्लिष्टचित्तक्षण के मन में असमर्थ होता है उस रीति से मुक्ति की अनुपपत्ति नहीं हो सकती"तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि इस मान्यता के सम्बन्ध में यह प्रश्न हो सकता है कि मुक्ति का पूर्वतृतीयक्षण क्लिष्टचित्त के उत्पादन में असमर्थ अन्त्यक्षण को फंसे उत्पन्न करता है ? यदि इस उत्पत्तिको स्वाभाविक मानी जायगी तो मक्ति की भी स्वभाव से ही उपपत्ति सम्भव हाने से मुक्त के लिये प्रवृत्त्यादि का उपपादन असम्भव हो जायगा। यदि प्रवृति का उपपावन भ्रम द्वारा किया भी जाय तो मुक्ति के उपाय का प्रतिपादन करने के लिये शास्त्र का प्रणयन असङ्गत होगा । अतः विज्ञानवादी की मुक्ति केवल कल्पना पर आधारित है, वह प्रानन्दमयी नहीं हो सकती । अतः मुक्ति के सम्बन्ध में यह सब कथन अकिश्चितकर है ।। ३७ ।।।
३८ वीं कारिका में इसी बात की पुष्टि की गई है-- इदमेवाहमूलम्-मुक्त्यभावे च सर्वच ननु चिंता निरधिका ।
भावेऽपि सर्वदा तस्याः सम्यगेतदिचिन्त्यताम् ॥३८॥ मुक्त्यभावे च तपस्विनां सर्वैव चिंता-तत्वविचारणा निरथिंका, सर्वस्या एव तस्यास्तदेकपरमप्रयोजनत्वात । बोधरूपायास्तस्या मुक्तेः सर्वदा भावेऽपि निरर्थिका चिन्ता, साध्यस्य सिद्धत्वात् । एतत् सम्या विचिन्त्यताम् ॥ ३८ ॥
[मुक्ति के अभाव में तत्वचिन्ता व्यर्थ ] उक्त रोति से मुक्ति को सिद्धि न होने पर तपस्वीओं की सारी चिन्ता-तत्त्वचिन्तन का सम्पूर्ण प्रयास निरर्थक हो जायगा । क्योंकि सारी तत्वचिन्ता का एकमात्र मुक्ति ही परम प्रयोजन होती है। अतः उस के अभाव में निष्प्रयोजन होने से तत्वचिन्ता की निरर्थकता अनिवार्य है । यदि मुक्ति को बोधरूप स्वीकार कर लिया जाय तो बोध के सार्वदिक होने से मुक्ति भी सार्वदिक होगी । अतः इस पक्ष में भी तत्त्वचिन्ता निरर्थक होगी। क्योंकि तत्त्वचिन्ता से जो साध इन सब बातों का विज्ञानवादी को आग्रहमुक्त होकर विचार करना आवश्यक है ।। ३८ ॥
३६ वी कारिका में विज्ञानवाद के विषय में किये गये सम्पूर्ण विचारों का उपसंहार किया गया है
उपसंहरनाह -- मूलम्-विज्ञानमात्रवादोऽयं नेत्य यक्त्योपपद्यते ।
___ प्राज्ञस्यापि निवेशो न तस्मादत्रापि युज्यते ॥ ३९ ॥ विज्ञानमात्रवादो यद्-यस्मात् इत्थम्-उक्तरीत्या युक्त्या-न्यायेन विचार्यमाणः नोप
1सिद्ध
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। शास्त्रवात स्म ५ श्लोक ३९
पद्यते, तस्मादत्रापि-विज्ञानवादेऽपि, प्राज्ञस्यापि कल्पनानिपुणस्यापि पुंसः, निवेश: कदाग्रहो न युज्यते ॥ ३६॥
हंसः किं समपद्म श्रयति परिंग़लत्पर्णमर्णः पिबेद् वा ? चांडालानां पिपासाकुलितमतिरपि श्रोत्रियः किं कदाचिद् । दुष्टाना हन्त ! गोष्ठीमनुसरति रसात् सज्जनः किं गतार्थी।
त्याज्यस्तज्जैनतकरयमिह निहतो विज्ञ ! विज्ञप्तिबादः ॥ १ ॥ अभिप्रायः सुरेरिह हि गहनो दर्शनततिनिरस्या दुर्धपी निजमतसमाधानविधिना । तथाप्यन्तः श्रीमन्नयविजयविनाहिभजने न भग्ना चेद् भक्तिन नियतमसाध्यं किमपि मे ॥ २ ॥
यस्यासन गुरवोऽत्र जीतविजयाः प्राज्ञाः प्रकृष्टाशया
भ्राजन्ते सनया नयादिविजयप्राज्ञाश्च विद्याप्रदाः। प्रेम्णा यस्य च सम पद्मविजयो जातः सुधीः सोदर
स्तेन न्यायविशारदेन रचितरतर्पोऽयमभ्यस्यताम् ॥ ३ ।। ॥ इति पण्डित श्रीपद्मविजयसोदरन्यायविशारदपण्डितयशोविजयविरचितायां
स्याद्वादकल्पलताभिधानायां शास्त्रवासिमुच्चयटीकायां पञ्चमः स्तबकः ॥
'जगत केवल विज्ञानमात्रात्मक है-विज्ञान से अतिरिक्त किसी वस्तु की सत्ता नहीं है' यह वाद उक्तरीति से विचार करने पर उपपन्न नहीं होता । अतः कल्पना में अत्यन्त निपुण चतुर पुरुष को विज्ञानवाद में कदाग्रह करना उचित नहीं है ॥३९।।
व्याख्याकार ने प्रस्तुप्त स्तबक की व्याख्या समाप्त करते हुए एक उपसंहार श्लोक प्रस्तुत किया है जिस का अर्थ इस प्रकार है -
हंस उस पद्मसदन-सरोवर का प्राश्रय नहीं लेता जिसमें कमल के पत्ते गिरने लगते हैं। वेदज्ञपुरुष प्यास से अत्यन्त पीडित होने पर भी चाण्डाल का पानी कभी नहीं पीता। जब पक्षी लेकर एक वेदज्ञ विद्वान तक के व्यवहार की यह स्थिति है तो कोई भी सज्जन पुरुष दुर्जनों को निरर्थक गोष्ठी का प्रीतिपूर्वक अनुसरण कैसे कर सकता है ? अतः विज्ञजनों को इस विज्ञप्तिवाद का पूर्ण त्याग कर देना चाहिये, क्योंकि इस ग्रन्थ में अन सिद्धान्त के अकाटय तकों से इस विज्ञप्तिवाद का पूर्णरूप से निराकरण किया गया है।
[ 'अभिप्रायः' ० इत्यादि दो श्लोक का अर्थ प्रथम स्तरक में बनाया गया है ]
॥ स्तबक-५ समाप्त ।।
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॥ अहम् ॥ षष्ठः स्तबकः
[व्याख्याकार मंगलाचरण ] दृप्यद्यन्नखदर्पणप्रतिफलद्वक्त्रेण वृत्रद्रुहा,
शोभा कापि दशावतारसुभगा लब्धाऽनुजस्पर्धिनी । मुक्तिद्वारकपाटपाटनपटू दौर्गत्यदुःखच्छिदौ,
___ तावंही शरणं भजे भगवतो वीरस्य विश्वेशितुः ॥१॥ यस्नाननीरेण नारायणस्य जरा भटानां न पराभराय । जाग्रत्प्रभावं भगवन्तमेतं शखेश्वराधीश्वरमाश्रयामः ॥२॥
[ धीर भगवान के चरण शरण की भावना ] जिन चरणों के देदीप्यमान नस्वदपंण में अपना मुख प्रतिबिम्बित होने से वृत्रद्रोही-इन्द्र को अपने अनुज विष्णु की स्पर्धा करने वाली, दश अवतारों के सौभाग्य से सम्पन्न अनिर्वचनीय शोभा प्राप्त हुई थी, वैसे विश्व के शासक स्वामी भगवान महावीर के दो चरण मुक्ति नगरी के प्रवेशमार्ग पर लगे हुए कियाउ को सोडने में कुशल है और दुर्गति=दुष्टयोनि-दुष्टकुलोत्पत्ति-प्रयुक्त दुःखों को नष्ट करने वाले होते हैं-उन चरणों की मैं शरण ग्रहण करता हूं ॥१॥
जिसके अभिषेक जल से नारायण =विष्णु को सेना के सुभटों को जरासंध-प्रयुक्त जरा विद्या पराभूत नहीं कर पायी अर्थात् जराविद्या से निष्पन्न पराभव यानी मूच्र्छा नहीं टिफ सकी ऐसे उल्बण प्रभाव से सम्पन्न शलेश्वर तीर्थाधिपति भगवान पार्श्वनाथ का हम आश्रय करते हैं ।। २।।
[ भगवान के चरण की उपासना क्यों ? ] इस प्रकार ध्याख्याकार ने प्रथम पत्र में भगवान महावीर को विश्वेशिता कहकर विश्व का मार्गदर्शक बताया और उनके चरणों को शरण रूप से आथयणीय बताया। चरणों को महिमा यह कह कर व्यक्त को है कि भगवान ने सर्वज्ञता प्राप्त कर जब प्रथम धर्मदेशना की उस समय सभी देवताओं के साथ देवराज इन्द्र भी उपस्थित थे। उन्होंने भगवान के सन्मुख न चरणों पर विनम्र भाव से जब शिर झुकाया तब चरणों के चमकते हुये निर्मल दशों हो :" दर्पण में उनका मुख प्रतिबिम्बत हो उठा। फलतः एक ही इन्द्र वशावतारी हो गया और उन ए उवतारों में देवराज की शोभा भगवान के चरणों के नखदर्पण को चमक से अनेक गुण हो उठी थी । अत एव वह शोभा
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[ शास्त्रवार्त्ता ० स्त० ६ श्लो० १
उनके अनुज विष्णु को स्पर्धा करने वाली थी, क्योंकि विष्णु के भी दश अवतार हैं किन्तु उन में चार मनुष्येतर योनि में थे जैसे मत्स्य, कच्छप, वराह श्रौर सिंह । एवं छः नर योनि में हुये, जैसे- वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध श्रीर कल्की । मानवेतर योनि के कारण इन सभी अवतारों में विष्णु की शोभा सुभग नहीं है । किन्तु इन्द्र के उक्त प्रतिबिम्बमूलक वश श्रवतारों की शोभा सुभग है। इस कथन से भगवान के चरणों की महिमा परिस्फुट होती है। भगवान के चरणों की महिमा बताने के लिये व्याख्याकार ने दो और बातें कही है, एक यह कि भगवान के चरणों का ध्यान करने से मुक्ति के द्वार पर लगा हुआ कर्मबन्धका कारण विटा है और दूसरी बात यह है कि दुष्टयोनि और दुष्टकुलस्वरूप दुर्गति में उत्पन्न होने से जीव को जो अनेक प्रकार के दुःख होते हैं उन दुर्गति दुःख का भी विध्वंस - विष्कम्भण हो जाता है । क्योंकि जिन कर्मों के उदय से जीव को दुर्गति में जाना पड़ता है- भगवान के चरणों के ध्यान से उन कर्मों का ही उन्मूलन हो जाता है ।
[ शंखेश्वर पार्श्वनाथ की अजीव महिमा ]
दूसरे पद्य में व्याख्याकार ने इस घटना का स्मरण कराया है कि जब श्रीकृष्ण का जरासंध के साथ युद्ध हो रहा था तब जरासंघ ने कृष्ण के सैनिकों में मूर्च्छा उत्पन्न करने वालो जरा-विद्या का प्रयोग किया था जिससे उनके संनिक मूच्छित होकर पराभव की स्थिति में पहुंच रहे थे। उस समय श्रीकृष्ण के चचेरे भाई श्री नेमनाथ ने श्रीकृष्ण को यह सूचित किया कि "वे पाताल लोक की पद्मावती देवी से भगवान पाश्यंनाथ की प्रतिमा प्राप्त कर उसका अभिषेक करें और उस अभिषेक जल से सैनिकों को सिंचित करें। इस प्रयोग से श्रीकृष्ण के सैनिकों पर जरा का आक्रमण दूर हो जायगा ।" श्रीकृष्ण ने श्री नेमनाथ के निर्देशानुसार वह प्रयोग ( विधान ) किया और उससे जराविद्या वहां से भाग जाने पर उनके संनिक समान हो गए और जराविद्या से अभिप्रेत पराभव से बच गये। इस प्रकार भगवान पार्श्वनाथ का प्रभाव अत्यन्त जागरूक है । और वे भगवान शङ्खेश्वर तीर्थ के अधीश्वर हैं । 'शंखेश्वर' शब्द से इस प्रसंग को सूचना है कि पार्श्वनाथ भगवान के स्नात्र जल का सेना ऊपर सिंचन करने के बाद श्रीकृष्ण ने जोरों से शंखनाद बजा कर सेना में युद्ध लिये उत्साह को संचारित किया था। जिस स्थल पर यह शंख बजाया गया था वह विशेष स्थलशंखेश्वर तीर्थ के नाम से प्रसिद्ध है । यतः उनके नाम से ही वह तीर्थ व्यवहृत होता है अत एव भगवान को शंवेश्वर तीर्थ का अधीश्वर कहा जाता है । शंखेश्वर के अधीश्वर को श्राश्रयणीय बताकर यह संकेत किया गया है कि जिस प्रकार शंखेश्वर पादवनाथ भगवान के प्रभाव से जराविद्या - निष्पन्न भयंकर द्रव्यमूर्छा नष्ट हो गई उसी प्रकार भगवान पार्श्वनाथ का आश्रय लेने से अविद्या मोह-अज्ञान से निष्पन्न भयंकर भावमूर्च्छा उन अविद्यादि के साथ नष्ट हो सकती है ।
के
प्रथम कारिका में चौथे स्तबक को अन्तिम कारिका में जिसका निर्देश किया गया था उसका प्रतिपादन किया गया है
'सर्वमेतेन० ४-१३७] इत्याद्यतिदिष्टमभिधित्सुराह—
मूलम:
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प्रोक्तं पूर्वमन्त्रैव क्षणिकत्वसाधकम् । तोरयोगादि तदिदानों परीक्ष्यते ॥ १ ॥
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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
यच पूर्वमंत्री व सुगतसुतवार्तायामेव नाशहेतोरयोगादि क्षणिकत्वप्रसाधकं “तयाहुः क्षणिकं सर्वम्" [ ४ २] इत्यादिकारिकयोक्तं पूर्वपक्षिणा, तदिदानीमवसर प्राप्ततया परीच्यते |१| बौद्धमत की चर्चा के संदर्भ में चतुर्थ स्तवक की दूसरी कारिका में पूर्वपक्षी ने क्षणिकत्व के free हेतु के अयोग यानी सम्बन्धअसंभव' हेतु का उपन्यास किया है अवसर संगति से अब उसका परीक्षण किया जायगा ॥१॥
६१
क्षणिकत्व साधनार्थ उक्त हतुओं में प्रथम हेतु है नाशहेतु का अयोग उसकी परीक्षा के लिये दूसरी कारिका में इसका अभिप्राय प्रकट किया गया है---
तत्र प्रथमहेतु परीक्षितुं तदाशयमाविष्करोति
-
भुलम् - हेतोः स्यान्नश्वरो भावोऽनश्वरो वा विकल्पयत् । नाशहेतोरयोगित्वमुच्यते तन्न युक्तिमत् ॥ २ ॥
'हेतोः सकाशाद नरो भावः स्यात् ९ अनथरो वा ?' इति विकल्पयत् विकल्पयुगलमुत्थापयत्, नाशहेतोरयोगित्वं चणिकत्वसाधकमुच्यते परेण । आद्ये, स्वतो नश्वरे नाशहेतूनामकिश्चित्करत्वात्, अन्त्येऽपि स्वभावस्य पराकर्त्तुं मशक्यत्वेन तथात्वात् ।
[ नाशहेतु का अयोग कहने में बौद्ध का आशय ]
नाशहेतु की अयोगिता दो विकल्पों द्वारा कही जाती हैं। पहला विकल्प है अपने उत्पादक हेतु से नश्वरभाव का उत्पन्न होना। प्रौर दूसरा विकल्प है उत्पादक हेतु से अनश्वरभाव का उत्पन्न होना । इन दोनों ही विकल्पों में नाशहेतु को अयोगिता सिद्ध होती है। जैसे प्रथम विकल्प में नाश का हेतु इसलिये अकिश्चित्कर होता है कि भाव-स्वभावत तश्वर होने से स्वयं ही नष्ट हो जाता है तो नाशहेतु ने ज्यादा क्या किया ? तथा दूसरे विकल्प में नरश का हेतु इसलिये अकिविकर होता है कि- दूसरे विकल्प के अनुसार भाव अनश्वरस्वभाव होता है अत एव नाशहेतु से भी उसके अनश्वरत्व-स्वभाव का निराकरण नहीं हो सकता । फलतः भाव के नश्वर और अनश्वर उभयविध स्वभाव के पक्ष में नाश हेतु नाश के लिए असमर्थ होता है । श्रत एव भावनाश में हेतु की अपेक्षा न होने से हेतु के बिलम्ब से नाश होने में विलम्ब की सम्भावना न होने के कारण भाव अपनी उत्पत्ति के द्वितीय क्षण में ही नष्ट हो जाता है। इस प्रकार नाश के निर्हेतुकत्व से भाव की क्षणिकता सिद्ध होती है । भाव अनश्वरस्य भाव होता है इस द्वितीय विकल्प में यह प्रश्न ऊठना स्वाभाविक है कि इस विकल्प में नाश हेतु के अकिकिर होने पर भी भाव के स्वभावतः अनश्वर होने से उसका नाश नहीं हो सकता, अतः इस विकल्प में नाश हेतु की अकिचित्करता से भाव को क्षणिकता कैसे सिद्ध होगी ? इसका उत्तर यह है कि मात्र का नाश यतः सर्व सम्मत है अतः उसमें अनश्वरस्यभावता की कल्पना ही नहीं हो सकती । अतः इस विकल्प का प्रदर्शन क्षणिकत्व के साधन में उपयोगी होने से नहीं किया गया है किन्तु नाशहेतु को अकिश्वित्करता बताने के लिये ही किया गया है।
विरोधीजिज्ञासा निवृत्त्युत्तरकालिका वश्य वक्तव्यत्वम् = अवसर सगतिः ।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० २ न च उत्यादेऽप्ययं पर्यनुयोगः-स्वभावतो द्युत्पत्तिस्वभाव उत्पत्तिहेतुव्यापारवयात् । अनु पत्तिस्वभावस्य च वक्तुमशक्यत्वादिति वाच्यम्; उत्पत्तिस्वभाव इत्यस्याऽभूत्वा-भवनलक्षणोत्पत्तिरेव स्वभावो यस्थेत्यर्थेऽभूतस्य भवनाऽयोगेनोक्तदोषानिवृत्तावपि, उत्पत्तौ सत्तायां स्वभावः आभिमुख्यलक्षणो यस्य नियतहेत्वनन्तरभाविन इत्यर्थे दोषाऽभावात, तथैव तव्यपदेशोपपत्तेः, द्वितीयविकल्पस्य चानभ्युपगमादेव, अनुत्पत्तिस्वभावस्य सर्वसामर्थ्याभावलक्षणस्यानुत्पाधत्मादेव ।
नाशका उत्पत्तिहेतु अयोग प्रसंग का प्रतीकार ] यदि यह कहा जाय कि नाश के सम्बन्ध में उक्त प्रकार के प्रश्न के दृष्टान्त से भाव को उत्पत्ति पक्ष में भी यह प्रश्न उठ सकत
में भी यह प्रश्न उठ सकता है कि माव स्वभावत: उत्पत्तिस्वभाव होता है अथवा अनुत्पत्तिस्वभाव होता है ? उसमें भी भावोत्पत्ति सर्वसम्मत होने से दूसरे स्वमाव को स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रथम स्वभाव मानने पर स्वभावतः उत्पत्तिस्वभाव वाले पदार्थ के प्रति उत्पादक हेतु के व्यापार को निरर्थकता अनिवार्य है।"-तो यह कहना ठीक नहीं है। क्योंकिउत्पत्तिस्वभाव का अर्थ यदि यह किया जाय कि उत्पत्ति का अर्थ है-अभवनपूर्वक भवन वही जिसका स्वभाव हो वह है उत्पत्तिस्वभाव । तो उत्पादकहेतु के व्यापार की निरर्थकता रूप दोष की निवृत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उत्पादक हेतुओं से प्रभवनस्वभाव वाले पदार्थ के भवन का सम्पादन नहीं हो सकता । किन्तु, यदि उत्पत्तिस्वभाव का यह अर्थ किया जाय कि उत्पत्ति का अर्थ है सत्ता और स्वभाव का अर्थ है आभिमुख्य । इस प्रकार नियत हेतु के प्रयोग के अनन्तर जिसका सत्ता के प्रति प्राभिमुख्य हो वह है उत्पत्तिस्वभाव, तो उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि निघत हेतु के अनन्तर हो जो सत्ताप्राप्ति के उन्मुख होता है, उसी उत्पत्तिस्वभावता का व्यवहार होता है।
दूसरा विकल्प अस्वीकार्य होने के कारण ही विचारणीय नहीं है। क्योंकि जो अनुत्पत्तिस्व. भाव है उसमें सर्वविषसामर्थ्य का अभाव है इसलिये वह तो उत्पन्न होने में भी असमर्थ है । अत एव द्वितीयविकल्प को लेकर उत्पादक हेतु के व्यापार की निरर्थकता का आपावन नहीं हो सकता।
न ह्य त्पत्तिहेतवोऽभावं भावीकुर्वन्तीत्यभ्युपगम्यते, 'असदुत्पद्यते इत्यस्य उत्पद्यमान प्राग नास्ति' इत्येवार्थात । प्राग्नास्तितायां च न भावाश्रयाणां विकल्पानां शशविषाण इव तीक्षणतादिगोचराण संभवः न च 'भावधर्मस्वाविशेषाद् नाशवदुत्पत्तेरपि किं न निहेतुकत्वम् ?' इति शङ्कनीयम्, उदयापर्गिणो भावाद् व्यतिरिक्तस्य नाशस्याभावात् , तस्य च स्वहेतोरेव तथाभूतस्योत्पन्नत्वेन (उत्पत्तिस्वरूप) तद्धर्मस्याऽनिमित्तत्वाभावात; केवलं तमस्य स्वभावं न विवेचयति मन्दधीः, दर्शनपाटवाभावात् , विसदृशकपालादिक्षणोत्पत्तावेव श्रान्तिकारणविंगमेन प्रत्यक्षनिबन्धनतन्निश्चयोत्पादात्, विषयरूपदर्शनेऽप्यतत्कारिपदार्थसाधयेविप्रलब्धस्य प्राकारणशक्त्यविवेचनेऽपि विकारदर्शनानन्तरं तन्निश्चयवदिति । अत्रोत्तरम-तद् न मुक्तिमत्-एतदुक्तं न युक्तम् ॥ २ ॥
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स्याक० टीका एवं हिन्दी विषेचन ]
[ अभाव भाव बन जाता है-इस में असम्मति ] 'उत्पत्ति के हेतु अभाव को भाव बना देते हैं। यह मान्य नहीं है क्योंकि 'असत् उत्पन्न होता है इसका अर्थ यथाश्रुत न होकर इतना ही होता है कि 'उत्पन्न होने वाली वस्तु उत्पत्ति के पहले नहीं होती है।' जब उत्पत्ति के पहले अस्तित्व शून्य होती है तब उस के सम्बन्ध में ये विकल्प, जो भावमात्र में हो सम्भब होते हैं, वे उसी प्रकार नहीं हो सकते जैसे तीक्ष्णता-मृदुता आदि के विकल्प शशविषाण में नहीं हो सकते । यदि यह कहा जाय कि-'नाश और उत्पत्ति दोनों ही भाष के धर्म हैं। वोनों को भावधर्मता में कुछ अन्सर नहीं है। प्रतः यह शंका स्वाभाविक है कि-जके नाशरूप भावधर्म नि
नितक होता है. उसी प्रकार उत्पत्तिरूप भावधर्म भी नितक होना चाहिये'-तो यह भी ठीक नहीं है गोंकि उत्पत्ति और विनाशधर्मो उत्तरभाव से भिन्न पूर्वमाव का नाश प्रसिद्ध है और उत्तरभाव अपने हेतु से ही उत्पत्तिविनाराधों उत्पन्न होता है। अत: उत्पत्तिस्वरूप भावधर्म निनिमिन नहीं होता। किन्तु बुद्धि की मन्दता से मनुष्य उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के नाश का स्वभाव. पूर्वक्षण-नाशात्मकता का निश्चय नहीं कर पाता क्योंकि पूर्वक्षणनाशात्मना ही उत्तरक्षणभाव के दर्शन को पटुता नहीं होती। किन्तु जब घट क्षण से विलक्षण कपालक्षण को उत्पत्ति होती है उसी समय उत्तरक्षण में पूर्वक्षण को ऐक्य की भ्रान्ति के सादृश्यज्ञानरूप कारण को निवृत्ति होने पर घटनाश का निर्विकल्पक प्रत्यक्ष हो कर घटनाश के निश्चय की उत्पत्ति होती है । यह ठीक उसी प्रकार होता है जैसे सदृश विषाक्त और निविष खीररूप दो विषयों का दर्शन होने पर विकार के अजनक निविषखीर के साधायज्ञान से विकारोत्पत्ति के पूर्व विषाक्त खीर में विकार जनन शक्ति का निश्चय न होने पर भी विकारवर्शन के अनन्तर विकारजननशक्ति का निश्चय होता है। इस प्रकार बौद्धों का अभिमत यह है कि उत्तरभाव हो पूर्वभाव का विनाश है और वह अपने हेतु से उत्पत्तिविनाशधर्मों रूप में उत्पन्न होता है। उत्तरभाव से अतिरिक्त पूर्वभाव का कोई विनाश सिद्ध नहीं है जिसके लिये हेतु को अपेक्षा हो। इस प्रकार विनाश की निर्हेतुकता का अर्थ है-उत्तरभाव उत्पादकहेतु भिन्न हेतुराहित्य । किन्तु बौद्ध का यह कथन ग्रन्थकार को दृष्टि में युक्तिशून्य है ।। २ ॥
तीसरी कारिका में उक्त कथन की युक्तिशून्यता का उपपादन किया गया हैकुतः ? इत्याहमूलम्--हेतु प्रतीत्य यदसौ तथानश्वर इष्यते ।
यथैव 'मवतो हेतुर्विशिष्टफलसाधकः ॥३॥ हेतु-मुद्गरादिकम् प्रतीत्य, यदसौ-भाषः, तथानश्वर: प्रायोगिकादिनाशापेक्षया नश्वरस्वभावः इभ्यते । निदर्शनमाह-यथैव भवता सुगतसुतस्य हेतुः घटादिः विशिष्टफलसाधका-मुद्रादिकं प्रतीत्य विजातीयकपालादिक्षणजननस्वभाष इष्टः । एतेन
"स्वभावोऽपि स तस्यैत्थं येनापेक्ष्य निवयते ।
विरोधिनं यथान्येषां प्रवाहो मुद्रादिकम् ॥" इति समाधानं न युक्तम्, यतो नास्माभिरिशरारुक्षणव्यतिरिक्तोऽपरः प्रवाहोऽभ्युप
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो.४
गम्यते यः खनिवृत्तारकिश्चिकर मुद्रादिकमपेक्षते, किन्तु परस्परव्यतिरिक्ताः पूर्वापरक्षणा एव, ते च सरसत एव विरुध्यन्न इति न कचिदकिश्चित्करापेक्षनिवृत्तिः' इत्युक्तावपि न क्षतिः, विलक्षणहेतु प्रतीत्य नश्वरस्वभावस्य तसा दंगल्य विमानन भावनायुपगमसनसमाधानत्वात् ।। ३॥
[ उत्पत्तिवत् नाश में सहेतुकता की उपपत्ति ] घटादिस्वरूप भाव को मुद्गरादि का संनिधान होने पर उसका प्रायोगिक नाश होता है, नाश दो प्रकार के हैं -प्रायोगिकनाश व विनसानाश, विखसानाश है-विशिष्टकारण प्रयोग के विना होने वाला माश । मुद्गरप्रहारादि विशिष्ट कारणप्रयोग से जनित नाश यह प्रायोगिक नाश है। और उसकी अपेक्षा वह नश्वर स्वभाव कहा जाता है । यह ठीक उसी प्रकार युक्तियुक्त होता है जैसे बौद्ध मत में घट को मुद्गरादि का सन्निधान प्राप्त होने पर विजातीय कपालक्षण की उत्पत्ति होती है और उस उत्पत्ति की अपेक्षा घट विजातीय कपालक्षणजनन स्वभाव होता है । इस संदर्भ में, बौद्धों ने नाश को निर्हेतुकता पक्ष के इस समाधान को कि-'जैसे घटक्षण का प्रवाह विरोधी मुद्गरादि के प्राप्त होने पर निवृत्त होता है उसी प्रकार घटादि भाव का यह स्वभाव होता है जिस स्वभाव के कारण वह विरोधी मुद्गरादि को प्राप्त कर निवृत्त होता है ।' युक्तिहीन बताया है और कहा है कि औद्धमत में प्रतिक्षण नश्वर क्षणों से भिन्न कोई प्रवाह मान्य नहीं है। जिसे अपनी निवृत्ति में अकिञ्चित्कर मुगरादि को अपेक्षा हो। किन्तु परस्पर भिन्न पूर्वोत्तर भानी क्षण ही प्रवाह है। वे स्वभावतः परस्पर विरुद्ध है। अतः किसी भी क्षण की निवृत्ति को अफिश्चित्कर मुद्गरादि की अपेक्षा नहीं होती। अतः नाश का निहतुकत्वपक्ष अक्षुण्ण है।" किन्तु बौद्ध के इस कथन से भी नाश के सहेतुकत्वपक्ष में क्षति नहीं हो सकती क्योंकि घटक्षण जैसे मुद्गरादि को प्राप्त कर कपालादिरूप विलक्षण क्षण के जनन स्थभाव से सम्पन्न होता है उसी प्रकार से घटक्षण का नश्वर स्वभाव भो मुद्गराविरूप विलक्षण हेतु की प्राप्ति से सम्पन्न होता है। इस प्रकार दोनों पक्ष में समाधान तुल्य है ॥३॥
चौथी कारिका में तृतीय कारिका में उक्त तथ्य की पुष्टि की गई है . एतदेव भावयन्नाहमूलम्-तथास्वभाव एवासी स्वहेतोरेव जायते ।
सहकारिणमासाद्य यस्तथाविधकार्यकृत् ॥४॥ तथास्वभाव एवासौं घटादिः स्वहेतोरेस सकाशाजायते यः सहकारिणं मुद्रादिक्रम् आसाद्य तथाविधकार्यकृत-विजातीयकपालादिकार्यकारी। तदपेक्षस्यैव हि घटक्षणस्य समानक्षणान्तरोत्पादनासमर्थाऽसमर्थतरा-ऽसमर्थतमादिक्षणान्तरोल्पादनप्रक्रमेण घटतलिनिवृत्ती कपालादिक्षणोत्पत्तेरभ्युपगमात ।। ४ ॥
घटावि अपने कारण से ही ऐसे स्वभाव से युक्त हो कर हो उत्पन्न होता है जिससे वह सहकारी मुद्गरादि को प्राप्त कर कपालाविरूप विजातीय कार्य का जनक होता है। क्योंकि घटक्षण
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स्या० का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
क्रमशः समान क्षणान्तर को उत्पन्न करने में असमर्थ असमर्थतर एवं प्रसमर्थतम क्षणान्तर को उत्पन्न करते हुये मुद्गरादि सापेक्ष होकर ही घटसन्तान को निवृत्ति होने पर कपालादिक्षण का उत्पादक होता है ॥४॥
५ वीं कारिका में उपर्युक्त का ही समर्थन किया गया है - उपचयमाहमुलम्---न पुनः क्रियते किञ्चित्तेनास्य सहकारिणा ।
समानकालभावित्वात्तथाचोरुमिदं तव ॥५॥ न पुनस्तेन मुद्रादिना सहकारिणा तस्य-घटस्य क्रियते किञ्चित् अतिशयाधानम् । कुतः ? इत्याह-द्वयोः सहकार्य-सहकारिणोः समानकालभावित्वात एककालोत्पत्तिकत्वात् , अतिशयस्य च सहकार्यगतस्य तत्स्वरूपात, कार्यकारणभावस्य च पौर्शपयनियतत्वात् । संवादमाह-तथाचोक्तमिदं वक्ष्यमाणं तव स्वशास्त्र ।। ५ ।।
मुद्गरादिरूप सहकारी से घट में किसी अतिशय का प्राधान नहीं किया जाता। क्योंकि सहकार्य घट और सहकारी मुद्गर दोनों एककाल में उत्पन्न होते हैं। सहकार्य घट में होने वाला अतिशय भी सहकार्यस्वरूप होने से सहकारी का समानकालिक है । अत एव वह उसका कार्य नहीं हो सकता क्योंकि कार्यकारण भाव पौर्वापर्य का ध्याष्य है। प्रतः जिसमें पौर्वापर्यरूप व्यापक नहीं है उसमें कार्यकारणभावरूप व्याप्य नहीं हो सकता। यह बात बौद्ध के अपने शास्त्र में भी कही गयी है ॥५॥
ट्ठी कारिका में समानकालिक पदार्थों में कार्यकारण भाव नहीं होता इस विषय में बौद्धशास्त्र का संवाद प्रस्तुत किया गया हैमूलम्'--'उपकारी विरोधी च, सहकारो च यो मतः।
प्रवन्धापेक्षया सर्वो नैककाले कथंचन ॥ ६ ॥ ____ उपकारी क्षीरादिर्यालादेः, विरोधी-नकुलादिः सादेः, सहकारी-मुद्रादिः कपालादेः यो मतः इष्टः, स प्रयन्धापेक्षया सन्तानापेक्ष या सर्वःनिरवशेषः, नेककाले कथंचन, बालादिसताया एवं बालाघुपकारत्वात् । स्वसभागक्षणोत्पत्तिर्हि उपकारः, स्वविसभागक्षणोत्पत्तिश्च विरोधः, स्वोत्पत्तिरेव च सहकार इति ॥ ६॥
[ एककालीन पदार्थों में कार्यकारणता का असंभव ] जैसे बालक आदि का उपकारी दुग्धादि खाद्यपदार्थ है तथा सर्पादि का विरोधी जसे नकुलादि है और कपालादि का सहकारी जैसे मुद्गरादि है, इस प्रकार जो कोई किसी का उपकारी विरोधी अथवा सहकारी माना जाता है यह सब सन्तान की अपेक्षा माना जाता है । एक काल में उत्पन्न होने वाले व्यक्ति की अपेक्षा कथमपि नहीं माना जाता। क्योंकि बालक आवि की सत्ता ही बालकादि का उपकार है और बालक आदि की सत्ता बालकाविक्षणों का सन्तानरूप है क्योंकि
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शास्त्रवा० स्त०६ श्लो०७
बालक को उत्पत्ति से बालक के मरण तक बालक की सत्ता मानी जाती है-इतनी लम्बी अवधि में बौद्ध के मत से एक बालक क्षण का होना सम्भव नहीं है । अत: बालक क्षण का सन्तान हो बालक की सत्ता है । यह सन्तान बालकादि को क्षीरादि खाद्यपदार्थों के सुलभ होने से सम्पन्न होता है । अतः स्पष्ट है कि जो बालकक्षण जिस दुग्धादि को ग्रहण करता है वह दुग्धादि और बालकक्षण समानकालिक है अतः उन दुग्धक्षण और बालक्षण में ही बालक्षण को उपकार्य और दुग्धक्षण को उपकारक नहीं माना जा सकता किन्तु बालक्ष और दुग्धक्षण के समान काल में होने से अग्रिमक्षण में बालक्षण को सत्ता सम्भव होती है । इस प्रकार दुग्धक्षण बालक्षण के सन्तान के सद्भाव में उपयोगी होने से सन्तान को अपेक्षा बालक का उपकारक होता है।
बालकादि को सत्ता ही बालकावि का उपकार है यह जो बात कही गयी है उसका प्राधार उपकार की यह परिमाषा है कि सशक्षण की उत्पत्ति ही उपकार है। इस प्रकार पूर्व बालक्षण से उत्तर बालक्षण की जो उत्पत्ति होती है वही बाल क्षण का उपकार है और उसमें बालक द्वारा गहामाण दुग्धक्षण हेतु होने से दुग्धक्षण बालक का उपकारक है। इसी प्रकार विसभाग-विसदृशक्षण की उत्पत्ति विरोध है। नफुल द्वारा सर्प का खण्ड होने पर जीवित सर से विसदृश मतलपक्षण को उत्पत्ति होती है-यही नकुल द्वारा सर्प का विरोध है । इस विसदृश उत्पत्ति का हेतु होने से नकुल सर्प का विरोधी होता है । यह विरोध भी सन्तान की अपेक्षा है क्योंकि नकुल से जीवित सर्प के सन्तान का उच्छेद हो जाता है । इसोप्रकार कपालादि की उत्पत्ति हो कपालादि का सहकार है। उस उत्पत्ति का हेत अर्थात कपालसन्तान का प्रवर्तक होने से मगरात कपालादि का सरकारी है। प्राशय यह है कि यदि मुदगर का सन्निधान न होता तो कपालक्षण की उत्पत्ति न होती और कपालक्षण को उत्पत्ति न होने पर कपालक्षण का सन्तान प्रवत्त नहीं होता। अतः कपालक्षण सम्तान का प्रवर्तक होने से मुद्गरादि कपालादि का सहकारी है ।। ६ ।।
ज्वों कारिका में एक अन्य भी बौद्ध शास्त्र के संवाद का उल्लेख किया गया हैतथैव चोक्तमन्यत्मूलम्—'सहकारिकृतो हेतोविशेषो नास्ति यद्यपि ।
फलस्य तु विशेषोऽस्ति तत्कृतातिशयाप्तितः ॥७॥ सहकारिकतो हेतोः घटादेः विशेषो नास्ति यद्यपि समानकालस्वाद द्वयोः, तथापि फलस्य तु-कपालादेः तत्कृतातिशयाप्तित: सहकारिकृतातिशयाप्तेर्चिलक्षणक्षणाऽभिन्नायाः विशेषोऽस्ति विद्यत एक, तदपेक्षयव घटक्षणमुद्रक्षणयोः सहकार्यसहाकारिभावादिच्यवहारात् ॥७॥
[सहकारिकृत विशेषता फल में होती है, हेतु में नहीं ] अन्त्य घटक्षणरूप हेतु में मुद्गररूप सहकारी द्वारा किसी विशेष का अस्तित्व नहीं होता, क्योंकि दोनों समानकालिक है। किन्तु कपालाविरूप फल में मुद्गररूप सहकारी द्वारा अतिशय की प्राप्ति होती है । अर्थात् मुद्गर के सहयोग से अन्त्यघटक्षण से कपालरूप विलक्षण क्षण की उत्पत्ति होती है इस प्रकार अन्त्यघरक्षणरूप हेतु में विशेष न होने पर भी उसके कपालरूप फल
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स्था० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
में विशेष होता हो है । उसकी अपेक्षा से ही घटक्षण और मुद्गरक्षण में सहकार्य और सहकारी भाव का व्यवहार होता है ॥ ७ ॥
व कारिका में यह बात बतायी गयी है कि घटाटि भाव का उक्त स्वभाव अर्थात् मुद्गरावि को प्राप्त करके हो घटादि कपालादि का जननस्वभाव होता है यह माने विना उक्त का अर्थात् मुद्गरादि का संविधान होने पर घटक्षण से कपालादिक्षण की उत्पत्ति का निर्वाह नहीं हो सकताइदं चोक्तं यथोक्तस्वभावाभ्युपगमं विना न निर्वहदित्याह---
- न चास्यातत्स्वभावत्वे स फलस्यापि युज्यते । सभागक्षणजन्माप्लेस्तथाविधतदन्यवत् ॥ ८ ॥
६७
मूलम
न चास्य हेतोः = वटादेः, अतरस्वभावत्वे - मुद्गरादिकमवाप्य कपालादिजननास्वभावत्वे सः = विशेषो विलक्षणक्षणात्मा फलस्यापि कपालादेः युज्यते । कुतः १ इत्याहसभागक्षणजन्माप्तः प्रदिक्षणोत्पत्तिप्रसङ्गात् । किंवत् १ इत्याह- तथाविधतदन्यवत् = घटादिजनन स्वभाववद्घटादिवत् । यद्यप्यत्र 'अन्त्यघटक्षण: कपालादिजननाऽस्वभावः स्याद् घटक्षण जनकः स्यात्' इति नापादनं संभवति, पदार्थों व्यभिचारात् तथाप्यन्य क्षणजनन
भावादर्थात तदापत्तिः, असमर्थत्वादन्त्यघटक्षणो नामसमान क्षणारम्भक इति 'मुद्गराद्यभावे समानक्षणान्तरोत्पादकापरसमर्थजननं तत्संनिधाने त्वसमर्थक्षणान्तरजनन मिति व्यवस्थाया मुद्गराहिना तत्सामर्थ्याविघातं दिन वक्तुमशक्यत्यात्; अन्यथा तवापि समर्थक्षणान्तरजननस्वभावस्य कारण परम्परायास्तस्यानपायात् सहेतुतोऽसमर्थजनन स्वभावस्यैव तस्योत्पत्तौ च प्रथमत एव संतत्युच्छेदप्रसङ्गात् ।
7
[ सहकारिसन्निध्य को अकिंचित्कर मानने में आपत्ति ]
घटादि को अतत्स्वभाव मुद्गरादि को प्राप्त करके कपालादि का जनन स्वभाव न मानने पर कपालादिरूप फल का भी घट से विलक्षण क्षणरूप विशेष नहीं उपपन्न हो सकता क्योंकि उसी स्थिति में अन्त्य घटक्षण से भी सट्टशक्षण श्रर्थात् घटक्षण की हो उत्पत्ति का ठीक उसी प्रकार प्रसंग होगा जैसे घटादिजननस्वभावयुक्त पूर्व घटादिक्षण से उत्तर घटादिक्षण की ही उत्पत्ति होती है । इस प्रकार घट में अतत्स्वभावता मानने पर अन्त्य घटक्षण से भी घटक्षण की उत्पत्ति का प्रसंग अनिवार्य है ।
इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि यद्यपि घटादि को अतत्स्वभाव मानने पर इस प्रकार आपादन नहीं हो सकता कि 'अन्तिम घटक्षण यदि कपालादिजननस्वभाव से शून्य होगा तो घटक्षण का जनक होगा' क्योंकि कपालावि जननस्वभावशून्यता तो पटादि में भी है, किन्तु वहां घटक्षणजनकता नहीं है इसलिए आपादन का नियम व्यभिचारी है । किन्तु ऐसा प्रापादन होगा कि 'अन्त्यघटक्षण यदि कप लादिजननस्वभावशून्य होगा तो घट क्षण का जनक होगा, क्योंकि घटक्षण से प्रत्यक्षण के जन्न का वह हेतु नहीं है, अतः श्रर्थतः घटक्षणजनकत्व की आपत्ति होगी। कहने का तात्पर्य यह है कि प्रत्यक्षण
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[ शास्त्रवास ० स्त० ६ श्लो०
कपालादि से मिश्रक्षण के जनन का हेतु नहीं हो होता और यदि वह कपालादि के भो जनन का हेतु नहीं होगा तो अर्थतः घटक्षण का हेतु होगा। क्योंकि पूर्व के धटक्षण अन्यक्षण के जनन का हेतु न होने से और कपालादिजननस्वभाव से शून्य होने से घटादि क्षण के जनक होते हैं । अतः इस रूप में आपादन हो सकता है कि अन्त्य घटक्षण यदि कपालादिजननस्वभाव से शून्य होगा तो घटक्षण से अन्य क्षण के जनन के प्रति अहेतु होगा और जब घटक्षण से अन्य क्षण के जनन के प्रति श्रहेतु होगा तो घटक्षण का जनक होगा, जैसे प्रथमादिघटक्षण | इसलिये यह व्यवस्था कि- 'अन्तिम घटक्षण, घटक्षरणजनन में असमर्थ होने से अपने द्वितीयक्षण में घटक्षण का प्रारम्भक नहीं होता । अतः मुद्गरादि के अभाव में तृतीयक्षण में स्वसदृश क्षण को उत्पन्न करने वाले समर्थक्षण को द्वितीय क्षण में उत्पन्न करेगा और मुद्गरादि के संविधान में द्वितीयक्षण में ऐसे क्षणान्तर का जनन करेगा जो घटक्षण के जनन में असमर्थ होता है। यह व्यवस्था मुद्गरादि से अन्त्यघटक्षण में घटक्षणजनन के सामर्थ्य का विघात माने बिना उपपत्र नहीं हो सकती । अतः मुद्गरादि को घटक्षण के नाश का हेतु मानना आवश्यक है। यदि ऐसा न माता जायगा तो अपनी कारणपरम्परा से घटक्षण के जनन में समर्थ घटक्षण की हो उत्पत्ति प्रक्षुण्ण होने से घटरून्तान का उच्छेव न होगा। यदि अपने हेतु से ही घटक्षण के जनन में असमर्थ स्वभाव घटक्षण की उत्पत्ति मानी जायगी तो प्रारम्भ में ही घटसंतति का उच्छेद हो जायगा।
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अथ स्वत एव निवर्तमाना घरचणजननी शक्तिः, प्रवर्तमाना वा कयालक्षणजननी शक्तिरवर्जनीयसंनिधिकं मुद्गरादिकं नापेक्षत इति चेत् ? साधु बुद्धं बुद्धदर्शनम् येनैव नियतान्त्रय- ध्यतिरेकदर्शनात्रगणनादग्न्यादी पाकाद्यार्थिनामपि नियमतः प्रवृत्तिमयोहितु व्यवसितोऽसि । तस्माद् मुङ्गरादिना घटसामर्थ्याऽव्याहतात्र्यं तर्कः - अन्त्यघटरूणो यद्यव्याहतघटजननस्वभावः स्यात् समानक्षणोपहितः स्यादिति ।
[ पाकार्थी की अग्नि में नियत प्रवृत्ति के अपलाप का साहस ]
यदि बौद्धों की ओर से यह कहा जाय कि “घटक्षण की उत्पादिका शक्ति स्वतः निवृत्त होतो है और कपालक्षणजनिका शक्ति स्वयं प्रवृत्त होती है। घटक्षण की निवृत्ति के पूर्व तथा कपालक्षण की प्रवृत्ति के पूर्व मुद्गरादि का संविधान अवर्जनीय होने से सम्पन्न होता है, न कि घटक्षणजनक- शक्ति की निवृत्ति में और कपालक्षणजनकशक्ति को प्रवृत्ति में मुद्गरादि की अपेक्षा होती है" तो इस कथन पर व्यङ्ग करते हुये वाल्याकार ने कहा कि यह कथन बुद्धदर्शन को अच्छी जानकारी का सूचक है । जिसके फलस्वरूप अग्नि आदि में पाकार्थी की नियत प्रवृत्ति का परित्याग प्रसास होता है क्योंकि नियत अन्वय- ध्यतिरेक के निश्चय की अवगणना करने पर अग्नि आदि में पाकादि की भी कारणता का निश्चय नहीं हो सकता ।
इसलिये मुद्गरादि से घटसामर्थ्य अर्थात् घटक्षण के जनन के सामर्थ्य का व्याघात न मानने पर यह आपत्ति अनिवार्य होगी कि अन्तिम घटक्षण के घटजननस्वभाव का यदि व्याघात न होगा तो उसमें घटक्षणउपहितत्व यानी समान सन्तान में घटक्षणाऽध्यवहितपूर्वत्व होगा । अर्थात् उपान्त्य क्षण के समान अन्त्यक्षण के बाद भी घटक्षरण की ही प्रापत्ति होगी।
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन 1
अथ घटाऽकुर्वद्रूपत्वादेवान्त्यपटक्षणो घटं न कुरुते, कपाल पत्वात् तु कपालं कुरुत इति चेत् ? तथापि मुद्रादिनिधावेव तत्कुर्वद्रपमिति "तद्धतु०॥ इति न्यायात् स्थिरोऽपि तत्संनिहित एव कपालादिजननस्वभावो नश्वरस्वभावो वा घटोऽस्त्विति किमनुपपन्नम् ? ॥८॥
[ मुद्गदि के संनिधान विना कुचंद्रपत्व का असंभव ] यदि यह शंका की जाय कि-'अन्त्य घटक्षण में मुद्गरादि से घटजननस्वभाव का व्याघात नहीं होता अपितु उसमें घटकुर्वपस्व का अभाव होता है इसीलिये वह घट का जनक नहीं होता। और कपाल का जनक इसलिये होता है कि उस में कपालकुर्वद्रूपत्व होता है तो यह ठीक नहीं क्योंकिजब मुद्गरादि के संनिधान में हो कपालकुर्वद्रप घरक्षण का अस्तित्व होता है तब यह मानना होगा कि मुद्गरादि का संनिधान ही कपालकुचंद्रप का कारण है। ऐसी स्थिति में 'तद्धेतुतः एव कार्यसम्भवे कि तेन ?' तत् के हेतु से कार्य सम्भव होने पर तत् को कार्य का कारण मानना उचित नहीं है क्योंकि तत का हेतु अवश्यकलप्त कार्य नियतपूर्ववर्ती होता है, अत एव उससे तत्त् अन्यथा सिद्ध हो जाता है । इस न्याय से मुदगराविसंनिहित स्थिर घट को भी कपालजननस्वभाव अथवा नश्वरस्वभाव मान लेने में कोई अनुपपत्ति न होने से घटादि की क्षणिकता नहीं सिद्ध हो सकती ।।
घी कारिका में बौद्धों के अन्य अविचारित कयन को प्रदर्शित कर उसकी अयुक्तता बतायी गई है
एवं चान्यदप्यसमीक्षिताभिधानं परस्येति दर्शयन्नाहमूलम्-'अस्थानपक्षपातश्च हेतोरनुपकारिणः ।
___ अपेक्षायां नियुङ्क्ते यत्कार्यमेतद् थोदितम् ॥९॥ अस्थानपक्षपातश्च-अयमयुक्तापेक्षात्मा हेतोः घटादिजनकस्य यदनुपकारिणो मुद्गरादेरपेझायां नियुक्त कार्यम्-घटादि, तदपेशस्यैव नश्वरत्वाभ्युपगमात् । तदुक्तम्-"हेतपश्चानुपकार्यपेक्षायां नियुञ्जानाः स्वकार्यम् , आत्मनोऽस्थानपक्षपातित्वमाविष्कुयुः" इति । एतद् पृथोदितं शुभगुप्तादिना ॥ ६ ॥
[चौद्र शुभगुप्तादि के द्वारा पक्षपात का आक्षेप ] स्थिर भी घटादि मुदगरसंनिहित होकर नश्वरस्वभावनाश का जनक हो सकता है-इस जैनोक्ति के सम्बन्ध में बौद्धों का यह आक्षेप है कि-'घटादि को अनुपकारी मुद्गरादि की अपेक्षा से नाश-कार्य का जनक मानना अनुचित पक्षपात है । क्योंकि जैसे मुद्गर घट का अनुपकारी है उसी प्रकार पट-कटादि भी घट के अनुपकारी है फिर भी घट पट-कटावि की अपेक्षा न कर अपने नाशरूप कार्य के लिये मुद्गरादि को ही अपेक्षा करता है । इस आक्षेप को पुष्टि में व्याख्याकार ने शुभ-गुप्त का एक वचन उद्धत किया है जिसका अर्थ यह है कि-हेतु यदि अनुपकारी की अपेक्षा कर के अपने कार्य का उत्पादक होंगे तो स्पष्ट ही वे अपने स्थान पक्षपातिता के सूचक होंगे।'-अस्थकार की दृष्टि से यह आक्षेप व्यर्थ है ॥६॥
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१००
[ शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० १०
१० वी कारिका में उक्त प्राक्षेप की व्यर्थता का उपपादन किया गया हैकथम् ? इत्याहमूलम्-यस्मात्तस्याप्यवस्तुल्यं विशिष्टफलसाधकम् ।
भावहेतु समाश्रित्य ननु न्यायान्निदर्शितम् ॥१०॥ यस्मात् तस्यापि परस्यापि एतत् अस्थानपक्षपातापादनम् तुल्यं विशिष्टफलसाधक-विजातीयकपालादिक्षणजननस्वभावम्, भावहेतु घटादिकं समाश्रित्य, ननु निश्चितम् न्यायाद् निदर्शितम्-तुल्य योगक्षेमतयोपदर्शितम् । एतदुक्तं भवति-अस्थानपक्षपातित्वं यदि दण्डादिनाऽनश्वरस्वभावस्यैव घटस्योत्पादितत्वाद् नश्वरस्वभावस्य तस्य मुद्रादिनैव जनितत्वाद् घटमात्रे दशाहीन व्यभिचारित्वम् . जहा नवापि तस्य दण्डादिनाऽसमानक्षणाऽजननस्वभावस्यवोत्पादितत्वादतादृशस्य तस्यान्यन एवोत्पत्तस्तुल्यम् । अथ 'तत्रान्वेन तजननस्वभावतेव कृतेत्यदोषः', तदा ममापि तन्निवृत्तिस्वभावतैव कृतेत्यदोष इति । एवं 'स्वकार्यकारित्वमेव मुद्रादेन तु स्वकारित्वम्' इत्ययमपि परिहारस्तुल्य इत्यादि सूक्ष्मधियाऽभ्यहनीयम् ॥१०॥
[ अस्थानपक्षपात बौद्धमत में अनिवार्य-उत्तर ] बौद्ध ने उक्त जैनोक्ति के सम्बन्ध में जो अस्थान पक्षपात का आपादन किया है वह बौद्धमत में भी समान है। क्योंकि बौद्धमत में भी यह माना जाता है कि अन्त्यघटक्षण अनुपकारी मुद्गरादि की अपेक्षा से विजातोयकपालादिक्षण का जनक होता है। इस प्रकार दोनों मतों में योगक्षेम को तुल्यता न्यायपूर्वक निश्चितरूप से बता दी गई है । तात्पर्य यह है कि
यदि बौद्ध की अोर से प्रस्थानपक्षपातता इस रूप में प्रतिपादित की जाय कि दण्डादि से अनश्वरस्थभाव ही घट उत्पन्न होता है और नश्वरस्वभाव घट मुदगरादि से ही उत्पन्न होता है । जैन की ओर से इस प्रकार का विचार प्रस्तुत होने पर घटमात्र में दण्डादिकारणता का व्यभिचार होगायह व्यभिचार ही अस्थानपक्षपातित्व है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार की अस्थानपक्षपातिता बौद्धमत में भी समान है। जैसे, बौद्धमत में यह माना जाता है कि दण्डादि से कपाल प्रादि प्रसमान क्षण के प्रजननस्वभाव ही घट की उत्पत्ति होती है और कपाला विविलक्षणक्षणजनक घट की उत्पत्ति मुद्गरादि से ही होती है अत: इस मत में भी घटमात्र में दण्डादि कारणता में व्यभिचार अपरिहार्य है।
[मुद्गरादि से तत्स्वभावता का आधान उभयत्र तुल्य ] यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'मुद्गरावि से कपालजननस्वभावधटक्षण की उत्पत्ति नहीं होतो किन्तु अपने हेतु से उत्पन्न होनेवाले अन्त्य घटक्षण में कपालजननस्वभावता का प्राधान होता है। अतः उक्त व्यभिचार दोष नहीं हो सकता।'-तो इसके उत्तर में जन की ओर से भी यह कहा जा सकता है कि जैन मत में भी मुद्गरादि से नश्वरस्वभाव घट की उत्पसि नहीं
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
होती अपितु स्थिर घट में नश्वर स्वभावता का आधान होता है । अत: जैन मत में उक्त व्यभिचार रूप दोष नहीं हो सकता । यदि बौद्ध की ओर से उक्त दोष का परिहार यह कहकर किया जाय कि- मुद्गरावि घटादि के कार्य का जनक होता है घटादि का जनक नहीं होता तो यह परिहार भी जैन मत में समान रूप से सम्भवित है । अतः इस प्रकार अपने मत में प्रयुक्त दूषण का जैसा परिहार बौद्ध मत में होगा उसी प्रकार के दूषण का परिहार सूक्ष्म बुद्धि से विचार करने पर जनमत में भी प्रस्तुत किया जा सकता है । अतः मुङ्गरादि सन्निहित घटादि को नाश का जनक मानने में कोई आपत्ति नहीं हो सकती ॥१०॥
११वीं कारिका में यह बात कही गई है कि जैन मन में जैसे पूर्वोक्त दोष युक्तिसंगत नहीं होते उसी प्रकार अन्य दोष भी युक्तिसंगत नहीं हो सकते -
इत्थं चान्यदप्यत्र दूषणं न युक्तमित्याह
मूलम् - एवं च व्यर्थमेवेह व्यतिरिक्ता दिचिन्तनम् । नाश्यमाश्रित्य नाशस्य क्रियतं यद्विचक्षणः ॥ ११॥
एवं च नाश्यं घटादिकमाश्रित्य नाशस्य विचक्षणैर्व्यतिरिक्ता दिचिन्तनं यत् क्रियते तदपीह = नाश्यविचारे व्यर्थम्, मायतुल्यत्वाद । तथाहि परेषामिदमाकृतं यद् नाशो नाश्यादतिरिच्यते, न वा ? | अन्त्ये भाव एव नाशः, स च सहेतुक एवेति न परेषां साध्यसिद्धिः । आग्रे, अग्न्यादेरवस्तुरूपध्वंसोपगमेऽपि काष्ठादेस्तदवस्थत्त्रात् पुनरुपलब्धिप्रसङ्गः, वस्तुरूपतदुपगमे च काष्ठादेरङ्गारादिकमेव ध्वंसो नापर इत्यत्र किं निबन्धनम् १ | 'तस्मिन् सति तन्निवृत्तिः' इति चेत् ? न, अन्यनिष्टत्यनभ्युपगमेनैतदर्थाभावात् ।
[ नाश्य से नाश के भिन्नाभिन्नत्व की चिन्ता व्यर्थ ।
नाश्वस्तु के विचार के संदर्भ में विद्वानों द्वारा नाश के सम्बन्ध में नाश्य के भेदाभेद का जो चिन्तन किया जाता है वह व्यर्थ है क्योंकि नाश और भाव यानी उत्पत्ति, दोनों में समानता है । अर्थात्, जैसे यह विचार व्यर्थ है कि भाव उत्पत्ति भविता = उत्पाद्य से भिन्न है या अभिन्न है, इसी प्रकार नाश नाश्य से भिन्न है या प्रभिन्न है यह चिन्तन भी व्यर्थ है । व्याख्याकार ने उक्त विचार की व्यर्थता को स्फुट करने के लिये बौद्धों का अभिप्राय प्रस्तुत करते हुए इस प्रकार [ पूर्वपक्ष के ] विचार को प्रस्तुत किया है कि-नाश के सम्बन्ध में दो पक्ष हो सकता है। ( १ ) एक यह कि नाश नाश्य से भिन्न माना जाय अथवा तो ( २ ) नाश नाश्य से अभिन्न माना जाय । यहाँ दूसरे पक्ष में उत्तरभाव ही पूर्वभाव का नाश होगा और वह उत्तरभाव तो सहेतुक होता है अत एव उस पक्ष में नाश सहेतुक होने पर भी जैनाभिमत अपेक्षाभेद से स्थिर नश्वर सहेतुक नाश की सिद्धि नहीं हुई । यदि 'नाश नाश्य से अतिरिक्त होता है इस प्रथम पक्ष को स्वीकार किया जायगा तो इस पक्ष में दो विकल्प होंगे । ( १ ) एक यह कि नाश अवस्तुरूप है। ( २ ) दूसरा यह कि वस्तुरूप है । यवि नाश को वस्तुरूप माना जायगा तो प्रग्नि आदि से काष्ठादि का नाश मानने पर भी उसके साथ काष्ठादि का विरोध नहीं होगा क्योंकि श्रवस्तु भूत नाश से वस्तुभूत काष्ठादि का विरोध होना
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[ शास्त्रवात्ती ० स्त० ६ श्लोक ११
सम्भव नहीं है। अतः काष्ठादि का स्वभिन्न अवस्तुभूत विनाश होने पर भी काष्ठादि तदवस्थ रहने से विनाश के पूर्वकाल के समान विनाशकाल में भी काष्ठादि के प्रत्यक्ष की प्रापत्ति होगी । (२) यदि विनाश वस्तुरूप होगा तो यह प्रश्न उठेगा कि 'काष्ठादि का ध्वंस अङ्गारादि रूप ही होता है घटपटादिरूप नहीं होता है इसका क्या कारण ?' यदि इस प्रश्न के उत्तर में यह कहा जाय कि- "अङ्गार आदि के होने पर काष्ठावि की निवृत्ति होती है, घटपटादि के होने पर काष्ठादि की निवृत्ति नहीं होती, अतः काष्ठ की निवृत्ति अङ्गारादिरूप ही है, घटपटादिरूप नहीं है" - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि काष्ठनिवृत्ति को अङ्गार प्रादि से भिन्न न मानने पर 'अंगारादि होने पर काष्ठनिवृत्ति होती है' इस वाक्य का अर्थ उपपन्न नहीं हो सकता ।
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किञ्च, एवं भावनिवृत्तावभिधेयायां भावान्तरविधानमभिहितमित्यप्रस्तुताभिधानम् । किञ्च, भावान्तरस्य प्रध्वंसत्वे तद्विनाशाद् घटाद्युन्मञ्जनप्रसक्तिः । न च कपालादेर्भावरूपतेव ध्वस्ता स्वभावरूपतेति नायं दोष इति वाच्यम्, भावान्तररूपस्याभावस्य तदभावे प्रच्युतत्वात् । क्ष भावस्तु कल्पतरूपते न उभावरूपानुविद्धः तस्य च कार्यत्वे हेत्वनन्तरं भक्तृित्वेन भावत्वं स्यात्, अभावात्मकतयैवासी भवतीति च व्याहतमेतत् ।
[ नाश के पश्चाद् घट के पुनः उन्मजन की आपत्ति ]
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि भावनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसंग में उसे भावान्तर के रूप में विधान करने से अप्रस्तुत के अभिधान को प्रसक्ति होती है । और दूसरी बात यह है कि यदि प्रध्वंस को भावान्तररूप माना जायगा तो कपालादिरूप घटप्रध्वंस का विनाश होने पर घटादि के उन्मज्जन ( पुनर्जन्म ) की आपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि- कपालादि के नाशक से कपालादि की भावरूपता ही नष्ट होती है, प्रभावरूपता नहीं ध्वस्त होती, अतः भावरूप से कपालादि का नाश होने पर भी अभावरूप से कपालाविरूप घटध्वंस विद्यमान रहता है अतः घटादि के उन्मज्जन को आपत्ति नहीं हो सकती' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि अभाव यानी विनाश यदि भावान्तररूप होगा तो भावान्तर का विनाश होने पर सद्रूप अभाव यानी विनाश का भी विनाश अवश्य होगा। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि अभाव का अनुभव तुच्छरूप में ही होता है, भावरूप से अनुविद्ध प्रभाव का अनुभव नहीं होता । अतः उसे भावस्वरूप मानना उचित भी नहीं है । यह भी विचारणीय है कि अभाव यानी विनाश को यदि कार्यरूप माना जायगा तो हेतु के अनन्तर भवनशील होने से वह भावात्मक हो जायगा । फिर, तुच्छरूप में उसका अनुभव न हो सकेगा । यदि यह कहा जाय कि “विनाश यह कार्यरूप होने पर भी अभावात्मकरूप में ही हेतु द्वारा उत्पन्न होता है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि 'विनाश अभावात्मक भी है और हेतु के अनन्तर अभावात्मकरूप से भवनशील होता है यह यचद व्याहत है, क्योंकि जो अभावात्मक है उसे हेतु के पश्चात् 'भवति' इस रूप से व्यपदिष्ट नहीं किया जा सकता ।
अपि च, यदि हेतुमान् विनाशस्तदा तद्भेदादात्मभेदं किं नानुभवेत् ? । दृष्टो हि घटादीनां कार्यरूपाणां कारणभेदाद् भेदः । ध्वंसस्य लग्न्यभिघातादिहेतुभेदेऽपि न भेदोऽनुभूयते, सर्वत्र विकल्पज्ञाने तुल्यरूपस्यैवाभावस्यावभासनात् । किञ्च, अस्य हेतुमचे विनाशप्रसंगो
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
दुरुद्वरः, तद्विनाशहेत्वदर्शनात् । तदविनाशे वुद्धयादीनामप्यनाशप्रसङ्गः । 'कार्यत्वेन प्रतियोगितया नाशहेतुत्वाद् बुद्धयादीनां विनाशः कल्प्यते' इति चेन् ? तुल्यमिदमन्यत्र । 'भावकार्यत्वेनैव तथात्वाद् न दोष' इति चेत् १ न, भावत्वप्रवेशे गौरवात् , प्रागभावासंग्रहाच्च । यस्तु घटनाशनाशादिधारामेव घटविरोधिनीमङ्गीकुरुते तस्य 'घटनाशो नष्टः' इत्यपि धीदु निवारा । तस्माद् मृद्रादेः कपालायुत्पत्तावन्तरा कस्यचिद् ध्वंमस्याऽदर्शनादकिश्चिद्रूपतयानुभूयमानोऽसन्नेवाऽयम्, न तु सहेतुकः, अनन्ततद्धवादिकल्पने गौरवाच्चेति ।
यह भी दृष्टव्य है कि बिनाश यदि सहेतुक होगा तो हेतुभेव से उसके नानास्वरूप के अनुभव को प्रसक्ति होगी। क्योंकि कारण के भेद से घटादिरूप कार्यों में भेदानुभव दृष्ट है किन्तु ध्वंस का अग्नि और पशु आदि के अभिघात इत्यादि रूप विभिन्न हेतुओं से उत्पन्न होने पर भी उसमें भेवानुभव नहीं होता किन्तु किसी भी हेतु से काष्ठ का ध्वंस होने पर समानरूप से ही 'काष्ठ नष्ट हो गया' इस प्रकार काष्ठ विनाश को प्रतीति होती है।
[सहेतुक पक्ष में नाश के नाश की आपत्ति ] इस के अतिरिक्त यह भी दोष है कि यदि विनाश सहेतुक होगा तो उसके विनाश को आपत्ति भी अपरिहार्य होगी। यहाँ इष्टापत्ति नहीं की जा सकती क्योंकि विनाश का हेतु उपलब्ध नहीं होता। तथा सहेतुक होने पर भी यदि विनाश का विनाश न होगा तो बुद्धघादि के भी विनाशाऽभाव को प्रसक्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि-'प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाश के प्रति कार्य कारण होता है अतः बुद्धयादिरूप कार्य के विनाश की कल्पना की जाती है तो यह युक्ति विनाश के सम्बन्ध में भी समान है क्योंकि विनाश भी कार्य है। 'प्रतियोगिता सम्बन्ध से विनाश के प्रति भाव कार्य कारण है ऐसा मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता'-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि कारणतावच्छेदक के शरीर में भावत्व का प्रवेश करने में गौरव होगा और उसका प्रवेश करने पर प्रागभाव का नाशा नहीं हो सकेगा। क्योंकि कारणतावच्छेदक कुक्षि में भावत्व का प्रवेश न करने पर उत्पाद्य और परिपाल्य उभय साधारण कार्यस्वरूप से कार्य को प्रतियोगिता सम्बन्ध से नाश का कारण मानने पर, प्रागभाव का नाश तो हो सकता है किन्तु कारणतावच्छेदक कुक्षि में भावत्व का प्रवेश करने पर उसका भी नाश न हो सकेगा।
[ घटनाश-नाश की परम्परा मानने पर आपत्ति ] जो कोई इस सम्बन्ध में यह कहता है कि-जैसे घटनाश घट का विरोधी है से घटनाशनाशादि की धारा भी घट को विरोधी है । अत: नाश को सहेतुक और नश्वर मानने पर घटनाश का नाश होने पर भी घटादि के पुनः उन्मज्जन की आपत्ति नहीं हो सकती'-उसके मत में 'घटनाशो नष्ट:' इस बुद्धि का परिहार दुष्कर होगा । अतः निष्कर्ष यह है कि मुद्गरादि से कपालादि की उत्पत्ति होने पर मुद्गरसंनिधान और कपालोत्पत्ति के मध्य में ध्वंस नामक किसी भी अर्थ का दर्शन न होने से ध्वंस के बारे में यही धारणा प्रमाणित होती है कि ध्वंस अफिश्चित रूप तुच्छ रूप से अनुभूत होने वाला प्रसत् पदार्थ है। अतः वह सहेतुक नहीं है। सहेतुक मानने पर उसके हेतु और उसके नाश के हेतु आदि की कल्पना करने में महान् गौरव होगा।"
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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ११
अत्र ब्रूमः-अंगारादिसशानुद्धिासदशरूपायाः काष्ठादिनिवृत्तेरभ्युपगमे किं पणम् ! 'काष्ठादेरङ्गारादिकमेव मंसो नापरः इत्यत्र किं निबन्धनम् ?' इत्यत्र 'अङ्गारादिरूपव॑से काष्ठादिनिरूपितत्वे कि प्रमाणम् ?' इति प्रश्ने तत्प्रतियोगिकत्वेनानुभवस्ययोत्तरत्वात् । 'अङ्गारादेस्तद्ध्वसत्वे कि मानम् ?' इति प्रश्ने च तस्मिन् सति तम्भिवृत्तिः' इत्येवोचरम् , 'अङ्गारादिकं काष्टध्वंसः, काष्टानुपलब्धिनियतोन्पत्तिवकाष्ठपरिणामस्वात् , काष्ठचूर्णवत्' इत्यनुमानात । 'अन्यस्य तथावं किं न भवति ?' इत्यत्र व स्वभाव एव नियामकः । 'कपालस्वरूपानुभवे घटनिवृत्त्यननुभवादन तद्रपा तन्निवृत्तिः' इति चेत् १ न, कपालोत्यादरम्याऽप्येवमतद्रूपत्वापत्तेः । 'कयालाघभिन्नायां निवृत्ती, उत्पत्ताविव घटीयत्वं न स्यादिति चेत् ? न, 'घटादुत्पन्नः' इत्युत्पत्तौं घटारधिकत्ववद् 'घटस्य नाशः' इत्यत्र निवृत्यंशेऽपि घटप्रतियोगिकत्वेऽविरोधात् , एकान्त एव तत्प्रसरात । एवं चा प्रस्तुतताभिधानमपि निरस्तम् , निवृत्त्यंशस्याधिकत्वात् । एतेन भावान्तररूपत्वे ध्वंसस्य तन्नाशे प्रतियोग्युन्मजनमपि निरस्तम्, कपालद्रव्यस्य भाशत्मकरूपान्तरपत्रिहेऽपि निवृत्त्यात्मकरूपान्तराऽपरिग्रहात् । 'कपालात्मना भगुरं कपालं घटनिवृत्त्यात्मनापि किं न भङ्गुरम् ?' इति चेत् ? कपालैक्योपलम्भजनकदोपात्मना निवर्तमाना कपालक्षण संतति देक्योपलम्भजनकदोयात्मनापि किं न निवतेते ? इति वक्तव्यम् । 'सा संततिः प्रदीर्घ 'ति चेत् ? निवृत्तसंततिरपि तथा । इयोस्तु विशेष: यदियं निवृत्यात्मना प्रत्यभिज्ञाविशेषात्मकमृदविखण्डेकतां, प्रतिकपालादिविशेष च भावात्मना सखण्डकतामनुभवतीति । 'कपालात् पृथक्कृत्य 'घटनाशं कपालं नष्ट' इतिवद् 'घटनाशो नष्टः' इति किं न प्रयोगः १ इति चेन् ? न, यथा मृद्रव्यं नष्टमिति । 'विषक्षाभेदेन तत्र योग्या-योग्यत्वमिति चेत् ? तुल्यमेतदन्यत्र ।
[बौद्ध प्रतिपादित प्रश्नों का समाधान ] बौद्ध द्वारा उद्भावित उक्त दोषों के सम्बन्ध में जैन की ओर से क्रम से ये उत्तर दिये जा सकते हैं। उत्तर का उपक्कम करते हुये जैन की ओर से यह प्रश्न उपस्थित किया जाता है किकाष्ठादि की निवृत्ति को अङ्गाराधि के सदंश से मीलित अङ्गारादि के असवंशरूप मानने में क्या दोष है ? यह इसलिए मानते हैं कि यह प्रतीति होती है कि अङ्गार अब अङ्गाररूप से सत् है और काष्ठरूप से प्रसत् है । तो यह प्रश्न है कि-प्रकार के सदंश मीलित असदंशरूप काष्ठनिवृत्ति को मानने में क्या दोष ? यदि यह कहा जाय कि-"सङ्गारावि ही काष्ठादि का ध्वंस है, घटपटादि नहीं-इसमें क्या हेतु है-इस प्रश्न का समाधान न हो सकना ही दोष है"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि इस प्रश्न का स्वरूप यदि ऐसा हो कि अङ्गाराविरूप ध्वंस काष्ठादि निरूपित होने में क्या प्रमाण है ?' तो इसका उत्तर यह है कि अङ्गारादिरूप ध्वंस का फाष्ठादिप्रतियोगिकत्वरूप से अनुभव ही उक्त ध्वंस के काष्ठाविनिरूपित होने में प्रमाण है। यदि उक्त प्रश्न का स्वरूप यह हो कि-'अङ्गारादि की काष्ठ
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विजेचन ]
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ध्वंसरूपता में क्या प्रमाण है ?' तो इस का उत्तर यह है कि अङ्गारादि के होने पर काष्ठ को निवृत्ति होना ही प्रमाण है । निवृति का अर्थ है ऐसे काष्ठपरिणाम की उत्पत्ति जो काष्ठानुपलटिध नियत होती है। इस प्रकार अङ्गारादि की काष्ठध्वंसरूपता में प्रमाणरूप से यह अनुमान प्रस्तुत किया जा सकता है कि- 'अङ्गारादि का है' का ऐसा परिणाम है जिस को उत्पत्ति काण्डानुपलब्धिनियत होती है । जो भी काष्ठपरिणाम इस प्रकार का होता है वह storiesप होता है जैसे काष्ठ का चूर्ण | 'काष्ठचूर्ण की काष्ठध्वंसरूपता सर्वजन मान्य है । इसलिये उस दृष्टान्त से उक्त हेतु द्वारा श्रृंगारादि में काष्ठध्वं सरूपता की सिद्धि निर्बाध है ।
इसी प्रकार, उक्त प्रश्न का स्वरूप यदि यह हो कि 'अङ्गारादि से भिन्न द्रव्य काष्ठध्वंसरूप | यदि यह कहा जाय क्यों नहीं होता ?' तो इस का उत्तर यह है कि इसका नियामक स्वभाव fe" aurora का अनुभव होने पर भी घटनिवृति का अनुभव नहीं होता अत एव घटनिवृत्ति कपालस्वरूप नहीं हो सकती" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि कपाल के स्वरूपानुभव होने पर भी घटनिवृत्तिरूप में अनुभूयभान न होने से यदि घटनिवृत्ति में कपालरूपत्वाभाव माना जायगा तो कपालोत्पाद में भी कपालरूपत्वाभाव की आपत्ति होगो क्योंकि वह भी कपालस्वरूप के अनुभव होने पर भी अनुभूयमान नहीं होता ।
[ उत्पत्तिवद् निवृत्ति में घट निरूपितत्व की उपपत्ति ]
यदि यह कहा जाय कि "घटनिस को कपाल से अभिन्न मानने पर असे कपाल से अभिन उत्पत्ति में घटीयत्व - घटनिरूपितत्व नहीं होता उसी प्रकार निवृत्ति में भी घटीयत्व नहीं होगा ।"-- तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि- 'घटावुत्पन्नः कपाल:' इस व्यवहार के अनुरोध से जैसे कपाल उत्पत्ति में acrafter feद्ध होता है उसी प्रकार 'कपालः घटस्य नाश:' इस व्यवहार के अनुरोध से कपालात्मक नाश में घटप्रतियोगिकत्वरूप घटीयत्व की सिद्धि में भी कोई विरोध नहीं हो सकता । यदि घटनाश को कपाल से अत्यन्त प्रभिन्न माना जाता तभी कपाल में घटप्रतियोगित्व न होने से तदात्मक नाश में भी घटीयत्वाभाव का प्रसङ्ग होता । किन्तु घटनाश में कपाल का कथवित् भेवअभेद उभय मान्य होने से भेदांश के द्वारा उसमें घटप्रतियोगित्व होने में कोई बाधा नहीं हो सकती इसी प्रकार 'भावनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में भाव का विधान करने से प्रर्थात् घटनिवृत्ति के प्रतिपादन के प्रसङ्ग में घटनिवृत्ति का कपाल रूप में वर्णन करना यह अप्रस्तुत कथन है' यह दोष भी निरस्त हो जाता है क्योंकि घटनाश को कपालात्मक बताने में कपाल का केवल भाषांश हो नहीं कथित होता, किन्तु उससे अतिरिक्त घटनिवृत्त्यंश भी कथित होता है। आशय यह है कि मुद्गर से प्रहृत घट से उत्पन्न होने वाला कपाल जैसे एक भावात्मक परिणाम है उसी प्रकार वह दूसरा घटाभावात्मक परिणाम भी है। अत: प्रस्तुत घटनिवृत्ति का भी कथन होने से कपाल का घटनाशात्मना वर्णन अप्रस्तुत अभिधानरूप नहीं कह सकते । इसीलिये यह दोष भी कि ध्वंस को भावान्तररूप मानने पर भावान्तर का नाश होने पर ध्वंस का भी नाश हो जाने से प्रतियोगी के उन्मज्जन की आपत्ति होगी' - निरस्त हो जाता है, क्योंकि घटनावस्वरूप कपालवध्य जब अपने कपाल मात्रात्मक रूप का परित्याग कर कपालिका अथवा चूर्ण आदि भावात्मक रूपान्तर का परिग्रह करता है उस समय भी वह अपने घठनिवृत्तिनात्मक रूप को छोड़कर घटनिवृत्ति की निवृत्यात्मक रूपान्तर को नहीं प्राप्त करता ।
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। शास्त्रवाती स्त० ६ श्लोक ११
[ घट निवृत्तिरूप से कपालभंगापत्ति का उत्तर ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि- 'कपाल और घटनिवत्ति दोनों जब अभिन्न है तब कपालरूप से उसका भंग होने पर घटनित्तिाप से भी उसका भग क्यों नहीं होता ?'-तो इसके उत्तर में प्रतिबन्दी प्रस्तुत की जा सकती है कि बौद्धमत में कपालक्षणसन्तान यह कपाल में ऐक्योपलाभ का जनक दोषरूप है और मत्तिका के ऐक्योपलम्भ का भी जनक दोषरूप है क्योंकि उस कपालक्षणसन्तानकाल में 'तदेवेदं कपालम्' यह उपलभ सन्तान के आरम्भ से अन्त तक जंसे होता है उसी प्रकार 'इदं कपालम् मदेव' इस प्रकार का भी उपलम्भ होता है। किन्तु कपालक्षण-सन्तान के भंग का कारण उपस्थित होने पर उक्त सन्तान कपाल के ऐक्योपलभ के जनक दोषरूप से हो निवस होता है किन्तु मृत्तिका के ऐक्योपलम्भ के जनक दोषरूप से निवत्त नहीं होता क्योंकि कपाल के कपालिका अथवा चूर्णरूप में उत्पन्न हो जाने पर भी मत्तिका के ऐक्य का उपलम्भ तो होता है । अतः यह प्रश्न बौद्ध मत में भी हो सकता है कि कगालक्षण-सन्तान जब कपालैक्योपलम्भजनक दोष और मदक्पोपलाभ जनक दोष उभय स्वरूप है तब प्रथम दोषरूप से उस सन्तान की नित्ति होने पर द्वितीय दोषरूप से भी उस सन्तान को निवृत्ति क्यों नहीं होती ?
[ घटनिवृत्ति मनानरूप से कपाल संतति की चिरकालस्थायिता ] यदि बौद्ध की ओर से इसका यह उत्तर दिया जाय कि 'मदैवयोपलम्भजनक दोषात्मना यह सन्तति दीर्घकालस्थायिनी होती है अतः कपालैक्योपलम्भजनक दोषरूप से उसकी निवृत्ति होने पर भी मवक्योपल भजनक दोष रूप से उसकी नित्ति नहीं होती -इस प्रकार का उत्तर घटनिवृत्ति को कपाल के भावांश और घट के अभावांश से अनुविद्ध मानने के पक्ष में भी दिया जा सकता है। अर्थात् यह कहा जा सकता है कि घटनिवत्ति के सन्तानरूप से कपालसन्तति दीर्घकालस्थायिनी होती हैं। अत एष कपालात्मकभावसन्तानरूप से उसकी निवृत्ति होने पर भी घटनिवत्ति-प्रात्मक अभावसन्तान रूप से उसकी निवृत्ति नहीं होती। कपालसन्तति को भावात्मक संतति और अभावात्मक संतति उभयस्वरूप मानने में अन्तर यह है कि उक्त सन्तति निवृत्त्यात्मना मत्तिका के साथ अखाडकत्ता का अनुभव करती है-जो घटमिति के पूरे समय में घट के मूलभूत मृत्तिका के जितने भी परिणाम होते हैं उन सभी में मद्रपता को बुद्धिरूप प्रत्यभिज्ञाविशेषात्मक है, तथा उक्त सन्तति भावात्मना सखण्डकता का अनुभव करती है क्योंकि--कपाल के आरम्भ से अन्त तक 'तदेवेदं कपालम्' इस प्रकार से तत और इदंरूप में सखण्डता को अवभासित करती हुई एक कपालात्मकता को ग्रहण करती है।
['घटनाशो नष्टः' इस व्यवहार की आपत्ति का उत्तर ] यदि यह प्रश्न किया जाय कि-'घटनाश और कपाल को अभिन्न मानने पर कपाल भंग होने पर जैसे 'घनाशात्माक कपाल नष्ट हो गया' यह व्यवहार होता है उसी प्रकार कपाल को दोडकर 'घटनाशो नष्टः' यह व्यवहार क्यों नहीं होता है ?' तो इसका उत्तर यह है कि जैसे मृद्रव्य और कपाल के अभिन्न होने पर भी कपालभंग होने पर 'कपालात्मक मृवद्रध्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार होता है किन्तु कपाल को छोडकर 'मददव्य मष्ट हो गया इस प्रकार व्यवहार नहीं होता, उसी प्रकार 'घदनाशो नष्ट:' यह व्यवहार नहीं होता है।
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स्या० का टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
१०७
आशय यह है कि घटनाश और कपाल में यद्यपि अभेद है किन्तु घटनावात्व और कपालश्वरूप से उसमें भेद भी है । क्योंकि यह कपालस्वरूप से ही नाश्य है, घटनाशस्वरूप से नाश्य नहीं है। जैसे कपाल और मध्य में अभेव होने पर भो मध्यत्व और कपालस्वरूप से भेद होता है और कपाल कपालत्यरूप से ही नाश्य होता है मद्रव्यत्वेन नाश्य नहीं होता। कपालात्मक मृदध्य का नाश होने पर भी 'कपालात्मक मृद्रव्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार होता है और 'मृद्रव्य नष्ट हुआ' यह व्यवहार क्यों नहीं होता है-इस प्रश्न का उत्तर यदि बौद्धों की ओर से दिया जाय कि
कपाल का नाश कपाल और मदद्रश्य उभयरूप में ही हो जाता है किन्तु कपाल में नष्टत्व को विवक्षा कपालस्वरूप से ही होती है मृदव्यत्यरूप से नहीं होती । अत एव 'मृद्ध्य नष्ट हुम्रा' यह व्यवहार अयोग्य और 'कपालद्रध्य नष्ट हुआ यह व्यवहार योग्य माना जाता है।" तब तो इस प्रकार का उत्तर जैन की ओर से भी दिया जा सकता है कि-"घटनाश प्रौर कपाल अभिन्न होने से कपाल घटनाशत्व और कपालत्व उभयरूप से नष्ट होता है फिर भी कपाल में कपालस्वरूप से ही नष्टत्व की विवक्षा होती है, घटनाशत्यरूप से नहीं। अत एव 'धटनाशात्मक कपाल नष्ट हुआ यह व्यवहार योग्य और 'घटनाश नष्ट हुआ' यह व्यवहार अयोग्य होता है।"
यहाँ यह बात ध्यान में रखना आवश्यक है कि जैन का यह उत्तर मात्र प्रतिबन्दी के रूप में प्रस्तुत हुआ है, सिद्धान्तरूप में नहीं, क्योंकि घटनाश और कपाल के ऐक्य पक्ष में मो कपाल का कपालास्मरूप से हो नाश जैनमत में मान्य है घटनाशरूप से मान्य नहीं है ।
यत्तु-'तुच्छकरूपतयाऽनुभूयतेऽभावः' इत्युक्तम् , तदनभ्युपगमोपहतम् , उभयरूपस्यैव तस्यानुभवात् । 'अभाशंशानुभक्काले भावत्वेनाऽननुभूयमान-बं तुच्छरसमिति चेत् ? भावांशानुभवकालेऽभावत्वेनाऽननुभूयमानत्वमयि किं न तथा ? । 'शशविषाणादिवद् निःस्वभावतयाऽनुभूयमानत्वं तुच्छत्त्वं चेत् ? न, असिद्धः, तत्तुल्यत्व उत्पादादियोगितयाऽननुभवप्रसङ्गात् ।
घटादिनिवृत्ति को सदंश-असदंश उभयरूप से अनुविद्ध मानने पर जो यह दोष दिया गया है कि-'प्रभाव एकमात्र तुच्छरूप में अनुभूत होता है प्रतः उसको सदंश से अनुविद्ध नहीं माना जा सकता'-यह अनभ्युपगम से बाधित है। अर्थात् 'प्रमाव का एकमात्र तुच्छरूप में ही अनुभव होता है। ऐसा जनों का अभ्युपगम( =मत) नहीं है। किन्तु सत् और असत् उभयात्मरूप से अभाव का अनुभव जैन मत का मान्य है । प्रत उक्त अस्वीकृत अनुभव के आधार पर अभाव में सदंशानुविद्धता का निराकरण नहीं किया जा सकता ।
[ तुच्छत्व के विविध विकल्प का निराकरण ] यदि यह कहा आय कि-'अमावांश के अनुभव काल में भावस्वरूप से प्रभाव का अनुभव न होना ही अभाव को तुच्छता है तो यह भी क्यों नहीं कहा जा सकता कि भावांश के अनुभव काल में अभावत्वरूप से अनुभव न होना ही तुच्छता है और ऐसा होने पर भाव मी तुच्छ हो जायगा। यदि यह कहा जाय कि-'जैसे शशविषाण आदि निःस्वभावतया अनुभूयमान होता है उसीप्रकार अभाव भी निःस्वभावतया अनुभूयमान होता है । निःस्वभावतया अनुभूयमानता हो तुच्छता है' तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अभाव का निःस्वभावतया अनुभव प्रसिद्ध है। यदि शविषाणावि के सादृश्य से
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। शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० ११
अमाव का निःस्वभावतया अनुभव माना जायगा तो जैसे शशविषाणादि का उत्पत्त्यादिमदूपेण अनुभव नहीं होता उसी प्रकार प्रभाव का भी उत्पत्ति आदि मद्रूपेण अनुभव नहीं हो सकेगा।
किञ्च, अयमीदृशः सन मुद्रादिव्यापारानन्तरमेव कथमुपलभ्यते, नान्यदा ? इति । 'असतोऽपि शुक्ती रजतादेः शुक्तिभ्रमदशायामेव दर्शनपदसन्नपि घटसः परस्तद्वेतुत्वाभिमतानां समवधान एशेपलभ्यत' इति चेत नन्वेचमनन्यथासिद्धान्वय-व्यतिरेकप्रतियोगिमुद्भरादिजन्यत्वस्य घटध्वंसेऽपलापे घटादेप्यसत एव दण्डादिसमाजे भानोपपत्चावपलापग्रसङ्गः । न चेष्टापतिरत्र योगाचारस्येति वाच्यम् , ज्ञानाकारस्यापि घटादेरसत एव तदा स्फुरणापत्तः। घटाद्यर्थिप्रवृत्याद्यन्यथानुपपत्या घटादेः सत्योपगमे घटध्वंसाद्यर्थिप्रवृत्त्यन्यथानुपपत्त्या घटध्वंसादेपि सत्त्वं किं नेष्यने ।
[नाश में मुद्गरादिहेनुता अनिवार्य ] यह भी विचारणीय है कि-यवि विनाश अहेतुक है तो मुद्गरादि के व्यापार के अनन्तर हो क्यों उपलब्ध होता है ? उसके पूर्व भी क्यों उपलब्ध नहीं होता? इस प्रश्न का बौद्ध के मत में कोई समाधान नहीं हो सकता। यदि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'जंसे शुक्ति में असत् भी रजतादि का सब काल में दर्शन नहीं होता किन्तु शक्तिभ्रम यानी शुक्तिरजतभ्रम दशा में ही उसका वशन होता है उसी प्रकार घरध्वंस के असत् होने पर भी अत्यवादियों द्वारा ध्वंस के हेतु माने जाने वाले पदार्थों का समवधान होने पर ही उपलब्ध होता है'-यह उत्तर ठीक नहीं हो सकता क्योंकि घटध्वंस का मुद्गरादि के साथ अनन्यथा सिद्ध अन्वयव्यतिरेक होने पर भी यदि घटध्वंस को असत् मानकर उसमें मुद्गराविजन्यस्व का अपलाप किया जायगा तो घटादि को भी असत् मानते हुये दण्ड आदि के समवधान में उसके दर्शन की उपपत्ति करके घट प्रादि में वण्डादिजन्यत्य का भी अपलाप किया जा सकता है। घटपटादि बाह्यार्थ का अपलापी योगाचार वादी इसमें इष्टापत्ति नहीं कह सकता क्योंकि उनके मत में भी घटाकारवद् प्रसद् ही ज्ञानाकार के स्फुरण यानी प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। और उसे उनके मत में इष्टापत्ति नहीं कहा जा सकता क्योंकि योगाचार मत में जान भिन्न घटादि की ही असत्ता मानी जाती है, ज्ञानाकार घटादि की सत्ता तो उन्हें भी मान्य है। उक्त आपत्ति के परिहार के लिये बौद्ध की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'घटायों पुरुष को दण्डादि के ग्रहण में नियमतः प्रवृत्ति होती है यह प्रवृत्ति घटााद को दण्डाविजन्य न मानने पर नहीं हो सकती। अत एव दण्डादिजन्य घटादि की सत्ता आवश्यक है -तो इसी प्रकार घटध्वंस के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि 'घरध्वंसार्थी पुरुष की मुद्गारादि के ग्रहण में नियम से प्रवृत्ति होती है। यह प्रवृत्ति भी घटध्वंस को मुद्गरादिजन्य न मानने पर नहीं हो सकती। अतः मुद्गरादिजन्य घटध्वंसादि की भी सत्ता क्यों न मानी जाय? !'
यदपि 'भवितत्वेऽमावस्य भावत्वं स्यात्' इति । तदप्यपद्यम् अभावप्रत्ययविपयत्वेन भवितृत्वेऽप्यभावरूपत्वात् , यथा भवितृत्वेनाविशेपेऽपि घट-पटयोः 'घटोऽयम्' 'पटोऽयम्' इति विभिन्नधीविषयत्वाद् विशेषस्तथा भवितृत्वेनाविशेपेऽपि भावाऽभावयोः
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स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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'अस्ति'- 'नास्ति' इति धीविषयत्वेन विशेषसंभवात् । यदपि 'अभावात्मकतयैव चासौं भवतीति च व्याहतमेतत्' इति तदपि तुच्छम् अभावपदस्याभवनरूपक्रियार्थत्वाभावात्, भावत्वस्य भावपदस्येवाभावत्यस्यैवाभाव पदस्य प्रवृत्तिनिमित्तत्वात्तुः अन्यथा 'भावो भवति' इति 'भवनं भवति' इतिवद् निराकाङ्क्ष स्यात् । अथ 'नास्ति' इति धीविषयत्वादेव शशविषाणादिवद् न नाशः कार्यइति त् ? 'अस्ति' इति धीविषयत्वादाकाशादिवद् घटादिरपि न तथा स्याद्; हेत्वन्वयव्यतिरेकानुविधानं चोभयत्र तुल्यमिति ।
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[ अभाव भाव हो जाने की आपत्ति का प्रतिकार ]
बौद्ध की ओर से अभाव को सहेतुक मानने पर जो यह दोष दिया गया है कि- 'अभाव को भवनशील मानने पर वह भावरूप होगा प्रर्थात् प्रभाव को हेतुव्यापार के अनन्तर भविता यानी भवनशील मानने पर अभाव भावरूप हो जायगा' यह दोष भी उचित नहीं है क्योंकि अभाव भवनशील होने पर भी अभाव प्रतीति का विषय होने से उसको अभावरूपता में बाधा नहीं हो सकती । प्राशय यह है कि जैसे घट और पट दोनों ही भावशील होने से समान है फिर भी 'यह घट है' और 'यह पट है' इस प्रकार विभिन्न ज्ञान के विषय होने से उनमें घटत्व-पटत्व इन विशेषरूपों को सिद्धि होती है। उसी प्रकार भाव और प्रभाव दोनों भवनशील होने से समान होने पर भी प्रस्ति नास्ति इन विभिन्न ज्ञानों का विषय होने से भाव की सद्रूपता और अभाव की सद्रूपता यानी अभावरूपता इस प्रकार का विशेष निर्विवाद है।
[ अभाव और भवनशीलता में कोई विरोध नहीं है ]
इसी प्रकार बौद्ध की ओर से प्रभाव को भवनशीलता मानने पर जो यह दोष दिया गया कि- 'घटादि का विनाश अभावात्मकरूप से भवनशील होता है यह वचन व्याहत है, क्योंकि अभावात्मकता और भवनशीलता में विरोध है । तो यह दोष भी तुच्छ है। क्योंकि यह दोष तभी हो सकता
जब भवनरूप क्रिया के विरोधी अमवनरूपक्रिया को प्रभावपद का अर्थ माना जाय । किन्तु भावत्व जैसे भावपद का प्रवृत्ति निमित्त होता है उसी प्रकार अभावत्वरूप धर्म को अभाषपद का प्रवृत्ति निमित्त मानने पर वह दोष नहीं हो सकता, क्योंकि भावत्य और अभावत्व इन धर्मो में विरोध असिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि भायपद का दृष्टान्त उचित नहीं है क्योंकि भावपद का प्रवृत्ति निमित्तभूत भाव भी कोई अतिरिक्त धर्म न होकर भवन क्रियारूप ही है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि भवन क्रिया को भावपद का प्रवृत्ति निमित्त मानने पर 'भावः भवति' यह वाक्य भी 'भवनं भवति' इस वाक्य के समान निराकांक्ष हो जायगा ।
कहने का तात्पर्य यह है कि 'भवनं भवति' इस स्थल में भवनशब्दार्थ में भवति शब्दार्थ भवनक्रिया की श्राश्रयता का अन्वय मानने में यह वाक्य प्रयोग्यार्थक होगा और सूधात्वयं भवन क्रिया शब्दार्थ का तादात्म्य से अन्वय मानने पर वाक्य निराकाङ्क्ष होगा । उसी प्रकार 'भाव: भवति' इस स्थल में भी भावशब्द को भावप्रत्ययान्त मानने पर उसका अर्थ भवनक्रिया होगा और उसमें भवति शब्दार्थ भवनक्रिया की साश्रयता का अन्वय करने पर वाक्य प्रयोग्यार्थक होगा तथा
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो०११
भावशव को कर्तृ प्रत्ययान्त मानने पर उसका अर्थ भवनाश्रयरूप भयवकर्ता होगा उसमें भवति शब्द के भवनाश्रयता रूप अर्थ का अन्वय मानने पर 'भावो भवति' यह वाक्य भी निराकास होगा।
['नास्ति' बुद्धि विषयता से अहेतुकता सिद्ध नहीं होती ] ___ यदि बौद्ध को प्रोर से यह कहा जाय कि-'जैसे शशविषाणादि नास्ति' इस बुद्धि का विषय होने में किसो नेट का मार्ग नीयो सकता उसी प्रकार नाश भी 'नास्ति' इस बद्धि का विषय होने से किसी हेतु का कार्य नहीं हो सकता'- तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि-इसी प्रकार यह भी कहा जा सकता है कि अस्ति इस बुद्धि का विषय होने से जैसे आकाशादि पदार्थ किसी हेतु का कार्य नहीं है इसी प्रकार घटादि भी 'अस्ति' इस बुद्धि का विषय होने से किसी हेतु का कार्य नहीं हो सकता । फलतः नाश के समान घटादि भाव पदार्थों में भी अहेतुकरव की प्रापत्ति होगी। इसके उत्तर में यदि कहा आय कि-'घटादि पवार्थ दण्डावि हेतु के अन्यय-व्यतिरेक का अनुविधान करता है अत एक दण्डादि को घटादि का कारण मानना प्रावश्यक है'-तो यह बात विनाश में भी तुल्य है क्योंकि-घटावि का विनाश भो मुद्गरादि के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान करता है, प्रतः उसे भी मुद्गरादि का कार्य मानना अपरिहार्य है।।
अथ मुइराद्यन्वय-व्यतिरेकानुबिंधानं कपालजनन उपक्षीणम, यथा नैयायिकादीनां भूतले घटानयनं भूतलघटसंयोगजनने, तस्य प्राग्वर्तिघटात्यन्ताभावाप्नाशकस्यात् । घानुपलम्भस्तु तदा* स एच स्वरसतो न भवतीति हेतोरिति चेत् । न, 'स न' इत्यत्र नशब्दयाच्यस्यैवाभावस्याभ्युपगमात् । किश्च, तदा 'घटो न भवति' इत्येतावन्मानं न प्रतीयते, किन्तु 'घटो नष्टः' इति । यदपि 'यदि हेतुमान् विनाशस्तदा तद्भदादात्मभेदं किं नानुभवेत् ?' इत्याद्युक्तम्-तदप्ययुक्तम् , उत्पादेऽप्यस्य पर्यनुयोगस्य समानत्वात् । 'उत्पत्याश्रयविशेषादुत्पादविशेष इष्ट एवेति चेत् । नाशाश्रयविशेषाद् नाश विशेषोऽपीप्यताम् । 'उत्पादाद्यन्वितधर्मिण एव स्वहेतुजन्यवादुत्पादस्य स्वातन्त्र्येणाऽजन्यत्याद न विशेषः' इति चेत् ? नाशाद्यन्वितकपालादिधर्मिण एव मुद्रादिजन्यवाद नाशस्यापि तथास्याद् न विशेष इति तुल्यम् ।
[ मुद्गरप्रहार के पश्चाद् घटाभाव होने से बौद्ध कथन असार ] बौद्ध की ओर से यदि यह कहा आय कि-"जैसे नैयायिकादि के मत में मूतल में घट का प्रानयन भूतन के साथ घट का संयोग उत्पन्न कर उपक्षीण हो जाता है, वह प्रथमतः विद्यमान नित्य घटात्यन्ताभाव का नाशक नहीं होगा उसी प्रकार मुद्गरादि के अन्वय-व्यतिरेक का अनुविधान कपाल को उत्पन्न कर क्षीण हो जाता है। कपाल के उत्पन्न होने पर जो घट का अनुपलम्भ होता है वह घटनाश की उत्पत्ति से घटाभाव होने के कारण नहीं अपितु उस समय घर का स्वभावतः अभाव हा जाने से होता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि घट के. मुबंगराभिहत होने से कपाल की उत्पत्ति होने पर घट स्वभावतः नहीं होता इस कथन से ही घटाभाव का होना स्वीकृत हो जाता है। इसलिये
* मुद्गरादिना कपालजननकाले ।
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
यह कहना कि मुद्गरादि कपाल को उत्पन्न कर उपक्षीण हो जाने से घटाभाव का जनक नहीं होताउचित नहीं है। साथ में यह भी ज्ञातव्य है कि घट मुद्गरादि से अभिहत होने के बाद कपाल उत्पन्न होने पर केवल 'अब घट नहीं है' यही प्रतीति नहीं होती किन्तु 'घट नष्ट हो गया' यह भी प्रतीति होती है। अतः मुद्गर से प्रहार होने पर घटनाश का होना न्यायप्राप्त है ।
[ विनाशवत् उत्पत्ति में स्वरूप भेद की समान आपत्ति ]
बौद्ध की ओर से विनाश के सहेतुकत्व के पक्ष में जो यह दोष दिया गया कि विनाश को हेतुजन्य मानने पर हेतुभेद से विनाश के स्वरूपमेव के अनुभव की आपत्ति होगी' वह युक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि यह प्रश्न उत्पत्ति के विषय में भी समान है । अर्थात् यह कहा जा सकता है कि उत्पत्ति को यदि सहेतुक मानी जायगी तो हेतु के भेद से उत्पत्ति के भी स्वरूपभेद के अनुभव की प्रापति लगेगी। यदि इसके उत्तर में बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि उत्पत्ति के श्राश्रय घटपटादि में भेव होने से उनकी उत्पत्ति में भी भेद इष्ट है तो यह बात नाश के सम्बन्ध में भी कही जा सकती है अर्थात् यह कहा जा सकता है कि नाश का आश्रय-नाश प्रतियोगी घटपटादि में भेद होने से उनके नाश में भी भेद इष्ट ही है। यदि उत्पत्ति के सम्बन्ध में ऊठाये गये प्रश्न के उत्तर में यौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि उत्पत्ति से अवित घटपटादिरूपधर्मी ही अपने कारणों से उत्पन्न होता है । उत्पाद स्वतन्त्ररूप से घटपटादि के कारणों से अन्य नहीं होता प्रत एवं उत्पादन में स्वरूपभेद की आपत्ति नहीं हो सकती तो यह बात भी नाश के सम्बन्ध में कही जा सकती है। अर्थात् यह कह सकते हैं कि घटनाशादि से श्रस्थित कपालादि धर्मी ही मुद्गरावि से उत्पन्न होता है । घट नाश स्वतन्त्ररूप से मुद्गरादिजन्य नहीं होता । अतः हेतुभेद होने पर भी नाश में स्वरूपभेद को आपति नहीं हो सकती ।
किञ्च हेतुभेदकुतो व्यक्तिविशेषो नाशेऽभ्युपगम्यत एव जातिरूपविशेषस्तु भादधर्मत्वादेव तत्र नास्तीति किमपरमापाद्यते ? । न हि विजातीयहेतुजन्यत्वं कार्य वै जात्यप्रयोजकम्, एकत्रापि घटे दण्डादिनानाजातीयहेतुजन्यत्वेन नानाजातीयत्वप्रसङ्गात् किन्तु तजातीयसामग्रीजन्यत्वं जातीयल प्रयोजकमिति । तथा च घट-पादोनां विजातीयानां स्वस्वतामत्रीप्रयोज्य वैजात्मसंभवेऽपि नाशानां सर्वेषामेकरूपाण स्वस्त्रसामग्रीभेदजन्यत्वेऽप्येकत्वं न
+
विहन्यत इति ।
[ नाश में हेतु भेद से व्यक्तिभेद स्वीकार्य ]
इस संदर्भ में यह दृष्टव्य है कि नाश में हेतु भेद से स्वरूप विशेष की जो आपत्ति दी जाती है उस सम्बन्ध में यह कहा जा सकता है कि यदि हेतुभेद से नाश में व्यक्तिभेद की प्रापत्ति दी जाय तो यह इष्ट हो है क्योंकि विभिन्न हेतुओं से विभिन्न नाशव्यक्ति की ही उत्पत्ति होती है। यदि विभिन्न हेतु से होनेवाले नाश में विभिन्न जातिरूप विशेष की आपत्ति देनी हो तो वह नहीं हो सकती क्योंकि जाति भाव का ही धर्म होता है श्रतएव विनाश स्वरूप अभाव में उसका आपादन नहीं हो सकता । इस प्रसङ्ग में यह भी ज्ञातव्य है विजातोय हेतुजन्यता से कार्य में वैजात्य होने का नियम नहीं है । क्योंकि ऐसा मानने पर एक घट में भी दण्डचक्रादि विजातीय हेतु जन्यता होने से विभिन्न जातियों के
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[ शास्त्रवा० स्त० ६ इलो० ११
अस्तित्व का प्रसङ्ग होगा। किन्तु, तज्जातीयकार्य उत्पादक सामग्री जन्यता से ही लज्जातीयत्व की सिद्धि होती है। जैसे घट-पट आदि कार्य परस्पर विजातीय हैं अतः घट जातीय कार्य की उत्पादक सामग्री से जो जन्य होता है यह घट-जातीय होता है और पट जातीय की सामग्री से जो पद उत्पन्न होता है वह पट जातीय होता है किन्तु माया जितने भी हैं वे सब एकरूप होते हैं । उन में कोई जात्य नहीं होता। अतः किसी भी नाश को सामनो विजातीय कार्य की सामग्नो नहीं कही जा सकती। अत एव अपनी अपनी विभिन्न सामग्री से उत्पन्न होने पर भी विभिन्न नाश में एकरूपता का व्याघात नहीं हो सकता।
एतेन 'प्रतिपुरुष कर्मणां विशेषात तत्क्षयस्यापि जन्यस्य लतो विशेषसंभवात् प्रतिपुरुष मुक्तिचिच्यं स्यात्' इति निरस्तम् , अविशिष्ट स्वस्वभावस्य हेतुसहस्र णापि विशेषयितुमशक्यत्वात् , विभिन्नसामग्रीजन्यतायां च प्रतियोगिभेदस्यैव निवेशनीयवादिति विपश्चितमन्यत्र । एतेन तद्रूपावच्छिन्नजन्यतारूपं खातव्यं नोल्पादे, नाशे च तदव्याहतम्', घटध्वंसाथितया प्रवृत्तेः' इत्युक्तारपि न क्षतिः।
[प्रतिव्यक्ति निद परिका मात्तर ] बौद्ध की ओर से विनाश को हेतुजन्य मानने पर एक यह भी दोष दिया जाता है कि 'प्रतिपुरुष में कर्मों के भेद होने से उनका क्षय भी, हेतुजन्य होने पर हेतुनों में विशेष होने के कारण, विशिष्ट होगा। अतः पुरुपभेद से कर्मक्षयल्प मुक्ति में वचित्र्य को प्रापत्ति होगी। किन्तु यह दोष भी ठीक नहीं है क्योंकि कर्मक्षयरूप मुक्ति जब स्वभावतः अविशिष्ट समान है तो सहस्त्र हेतुओं से भी उनमें विशिष्टता=असमानता का सम्पादन नहीं हो सकता। यदि यह कहा जाय कि-'यदि सभी कर्मक्षय समान होंगे तो पुरुषमेव से भिन्न ज्ञान-दर्शन-चारित्र रूप कर्मक्षय को परस्पर निरपेक्ष सामग्री से अविशिष्ट कर्मक्षय की उत्पत्ति मानने पर एक-एक सामग्री का अन्य अन्य सामग्रोजन्य कर्मक्षय के प्रति व्यभिचार होगा तो यह ठीक नहीं हैजयोंकि विभिन्न सामग्री की जन्यता में अवच्छेदक सम्बन्ध से प्रतियोगी विशेष का निवेशकर तत्तत्पुरुषीय ज्ञानदर्शनचारित्रलक्षण सामग्री हेतु होती है ऐसा मानने पर वह दोष नहीं हो सकता। इस विषय का विशेष विस्तार अन्यत्र इष्टध्य है ।
अगर बौद्ध ऐसा कहें कि- "नाश के सहेतुकत्व पक्ष में हेतुमेद से नाश में स्वरूपभेदानुभव का आपादन करने पर जन को ओर से उत्पाद के सम्बन्ध में भी जो हेतुभेद से स्वरूपभेद का आपादन दिया गया वह उचित नहीं है क्योंकि उत्पाद से अन्वित घटादिरूप धर्मों में दहत्त्वादि तत्तद्रूपावच्छिन्न जन्यता मानने से उत्पाद में तत्तद्रूपावच्छिन्नजन्यतारूप स्वाताम्य नहीं होता क्योंकि उत्पाद की उत्पत्ति को कामना से दण्डादिग्रहण में मनुष्य की प्रवृत्ति नहीं होती कि तु घटोत्पाद की काममा से वण्डादिग्रहण में प्रवृत्ति होती है । अतः हेतुभेद से उत्पाव में स्वरूपमेदानुभव का आपादन नहीं हो सकता किन्तु नाश में स्वतन्त्ररूपसे मुदगरश्वादि से अवच्छिन्न मुबंगराव की जन्यता में कोई व्याधात नहीं है क्योंकि घटध्वंसादि की कामना से मुवगरादिग्रहण में मनुष्य की प्रवृत्ति होती है।"-बौद्ध द्वारा यह कहे जाने पर भी कोई क्षति नहीं है क्योंकि उक्त रोति से विनाश में कार्ययजात्य का प्रयोजक सन्निहित नहीं है।
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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
यपि 'किच, अस्य हेतुमखेऽपि नाशप्रसङ्गो दुरुद्वरः' इत्याद्यभाणि तदपि न निरवद्यम्, समुदयकृतादिनाशविशेषत्य नष्ट इति व्यवहारहेतोर्विशेषसामरस्यभावादेवाभावात् 'बैलक्षण्यरूपवस्तुलक्षणघटकस्य तु कस्यचिद् नाशस्य तत्राभ्युपगमादेव । न च कपालादिनाश एवं तदाश्रितघटना शादिना शहेतुरिति वाच्यम्, अस्माकमाश्रयनाशस्याश्रितनाशाहेतुत्वात्, घटतद्रूपादीनामेकद्वैव नाशाद, तत्तनाशविशेषे तत्तच्छक्तिविशेषस्यैव नियामकत्वात् । किञ्च, कार्यत्वेन नाशहेतुत्वमप्याकाशादीनां नाशानुपपत्त्यैव कल्प्यते, अन्यथा सच्चेनैव तवं स्यात्, तथा च नाशस्यापि तदनुपपच्या नाशेतरत्वमपि निवेश्यताम्, गौरवस्य प्रामाणिकत्वादिति । यदपि मृद्गरादेः कपालाद्युत्पत्तावन्तरा सादर्शनमुक्तम्, तदनुक्तोपालम्भमात्रम् । तस्माद् नाकिञ्चिद्रूपो नाश इति सिद्धः सहेतुकोऽयम् ॥ ११ ॥
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[ 'विनाशो नष्टः ' यह आपत्ति अशक्य ]
विनाश को सहेतुक मानने पर विनाश के नाश करे जो बुरुहर प्रापत्ति दी गई वह भी ठीक नहीं है। क्योंकि- विनाश भी एक वस्तु है और वस्तु का लक्षण है उत्पत्ति, विनाश और प्रौध्य । अत एव विनाश का वस्तु लक्षण घटक विनाश मान्य ही है। किन्तु उससे 'विनाशो नष्ट:' इस व्यवहार की आपत्ति नहीं दी जा सकती क्योंकि 'नष्ट:' इस व्यवहार का हेतु विशेष प्रकार का नाश होता है जिसे समुदयकृत आदि शब्दों से व्यवहृत किया जाता है। वह नाश विशेष सामग्री से प्रादुर्भूत होता है । विनाश में इस विशेषसामग्री का अभाव होने से विनाश का वह विशेष नाश नहीं होता अतः 'नाशो नष्ट: ' यह व्यवहार नहीं होता । यदि यह कहा जाय कि - 'कपालादि का नाश कपालाश्रित घटनाश के विशेषताश का हेतु है अत एव घटनाश का वस्तुलक्षणघटकनाश से अतिरिक्त भी नाश होने से 'घटनाशो नष्ट:' इस व्यवहार की प्रापति होगी' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि जैन मत में आश्रय. नाश आश्रितनाश का हेतु नहीं होता किन्तु जंन मत में घट और घटरूपादि का एक काल में ही नाश होता है । घट और घटरूपादि के नाशक में ऐक्य होने पर भी उसमें तत्तनाशानुकूल शक्ति भेद होने से तत्तनाश में भेद सिद्ध होता है। उसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि जैसे श्राकाशादि का नाश नहीं होता इसलिये नाश के प्रति सत् रूप से कारणता न मानकर कार्यत्व सत्वविशिष्ट कार्यरूप से कारणता मानी जाती है इसीप्रकार नाश का भी नाश मानना उचित है। कारणतावच्छेदक कोटि में नाशैतरत्व के निवेश से उपस्थित गौरव भी प्रामाणिक होने से सा है ।
इस संदर्भ में बौद्ध की ओर से जो यह दोष दिया गया कि मुद्गरादि का संविधान (प्रहार) और कपालादि के उत्पत्ति के मध्य ध्वंसरूप अतिरिक्त पदार्थ का दर्शन न होने से ध्वंस का अस्तित्व मानना उचित नहीं है । यह भी दोष अनुचित है क्योंकि यह अनुक्त का उपालम्भ है । आशय यह है कि यदि मुद्गरादि संविधान और कपालादि की उत्पत्ति के मध्य यदि फपालादि से सर्वथा भिन्न घटध्वंस का अस्तित्व माना जाता तो उक्त उपालम्भ उचित होता किन्तु कपालात्मक घटव्यं मानने पर अर्थात् घध्वंस को कपाल के संदंश और घट के असवंश से अनुविद्ध मानने पर उक्त उपालब्ध नहीं हो सकता क्योंकि उस रूप में घटयंस का दर्शन होता ही है ।
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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ६ श्लो० १२-१३
अतः सम्पूर्ण विचारों का निष्कर्ष यह है कि नाश अकिश्वित् यानो तुच्छ नहीं, अपितु सहेतुक वस्तु है ।। ११ ।।
१२वीं कारिका में नाश को सहेतुक न मानने पर अन्य दोष बताया गया है
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अन दोपरान्तरमाह -
मूलम् - किञ्च निर्हेतुके नाशे हिंसकत्वं न युज्यते ।
व्यापायते सदा यस्मान्न कश्चित्केनचित्क्वचित् ॥ १२ ॥
किञ्च, निर्हेतुके नाशेऽभ्युपगम्यमाने हिंसकत्वं न युज्यते क्वचित् कस्यचित् । कथमित्याह-यस्माद्धेतोः, सदा के लुब्धकादि काशिकरादिः न व्यायाद्यते, अहिंमादशायामिव हिंसादशायामपि प्राणिक्षण ( न स्वत एव नथरत्यात्, सांवृतनाशस्य खपुष्पवदनुत्पाद्यत्वादिति भावः ॥ १२ ॥
[ चौद्धमत में शिकारी को हिंसक नहीं कह सकते ]
नाश को निर्हेतुक मानने पर कोई किसी का हिंसक न हो सकेगा। क्योंकि कोई भी शिकारी aft at a fraी भी स्थान में शुकरादि किसी भी प्राणी का किसी भी काल में व्यायातक प्राणघातक नहीं होता । श्राशय यह है कि बौद्ध मत में सभी भावमात्र क्षणिक होने से शुकरादि प्राणि क्षण जैसे श्रहिसा दशा में प्रतिक्षण स्वतः नष्ट होते रहते हैं उसी प्रकार हिंसा दशा में भी स्वतः ही नष्ट होते हैं । अत एव शिकारी आदि से उनका नाश न हो कर स्वतः ही उनका नाश होता है। सांवृत = व्यावहारिक प्राणिनाश का जनक मान कर भी शिकारी को प्राणी का हिंसक नहीं कहा जा सकता, क्योंकि सांवृत नाश प्रकाशपुष्प के समान अलीक होने से उत्पाद्य नहीं हो सकता ।।१२ ॥ १३ वीं कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध सम्मत उत्तर को आशंका कर के उसका परिहार किया गया है
पराभिप्रायमाशक्य परिहरति
मूलम् कारणत्वात्स संतानविशेषप्रभवस्य चेत् ? । हिंसकस्तन्न संतानसमुत्पतेरसंभवात् ।।१३।।
सः - लुञ्धकादिः, संतान विशेषप्रभवस्य शूकरादिविसभागसंतानोत्पादस्य कारणत्वाद् हिंसकः-शूकरादिव्या पाढकः चेत् ? यद्येवं मन्यसे । तन्न तदयुक्तम्, स्त्वदभिप्रायेणाऽसंभवात् ॥१३॥
संतानसमुत्पते
बौद्ध मतानुसार 'शिकारी आदि' सन्तानविशेष की यानी शुकरादि से विलक्षण सम्तान की उत्पत्ति का कारण होने से शुकरादि का हिंसक होता है। क्योंकि शूकरसन्तानकाल में स्वतः उत्पन्न होने वाले शूकरक्षणविनाश और शूकरक्षण से विलक्षण सन्तान रूपी विनाश ये दोनों भिन्न होते हैं इसमें दूसरा विनाश स्वतः न हो कर शिकारी आदि के प्रयत्न से होता है । किन्तु ग्रन्थकार का
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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कहना यह है कि बौद्ध का यह मत युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि बौद्धमत के अनुसार सन्तान को उत्पत्ति का संभव नहीं है ॥१३॥
१४ वीं कारिका में सन्तानोत्पत्ति के असम्भव को स्पष्ट किया गया है-- असंभवभय विमोतिमूलम्-सांवृतत्वाद व्ययोत्पादौ संतानस्य खपुष्पवत् ।
न स्तस्तदधर्मत्वाच्च हेतुस्तत्संभचे कुतः ॥१४॥ सांवृतत्वादः-अपरमार्थसत्यात् , व्ययोत्पादौनाशोत्पत्ती संतानस्य खपुष्पवतवियत्कुसुमस्येव न स्तान संभवतः, नाशोत्पादयोवस्तुधर्मत्वात् । तदधर्मत्वाच्च-संतानाऽधर्मत्याच्योत्पादस्य तत्संभवे-संतानविशेषप्रभवे हेतुः कुतः =न कुतश्चिदित्यर्थः ।।१४॥
बौद्ध के मत में सन्तान की सत्ता प्राविधक है क्योंकि सन्तान स्थिर माना जाता है और बौद्ध मत में किसी भी भावपदार्थ को स्थिरता मान्य नहीं है । जब संतान सांवत -अपारमाथिक है तो जैसे अपारमाथिक होने से आकाशपुष्प का उत्पत्ति-विनाश नहीं होता उसी प्रकार सन्तान का भी उत्पत्ति-नाश नहीं हो सकता क्योंकि नाश और उत्पाद वस्तु के धर्म है। जब उत्पत्ति संतान का धर्म नहीं है तब सन्तान की उत्पत्ति का कोई हेतु कैसे हो सकता है ! अतः शिकारी को शूकरादि से विलक्षण सन्तानोत्पत्ति का हेतु मान कर शुकरादि का हिंसक नहीं सिद्ध किया जा सकता ॥१४॥
१५ वो कारिका में बौद्ध के अभिमत अन्य उत्तर को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है -
पुनः पराशयमाशङ्क्य परिहरतिमूलम्-विसभागक्षणस्याथ जनको हिंसको, न तत् ।
स्वतोऽपि तस्य तत्प्राप्तेर्जनकत्वाविशेषतः ॥१५॥ अथ विसभागक्षणस्य-शूकरक्षणात शशक्षणादेः जनकः हिंसको लुब्धकक्षणः, चरमशूकरक्षणात् शशक्षणसमानकालभावी तजनितकर्मवासनया चाग्रिमलुब्धकक्षणेषु तत्कर्मविषाकफलोपभोग इति भावः । न तत्-नेतदेवम् । कुतः १ इत्याह-स्वतोऽपि-स्वात्मनोऽपि तस्य हिंस्यस्य शूकरक्षणादेः तत्प्राप्ते हिंसकत्वमाप्तेः। कथम् ? इत्याह-जनकत्वाऽविशेषतः लुब्धकक्षणस्येव शूकरक्षणस्यापि जनकत्वमात्रेऽविशेषात् । 'निमित्तकारणतया विसभागक्षणजनकत्वं हिंसकत्वम्, शूकरक्षणस्तूपादानतया तजनक इति न दोष' इति चेत् । न, आन्महिसासंग्रहानुरोधेन हिंसकतायां जनकताविशेषस्यानुपादानात् । 'तथाप्यत्र परहिंसकत्वे विशेषोऽयमुपादीयत' इति चेत् ? किं ततः १ एवमपि शूकरक्षणादेखत्महिंसकताकृतदोषापत्तेबैज्रलेपायमानत्त्वादिति भावः ॥१५॥
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[ शास्त्रमा स्त०६ श्लो० १६
[ शंकरारि गर्दिकतनी नौद्धगरा में आपत्ति ] बौद्ध का आशय यह है कि-"शूकरक्षण सन्तान के अन्तर्गत अन्त्यशूफरक्षण को निवत्ति होने पर शशक्षणसन्तान का आरम्भ होता है। अन्त्यशूकरक्षण का निवर्तक यह शिकारी क्षण होता है जो शशक्षणसन्तान के प्रारम्भकाल में संनिहित होता है। इस प्रकार शिकारी क्षण प्रथम शशक्षण का जनक कहा जाता है और शशक्षणसन्तान शूफरक्षणसन्तान को नियतिरूप होने से शिकारी को शूकर का हिंसक कहा जाता है। शशक्षण के आरम्भकाल में संनिहितशिकारीक्षण में जो हिसात्मक कर्म को वासना उत्पन्न होती है उसीसे शिकारी के अग्रिम क्षणों में उस कर्म के परिणाम भूत दुखदोगत्यादि फल का उपभोग होता है। इस प्रकार भावमात्र के क्षणिकत्वपक्ष में भी हिंसक और उसे हिसा के फलोपभोग की उपपत्ति हो सकती है। प्रतः भावमात्र को क्षणिक और नाश को निहतुक मानने में कोई बाधा नहीं हो सकती।"-किन्तु ग्रन्थकार के कथनानुसार बौद्ध का यह मत संगत नहीं हो सकता । क्योंकि शूकरक्षण से विलक्षण क्षण का जनक होने से जसे शिकारी हिंसक होता है उसी प्रकार हिस्थ = मरने वाला शूकरक्षण भी अपना हिसक हो जायगा क्योंकि शिकारीक्षण के समान वह स्वयं भी अन्त्यशूकरक्षण की विलक्षण शशक्षण का उत्पादक है। शिकारीक्षण और शूकरक्षण को जनकता में कोई अन्तर नहीं है।
[निमित्त कारणरूप में जनकता का परिष्कार व्यर्थ है ] इसके उत्तर में बौद्ध को अोर से यदि यह कहा जाय कि "निमित्तकारण के रूप में जो जिस प्राणि के विसदृश क्षण का जनक होता है वह उस प्राणि का हिसक होता है। शिकारी तो शूकर प्राणि से विलक्षण शशक्षण का निमित्तकारण होने से शूकर का हिंसक होता है। किन्तु शूकरक्षण उपादानकारणरूप से शशक्षण का कारण होता है अतः उसमें शूकर के हिंसक होने का दोष नहीं है'तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रात्महिमा के संग्रहानुरोध से हिसकता के लक्षण में निमित्त कारणरूप से जनकता का प्रवेश नहीं किया जा सकता क्योंकि कोई प्राणि जब आत्महत्या करता है तो वह अपने से विसदृश क्षण का उपादान कारण ही होता है निमिसकारण नहीं होता किन्तु वह आत्महिंसक तो कहा ही जाता है। यदि इस पर बौद्ध को ओर से यह कहा जाय कि-निमित्त कारणरूप से जनकताविशेष का निवेश हिंसफ सामान्य के लक्षण में न कर परहिसक के ही लक्षण में करने से यह दोष नहीं हो सकता'-तो इस उत्तर से भी बौद्ध का त्राण नहीं हो सकता क्योंकि शिकारी से
सास्थल में शकरक्षण में प्रात्मसिकता की आपत्ति वत्रलेप के समान अपरिहार्य है, क्योंकि निमित्तकारणरूप से जनकता का निवेश परहिसक लक्षण में ही है-श्रामहिंसक के लक्षण में नहीं है। अतः शूकरक्षण विलक्षण शशक्षण का उपादानकारणविधया अनक होने पर भी शूकर में स्वात्महिंसकत्व को प्रसक्ति निर्वाध है ॥१५॥
१६वीं कारिका में जैन के उक्त कथन पर बौद्ध की प्रोर से आक्षेप और उसके जैन सम्मत परिहार का उपदर्शन किया गया है--
इहैवाक्षेप- परिहाराबाहमूलम् हन्म्येनमिति संक्लेशाहिंसकश्चेत्प्रकल्प्यते ।
नैव त्वन्नोनितो यस्मादयमेव न युज्यते ॥१६॥
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
११७
'हन्म्येनम्" इति संक्लेशाद् हेतोः हिंसकः प्रकल्प्यते लुब्धकादिक्षणः, क्लिष्टविज्ञानक्षणस्यैव क्लिष्टकमक्षणहेतुत्वात् , 'मृगमव्यापादयनपि 'मृगं हन्मि' इति संक्लेशपरिणतः पापेन वध्यते, यतमानश्च विचरभनाभोगाद् नमपि कथंचिल्लघुप्राणिनं न पापेन बध्यते स्त्रसंकिलर' इत्यन्षय-व्यतिरेकदर्शनात् । न चैवं व्यापादिताऽव्यापादितमृगयोः संक्लिष्टक्षणयोरशिशिष्टकर्मार्जनप्रसङ्गः, तसामर्थ्यविशेषेण कार्यविशेषात् । हिंसकलव्यवहारस्तु तथाविधविकल्परूपः सांघृतं नाशमादायैवेति न दोष इति चेन् ? नैतदेवम्-यस्मात् त्वनीतितः त्वदभ्युपगतन्यायात् , अयमेव-संक्लेश एव न युज्यते ॥ १६ ।।
[हिंसा के परिणाम से हिंसकत्व की प्राप्ति बौद्ध मत में अघटित ] . जैन के उक्त कथन पर बौद्ध का आक्षेप यह है कि हिंसकता का मूल प्राणिवध नहीं है। अपितु संक्लेश यानी प्राणिवध करने का संकल्प है। शिकारी को शूफरवध का संकल्प होता है । इसलिये शूकरक्षण से विलक्षण शशक्षण का जनक होने पर शिकारी शूकर का हिंसक कहा जाता है किन्तु शूकर को व्याधि का शिकार होते समय स्वयं स्ववध का संकल्प नहीं होता । अतः अपने से विलक्षण शशक्षण का जनक होने पर भी वह आमहिंसक नहीं कहा जा सकता। क्योंकि विलष्टविज्ञानक्षण ही बिलष्ट कर्मक्षण का हेतु होता है । यतः इसप्रकार का अन्वय-व्यतिरेक देखा जाता है कि मगध करने के संकल्पात्मक संक्लेश से युक्त मनुष्य मम का प्राणघातक न होने पर भी पाप से बद्ध होता है किन्तु असंक्लिष्ट यानी उक्त संक्लेश से शून्य व्यक्ति जीवरक्षा में प्रयत्नशील होकर भ्रमण करता हुआ यदि अति सूक्ष्मता के कारण किसी लघु प्राणि को न देख पाने पर यदि घातक भी हो जाता है तो वह पाप से बद्ध नहीं होता।
यदि इसके विरोध में यह कहा जाय कि-'संक्लेश को ही हिंसकता का मूल मानने पर मगवध के संक्लेशयुक्त दो व्यक्तिओं में एक मग का वध हुआ और दूसरे से मग का वध न हो सका तब भी संवलेश के कारण उनमें समान रूप से पापबन्ध को प्रसक्ति होगी-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि
शको तीवता और मन्वताप विशेष से उन व्यक्तियों को पापबाधरूप कार्य में विशेष होने से उक्त दोष की प्रसक्ति नहीं हो सकती। आशय यह है कि यद्यपि भगवध के संक्लेश से युक्त मृग घातक और मृग के अघातक दोनों ही व्यक्तिओं को पापबन्ध होता है किन्तु जिसको मगवध का अवसर मील जाता है उसको संपलेश तीन होने से उसे तीवपाप का बन्ध होता है और जिसको मुगवध का अवसर नहीं मीलता उसका संक्लेश पूर्व की अपेक्षा मन्द होने से उसे मन्द पापबन्ध होता है। इस पर यह प्रश्न हो सकता है कि-'वध का संकल्परूप संक्लेश ही हिंसकता का मूल है तो उक्त संक्लेश से युक्त मगघाती और मग के अघाती दोनों व्यक्ति में हिंसकरष का व्यवहार क्यों नहीं होता? केवल मगघाती में ही हिंसकत्व का व्यवहार क्यों होता है ?'-तो उसका उत्तर यह है कि हिंसकत्व व्यवहार का मूल न तो प्राणि का स्वतः होने वाला नाश है, और न प्राणिवध का संक्लेश मात्र है, किन्तु प्राणि का सांवत नाश उक्त व्यवहार का मूल है । वह नाश संक्लेशमात्र से नहीं होता फिन्तु संक्लेश की सफलता होने पर होता है। अतः मगघाती व्यक्ति में ही हिंसकत्व का व्यवहार
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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ६ श्लो०१७-१
होता है अन्य में नहीं होता। किन्तु ग्रन्थकार के अनुसार बौद्ध का यह आक्षेप युक्त नहीं है क्योंकि बौद्ध के मतानुसार संक्लेश ही युक्तिसिद्ध नहीं होता ।। १६ ।।
१७वीं कारिका में संक्लेश के युक्तिसिद्ध न होने को स्पष्ट किया गया हैकथम् १ इत्याह
मूलम् — संक्लेशो यद् गुणोत्पादः स चाक्लिष्टान्न केवलम् । न चान्यसचिवस्यापि तस्यानतिशयात्तनः ॥ १७ ॥
१९८
यद् - यस्मात् संश्लेशो गुणोत्पादः, स च केवलात् = अन्य सहकारिरहितात्, अक्लिष्टादुपादानात् न भवति, ततोऽयंक्लिष्टचित्तस्यैवोत्पादात् । न चान्यसचिवस्यापि हिंस्यादिसहकारिसमवहितस्यापि तस्य उपादानस्य अनतिशयात् ततः अन्य सहकारिणः सकाशात् मंगलेश इति योगः, अनतिशयस्य समानाऽसमानकालकरणायोगात् ॥ १७ ॥
[ संक्लेश बौद्धमत में सिद्ध नहीं है ]
बौद्ध मत में गुण यानी 'fresट चित्त' का उत्पाद ही संक्लेश है और वह, अन्य सहकारी के प्रभाव में, केवल अक्लिष्ट चित्त रूप उपादान से नहीं सम्पन्न हो सकता। क्योंकि अन्य सहकारी न रहने पर तो वह प्रसंविलष्ट चित्त को ही उत्पन्न करता है। अगर कहें - हिंस्यादि अन्य सहकारी के सहयोग पर सो अक्लिष्टचित्त क्लिष्टचित्त का उत्पादक हो सकता है न ?' तो यह भी नहीं माना जा सकता, क्योंकि आपके मत में सहकारी क्लिष्टचित्त में कोई अतिशय नहीं उत्पन्न होता । जब सहकारी के समवधान असमवधान दोनों दशा में वह सम्पन्न रूप से अतिशयशून्य होता है तब सहकारी के समवधान काल में उससे पिलष्टचित्त की उत्पत्ति और सहकारी के असमवधान काल में प्रविष्ट चित्त की उत्पत्ति मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता ।। १७ ॥
१० वीं कारिका में इस सम्बन्ध में बौद्ध के एक दूसरे अभिप्राय को शंका रूप में प्रस्तुत कर उसका परिहार किया गया है
पराशयमाशङ्क्य परिहरति-—
मूलम् - तं प्राप्य तत्स्वभावत्वात्ततः स इति चेन्ननु । नाशहेतुमवाप्यचं नाशपक्षेऽपि न क्षतिः ॥ १८॥
'तं = हिस्यादिकं प्राप्य तत्स्वभावत्वात् - मंक्लेशजननस्वभावत्वात् तदुपादानस्य ततः सहकारिणः सः= :- संक्लेश' इति चेत् ? नन्वेवं नाशहेतुं मुन्नरादिकम् अवाप्य एवं स्वभावकल्पनायां नाशपक्षेऽपि न क्षतिःन्न विरोधः, तस्यापि तं प्राप्य स्वनिवृत्तिस्वभावस्वात् । न च 'वस्तुमात्रजनका एवं नाशजनका इति नाशजनने न सहकार्य नुप्रवेशापेक्षा, अक्लेशमात्रजनका एव च न संक्लेशजनका इति संक्लेशे जननीये तदुपादान क्षणानां तदपेक्षा, शिशपाक्षणानामित्र चलशिशपायां जननीयायां नोदनाद्यपेक्षे 'ति वाच्यम्। लुब्धक- शिशपा
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त्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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मात्रजनकानामेवाऽसंक्लेशा-ऽचलाशशपाजनकल्लामावेन तत्रापि सहकार्यन्तरापेक्षावश्यकत्यात, आर्थिकत्वस्याऽविनिगमात् , सहकारिप्रसूतविशेषस्यापि क्षणपरम्परासंक्रान्तस्याऽपरित्याग विशेपान्तरानुपादानप्रसङ्गात्, तपरित्यागश्चान्यत एव इति सिद्धं नाशहेतुना इत्याम्ररिततत्त्वमेतत् ॥ १८ ॥
[ शुकरादि के संनिधान में संक्लेशजननस्वभावता अन्यत्र समाज ]
बौद्ध का कहना है कि... 'अक्लिष्ट चित्त हिस्यादि सहकारी को प्राप्त कर क्लिष्टचित्तजनन स्वभाव हो जाता है। इस प्रकार सहकारी के संनिधान में संक्लेश का जन्म माना जा सकता है।'किंतु इसके प्रतिबन्बीरूप में यह भी कह सकते हैं कि-नाश पक्ष में भी यह मानने में कोई विरोध नहीं है कि घदादिभाष मुद्गराविरूप नाश हेतु को प्राप्त कर घटनिवृत्तिस्व माव हो जाता है। याद बौद्ध की ओर से यह शंका को जाय कि-वस्तुमात्र का उत्पादक ही नाशोत्पादक है अत एवं नाश को उत्पत्ति में सहकारी की अपेक्षा नहीं होती। किन्तु संक्लेश के जनन में उसके उपादानभूतचित्त क्षण को सहकारी की अपेक्षा इसलिये होती है कि प्रसंक्लेश मात्र का जनक (चित्तक्षण) संक्लेश का जनक नहीं होता। यह शिशपा के दृष्टान्त से भलीभांति समझा जा सकता है। जैसे शिशपाक्षण को सकम्प शिशपाक्षण उत्पन्न करने में चलवायु के नोदनादि संयोग (शब्दाजनक संयोग) की अपेक्षा होतो है क्योंकि शिशपाक्षणमात्र चशिशपा का जनक नहीं होता, उसी प्रकार असंक्लेशमात्र का जनका (चित्त संक्लेश का जनक नहीं होता। प्रतः संक्लेश को उत्पन्न करने में सरकारी की अक्ष, चित्त है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इससे तो यह सिद्ध होता है कि-लुब्धकसंक्लिष्टचित्त मात्र का जनक असंक्लेश-असंक्लिष्टचित्त का जनक नहीं होता और शिशपामात्र का जनक अचशिशपा का जनक नहीं होता अतः असंक्लिष्ट चित्त और अचलशिशपा के जनन में भी संक्लिष्टचित्त के जनक को और शिशपामात्र के जनक को अन्य सहकारी की अपेक्षा होती है। और जब संक्लिष्टचित्त को असंक्लिष्टचित्त के जनन में सहकारी की अपेक्षा होगी तो असंक्लिष्टचित्त संक्लेशनिवत्त्यात्मक चित्त रूप होने से नाश के जनन में भी सहकारी की अपेक्षा सिद्ध हो जायगी, क्योंकि संक्लेशनिवत्ति संबलेशनाशरूप है। इसी प्रकार शिशपामात्र जनक को अचलशिपापा के जनन में यदि सहकारी की अपेक्षा होगी तो अचलशिंशपा चलननिवृत्त्यात्मकशिशपारूप होने से चलननिवृत्तिस्य नाश के जनन में भी सहकारी की अपेक्षा सिद्ध होगी।
[आर्थिकत्व में विनिगमनाविरह ] यवि बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि-'संघलेशनिवत्तिात्मक चित्त और चलननिवस्तिआस्मक शिशपा के प्रति कोई अतिरिक्त कारण नहीं होता अपितु चित्त के कारण एवं संक्लेशकारण का अभाव ये दोनों का संनिधान होने पर उत्पन्न होने वाला चित्त अर्थतः विना कोई अतिरिक्त कारण के हो संक्लेश निवृत्ति आत्मा हो जाता है। एवं शिशपामात्र के जनक और चलनकारणाभाव ये दोनों का युगपत्संनिधान होने पर उत्पन्न होने वाली शिशपा अर्थतः चलननिवृत्यात्मक हो जाती है । अतः उक्त रीति से नाश की उत्पत्ति में सहकारी की अपेक्षा नहीं सिद्ध होती।"-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि (१) चित्त को संक्लेशनिवृस्थात्मकता और शिशपा की घलन-निवृत्त्यात्मकता आथिक यानी अतिरिक्त कारण निरपेक्ष है और (२) चित्त की संक्लिष्टता नौर शिशपा की चलना.
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[ शास्त्रवा० स्त० ६ लो० १६
त्मकता असंक्लिष्ट चित्त के कारण और शिशपामा के कारण से अतिरिक्त कारण आर्थिक नहीं है,-इन दो में कोई धिनिगमक नहीं है। प्रतः जैसे संक्लिष्टचित्त के जनन में और चलशिशपा के जनन में प्रसंक्लिष्टचिसक्षण को और शिरापाक्षण को अन्य सहकारी की अपेक्षा है उसी प्रकार शिलन्टचिर और सबल के जनक हो भी अन्य सहकारी को अपेक्षा अर्थात् सहकारी की आवश्यकता अपरिहार्य है।
दूसरी बात यह है कि सहकारी से उत्पन्न होने वाला विशेष जो अग्रिमक्षणपरम्परा में कान्त होता है इसका परित्याग हये विना विशेषान्तर का उदय नहीं होता, जसे दण्ड-चक्रादि सहकारी द्वारा मत्पिड या मद्रव्य में प्रसूत घटाकार रूप विशेष जो अग्रिम अनेक क्षण परम्परा में अनुवर्तमान होता है उसका परित्याग होने पर ही कपालरूप विशेषान्तर का उदय होता है। इस प्रकार विशेषान्तर के उदय के लिये पूर्वविशेष का जो परित्याग अपेक्षित होता है वह स्वभावतः न होकर मुद्गरादिसदृश अन्य कारण से ही होता है । अलः नाशहेतु की सिद्धि अनिवार्य है । इस विषय का पर्याप्त पानडन पर्यालोचन हो चुका है अतः इस पर अधिक चर्चा अनावश्यक है ।। १८ ।।
१९ वी कारिका में बौद्ध के सामने अन्य आचार्यों के इस प्रतिबन्दी उत्तर का उल्लेख किया गया है कि-विकल्पों से नाशजनकत्व का निरास करने पर भाव-उत्पादजनकत्व का भी उच्छेद हो जायगा---
विकल्पमात्रेण नाशकत्वोच्छेदे जनकत्वस्याप्युच्छेद इति प्रतिवन्या केचित् समादयत इत्याहमूलम्-अन्ये तु जन्यमाश्रित्य सत्स्वभावाद्यपेक्षया ।
एवमारहेतुत्वं जनकस्यापि सर्वथा ॥१९॥ अन्ये वाचार्याः एवं नाश्यमाश्रित्य नश्वरस्वभावत्यापेक्षावन जन्य-कार्य आश्रित्य सत्स्वभावापेक्षयाः-हेतुत्वेनाभिमतः किं सत्स्वभावजन्यजनकस्वभावः, उत्तासस्वभावजन्यजनकम्बमारः, आहोस्बिदुभयस्त्रभारजन्यजनकस्वभावः, उताहो अनुभयस्वभावजन्यजनकस्वभावः' इति विकल्प चतुष्टयरूपया, जनकस्यापि-उत्पादकस्यापि, न केवलं नाशहेतोरेवेत्यर्थः, अहेतुत्वमाहुः आपादयामासुः ॥ १६ ॥
[ नाशवत् उत्पादजनकत्वोच्छेद आपत्ति-अन्य मत अन्य आचार्यों का यह कहना है कि नाश्य का प्राश्रय लेकार जैसे नश्वरस्वभावत्यादि की अपेक्षा से नाशहेतुप्तया अभिमत पदार्थ में नाशजनकत्व का बौद्ध द्वारा निरास किया जाता है उसी प्रकार कार्य का आश्रय लेकर सत्स्वभावस्वादि अपेक्षा से भावहेतृतथा अभिमत पदार्थ में भी भाव के अनुत्पादकत्व की प्रापत्ति होगी। आशय यह है कि जैसे नाशहेतु का निराल करने के लिये नौद्धों द्वारा ये विकल्प ऊठाये जाते हैं कि-"नाश का हेतु नश्वरस्वभाव का नाशक होता है अथवा अनश्वरस्वभाव का ? प्रथमपक्ष में नाश के स्वतः सम्भव होने से नाशहेतु के व्यापार को मिरर्थकता होती है और दूसरे पक्ष में भी स्वमाय का परिवर्तन प्रशत्रय होने से नाशहेतु के व्यापार की निरर्थकता
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
होती है इसलिये नाश को सहेतुक मानना उचित नहीं है ।" इस प्रकार जैसे नाशहेतुतया प्रभिमत में नाश जनकता का निराकरण बौद्ध मत में किया जाता है उसी प्रकार कार्य का आश्रय लेकर ये विकल्प उठाये जा सकते हैं कि १. भायजनकत्वेन अभिमत पदार्थ सरस्वभाव जन्य का जनक होता है ? अथवा २. असत्स्वभाव अन्य का जनक होता है ? अथवा ३. सत्-असत् उभयस्वभाव जन्य का जनक होता है ? किंवा ४. न सत्-न असत् अनुभयस्वभाव जन्य का जनक होता है। इन चारों विकल्पों में दोष बताकर मावहेतुतया अभिमत वस्तु में भी भाव के जनकत्व का तिरास किया जा सकता है |१९| २० वीं कारिका में उक्त विकल्पों में प्रथम दो विकल्पों में दोष बताया गया हैएतदेव स्पष्टयन्नाद्यविकल्पे दोषमाह
A
मूलम् — न सत्स्वभावजन कस्तद्वैफल्यप्रसङ्गतः ।
५२१
जन्मायोगादिदोषाच नेतरस्यापि युज्यते ॥ २० ॥
न सत्स्वभावजनकः =नोत्पादहेतुः सत्स्वभावजन्यजनकस्वभावः । कुतः १ इत्याहतद्वैफल्यप्रसङ्गतः - सत्स्वभावत्वेनैव जन्यस्य जनकव्यापार फल्याद, सत एव करणे चानिष्ठितेः । यदि च 'स्वकारणादुत्पत्तिरात्मलाभो यस्य स स्वोत्पत्तिधर्मा तं यदि स्वहेतुनपादयेत् तदा विरुद्धमभिधानं स्यात् उत्पच्यनन्तरं च तस्य स्त्रत एवं नाशात् कस्य पुनरुत्पचिरिति नानिष्ठितिरि' त्युच्यते, तदा विनाशकारणाद् विनाश आत्मप्रच्युतिलक्षणो धर्मों यस्य तं यदि विनाशहेतुर्न विनाशयेत् तदा विरुद्धाभिधानं स्यादित्याद्यपि तुल्यम् ।
[ मत्स्वभावजनकता में व्यापारनिष्फलता आपत्ति ]
भावहेतुतथा अभिमत पदार्थ को यदि सत्स्वभाव जन्य ( कार्य ) का जनक माना जायगा तो वह उत्पादक न हो सकेगा क्योंकि कार्य सत्स्वभाव होने से पहले से ही विद्यमान होगा अतः उस के सम्बन्ध में कारणव्यापार निरर्थक होगा, क्योंकि सत्ता का सम्पादन हो कारण व्यापार का फल होता है । जब जन्य में वह प्रथमतः सिद्ध रहेगा तो कारण व्यापार को कुछ सार्थकता नहीं हो सकती। यवि कार्य के सत् होने पर भी कारण उसका उत्पादक होगा तो वह कार्य को उत्तरोत्तर उत्पन्न करता ही रहेगा ! अतः उत्पत्ति की निष्ठा पर्यवसान न हो सकेगा।
यदि कारण सत्स्वभाव जन्य का जनक होता है इस विकल्प की यह व्याख्या की जाय कि"अपने कारण से जिसकी उत्पत्ति अर्थात् जिसको स्वरूपलाभ होता है वह कार्य स्वोत्पत्तिधर्म होता है और कारण स्वोत्पत्तिधर्म कार्य का उत्पादक होता है । इस व्याख्या को स्वीकार करने पर उक्त बोष नहीं हो सकता क्योंकि यदि कारण ऐसे कार्य का उत्पादक नहीं होगा तो स्वाधीनोत्पत्तिधर्मक जन्य के जनकत्व का अभिधान विरुद्ध होगा। क्योंकि जब वह जन्य का उत्पाद ही नहीं करेगा तो जन्य तदधीन उत्पत्तिधर्मक कैसे कहा जायगा ? अतः इस व्याख्या में कारणव्यापार के नरर्थक्य की आपत्ति नहीं हो सकती । तथा उत्पत्ति की निष्ठा (समाप्ति) का अभाव भी प्रसक्त नहीं होता क्योंकि कारण से अब कोई भाव उत्पन्न हो जायगा तो उत्पत्ति के अनन्तर ही उसका नाश हो जायगा ।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० २१
अतः वह नाश हो जाने पर कारणाधीन उत्पत्तिधर्मक नहीं कहा जायगा । अत एव कारण उसका उत्पादक नहीं होगा क्योंकि वह स्वाधीन उत्पत्तिधर्मक कार्य का ही जनक होता है।"
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तब यह व्याख्या ठोक रही है क्योंकि काश हेतु के सम्बन्ध में भी जी यह विकल्प किया गया था कि नाशहेतु नश्वरस्वभाव भाव का नाशक होता है इस विकल्प की भी यह व्याख्या की जा सकती है कि विनाश कारण से जिसका विनाश स्वरूपहानि लक्षणधर्म सम्पन्न होता है वही विनाश कारणाधीन विनाशधर्मक होने से नश्वरस्वभाव होता है और नाश का हेतु ऐसे नश्वरस्वभाव भाव का ही जनक होता है। इस व्याख्या के अनुसार नाशहेतु को नाश का उत्पादक मानना आयश्यक होगा क्योंकि यदि वह नाश का उत्पादक न होगा तो उसे स्वाधीन - विनाशोत्पत्तिवर्मकरूप नश्वरस्वभाव का नाशक कहना विरुद्धाभिधान होगा | अतः भावहेतुतया अभिमत पदार्थ को सत् स्वभाव जन्य का अननस्वभाव मानकर भाव का उत्पादक नहीं माना जा सकता ।
द्वितीये दोषमाह - जन्माऽयोगादिदोषाञ्च इतरस्यापि असत्स्वभावस्य जन्यस्यापि जनक इति पृथक्कृतयोगः, न युज्यते 'जननस्वभावः' इति शेषः । असतो जन्माऽयोगश्च, 'जन्मनः सत्तारूपत्वेन प्रकृत्यन्यथात्वानुपपत्तेः उत्पत्तौ बोत्पाद हेतुनाऽसतः सत्करणव नाशहेतुनापि सतोऽसत्करणसंभवात् असत्कार्य पक्षोक्त सकलदोपप्रसङ्गाच ।। २० ॥
7
[ असत्स्वभावजन्य की जनकता का दूसरा विकल्प अयुक्त ]
इसीप्रकार भावहेतुतया प्रभिमत पदार्थ असत्स्वभावजन्य का जनकस्वभाव होता है यह द्वितीयविकल्प भी दोषग्रस्त है क्योंकि जन्य को असत्स्वभाव मानने पर इसका जन्य युक्तिसंगत नहीं हो सकता क्योंकि जन्म सत्तारूप है और असत की सत्ता मानने में प्रकृति स्वभाव के अन्यथात्व= परिवर्तन की प्रसक्ति होती है। क्योंकि जन्य असत्स्वभाव को छोड़ कर सत्स्वभाव को ग्रहण करता है और वस्तुस्थिति यह है कि स्वभाव का प्रत्यथात्थ असम्भव होता है । फिर भी यदि भावहेतुतया अभिमत पदार्थ से असत् की उत्पत्ति नहीं मानी जायगी तो जैसे उत्पत्ति हेतु से असत् का सत्करण होता है उसी प्रकार नाश हेतु से सत् का सत्करण भी हो सकता है । अतः नाशहेतु अनश्वरस्वभाव भाव का नाशक होता है यह द्वितीय विकल्प के कारण नाशहेतु के नाशोत्पादकता का निरास नहीं हो सकेगा। इसके अतिरिक्त, भावहेतु को असत्स्वभाव जन्य का जनक मानने में असत् कायवाद में बताये गये सम्पूर्ण दोषों को प्रसक्ति होगी ।। २० ॥
२१ वीं कारिका में उक्त चार विकल्प में से अन्तिम दो विकल्पों में दोष बताये गये हैं-अन्त्य विकल्पद्वये दोषमाह
मूलम् — न चोभयादिभावस्य विरोधासंभवादितः ।
स्वनिवृत्त्यादिभावादी कार्याऽभावादितोऽपरे ॥ २१ ॥
न चोभयादिस्वभावस्य उभयस्वभावस्य - अनुभयस्वभावस्य वा जन्यस्य जननस्वभावो जनकः । कुतः १ इत्याह-विरोधासंभवादितः - उभयस्वभावजन्यजनकत्वे वस्त्वविरोधेऽपि स्वमतविरोधात् अनुभयस्वभावजन्यजनकत्वे चासंभवात् ताशस्य जन्यस्य निःस्वभाव
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स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन |
त्वेनानुपलब्धेः । आदिना जन्यस्योभयस्वभावत्वे वस्तुन ए स्थिरा - स्थिरोभयस्वभावत्वे किमीeप्रयासेन १ इत्यादि द्रष्टव्यम् ।
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परेषां पुनरिह प्रकारान्तरेणा निष्टापादानविधिमाह-स्वनिवृत्यादिभावादी- जनकस्य निवृत्त्यादिस्वभावत्वे कार्याभावादितः कार्यानुत्पत्र्यादिदोषप्रसङ्गात्, अपरे - आचार्याः जनकस्याहेतुत्वमाहुः | इदम्म्रुक्तं भवति स जनकः स्वनिवृत्तिस्वभावः स्यात्, कार्यजननस्वभावो वा, उभयस्वभावो वा अनुभयस्वभावो वा । आद्ये, स्वयं निवर्तेतैव, न कार्यं जनयेत् । द्वितीये, कार्यमेव जनयेद् न निवर्तेत । तृतीय - चतुर्थयेोस्तु विरोधाऽसंभव । अथ स्वनिवृत्तिरेव कार्यजनन मिति न विरोध इति चेत् ? तहिं जननं कार्याऽन्यतिरिक्तमिति कार्यमेव, तथ स्वनिवृत्तिः, सा च स्वात्मिकेत्यनिवारितोऽन्वयः, कार्याभावो वा । क्रमिक निवृत्तिकार्यजननस्त्रभावकं च नैकं क्षणिकमित्यादि स्त्रधियाऽभ्यूहनीयम् ॥ २१ ॥
[ उभयानुपस्वभाव जन्य की जनकता में विशेषादि दोप ]
भावहेतुतया श्रभिमतपदार्थ को सत्-असत् उभयस्वभाव जन्य का एवं न सत्-न श्रसत् अनुभयस्वभावजन्य का भी जनक नहीं माना जा सकता। क्योंकि सरस्वभावत्व और असत्स्वभावत्व में विरोध होने से एक जन्य वस्तु सत्-असत् उभयस्वभाव नहीं हो सकती । यद्यपि यह विरोध दोष जनमतानुसार नहीं है, क्योंकि जैन के मत में वस्तु विरुद्धाविरुद्ध अनंत धर्मों से आश्लिष्ट होती है किन्तु बौद्धमत से विशेष है। क्योंकि बौद्धमत में किसी भी एक वस्तु में परस्पर विरोधी दो धर्मो का सहचार होना श्रमान्य है । अनुभयस्वभाव जन्य के प्रति भावहेतुतया अभिमत पदार्थ को जनकता को मानना यह तो युक्तिसंगत हो ही नहीं सकता, क्योंकि ऐसा जन्य जो सत् भी न हो और असत् भो न हो, वह निःस्वभाव होने से प्रसिद्ध है । अत एव यह विकल्प असम्भव दोषग्रस्त है ।
ग्रन्थकार ने विरोध और असम्भव दोष का उल्लेख कर श्रादि शब्द से दोषान्तर का भो उल्लेख किया है जो तृतीय विषल्प में घटित होता है-जन्य को सत् श्रसत् उभयस्वभाव मानने पर वस्तु की स्थिर और अस्थिर उभयस्वभावता स्वीकृत हो जाती है। अतः वस्तु को क्षणिक सिद्ध करने के लिये नाश के निर्हेतुकत्व साधन का प्रयास व्यर्थ हो जाता है ।
[ अन्य प्रकार से अनिष्टापादक अन्य आचार्य का मत । ]
ग्रन्थकार ने कारिका के उत्तरार्ध में अन्य विद्वानों के मत से अन्य प्रकार से भी श्रनिष्ट आपत्ति का उपदर्शन किया है जैसे, भावजनकत्वरूप से अभिमत पदार्थ के सम्बन्ध में चार farer हो सकते हैं कि (१) जनक रूप से अभिमत पदार्थ स्वनिवृत्तिस्वभाव होता है या (२) कार्यजनन स्वभाव होता है अथवा (३) स्वनिवृत्ति और कार्यजनन उभयस्वभाव होता है अथवा ( ४ ) न तो स्वनिवृत्तिस्वभाव और न कार्यजननस्वभाव इस प्रकार अनुभवस्वभाव होता है । इन चार स्वभाव को स्वीकारने पर क्रमशः कार्याभाव, निवृत्त्यभाव, विरोध और असम्भव दोष प्रसक्त होते हैं। अतः इन विकल्पों के सदोष होने से तथा पाँचवा कोई विकल्प सम्भव होने से भावहेतुसमा अभिमत पदार्थ में भाव के अनुत्पादकत्व की प्रापत्ति प्रसक्त होती है। आशय यह है कि ( १ ) यदि
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| शास्त्रवास० स० ६ इलो० २२
जनक को स्वनिवृत्तिस्वभाव मानेंगे अर्थात् जनक का यह स्वभाव मानेंगे कि वह स्वयं निवृत्त होता है तो इस पक्ष में वह निवृत्त ही होगा-कार्य को जनक नहीं होगा क्योंकि कार्य जनन के लिये जनक को वर्त - मान होना चाहिये किन्तुनिवृत्ति स्वभाव मानने पर वह निवर्तमान ही होगा - वर्तमान नहीं होगा । (२) जनक कार्यजन स्वभाव होता है इस द्वितीय विकल्प में वह जनक कार्य का उत्पादक ही होगा, निवृत्त नहीं होगा कि की उत्पत्ति के लिये उसका वर्तमान होना आवश्यक होगा और वर्तमान रहते हुये निवृत्त होना असम्भव है। (३) तीसरे विकल्प में विरोध होगा क्योंकि- 'निवृत्ति स्वभाव' और 'वर्तमान का अनामावि कार्यजननस्वभाव' इन दोनों के सह अस्तित्व में विरोध है । ( ४ ) ate free में असम्भव स्पष्ट है क्योंकि- 'उक्त दोनों स्वभावों से रहित भाव का अस्तित्व हो हो नहीं सकता। यदि तृतीय विकल्प में प्रदर्शित विरोध के परिहारार्थ यह कहा जाय कि - "स्व की निवृत्ति हो कार्य का जनन है । अतः स्वनिवृत्ति और कार्यजनन यह दो स्वभाव न होकर एक ही स्वभाव है अतः विरोध नहीं है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि- 'कार्य का जनन कार्य से भिन्न न होने के कारण कार्यस्वरूप हो है और कार्य 'जनक की निवृत्ति रूप है और जनक की निवृत्ति जनक से अपृथक् सिद्ध होने के कारण जब कार्यात्मक है तो जनक मी कार्यात्मक होगा । अतः जन्य में जनक के अन्वय का निवारण न होने से निरन्वय नाश को सिद्धि न होगी । अथवा यदि स्वनिवृत्ति को ही कार्यजनन स्वभाव मानने पर स्वनिवृत्ति से अतिरिक्त कार्य का प्रभाव होगा इस दोष के परिहार के लिये निवृत्तिस्वभाव और कार्यजननस्वभाव का क्रमिक अस्तित्व यदि माना जायगा तो वह क्षणिकत्व पक्ष में सम्भव नहीं हो सकता। ऐसे अनेक दोषों का ग्रनुसन्धान किया जा सकता है ।। २१ ।।
२२ वीं कारिका में इस शंका कि 'भावहेतु में भाव के अजनकत्व का आपादन करने से हेतुहेतुमद्भाव का निषेध फलित होता है और वह हेतु हेतुद्भाव के प्रत्यक्ष से बाधित है अतः उक्त प्रापादन प्रत्यक्ष विरुद्ध होने से प्रसङ्गत है' निराकरण किया गया है---
नन्वेवं हेतुफलभावनिषेधः कृतः स्यात् स च प्रत्यक्षवाधित इत्याशङ्कापोहायाह
1
मूलम्न वाध्यक्षविरुद्धत्वं जनकत्वरूप मानतः । असर नीत्या तदूव्यवहारनिषेधतः ॥ २२ ॥
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न चाध्यक्ष विरुद्रत्वमत्र बाधकमुद्भावनीयम्, जनकस्दस्य मानतः - प्रमाणात् असिद्धेः, अत्र नीत्यान्यायेन तद्व्यवहार निषेधतः जनकत्व व्यवहारनियेधात् प्रमाणाभावस्य सद्व्यवहाराविषयत्वानुमापकत्वात्, अपेक्षया चोक्तरीत्यात्रार्थे प्रमाणाभावाच्याधानादिति मात्रः ॥ २२॥ [ प्रत्यक्षविरोध का उद्भावन व्यर्थ है ]
भावहेतु में भावजनकत्व के अभाव को आपादन में प्रत्यक्ष विरोध का उद्भावन नहीं हो सकता। क्योंकि - ' जनकता यह प्रमाण से सिद्ध नहीं है अर्थात् जनकता में प्रमाण का प्रभाव है । इसलिये जनकत्वप्रत्यक्ष अप्रामाणिक होने से उससे जनकत्वाभाव के श्रपादन में विरोध नहीं हो सकता। इस पर यह प्रश्न होगा कि जनकला यदि प्रमाण सिद्ध नहीं है तो उसके प्रभाव का भी आपादन कैसे हो सकता है ? क्योंकि अप्रामाणिक का अभाव भी प्रामाणिक नहीं होता । तो इसका उत्तर यह है कि भावहेतु में जनकत्व का निषेध नहीं करना है किन्तु अनुमान द्वारा जनकत्व के यथार्थ
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स्था. फ. टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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ध्यवहार का निषेध करना है। क्योंकि-'प्रमाणाभाव यथार्थव्यवहारविषयवाभाव का अनुमापक होता है। यह नियम है कि जिस में प्रमाण नहीं होता वह यथार्थव्यवहार का विषय नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि 'जनकत्व में प्रमाणाभाव असिद्ध है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि-'कार्य को अपेक्षा उक्त रोति से अर्थात् सत्स्वभावकार्यजननस्वभावत्व असत्स्वभावकार्यजननस्वभावस्व आदि विकल्प दोषग्रस्त होने से जनकता को उपपत्ति सम्भव न होने के कारण अनकता में प्रमाणाभाव की सिद्धि अध्याहत है ॥ २२॥
२३ बों कारिका में यह बात बतायी गार है कि प्रमाणात साहारामार का साधक न्याय बौद्ध को भी स्वीकृत है
अयं च परेणाप्याश्रित एव न्याय इत्याहमूलम्-मानाभावे परेणापि व्यवहारो निषिध्यते ।
सज्ज्ञानशब्दविषयस्तबदनापि दृश्यताम् ॥ २३ ॥ परेणापि बौदेनापि मानाभावे-प्रमाणाभावे कचिद् वस्तुनि प्रधानेश्वगदी सज्ज्ञानशब्दत्रिपयो व्यवहारो निषिध्यते-प्रधानादिक 'सत्' इति न ज्ञेयम् 'सद्' इति नाभिधेयं घा, प्रमाणेनानुपलभ्यमानत्वादिति । तददत्रापि-जनकत्वेऽपि-दृश्यतां प्रमाणाभावेन सयवहारनिषेधः, न्यायस्य समानत्वात् । निरस्तो 'नाशहेतोरयोगतः' इत्याद्यो हेतुः ॥ २३ ॥
[प्रमाणाभाव से व्यवहारनिषेध बौद्ध को मान्य ] बौद्ध भी जिस में प्रमाण का अभाव होता है उसमें यथार्थव्यवहार का निषेध करते हैं । वह निषिव्यमान व्यवहार ज्ञान विषयक भी होता है और शवविषयक भी होता है। जैसे प्रधान-त्रिगुवात्मिका प्रकृति और ईश्वर-नित्यसर्वज्ञ आदि में बौद्धष्टि से कोई प्रमाण न होने से बौद्धमत में इस प्रकार का निषेध किया जाता है कि प्रधान आदि सद रूप में जेय और सत शव से अभिधेय नहीं है क्योंकि-'खे प्रमाण से सिद्ध नहीं होते' । इस स्थिति में ग्रन्थकार का कहना है कि बौद्ध को इस तथ्य पर भी दृष्टि देनी चाहिये कि जिस न्याय से प्रधान प्रादि में प्रमाणाभाव से सदचवहार का निषेध होता है यह न्याय जनकत्य के सम्बन्ध में भी समान है। अब तक प्रस्तुत विचार से नाश का हेतु युक्तिसिद्ध नहीं है, यह बताया गया। इससे क्षणिकत्व के साधक इस प्रथम हेतु का निराकरण किया गया ।। २३ ॥ [ नाशहेतु अयोग की चर्चा समाप्त ]
२४ वी कारिका में क्षणिकत्व के साधक अर्थक्रियासमर्थत्वरूप द्वितीय हेतु में दोष बताया आ रहा है--
अथ 'अर्थक्रियासमर्थत्वात्' इति द्वितीयं हेतुं दुषयितुमाहमूलम् - अर्थक्रियासमर्थत्वं क्षणिके यच्च गोयते !
उत्पत्यनन्तरं नाशाखि ज्ञेयं तदयुक्तिमत् ॥ २४ ॥
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| शास्त्रवासा. स्त० ६ श्लो० २५
अर्थक्रियासमर्थनं क्षणिके निरन्धयनश्चरे घस्तुनि यच गीयते परैः, तदुत्पत्त्यनन्तरं नाशादयुक्तिमद् विज्ञेयम् ॥ २४ ॥
[ अर्थक्रियासमर्थत्व हेतु युक्तिसंगत नहीं है ] निरन्यय नश्वर बस्तु में बौद्धों ने जो अर्थक्रिया सामर्थ्य का अभ्युपगम किया है वह अयुक्त है क्योंकि-'निरन्वयनश्वर वस्तु अपनी उत्पत्ति के अनन्तर ही नष्ट हो जाती है ॥ २४ ॥
२५ वो कारिका में उत्पत्ति के अनन्तर नष्ट होने वाली वस्तु अक्रियासमर्थ क्यों नहीं हो सकती इस का प्रतिपादन किया गया है
कथम्' ? इत्याहमूलम् अर्थक्रिया यतोऽसौ वा तदन्यो वा द्वयी गतिः ।
तत्वे न तत्र सामर्थ्यमन्यतस्तत्समुद्भवात् ॥२१॥ अर्थक्रिया यतोऽसौ चा=जनकरयाभिमतः पदार्थ एव चा स्यात् , तदन्यो वा तदनन्तरभावी पदार्थ एव वा यो गति द्वाविमावत्र प्रकारौ। आधे दूरणमाह-तच्चे अर्थक्रियायास्तदात्मकरखे न तत्र-अर्थक्रियायाम् सामथ्र्य, 'तस्य' इति योगः । कुतः ? इत्याहअन्यतः स्वहेतोः तत्समुद्भवात् तस्याखिलस्वधर्मान्वितस्योत्पादात् । स्वस्य जनकत्वं च दृप्टे-याभ्यां विरुद्धम् । तस्माद् नार्थक्रियायास्तदभेदे तस्याक्रियाया उत्पादे सामथ्र्यम् ॥ २५॥
[अर्थक्रिया स्वजनकस्वरूप नहीं है ] अर्थक्रिया के दो प्रकार सम्भावित हैं-एक यह कि अर्थक्रिया जिससे उत्पन्न होतो है-तत्स्वरूप होती है। अर्थात जो पदार्थ अर्थक्रिया का जनक माना जाता है वह पदार्थ हो अर्थक्रिया है । अथवा दूसरा यह कि अर्थक्रिया जिससे होती है उसके अनन्तर होने वाले पदार्थस्वरूप होती है, अर्थात जो पदार्थ अर्थक्रिया का जनक माना जाता है उस पदाथ के अनन्त
पदार्थ के अनन्तर होने वाला पदार्थ हो अर्थक्रिया है। इनमें प्रथम प्रकार में यह दोष है कि अर्थक्रिया स्वजनकस्वरूप होगो तो अर्थक्रिया में जनक का सामथ्र्य नहीं होगा। क्योंकि वह अपने हेतु से अपने समस्त धर्मों से अन्वित ही उत्पन्न होता है। अतः जब वह अर्थनियात्मक होगा तो अर्थक्रियारूप से भी अपने हेतु से ही उत्पन्न होगा अस: अर्थक्रिया में उसका सामर्थ्य न होकर उसके हेतु का ही सामर्थ्य सिद्ध होगा। दूसरी बाल यह है कि स्व में स्व का जनकत्व दृष्ट और इष्ट से विरुद्ध है । अर्थात स्व में स्व की जरकता कहीं दृष्ट नहीं है और वह आत्माश्रय के कारण इष्ट भी नहीं हो सकती। अतः अर्थक्रिया को जनक से अभिन्न मानने पर प्रक्रिया की उत्पत्ति में जनक का सामर्थ्य नहीं हो सकता।
२६ वीं कारिका में यह बात बतायी गयी है कि अर्थ किया और उसके जनक में अभेव मानने पर अर्थक्रियाजनकत्वरूप से अभिमत पदार्थ अर्थक्रिया के धारण और नाश में भी समर्थ नहीं हो समता
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स्या
टोका एवं हिन्वी विवेचन ]
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नापि नदारण-नाशयोरित्याहमूलम्-न स्वसंधारणे न्यायाजन्मानन्तरनाशतः ।
जातोऽपि सगभर ना तडेतोस्तत्समुद्भवात् ॥ २६ ॥ न स्वसंधारणे अर्थक्रियास्थापने, न्यायादस्य सामर्थ्यम् । कुतः ? इत्याह-जन्मानन्तरनाशतः उत्पत्यानन्तरं स्वधर्ममादायव स्वस्य नाशात् । न च नाशेऽप्यक्रियायाः तत्सामध्ये सद्युक्त्यायुक्तम् । कुतः १ इत्याह-तद्धेतोस्तत्समुद्भवात्-स्वहेतोरेव नश्वरस्वभावोत्पत्तेः ॥२६॥
[ अर्थक्रिया का धारकत्व और नाशकत्व अनुपपन्न ] अर्थक्रिया जनकस्वभावरूप होने पर अर्थक्रियाजनक में अर्थक्रिया के धारण-स्थापन का भी सामर्थ्य न्यायतः सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि-'जो प्रक्रिया का जनक होगा उसका जन्म के अनन्तर नाश हो जाता है । अतः जब वह अर्थक्रिया से अभिन्न होगा तो उत्पत्ति के अनन्सर अपने अर्थक्रियात्मकधर्म को लेकर हो नष्ट होगा । अर्थात् उसके नाश के साथ अर्थक्रिया भी नष्ट हो जायगी ऐसी स्थिति में वह प्रक्रिया का धारक कैसे हो सकेगा। इसीप्रकार नाश में भी अर्थक्रिया का सामर्थ्य युक्तिसिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि-'जो अर्थनिया का जनक है वह अपने हेतु से हो नश्वरस्वभाव उत्पन्न होता है । जब अर्थक्रिया उससे अभिन्न होगी तो वह भी उसके हेतु से हो नश्वरस्वभाव होगी न कि उससे नश्वरस्वभाव होगी। प्रतः प्रक्रिया का जनक अर्थकिया से भिन्न होने पर अर्थक्रिया का नाशक भी नहीं हो सकता ॥ २६ ॥
२७ वीं कारिका में, अर्थक्रिया स्वजनक से भिन्न है-इस दूसरे प्रकार में दोष बताया गया हैद्वितीयप्रकारे दोपमाहमूलम्-अन्यत्वेऽन्यस्य सामर्थ्यमन्यत्रेति न संगतम् ।
ततोऽन्यभाव एचैतन्नासौ न्याय्यो दलं चिना ॥ २७ ॥ ___ अन्यत्वे अर्थक्रियायाः स्वभिन्नत्वेऽभ्युपगम्यमाने, अन्यस्य हेतोः, अन्यत्र अर्थक्रियायाम् सामर्थ्यम् , इत्यसंगतम् अयुक्तम् , सामर्थ्य-सामथ्यवतोरभेदात् सामर्थ्यवदन्यत्र तदभाशत् । स्यादेतह 'ततः-दण्डादेः अन्यभाव एवघटाधुत्पाद एव, एतत्-सामथ्र्यम् , नान्यदिति अत्राह-नासौं अन्यभावः न्याय्याम्घटमानका दलं विना-तथाभाविनमुपादानमन्तरेण || २७॥
[अर्थक्रिया स्वजनकभिन्नस्वरूप है-दूसरा विकल्प ] अर्थनिया को स्वजनक से अन्य मानने पर स्वजनक का अर्थक्रिया में सामर्थ्य युक्तिसंगत नहीं हो सकता। क्योंकि 'सामर्थ्य और सामर्थ्यवान् में अभेद होता है। इसलिये सामर्थ्यवान से अन्य में सामथ्र्य नहीं रह सकता । आशय यह है कि अर्थक्रियाजनक ही प्रक्रियासमर्थ होता है। अत: अर्थक्रियासामर्थ्य अर्थनियासमर्थ से अभिन्न होने के कारण वह अर्थक्रियाजनकनिष्ठ होगा, न कि इस
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० २८
से भिन्न अर्थक्रियानिष्ठ होगा अतः 'अर्थक्रिया में अर्थक्रियाजनक का सामर्थ्य है' यह कहना अयुक्त है । यदि यह कहा जाय कि - ' दण्डादि से जो घटादि का उत्पाद होता है वही घटादि में दण्डादि का सामर्थ्य है उससे भिन्न नहीं है और घटादि का उत्पाद घटादिनिष्ठ हो है अत: जनकसामध्ये अर्थक्रियानिष्ठ होने में कोई बाधा नहीं है' । तो यह कथन अर्थात् दण्डादि से घटादि के उत्पाद का अभ्युपगम घटादिरूप से भवनशील किसी उपादान कारण को बिना माने न्यायतः सिद्ध नहीं हो सकता । जब कोई ऐसा उपादान कारण माना जायगा तो उसका उत्तरभावी कार्य में श्रन्वय होने से नाथ की अपरिहार्य निरन्वयनश्वरतारूप क्षणिकता का साधन नहीं हो सकता ।। २७ ।।
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२८ वीं कारिका में पूर्वकारिका के उत्तरभाग में कथित अर्थ को घटादि रूप से भवनशील उपादान कारण माने बिना दण्डादि से घटादि का उत्पाद असम्भाव्य है - इस विषय को स्पष्ट किया गया है
एतदेव स्पष्टयति
मूलम् - नासत्सज्जायते यस्मादन्यसत्त्वस्थितावपि ।
तस्यैव तु तथाभावे नन्वसिडोऽन्वयः कथम् ? ||२८|| यस्मादन्यसवस्थितावपि किमुत तन्निवृत्तौ असत् सद् न जायते तच्छक्त्यभावेनातिप्रसङ्गात् । तस्यैव च पूर्वक्षणस्य, तथाभावे - उत्तरक्षणरूपतया भरने, ननु निश्चितम् अन्वयः कथमसिद्धः, भावाऽविच्छेदस्यैवान्यत्वात् १ ||२८||
[ असत् सत् नहीं होता ]
अन्यभाव अर्थात् कार्यरूप से भवनशील भाव के स्थित होने पर भी असत् यानी कारणात्मना अविद्यमान पदार्थ सत् नहीं होता उत्पन्न नहीं होता जैसे सृपिड के प्रभाव में घटरूप से भवनशील दण्ड- चक्रादि के रहने पर भी दण्ड- चक्राविरूप में असत् घट की उत्पत्ति नहीं होती । तो फिर ऐसे अन्य भाव को निवृत्ति होने पर असत् की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? अतः बौद्ध का यह मन्तव्य कि- 'उत्तरभाव अपने से सर्वथा भिन्न पूर्वभाव को निवृत्तिकाल में उत्पन्न होता है'--अयुक्त है। क्योंकि जो कारणरूप में असत् होता है उसमें कार्यरूप से उत्पन्न होने की शक्ति नहीं होती । उस शक्ति के अभाव में भी उत्पत्ति मानने पर खपुष्पादि के भी उत्पत्ति का प्रसंग होगा । एवं सर्वत्र सब की उत्पत्ति का अतिप्रसंग होगा क्योंकि जैसे उत्तरभाव पूर्वभावरूप से असत् होने पर भी उत्पन्न होता है उसी प्रकार खपुष्प असत् होने पर भी उत्पन्न हो सकता है। तथा जैसे मृत्पिंडरूप से असत् भी घट मृत्पिड में उत्पन्न होता है उसी प्रकार तन्तु आदि रूप में असत् होने से तन्तु आदि में भी उसकी उत्पत्ति का अतिप्रसंग हो सकता है क्योंकि मृत्पिंड और तन्तु दोनों में असब समान है । यदि उक्त दोष के भय से पूर्वक्षण का ही उत्तरक्षणरूप में भवन माना जायगा तो निश्चितरूप से उत्तरभाव में भाव का विच्छेदरूप] अन्वय होने से कार्य में कारण का अन्यय प्रसिद्ध कैसे होगा ? ॥२८॥
२६ वीं कारिका में बौद्धमत में एक अन्य दोष प्रदर्शित किया गया हैदोषान्तरमाह
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स्थाक० टोका एवं हिकी विवेचा
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मूलम्-भूतिर्येषां क्रिया सोक्का न चासौ युज्यते कचित् ।
का भोक्तृस्वभावत्वविरोधादिति चिन्त्यताम् ॥२९॥ या एषां प्रस्तुतभावानाम् भूतिः सा क्रियोक्ता भवता । न चासौं-भूतिः न्यायतः क्वचिद् युज्यते । कथम् ? इत्याह-क-भोक्तुस्वभायत्त्वविरोधात ; तथाहि-सा कि कर स्वभावा वा स्यात्, भोक्तुस्वभावा वा ? । कत स्वभावत्वे न भोक्तृत्वम् , भोक्तृस्वभावत्वे च न कत त्वं स्यात् । न च 'कत स्वभावस्वमेव भोक्स्व भावत्वम्', घट-कलशादिपदानामिव कन भोक्तपदयोरभिन्नप्रतिनिमित्तकत्वेन पर्यायत्यापातान्, चरमस्य कत लाभावाच्च, भावे वा चरमत्वविरोधात् । न चादी कत स्वभावैव, अन्ते च भोक्तृस्वभावा, अन्तरा तूभयस्वभावेति वाच्यम् द्वैरूप्यविरोधादिति चिल्ल्यता सूक्ष्मधिया ॥ २६ ॥
[भूति ही क्रिया है-इस पक्ष में दोषापत्ति ] मावों की भूति को बौद्धमत में किया कहा गया है-अर्थात बौद्ध को यह मान्यता है कि संसार केवल विभिन्न क्रिया सन्तानों का पुञ्ज है- अर्थात् जगत में किया का ही अस्तित्व है-कर्ता का नहीं । जैसे यह कहा जा सकता है कि संसार में जनन क्रिया होती है किन्तु जनन क्रिया का कोई फर्ता नहीं होता उसी प्रकार मरणक्रिया भी होती है-उसका भी कोई कर्ता नहीं होता एवं ज्ञानादि क्रिया होती है उनका भी कोई कर्ता नहीं होता क्योंकि कर्ता का अस्तित्व मानने पर स्थिरवाद का प्रवेश हो जाता है तो इस प्रकार भतिक्रिया का भी प्राश्रयमत कोई भावात्मकपदार्थ नहीं है किन्तु भतिक्रिया ही है । इस स्थिति में बौद्ध मत में यह दोष प्रसक्त होता है कि क्रिया न्यायतः किसी के स्वभावरूप में सिद्ध नहीं हो सकती क्योंकि क्रिया से अतिरिक्त का अस्तित्व बौद्धमत में मान्य नहीं है। यदि यह कहा आय कि बौद्ध मत में भी का और भोक्ता व्यवहारसिद्ध है अत एव उसके स्वभाव रूप में निया की सिद्धि हो सकती है-लो यह ठीक नहीं है क्योंकि कर्तृ स्वभावत्व और भोक्तृस्वभावत्व में विरोध है। जैसे--भूतिक्रिया को कर्तृ स्वभाव माना जाय या भोवतस्वभाव माना जाय ? कर्तृ स्वभाव मानने पर भोक्तृस्वभावता नहीं होगी और भोक्तृस्वभाव मानने पर कर्तृ स्वभावता नहीं होगी, क्योंकि कर्तृ स्वभावभूति और भोक्तृस्वभावभूति विभिन्नकालिक होती है। यदि कर्तृ स्वभावत्व और भोक्तस्वभावत्व को अभिन्न मान लिया जाय तो घट-कलश आदि पद के समान कर्तृपद और भोक्तृपद का प्रवत्ति निमित एक हो जाने से उनमें पर्यायवाचिता को आपत्ति हो जायगी। इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह होगा कि चरम भाव में कर्तृत्व न हो सकेगा। जिसमें कर्तत्व होगा वह भाव चरम न हो सकेगा। यदि इन दोषों के परिहार के लिये यह कहा जाय कि 'याद्यभूति कर्तृ स्वभाव होती है और अन्त्यमूति भोक्तृस्वभाव होती है और मध्यवर्ती भूति कर्तृ मोक्तृ उभयस्वभावा होती है'-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि इसमें एकभूति में व्यापारात्मकत्व और भोगात्मकत्व ऐसे विरुद्धरूपद्धय को प्रसक्ति होगी। क्योंकि कर्ता के अभाव में व्यापारात्मक-फर्मात्मक क्रिया ही कर्तृ स्वभाव होती है और व्यापाररूप किया और भोगरूप क्रिया में भेद है । अतः एक क्रिया को कर्तृ और भोक्तृस्वभाव मानने में विरोध स्पष्ट है।
३. वीं कारिका में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है -
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ६ इलो० ३०
प्रस्तुतमुपसंहरति-
मूलम् - न चातीतस्य सामर्थ्यं तस्यामिति निदर्शितम् ।
न चान्यो लौकिकः कश्चिच्छन्दार्थोऽत्रेत्य युक्तिमत् ||३०||
न चातीतस्य वस्तुनः सामभ्यं स्वहेतोरव्यतिरिक्तम् तस्यां अर्थक्रियायां द्वितीयक्षणलक्षणायाम्, इति= एतत् निदर्शितम्, 'अन्यस्य सामर्थ्यमन्यत्रेति न संगतम् ' [ का० २७] इत्यनेन । न चान्यो लौकिक:- लोकप्रसिद्धः कविच्छार्थः अत्र 'अर्थक्रियायां सामथ्यमिति वाक्ये, इति एवम् अयुक्तिमदर्धक्रियासमर्थत्वं क्षणिकरवे यद् गीयत इति ।
[ क्षणिकत्व में अर्थक्रिया सामर्थ्य अयुक्त हैं ]
सामर्थ्य स्वाश्रय से अव्यतिरिक्त है । श्रतः द्वितीयरूप प्रक्रिया का सामध्ये अतीत वस्तु में नहीं हो सकता क्योंकि 'वस्तु के अतीत होने के साथ ही उससे अव्यतिरिक्त सामर्थ्य भी अतीत हो जाता है । अतः उसके साथ अर्थक्रिया का सम्बन्ध नहीं हो सकता । यह बात 'अन्यस्य सामर्थ्यं श्रन्यत्र न संगतम् ' [ [फा० २७ ] इस कारिकांश द्वारा बताया जा चूका है और स्वाश्रय से व्यतिरिक्त सामर्थ्य स्वरूप कोई अर्थ लोक में प्रसिद्ध नहीं है जिसे 'अर्थक्रियायां सामर्थ्य' इसमें सामर्थ्य शब्द का श्रर्थ कहा जा सके | इसलिये क्षणिकक्ष में अकारणत्वेन अभिनत भाव में अर्थक्रिया सामर्थ्य युक्तिसंगत नहीं है।
+
यच्च क्रम-यौगपद्याभ्यामर्थक्रिया स्थिराद् व्यावर्तमाना क्षणिकतायामेवावतित इत्युच्यते । तत् कदाशामात्रम्, स्वभिन्नक्रमिकार्थक्रियाभेदेऽपि हेतोरभेदात् । न च हेतोः प्रतिक्षणमभिन्नत्वेऽर्थक्रियापि युगपद् भवेदिति वाच्यम्, नियमाभावात् यथा दर्शनम् हेतोरभेदस्यार्थक्रियाभेदस्य च संभवात् । न च प्रतिक्षणविशरारुताऽविनाभूतः क्रमवदर्थक्रियोत्पादः काचिदुपलब्धः येन तदुदयक्रमात् तद्धेतोः प्रतिक्षण भेदः सिद्धिमासादयेत् । न चार्थक्रियापि प्रतिक्षणं भेदवती सिद्धा, तत् कथं स्वयमसिद्धहेतोः प्रतिक्षण भेदमत्रगमयेत् ? । न च सौगतानां कालाभावादर्थक्रियाक्रमोऽपि युक्तः, कार्यपरम्पराव्यतिरिक्तस्य कालस्य तैरनभ्युपगमात् । न च फलभेदमात्रा हेतुभेदव्यवस्था, एकेनापि प्रदीपादिनानेककार्याणायेकदा करणात् । परपरिंकल्पितकालाभ्युपगमेन कार्यक्रमच प्रमाणाभावे दुर्घटः । न च तदभ्युपगमेन कारणक्रमोपपत्तापिस्थैर्यभङ्गः । 'जनकत्वा-जनकत्वस्वभावभेदादमी स्यादिति चेत् ? न, क्रमोपेत कार्योपलम्यात्, कल्पनाध्यवसितेन जनका -ऽजनकत्वस्व मायभेदेनापि भावाऽभेदात्, अन्यथा भावानामेकत्वमध्यवस्यन्ती कल्पना तव स्थैर्यमपि किं न दर्शयेत् । तस्मादुतिफलापेक्षया कल्पना भावानां जनकत्वमध्यवस्यति, अनुदित फलापेक्षया तु तत्रैव जनकत्वमध्यारोपयतीति न भेदः । न चेदेवम्, एकस्यापि क्षणस्य परोपजनितकार्यापेक्षयाऽजनकत्वम् स्त्रोत्पाद्यकार्यापेक्षया
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
तु जनकत्वमिति भेदः स्यात् । कल्पनाप्रदर्शित भेदबाघ कोऽभेदनिर्भासस्तूभयत्र तुल्य इति ध्येयम् । 'समर्थो यदि हेतुः, तदोत्पन्नमात्र एत्र कार्य किं न जनयेत् ?' इति चेत् । तत्र कुर्वद्रूपः क्षणस्तदा किं न भवेत् ? | 'सहकार्यभावादिति चेत् १ तुल्यभिदमन्यत्र ।
[ क्रम-यौगपद्य से अर्थक्रिया का स्थिर वस्तु में असंभव नहीं है ]
बौद्ध की ओर से जो यह बात कही जाती है कि- "स्थिर पदार्थ में अर्थक्रियाजनकत्व कम से अथवा युगपद् नहीं उपपन्न होता- क्योंकि
क्रम से अर्थक्रियाजनकत्व मानने पर पूर्व अर्थक्रिया के जनक को अनन्तरभाषी अर्थक्रिया का अजनक मानना होगा क्योंकि 'यदि वह अनन्तरभावी अर्थक्रिया का भी जनक होगा तो पूर्व अर्थक्रियाकाल में ही अनन्तरभावी अर्थक्रिया की उत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग होगा । तथा अनन्तरभावी अर्थक्रिया के जनक को पूर्वमावी अर्थक्रिया का अजनक मानना होगा अन्यथा श्रनन्तरभावी अर्थ - क्रियाकाल में पूर्वभाव प्रक्रिया को भी उत्पत्ति का अतिप्रसङ्ग होगा। इस प्रकार पूर्वभावो अर्थक्रिया के जनक और अनन्तरभावी अर्थक्रिया के जनक में भेद होने से स्पष्ट है कि पूर्व भावी और अनन्तरभावी अर्थक्रिया की जनकता स्थिर पदार्थ में नहीं होती । इसी प्रकार --
स्थिर पदार्थ को भी अक्रिया का जनक रहीं जाना जा सकता क्योंकि - 'जो स्थिरतया अभिमत पदार्थ अपनी सम्पूर्ण अर्थक्रियाओं को एक काल में ही पैदा कर देगा उससे अतिरिक्त काल में उसके अस्तित्व में कोई प्रमाण न होगा । इस प्रकार अर्थक्रियाकारित्व स्थिर वस्तु में सम्भव न होने से क्षणिक दस्तु में हो प्रतिष्ठित होती है । "
इस बौद्ध कथन से भाव के क्षणिकत्व की सिद्धि की आशा दुराशा है क्योंकि - एक हेतु को भी अपने से भिन्न अर्थक्रियाओं को क्रम से उत्पादक मानने में कोई आपत्ति नहीं है ।
[ सर्व अर्थक्रियाओं का एक ही क्षण में अनकल का नियम असिद्ध ]
यदि यह कहा जाय कि 'हेतु यदि प्रतिक्षण एक ही होगा अर्थात् पहलो अर्थक्रिया से लेकर अन्तिम प्रक्रिया तक एक ही होगा तो जिस समय उससे पहली अर्थक्रिया उत्पन्न होती है उसी समय अन्य अर्थक्क्रियाओं की भी उत्पत्ति अनिवार्य होगी, क्योंकि विभिन्न कालों में होने वाली अर्थक्रियाओं को जब एक हो हेतु उत्पन्न करता है तब तो वही हेतु पहलो अर्थक्रिया के समय में विद्यमान है अतः उसी समय उन सभी अर्थक्रियाओं को उत्पन्न करने में उसे कौन रोक सकेगा ?' तो यह ठीक नही है । क्योंकि - 'जिस जिस अर्थक्रिया का जनक जिस क्षण में होता है उस क्षण में उन सभी अर्थक्रियाओं को वह उत्पन्न करें ऐसा नियम नहीं है । प्रत एव लोक में कार्यकारण को जो स्थिति देखी जाती है उसके अनुसार हेतु का अभेद और अर्थक्रिया का भेद युक्तिसंगत है। क्योंकि- 'जो क्रमिक अर्थक्रिया का उत्पादक होता है वह प्रतिक्षण नश्वर होता है' यह व्याप्ति कहीं उपलब्ध नहीं है । अतः प्रक्रिया के जन्मक्रम से अर्थक्रिया के हेतु में प्रतिक्षण भेद की सिद्धि नहीं हो सकती ।
यह भी दृष्टव्य है कि अर्थक्रिया का भेद भी प्रतिक्षण में सिद्ध नहीं है, इसलिये जब अर्थक्रिया का प्रतिक्षण में भेद स्वयं प्रसिद्ध है तो प्रक्रिया भेव से उसके हेतु का प्रतिक्षण में भेद कैसे सिद्ध हो सकता है ? कहने का श्राशय यह है कि यदि यह सिद्ध हो कि दण्डचक्रादि से उत्पन्न होनेवाला घट
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० ३०
मुद्गराभिघात के पूर्व क्षण तक एक नहीं रहता कि तु प्रतिक्षण में बदलता रहता है अर्थात् प्रथम क्षणोत्पत्र घट द्वितीय क्षण में नहीं रहता किन्तु तत्सदृश दूसरा घट उत्पन्न होता है और यह क्रम घट क। विनाश न होने तक चलता है। तब तो यह मानना आवश्यक होता है कि प्रथमसरणोत्पन्नघटका कारण दूसरा है और द्वितीय तृतीयक्षण में उत्पन्न होने वाले घट का कारण दूसरा है । किन्तु यही यात प्रमाण के अभाव होने से असिद्ध है । अतः अर्थक्रिया से प्रतिक्षण भित्र कारण को सिद्धि असम्भव है ।
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| काल असिद्ध होने पर अर्थक्रियाक्रम भी असिद्ध ]
यह भी ज्ञातव्य है कि बौद्ध मत में अतिरिक्त काल को सत्ता नहीं है क्योंकि कार्य परम्परा से भिन्न काल की सत्ता उन्हें मान्य नहीं है । अतः अर्थक्रियाओं का क्रम भी युक्ति सिद्ध नहीं हो सकता। क्योंकि क्रम कालमूलक होता है और काल उनके मत में है नहीं। साथ में यह भी ज्ञातव्य हैं कि कार्य के भेदमात्र से कारणभेद की सिद्धि नहीं हो सकती क्योंकि प्रदीप शादि एक कारण से भी प्रकाश दाह- कज्जल प्रादि अनेक कार्य की युगपद् उत्पत्ति होती है। यदि इस पर यह कहा जाय कि - "बौद्ध मत में काल मान्य न होने पर भी अन्य मत में स्वीकृत काल द्वारा कार्य के क्रमिकत्व की उपपत्ति की जा सकती है" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि कार्य का क्रम यदि प्रमाण से सिद्ध हो तब उसकी उपपत्ति के लिये श्रन्यमत स्वीकृत काल के अवलम्बन की बात हो सकती है किन्तु कार्य-क्रम ही प्रामाणिक है। विशेष रूप से ज्ञातथ्य यह है कि यदि परमत श्रभ्युपगत काल का अवलम्बन कर कार्यक्रम की और कार्य-क्रम से कारण क्रम की उपपत्ति कर भी दी जाय तो भी स्थैर्य का भङ्ग नहीं सिद्ध हो सकता है क्योंकि क्रमिक कार्य का क्रमिक कारण भी स्थिर रह सकता है। अर्थात् विभिन्न क्षणों में उत्पन्न होने वाले घट का कारण विभिन्न क्षणों में भिन्न भिन्न होते हुये भी उन्हें चिरस्थायी मानने में कोई बाधा नहीं है ।
[ एक हेतु से क्रमिक कार्य प्रत्यक्ष सिद्ध ]
यदि यह कहा जाय कि - "स्थैर्य का अर्थ हो है एक में क्रमिक अनेक क्षणों का सम्बन्ध, किन्तु यह सम्भवित नहीं है । क्योंकि ऐसी स्थिति में प्रथमक्षण सम्बद्ध भाव को द्वितीयक्षणसम्बन्ध का भी जनक मानना होगा, किन्तु वह असंगत है; अन्यथा प्रथम क्षण में ही द्वितीयक्षण सम्बन्ध की आपत्ति होगी । इसी प्रकार द्वितीयक्षणस्थ भाव को प्रथमक्षणसम्बन्ध का भजनक मानना होगा अन्यथा द्वितीयक्षण में प्रथमक्षणसम्बन्ध की आपत्ति होगी। इसी प्रकार प्रथमक्षणस्थ भाव में प्रथमक्षणसम्बन्ध जनकत्व और द्वितीयक्षणसम्बन्ध का अजनकत्व एवं द्वितीयक्षणस्थ भाव में द्वितीयक्षणसम्बन्ध जनकत्व और प्रथमक्षण सम्बन्धाऽजनकत्व होने से प्रथमक्षणस्थ और द्वितीयक्षणस्थ भाव में ऐक्य नहीं हो सकता; क्योंकि जनकत्व और अजनकत्व ये दोनों विरोधी स्वभाव एक व्यक्ति में नहीं हो सकते ।"
तो यह ठीक नहीं है क्योंकि एक हेतु का क्रमिक कार्य प्रत्यक्ष सिद्ध है । जनकत्व और जनकत्वरूप स्वभाव भेद यह कल्पना का विषय है इसलिये उस काल्पनिक स्वभावभेद से माव का मेद नहीं सिद्ध हो सकता । यदि कल्पना को भी वस्तु की साधक माना जाय तो भावों में अर्थात् एक भाव की उत्पत्ति से उसके विनाश न होने तक उस भाव में जो 'स एवायं घट:' इत्यादि रूप बद्धि होती है
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स्था क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
यह बुद्धि बौद्ध मत में कल्पनारूप है क्योंकि अपनी उत्पत्ति से लेकर अपने विनाश तक भाव एक नहीं होता है किन्तु मेद का ज्ञान नहीं होने से उक्त कल्पनात्मक बुद्धि होती है, फिर उस कल्पनात्मक बुद्धि से मात्र में एकत्व की सिद्धि अनिवार्य हो जायगी। कहने का निष्कर्ष यह है कि कल्पना उत्पन्नकार्य की अपेक्षा जिस भाव में जनकत्व को ग्रहण करती है, अनुत्पस कार्य की अपेक्षा उसने माव में अजनकत्व का आरोप करती है । ग्रतः प्रथमक्षणस्य भाव में प्रथमक्षण में द्वितीयक्षणसम्बन्ध का उत्पाद न होने से द्वितीयक्षणसम्बन्ध के अजनकत्व का आरोप होता है । अतः द्वितीयक्षणसम्बन्ध के आरोपित अजनकत्व से उसमें प्रथमक्षणस्थ भाव में द्वितीयक्षणसम्बन्धजनक का भेद सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह भाव द्वितीयक्षण में द्वितीयक्षणसम्बन्ध का जनक होता है । यदि अपेक्षामेव से भी एक कार्य के जनकत्व - अजनकत्व में अविरोध न माना जायगा तो एकक्षण में भी भेद हो जायगा । अर्थात् तत्क्षण में भी तत्क्षण का भेद हो जायगा। क्योंकि जो क्षण स्वअन्य व्यापार द्वारा कालान्तर में जिस कार्य का जनक होता है वह अन्यजन्यकार्य ( व्यापार ) द्वारा उसी कार्य का प्रजनक भी होता है तो इस प्रकार एक क्षण में भी एक कार्य के जनकत्व और अजनकत्व इन दोनों विरुद्ध धर्मो के समावेश का प्रसङ्ग होने से उस क्षण में स्त्र से हो भिन्नता को प्राप्ति होगी। जिस का पर्यवसान शून्यवाद में होगा । यदि यह कहा जाय कि ' तत्क्षण में तत्क्षण के प्रभेद का बोध तत्क्षण में तत्क्षण के कल्पनारोपित भेद का बाधक होगा अतः तत्क्षण में तत्क्षण के भेद का प्रसंग नहीं होगा तो यह युक्ति स्थेयपक्ष में भी तुल्य है क्योंकि- 'उस पक्ष में भी यह कहा जा सकता है कि स्थिर बीज में अभेव का बोध कुशूलस्थ दशा में अङ्करजनकत्व की कल्पना से उपनीत मेद का भी बाधक हो सकता है। अतः कुशूलस्थबीज में क्षेत्रस्थ बीज का भेद सिद्ध नहीं हो सकता ।
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स्थैय पक्ष के विरुद्ध यदि यह प्रश्न किया जाय कि 'स्थिर भाव यदि कालान्तर में होने वाले कार्य के प्रति समर्थ माना जायगा तो उससे स्व की उत्पत्ति अनन्तर ही कालान्तरमाथी कार्य की उत्पत्ति क्यों नहीं होती ?' तो इसके उत्तर में क्षणिकत्ववादी बौद्ध के प्रति स्थर्यवादी को श्रोर से यह प्रश्न हो सकता है कि तत्तत्कार्यानुकूल कुर्वद्रूपक्षण भी निश्चित समय के पूर्व हो अर्थात् जिस सन्तान में वह उत्पन्न होता है उस सन्तान के प्रथमक्षण की उत्पत्ति के अनन्तर ही क्यों नहीं उत्पन्न होता ? यदि उत्तर में बौद्ध की ओर से यह कहा जाय कि कुर्वद्रूपक्षण को उत्पन करने में अपेक्षित सहकारी का पूर्व में अभाव होने से पूर्व में उस क्षण की उत्पत्ति नहीं होती तो यह उत्तर स्थवादो के मत में भी समान है - अर्थात् यह स्थैर्यवादी कह सकता है कि कुशूलस्थबीज कुशूल में रहते समय अंकूर का Series इसलिये नहीं होता कि अंकूर की उत्पत्ति में अपेक्षित क्षेत्र जैसे उपजाउ भूमि आदि सहकारी का संविधान नहीं रहता ।
स्यादेतत् मम कुर्वाणां दण्ड-घटादिक्षणानामेकेन घटकुर्वद्रूपत्वेनैव घटव्याप्यत्वम्, परेषां वितरसहकारिसमवहितदण्डत्वादिना घटादिव्याप्यत्वम्, तत्रावच्छेद्यावच्छेदकभावेऽ विनिगमश्वेत्यतिगौरवम् । न च वटसामग्रीत्वेन घटव्याप्यता, सामग्रया एवाऽनिरुक्तेः तथाहिन तावद् यावन्ति कारणानि सामग्री, क्रमिककारणसमुदायेऽतिव्याप्तेः नाप्येकक्षणावच्छिन्नानि यावन्ति कारणानि यागादे विरातीतत्वेन स्वर्गादिसामरस्यामव्याप्तेः । न च तादृशयावत्कारणसमवधानं सा, अस्ति च चिरातीतस्यापि हेतोर्व्यापाररूपसमवधानमिति वाच्यम्, विशक
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[ शास्त्रवा०ि स्त० ६ इलो० ३०
लिततावत्कारणसमवधानाऽसामग्रीभावात् । न चेतरकारणविशिष्टचरमकारणमेव मा. न च विनिगमनाविरहः, कार्यकर्दशताया विनिगमकत्वादिति वाच्यम् , इतरेषामपि कयाचित् प्रत्यासत्त्या कायदेशत्वात् , अन्यथा चरमकारणे तवशिष्ट्यानिरुक्तेः । न च चरमकारगमेव सा, तस्य संयोगत्वादिनाऽसामग्रीहाल, चरपत्वेन तत्त्वे दाऽव्यवहितपूर्ववतिना संबन्धन फलविशिष्टोस्पत्तिकत्वं तदिति लावाद तेज संघन्धेन फलवस्यन सामग्रीयौचित्यात । एवं च 'सामनस्यभावात् कार्याभावः' इत्यत्र फलतः 'स्वाभाषादेव स्वाभावः' इति सामग्रीभेदात् कार्यभेद इत्यत्र च फलतः स्वभेदादेव खभेद इत्यापतितमिति न किञ्चिदेतत् । एतेन 'पागभावतरकादाचित्कयावत्कारणवागभावानाधारः कार्यप्रागभावाधारः क्षण एवं सामग्री, नेयं कार्यजनिका, किन्तु तब्द्याप्या, कार्याधिकरणीमृतस्य अणस्य कार्यप्रापभावनाधरणलात, तदधिकरणीभूतस्य च कार्यानधिकरणत्वान, अधिकरणीभूतानामेव च कालोपाधीना हेतुत्वात्' इत्यपि निरस्तम्, एतस्यास्तत्र तदुत्पत्तावनियामकत्वादिति ।
[ सामग्री के निर्वचन का असम्भव-पूर्वपक्ष ] ___ यदि बौद्ध को ओर से अपने पक्ष के समर्थन के लिये यह युक्ति प्रस्तुत की जाय कि-'दण्डघटादि क्षण को कुर्वपत्व से कारण मामने पर दण्ड-घटादि रूप सभी फुर्वपक्षणों को घटकुवंद्रूपत्वस्वरूप अनुगत धर्म के द्वारा घट का व्याप्य यानी घट का उत्पादक माना जा सकता है, किन्तु स्थैर्यवादी के मत में दण्ड प्रादि को दण्डत्व प्रादि रूप से घट के प्रति कारणता होती है । अत: दण्डादिसमूह को 'एक विशिष्ट अपरत्व'रूप से घट का उत्पादक मानना होगा। तो फिर सामग्री घटक दण्डचक्रावि कारणों के अवच्छेद्य-अवच्छेदकभाव यानी विशेष्य-विशेषण भाव में विनिगमनाचिरह होने से गुरुरूप से अनेक उत्पादकता की कल्पना करने में गौरव होगा। यदि इस गौरव के परिहार के लिये घटसामग्रोत्व रूप से दण्ड-चकादि को घटव्याप्य यानी घटोत्पादक माना आय तो यह सम्भव नहीं है क्योंकिसामग्रीत्व का निवजन नहीं हो सकता । जैसे . ..
यदि समस्त कारणों को सामग्री माना जायगा तो जिस कार्य के कारण, क्रम से प्रादुर्भूत होते हैं और उनका कहीं युगपत् समवधान नहीं हो पाता, ऐसे कारणों के समुदाय में सामग्नीलक्षण की अतिव्याप्ति हो जायगी। यदि एकक्षणात यावस्कारणों को सामग्री माना जायगा तो स्वर्गादि सामग्री में अव्याप्ति हो जायगी क्योंकि स्वर्ग के कारणभूत यज्ञ इच्छात्मक होने से चिरपूर्व में प्रतीत हो जाने के कारण वह स्वर्ग के अन्य कारणों का समानक्षणवृत्ति नहीं हो सकता।
___ यहां यदि स्थैर्यवादी को ओर से यह कहा जाए कि “एकक्षण में ग्रावत् कारणों का समवधान ही सामग्री है, तथापि स्वर्गादि सामग्री में अव्याप्ति नहीं हो सकती, कारण यह ज्ञातव्य है कि कार्योत्पत्ति के पूर्व किन्हीं कारणों का तो साक्षात् समवधान होता है और किन्हीं कारणों का व्यापार द्वारा होता है। तो इस प्रकार लाक्षात और व्यापार द्वारा दोनों रूप में होने वाला समधान एक ही क्षण में यावत्कारणों का समवधान कहा जाता है। स्वर्गोत्पत्ति के पूर्व यज्ञ का स्वयं समवधान न होने पर भी उसके व्यापार का समयधान होता है ....
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी यिवधन ]
बौद्धों का उत्तर है कि यह ठीक नहीं है क्योंकि विशकलित कारणों के समवधान में असामग्रीभाव होता है किन्तु उक्त निर्वचन के अनुसार उसमें भी सामग्रीत्व की आपत्ति होगा । जैसे, जिस कम से कारणों के एकत्र होने पर कार्य का उदय होता है उससे विपरीत क्रम से यदि कारणों का समवधान हो तो यह विशकलित कारणसमयधान कहा जायगा और इससे कार्य का उदय न होने से उसे सामग्री नहीं कहा जाता किन्तु सामग्री के उक्त निर्वचन के अनुसार इस प्रकार के कारणसमवधान में भी सामग्रीत्व की आपत्ति अनिवार्य होगी।
यहां स्थैर्य वावी कह सकता है कि "इस दोष के परिहार के लिये इतरकारणविशिष्ट घरम कारण हो सामग्री है, ऐसा मानने पर इतर कारण और घरमकारण के विशेषण-विशेष्यभाव में विनिगमना-विरह नहीं हो सकता क्योंकि कार्य का सामानाधिकरण्य ही चरम कारण के विशेष्य होने में विनिगमक होगा। अभिप्राय यह है कि चरम कारण कार्योत्पत्तिमद्देश में विद्यमान होकर कार्य का उत्पादक होता है। यति चरम कारण को विशेषण बना कर, इतर कारण को विशेष्य बनाया जाय तो इतर कारण कार्योत्पत्तिमद्देश में वृत्ति न होने से उसमें कार्योत्पादकता को सिद्धि नहीं होगी।"
किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि इतर कारण भी किसी सम्बन्ध से कार्योत्पत्तिमद्देश में वृत्ति होते हैं। यदि सर्वथा कार्योत्पत्तिमद्देश में अत्ति होंगे तो चरमकारण को विशेष्य मानने पर भी उसमें इतर कारणों का सामानाधिकरणण्य रूप वैशिष्टच नहीं हो सकेगा। यदि यह कहा जाय कि'केवल चरम कारण ही सामग्नी है तो यह भी ठीक नहीं हो सकता क्योंकि-घटादि के चरमकारणीभूत कपालसंयोग आदि को केवल संगयोत्व रुप सामग्री नहीं माना जा सकता क्योंकि-कपालादि के व्युत्क्रमसंयोग से भी घटादि को उत्पत्ति का प्रसंग होगा और यदि चरमसंयोगत्वरूप से उसको सामग्री कहा जायगा तो चरमत्व अव्याहतपूर्वत्व सम्बन्ध से फलविशिष्टोत्पत्तिकत्व से भिन्न नहीं हो सकता -इस स्थिति में अव्याहतपूर्वत्य सम्बन्ध से फलविशिष्टोत्पत्तिकत्व की अपेक्षा अव्यवहितपूर्वस्व सम्बन्धेन फलवस्व को ही सामग्रो मावना उचित होगा, फलतः अव्यवहितपूर्वत्व सम्बन्ध से जब फल विशिष्ट ही सामग्री कहो जायगी तो सामग्री के अभाव से कार्य को अनाव होता है'-यह व्यवहार असंगत हो जायगा क्योंकि प्रध्यवहित पूर्वस्व सम्बन्ध से फलविशिष्ट का प्रभाव फलाभाव को प्राधीन होगा, अत: अध्यवहितपूर्वत्व सम्बन्ध से फलविशिष्ट के अभाव से कार्य का प्रभाव हैअर्थतः इसका स्वरूप यह होगा कि 'पल के अभाव से हो फलका अभाव होता है और इसमें प्रात्माश्रय दोष स्पष्ट है । इसोप्रकार सामग्रोभेद से कार्यभेव होता है इस व्यवहार का भी पर्यवसित रूप 'कार्य भेद से कार्य भेद होता है। यही प्राप्त होता है। इसमें भी प्रात्माश्य स्पष्ट है। अतः सामग्री के निर्वचन का उक्त सम्पूर्ण प्रयास अकिश्चित्कर है।
यदि यह कहा जाय कि-"प्रागभाव से अतिरिक्त किसी कार्य के जितने कादाचित यानी कालिकअध्याप्यवृत्ति कारण होते हैं उन सभी कारणों के प्रागभाव का अधिकरण जो क्षण वही कार्य की सामग्री है। ऐसा क्षण कार्योत्पत्ति का अव्यवहित पूर्व क्षरण ही हो सकता है क्योंकि उस समय तक कादाचिस्क सभी कारणों की उत्पत्ति हो जाने से वह क्षण काशचिक यादकारणों के प्रापभाष का अनधिकरण होता है और कार्य की उत्पत्ति तब तक नहीं होती है। अतः वह क्षण कार्य के प्रागभाव का अधिकरण भी है । इस प्रकार इस क्षण को सामग्री मानने पर दोष नहीं हो सकता" तो इस प्रसंग में यह ध्यान देना आवश्यक है कि उक्त क्षणरूप सामग्री कार्य का जनक नहीं होती क्योंकि कार्य का
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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो०३०
अधिरकणीभूत क्षण कार्य प्रागभाव का अनधिकरण नहीं होता और कार्य प्रागभाव का अधिकरणीमूत क्षण कार्य का अधिकरण नहीं होता। और जो कालोपाधि कार्य का प्रधिकरण होती है वही कारण मानी जाती है। अत: उक्त क्षण कायाधिकरण न होने से कार्य का जनक नहीं है किन्तु कार्य को व्याय्य है। अर्थात तादात्म्य सम्बन्ध से उक्त क्षण जिसमें होता है उसमें अहिसपूर्वस्व सम्बन्ध से कार्य रहता है। किन्तु उक्त क्षणरूप सामग्री कार्योत्पत्ति का नियामक नहीं है और कार्योत्पति निमामक में ही सामग्रीपद का प्रयोग शिष्ट-सम्मत है।
मैवम् , सामरयाः समाव्यतिरिक्ता-ऽव्यतिरिक्तपरिणामविशेषरूपत्वात , धनस्य विधिच्यमानस्य भूतादाविव विविच्यमानायास्तरमा दण्डादौ विश्रामेऽप्यवियच्यमानायास्तद्वदेशत्लान् । अभिन्नकालकृतार्थान्तरभावेन च सा विभिन्नन्यवहारनिवन्धनम् , भिन्नकालकृतायान्तरभावेन च कार्योपधायिकेति तत्त्वम् । नैयायिकादिनापि हिं मानसादौ चाक्षुषसामरयादिप्रतिचन्धकतादिना लायादपि तस्या अर्थान्तरभूतायाः कल्पयितं युक्तत्वात । इति नेकान्तदोषेऽप्यनेकान्ते किमपि दूपणं पश्यामः । 'तत्र तत्कायोत्पत्तौ तदच्छिन्नयावल्करणसमवधानरूपायाः सामन्रथानियामकत्वम्' इत्यपरेषां शब्दान्तरम् । अधिक स्वधियाऽभ्यूह्याम् ।। ३० ॥
[जैन की ओर से सामग्री का स्पष्ट निर्वचन ] सामग्री के उक्त निर्वचन के बौद्ध द्वारा किये गये निराकरण का उत्तर देते हये जैन मनीषियों का यह कथन है कि सामग्री को समन कारणों से कश्चिद मिन्नाभिन्न परिणामविशेषरूप मानने से उक्त दोषों का प्रसङ्ग नहीं हो सकता । जैसे भू-तेजः-जल और वायु से बने हुये मेघ का विश्लेषण करने पर उसका तत्सदमतों में विश्राम होता है किन्त प्रविश्लेषण की स्थिति में मेघ एक हाता
विश्लेषण की स्थिति में मेघ एक होता है उसी प्रकार दण्डचनादि सामग्री का विश्लेषण करने पर उसका बण्उचकादि तत्तत्कारणों में विश्राम होने पर मो प्रविविक्तभाय से दण्डचनादि का परिणामविशेषरूप सामग्री एक होती है। आशय यह है कि जब कालविशेष से सामग्री में अर्थान्तरभाव यानी भेद का प्रयभास होता है तब वह भेदत्यवहार का निमित्त होता है अर्थात उस समय 'सामग्री एक व्यक्ति नहीं है। इस प्रकार का भेदज्ञान होता है। किन्तु जब कालविशेष से उसमें अर्थान्तरभाव गहोत नहीं होता अर्थात् वह तत्कारण व्यक्तिरूप से अविविक्त दीखती है तब वह कार्य को उत्पादिका होती है।
जन विद्वानों ने नयायिक आदि को भी सामग्री का उक्त स्वरूप स्वीकार करने के लिये विषश होने का प्रतिपादन किया है। उनका कहना है कि यायिक मानस प्रत्यक्षादि में चाक्षुषसामग्री प्रावि को प्रतिबन्धक मानते हैं किन्तु सामग्री यदि कारणसमुवायरूप होगी तो उसे 'एकविशिष्टअपरत्व' रूप से ही प्रतिबन्धकस्य मानना आवश्यक होने से विशेषणविशिष्य भाव में घिनिगमनाविरह होने के कारण गौरव होगा। किन्तु यवि सामग्री को सम्पूर्ण कारणों से भिन्न-भिन्न एक परिणामविशेषरूप माना जायगा तो उसे तत्तदव्यक्तित्वरूप से या तत्तत्कार्य सामग्रीस्व रूप से प्रतिबन्धकता मानने में लाघव होगा। अतः सामग्री को समस्त कारणों से भिन्नाभिन्न परिणामविशेषरूप मानना ही न्यायोचित है। इस प्रकार स्पष्ट है कि सामग्री को कारणों से एकान्ततः भिन्न अथवा अभिन्न मानने में दोष होने पर भी भिन्नाभिन्नरूप अनेकान्त के अभ्युपगम में कोई दोष नहीं है ।
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स्या० क० टीका एवं हिन्धी विवेचन ]
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कुछ अन्य लोगों ने तत्कार्य की उत्पत्ति में तत्कार्य से अवच्छिन्न अर्थात् अव्यवहितपूर्वस्व सम्बन्ध से तत्कार्यविशिष्ट यावत्कारणसमवधानरूप सामग्री को नियामक माना है। उनका आशय यह है कि घटादि और दण्डावि में घटत्व और दण्डत्वरूप से ही सामान्य कार्यकारणभाव है। तटस्थ और तदृष्यत्व आदि रूप से कार्यकारणभाव नहीं है किन्तु घटस्वावच्छिन्न के दण्डत्वाचवच्छिन्न कारण, जिस घरव्यक्ति के अव्यवहितपूर्यत्व से अवच्छिन्न होता है उनका समवधान तघटोत्पत्ति का नियामक होता है। व्याख्याकार का कहना है कि उक्त कथन भी सामग्री को समग्र कारणों से भिन्न-भिन्न परिणाम विशेषरूप बताने का शब्दान्तर से एक प्रकार ही है। इस सम्बन्ध में पाठकों द्वारा अपनी बुद्धि के अनुसार अधिक विचार किया जा सकता है ।। ३०॥
३१ वीं कारिका में क्षणिकत्व के साधक परिणामरूप तीसरे हेतु को दोषयुक्त बताया गया है'परिणामात्' इति तृतीयहेतु दूषयितुमाहमृलम्-परिणामोऽपि नो हेतुः क्षणिकत्यप्रसाधने ।
__ सर्वदैवान्यथास्वेऽपि तथाभावोपलब्धितः ॥ ३१ ॥ परिणामोऽपि अतादवस्थ्यलक्षणः नो हेतुः न समर्थः, क्षणिकत्वप्रसाधनेनिरन्वयनाशसाधने । कथम् ? इत्याह-सर्वदेव सर्वकालमेव अन्यथात्वेऽपि बाल-कुमारादिभावेन घर-शराबादिभावेन च विभिन्नरूपत्वेऽपि तथाभावोपलन्धित: देह-मृदादिभावोपलब्धेः । अयं भायः-चित्रज्ञाने नानाकारोपलम्भेऽप्येकरूपोपलम्भाद् यथा चित्रैकरूपताऽविरोधः, तथा परिणामित्वेन भेदसिद्धाबपि 'सोऽयं देहः' इत्याद्यभेदोपलम्भाद् न स्थैर्यबाधा, अनुभवसिद्धयोभदाऽभेदयोरपि समावेशात् । अपश्चयिष्यते चेदमुपरिष्टात् ।। ३१ ॥
[क्षणिकत्व साधक तीसरे परिणाम हेतु की परीक्षा ] बौद्धों का कहना है कि "जो वस्तु जिस क्षण में उत्पन्न होती है उत्तरक्षणों में वह अपनी प्रथमक्षण की अवस्था में ही नहीं रहती किन्तु प्रतिक्षण उसमें अतादधस्थ्य यानी कुछ बैलक्षण्य होता रहता है । इस प्रसादषस्थ्य को ही परिणाम कहा जाता है । यह परिणाम वस्तु की क्षणिकता का साक्षी है। कहने का प्राशय यह है कि उत्पन्न वस्तु का उत्तर क्षणों में उपचय अपचयात्मक जो भी परिवर्तन
1 बह उत्पन्न वस्तु के ज्यों का त्यों अक्षुण्ण रहते हुये नहीं हो सकता। यदि अपचय होगा तो अवश्य ही उसके कुछ अंश पृथक् होंगे। यदि उपचय होगा तो वह भी उसकी पूर्व रचना के ठोसरूप में यथावत बने रहने पर नये अंशों के मिश्रण से होने वाला उपचय सम्भव नहीं है। अत: दोनों ही प्रकार के परिवर्तन के लिये यह मानना आवश्यक होगा कि उत्पन्न व तु की रचना दूसरे-तीसरे क्षणों में तूटती है और उसी से उसमें नया परिवर्तन होता है। इस प्रकार अतावश्य से उसका प्रशिक्षण धिनाश होना निर्विवाद है।"
किन्तु इसके विपरीत ग्रन्थकार का कहना है कि वस्तु के प्रातादयस्थ्यरूप परिणाम से उसका निरन्वय नाश नहीं हो सकता क्योंकि 'जब उत्पन्न धातु अपनी पूर्वावस्था से विलक्षण अवस्था में दृष्ट होती है तब सदैव उत्तर अवस्थाओं में उत्पन्न वस्तु का मूलरूप में अविच्छेच स्वरूप अन्वय
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(शास्त्रवाता० स्त०६ श्लो० ३२
अवश्य होता है जैसे कोई बालक पैदा होता है तो बाल-कुमार-सुवा-बुद्ध प्रादि रूपों में उसमें अतादवस्थ्य होने पर भी उन सभो अवस्थाओं में देहात्मकता बनी रहती है। एवं मृत्पिड का घटशराबउद-चन आदि रूपों में परिवर्तन होने पर भी उन सभी रूपों में मिट्टीरूपता बनी रहती है, इस तथ्य को कोई भी विवेकशील अस्वीकार नहीं कर सकता। क्योंकि यह सार्वजनीन अनुभव पर प्राधारित है । कहना यह है कि जहाँ चित्राकार ज्ञान होता है यहाँ नील-पोतावि विभिन्न प्राकारों का भी अवश्य उपलम्भ होता है किन्तु उसमें एकरूपता का उल्लम्भ भी अबाधितरूप से उत्पन्न होता है । अतः उस वस्तु में चित्रेकरूपता मानने में कोई विरोध नहीं होता । उसी प्रकार बाल-कुमारादि परिणामरूप से देह में भेव सिद्ध होने पर भी स एवार्य देहः यह वही शरीर है। इस प्रकार बाल-कुमार आदि सभी अवस्थाओं में अभेद ग्रह होने के कारण बाल-कुमार आदि विभिन्न अवस्थाओं में परिवत्तित होने वाले देह के स्थैर्य का बाध नहीं हो सकता। क्योंकि उसमें बाल-कुमारादि रूप में भेद और देहरूप में अभेद दोनों ही अनुभवसिद्ध है । अत एक दोनों का एक समावेश सर्वथा संगत है। इस विषय का विस्तृत विचाराने किया इमा।।
___३२ वीं कारिका में उक्त विचारों के फलस्वरूप जो अवश्य रवीकार्य सिद्ध होता है उसका उपपादन किया गया हैइत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यमित्याहमूलम्-नार्थान्तरगमो यस्मात्सर्वथैव न चागमः ।
परिणामः प्रमासिद्ध इष्टश्च खलु पण्डितैः ॥ ३२॥ यस्मात कारणाद् नार्थान्तरगमः=न सर्वथाऽर्थान्तरगमनम् , न च सर्वधैवागम:एकान्तेनार्थान्तरागमनम् , परिणामः प्रमासिद्धः-प्रमाणप्रतिष्ठितः इष्टश्च स्खलु-निश्चितम् , पण्डितः तद्भावः परिणामो यत तत्तेन तथा भूयते" इति वचनात् । युक्तं चैतत् , सुवर्ण हि कुण्डलतया परिणममानं न सर्वथैव कुण्डलभावं भजते, सुवर्णरूपस्यापि परित्यागापत्तः, न च सर्वथा न भजतेऽपि, अकुण्डलत्वप्रसङ्गात् । येन च रूपेण यत्र स्वकालीनम्बाभिन्नोत्पादप्रतियोगित्वं तेन रूपेण तत्र तत्परिणामत्व व्यवहारः, यथा 'कुण्डलं सुवर्णपरिणामः' इति, न तु 'सुवर्ण परिणामः' इति ॥ ३२ ॥
[पंडितों को मान्य परिणाम की व्याख्या ] परिणाम का यह स्वरूप प्रमाण द्वारा सिद्ध है कि परिणाम में वस्तु का अन्य अर्थ में सर्वथा परिवर्तन नहीं होता और सर्वथा उसका अपरिवर्तन भी नहीं होता किन्तु वस्तु का किसी एकरूप को त्याग कर किसी नये रूप को ग्रहण करना हो इसका परिणाम कहा जाता है । विद्वानों ने परिणाम का स्वरूप निश्चित किया है । इसी आशय का एक प्रसिद्ध वचन है जिसका अर्थ यह है-किसी वस्तु का अन्याश रूप में अवस्थित होना ही उस वस्तु का परिणाम है जिसको "तस्य तथाभावः' अर्थात् वस्तु मूलतः वही है किन्तु उसकी अवस्था नयी है। इस प्रकार कहा जाता है । विचार करने पर परिणाम का यह स्वरूप युक्तिसङ्गत भी प्रतीत होता है । जैसे सुवर्ण कुण्डल के रूप में परिणत
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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
१३९
तय
होता है तो वह सर्वथा कुण्डल नहीं बन जाता क्योंकि ऐसा होने पर उसको सुवर्णरूपता समाप्त हो
और यह भी नहीं है कि-'जब सवर्ण कपडलरूप में परिणत होता है तब वह सुवर्ण सर्वथा यथापूर्व ही बना रहता है उसमें कोई नवीनता नहीं पाती। ऐसा मानने पर कुण्डल का अस्तित्व ही सिद्ध नहीं होगा । इस सम्बन्ध में नियम यह है कि,-'जिस रूप से जो अपने समान काल में अपने से अभिन्न उत्पत्ति का प्रतियोगी अर्थात् उत्पत्ति का प्राश्रय होता है, वह उस रूप से अपने ही परिणाम रूप में व्यवहृत होता है। जैसे कि सुवर्ण अपने समानकाल में अपने से अभिन्न उत्पाद का कुण्डलत्वरूप से प्रतियोगी होता है अत एवं कुण्डलस्वरूप से अपने ही परिणामरूप में व्यवहुत होता है यथा 'कुण्डल सुवर्ण का परिणाम है। इसका अर्थ है कि सुवर्ण स्वयं अपना हो कुण्डलात्मक परिणाम है 1 किन्तु सुवर्ण सुवर्णस्वरूप ले उक्त उत्पत्ति का प्रतियोगि न होने से 'सुवर्ण अपना सुधात्मक परिणाम है इस प्रकार का व्यवहार नहीं होता । कहने का आशय यह है कि सुवर्ण द्रव्य स्वयं अपने एकरूप से निवृत्त होता है और अपने रूपान्तर से उत्पन्न होता है। निवृत्ति और उदय किसी भी अवस्था में उसका सारा का सारा स्वरूप परिवर्तित नहीं होता। इसीलिये सुवर्ण अपनी पिण्डावस्था का त्याग करते हुये और कुण्डलाकार को धारण करते हुये दोनों हो अवस्था में अपने सुवर्णरूप में अवस्थित रहता है ॥ ३॥
३३ वी कारिका में बौद्ध द्वारा भाबों की कथित अनित्यता का निरास किया गया हैअब पोक्ताऽनित्यतामपाकुर्वनाहमृलम्-यच्चेदमुच्यते ब्रमोऽतादचस्थ्यमनित्यताम् ।
एतत्तदेव न भवत्यतोऽन्यत्वे ध्रवोऽन्वयः ॥ ३३ ॥ यच्चेदमुच्यते निरन्ययनाशवादिभिः-किम् ? इत्याह-मोऽतादयस्थ्यं भावानामनित्यताम् , परिणामिन्ध इष्टसिद्धिस्तदस्माकमिति । अत्रोत्तरम् एतत् अतादवस्थ्यम् , तदेव न भवतीति-'न तत्र किञ्चिद् भवति' [४-३२] इत्याद्यक्तेः, तथाचाऽभवनलक्षणमनित्यत्वं न वस्तुलक्षणम् । अनाअस्माइभवनात् अन्यत्त्वेऽनावस्थ्यस्य, ध्रुवोऽन्वयः, तस्यैव तथाभवनादिति ॥ ३३ ॥
[बौद्धसम्मत अनित्यत्व वस्तुधर्म नहीं है ] बौद्धों का वक्तव्य यह है कि-"भावों का अतावस्थ्य पूर्णरूप से भाव को अनित्यता अर्थात् उसका निरन्वयनाशरूप है, परिणाम का यही स्वरूप है।" अतः यदि अन्यवादियों द्वारा भाव को परिणामी कहा जाता है तो यह बौद्धों को इष्ट है । बौद्धों के इस कथन का उत्तर देते हुये ग्रन्थकार का यह कहना है कि भाव के अलावबस्थ्य का जो स्वरूप बौद्धों को अभिमत है वह 'सदेव न भवति' इस रूप में है, अर्थात् 'कोई भी भाव असववस्थ ही होता है। इसका अर्थ होता है 'उसका सर्वथा अभवन' । क्योंकि-'म तत्र किश्चिद् भवति' इसप्रकार भाव के फिद्भिवन का निषध करके वस्तु के पूर्णरूप से अभवन का ही बौद्धमत में अनित्यता अथवा अतास्वस्थ्य माना जाता है। किन्तु यह वस्तु का लक्षण (धर्म) नहीं हो सकता । अभवन तो अलोकनिष्ठ ही हो सकता है इसलिये प्रतावस्थ्य को प्रभवन से भिन्न हो मानना होगा । प्रर्थात् 'वस्तु का पूर्वस्वरूप की अपेक्षा अन्य विधिस्वरूप का हो
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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३४.३५
जाना' ही वस्तु का अताववस्थ्य है । अलीक से व्यावत्ति के लिये यही कहना होगा और ऐसा मानने पर वस्तु का उत्तरोत्तर अवस्था में अन्वय दुनिवार होगा ॥ ३३ ॥
३४ वीं कारिका में प्रतादयस्थ्य को अभवन से अभिन्न मानने पर दोष बताया गया हैअतोऽभिन्नत्वे चायं दोष इत्याहमूलम्-तदेव न भवत्येतत्तच्चेन्न भवतीति च ।
विरुद्धं हन्त किश्चान्यदादिमत्तत्प्रसज्यते ॥ ३४॥ 'तदेव न भवति' एतद् वाक्यम् 'तच्चेद् न भवतीति च विरुद्धम् , भवनस्वभावस्याऽभवनत्यायोगान, 'न भवती'त्यतश्च त्वचीत्याऽभवनस्वभावत्वस्यैव प्रतीतेः 'घटोऽघटः' इति तुल्यत्वात् । 'हन्त' इत्युपदर्शने । 'किश्चान्यत्' इति दोपान्तरख्यापने । तच्चेदम्-अभवनमादिमन् प्रसज्यते, तदा भवनात् , इत्यायुक्तपूर्वम् ॥ ३४ ॥
[ 'तदेव' और 'न भवति' का परस्पर विरोध ] ___ बौद्धों का यह कहना कि-"अग्रिमक्षरण में 'तदेव न भवति' अर्थात पूर्वक्षण में जो वस्तु है वहो उत्तरक्षण में नहीं होती"-विरोधग्रस्त है। क्योंकि सत्शरद व्यपदेश्य यही वस्तु हो सकती है जो भवनस्वभाव हो और 'न भति' इन शब्द से जो णित होता है वह अभवनस्वभाव ही होता हैं इस प्रकार भवन और अभधनस्वभाव परस्पर विरुद्ध होने से भवनस्वभाव के बोषक तत्पद का
स्वभाव के बोधक 'न भवति' शब्द का सहप्रयोग विरुद्ध है। क्योंकि बौद्ध मतानुसार 'न भवति' ये शब्द अभवनस्वभाव का ही बोधक है. अतः तदेव न भवति' ये वाव 'घटोs अघट है' इन शब्द के समान निराकांक्ष हो जाता है। व्याख्याकार का कहना है कि ग्रन्थकार ने कारिका के उत्तरार्ध में बौद्ध के उक्त कथन में अज्ञानातिशय को प्रकट करने के लिये 'हन्त' इस खेदसूचक शब्द का प्रयोग किया है । व्याख्याकार ने यह भी कहा है कि-कारिका के उत्तरार्ध में कियान्यत् शब्द से ग्रन्थकार ने अन्य दोष को प्रदर्शित किया है जो यह है कि पूर्वक्षणात्मक भाव का अग्रिम क्षण में अभवत मानने पर उस अभवन की सादिता यानी सहेतुकता को प्रसक्ति होगी क्योंकि 'यह पूर्वक्षण में नहीं है और उत्तरक्षण में होता है । इसप्रकार बौद्धों की यह मान्यता प्रभाव तुच्छ और निर्हेतुक होता है' व्याहत होगी ॥३४॥
३५ वी कारिका में जैन दृष्टि से उक्त परिणामस्वरूपता का ही समर्थन किया गया हैप्रकृतमेव समर्थयमाहमूलम्-क्षीरनाशश्च दध्येव यद् दृष्टं गोरसान्वितम् ।
न तु तैलायत: सिद्धः परिणामोऽन्वयावहः ।। ३५ ।। दध्येव चो यद्यमानं क्षीरनाशा झीरनाशाभिन्नम्, गोरसान्वितम्-गोरसस्थित्यनुविद्धम्, न तु तैलादि तदनन्धितं तदत्यन्तभिन्नखभावम् , यदः यस्मात दृष्टम् , अतःअस्माद्धेतो, परिणामोऽन्वयावहः अन्वयाक्षेपकः सिद्धः, उत्पादस्य व्यय-स्थित्यविनामृत
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
त्वात्, – “दघ्न 'उत्पाद' आद्यक्षणसंबन्धरूपो भाव इति कथं स एव दुग्धनाशः १" इति केषां - चिदविचारिताभिधानम्, स्त्रयमेव प्रागभावनाशस्य प्रतियोगिरूपस्याभ्युपगमात् । यदपि केचिदभिमन्यन्ते 'दुग्ध-दध्नोगरसान्त्रयस्तैलादिव्यावृत्तो न द्रव्याऽविच्छेदरूपः किन्तु जात्यविच्छेदरूपः' इति तदपि प्रत्यभिज्ञाप्रतिहतम्, गोरसानन्वये निराश्रयस्य दध्न एवानुत्पत्तेश्च । दुग्धोपादानान्येव दध्न आश्रयः' इत्युक्त्वा च नामान्तरेण गोरसान्वय एवाभिहितो भवति, त्यक्तोपात्तोभयरूपस्यो भयोपादानस्य कथश्चिदुमयापृथग्भूतत्वादिति दिग् ॥ ३५ ॥
[ क्षीर-गोरस दृष्टान्त से सान्वय परिणाम की सिद्धि ]
उत्पद्यमान वही ही दुग्धनाश है और वह गोरस की स्थिति से युक्त है। अर्थात् जो गोरस रावस्था में था वह बधि अवस्था में भी अनुवर्त्तमान रहता है। किन्तु तैलादि गोरस से प्रनुविद्ध नहीं होता क्योंकि तैलादि का स्वरूप गोरस अत्यन्त भिन्न है । इस प्रकार दुग्धात्मक गोरस के 'दध्यात्मक परिणाम से यह स्पष्ट है परिणाम अन्वय का साधक होता है । क्योंकि उत्पाद यह विनाश और स्थिति से व्याप्य होता है अर्थात् जब कोई वस्तु उत्पन्न होती है तब वह किसी रूप से विनष्ट होती है और किसी रूप से अवस्थित भी रहती है। इसमें लोगों का कहना है कि 'वधि का उत्पाद आद्यक्षण सम्बन्धरूप है श्रत एव भावात्मक है और दुग्धनाश कालसम्बन्ध की निवृत्ति रूप होने से अभावात्मक है अतः उत्पद्यमान दधि को दुग्धनाशात्मक कहना असंगत है व्याख्याकार के कथनानुसार यह कथन अत्यन्त अविचारपूर्ण है क्योंकि जिन का ( नैयायिक का ) यह कथन है वे स्वयं प्रागभावनाश को प्रतियोगिस्वरूप मानते ही हैं, जैसे घटपटादि के प्रागभाव का नाश घटपटाविरूप होता है । कुछ लोगों का इस संदर्भ में यह कहना है कि- 'दुग्ध और दधि में गोरस का जो अन्वय है और जो तलादि में नहीं होता वह अन्वय गोरस नाम के किसी द्रव्य का अविच्छेदरूप नहीं है किन्तु गोरसत्य नामक जाति के श्रविच्छेदरूप है । किन्तु यह कथन भी 'दुग्ध हो अब ध हो गया' इस प्रकार की लोकसिद्ध प्रत्यभिज्ञा से निरस्त हो जाता है। दूसरी बात यह है कि वि दुग्धकाल में विद्यमान गोरस द्रव्य का वधिकाल में ग्रन्वय नहीं माना जायगा तो श्राश्रय का अभाव होने से दधि की उत्पत्ति ही नहीं हो सकेगी। यदि यह कहा जाय कि दुग्ध के उपादान कारण ही दधि के आश्रय है तो इस कथन से शब्दान्तर से दुग्ध के श्राश्रयभूत गोरस द्रव्य का हो दधि काल में अन्य सूचित होता है क्योंकि उपादान वही होता है जो एकरूप का त्याग और अन्य रूप का उपादान करता है । अत एव उपादान द्रव्य अपने पूर्वोतर रूपों से कथञ्चित् अभिन्न होता है ।। ३५ ॥ ३६ वीं कारिका में पूर्व कारिका में सूचित विषय का ही समर्थन किया गया हैएतदेव समर्थयन्नाह—
मूलम् -- नासत्सज्ञायते जातु सवाऽसत्सर्वथैव हि ।
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शक्त्यभावादतिव्याप्तेः सत्स्वभावत्वहानितः ॥ ३६ ॥
नासत् = एकान्ततुच्छम्, सज्जायते अतुच्छं जायते जामु कदाचित् शक्त्यभावा
दतिव्याप्तेः तुच्छस्य प्रतिनियताऽतुच्छ जननशक्त्यभावेन तदभावाऽविशेषात् तद्वदन्यभवना
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[ शास्त्रधार्ता० स० ६ श्लो० ३७
पत्तेः । तथा, सर्वथैव हि सन्चासद् न जायते, सत्स्वभावत्वहानित:-असद्भवनस्वभावस्य सद्भवनस्वभावस्य विरोधात सद्भावस्याऽप्यप्राप्तेः । निरूपिततत्वमेतत् ।। ३६ ॥
[ असत सत नहीं होता, मत असत नहीं होता। . असत् यानी एकान्तरूप से तुच्छ वस्तु सत यानी अतुच्छ कभी भी नहीं होतो एवं सद् वस्तु असद् भी नहीं हो सकती क्योंकि-'तुच्छ का अतुच्छ बनाने वाली तथा अतुच्छ को तुच्छ बनाने वाली किसी भी शक्ति का अस्तित्व जगत में नहीं है । यदि विना शक्ति के भी तुच्छ अतुच्छ हो जायगा तो शाशविषाणादि को भी सत्ता होने का अतिप्रसद्ध होगा। क्योंकि-तुच्छ में व्यवस्थित रूप से अतुच्छ को उत्पन्न करने की शक्ति नहीं होने से, सभी तुच्छों के सम्बन्ध में शक्ति का अभाव समान होने से, एक तुच्छ के भवन के समान अन्य तुच्छों के भो भवन की आपत्ति दूनियार होगी। इस संदर्भ में यह भी ज्ञातव्य है कि जो सर्वथा सत है वह प्रसत भी नहीं होता क्योंकि असत् होने पर सत्स्वभाव की हानि हो जायगी। कारण, असभवन स्वभाव और सद्भबनस्वभाव में विरोध होने से असद्भवत होने पर सद्भवन की स्थिति सुरक्षित नहीं रह सकती। 'असत् सत् नहीं होता और सत् असत् नहीं होता' इस विषय को चर्चा पूर्व में विस्तार से की जा चुकी है ।। ३६ ॥
३७ बों कारिका में इस सम्बन्ध में अब तक किये गये विचारों का उपसंहार किया गया है । प्रस्तुतमुपसंहरमाह__ मूलम् - नित्येतरदत्तो न्यायात्तत्तधाभाचतो हि यत् ।
प्रतीतिसचिवात्सम्यक्परिणामेन गम्यते ॥ ३७॥ अत: असदादः सदाधनापते, तत्तथाभावतः तस्यैव तथाभवलेन, हि-निश्चितम् , तत्-वस्तु, परिणामेन प्रतोतिसचिवात् अनुभवसधीचीनात् , सम्यग-न्यावान नित्यतरद् गम्यते, नित्यं च तदितरच्चेति कर्मधारयः, इतरत् अनित्यम् ।
असत् सत् नहीं हो सकता और सत् असत् नहीं हो सकता किन्तु सद्भूतबस्तु अन्यरूप में प्रादुर्भूत होती है अत: अनुभव सहकत यक्ति से यह सिद्ध है कि वस्तु परिणाम से ही रूपांतर को प्राप्त होती है अतः वस्तु केवल एकान्त नित्य या एकान्त अनित्य न होकर कथश्चित् नित्य अनित्य उभय-स्वरूप होती है।
अन चैशेषिकादयः-प्रत्यभिज्ञया तत्तेताविशिष्टयोरभेदलक्षणे स्थैर्य सिद्वेऽपि कथमेकस्य नित्यानित्यरूपम्य वस्तुनः सिद्धिः, घटप्रतियोगिकत्वेन धंसानुभव काले समानसंविसंवेद्यतया घटे धंसप्रतियोगित्वलक्षगाऽनित्यत्वानुभवेऽपि नित्यत्वाननुभकात , भंसप्रतियोगित्वतदग्रनियोगित्वलक्षणयोनित्यत्वाऽनित्यत्वयोविरोधाच ? !
अथ प्रतियोगिसत्यमात्रेण नाभावविरोधः, किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्नप्रतियोगि सत्वेन, अतः एकवटवत्यपि द्विल्लासच्छिन्नतदभावः (विद्यते)। न च–'यट-पटौं न स्तः'
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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इति धीरेकवरयन्याभावावगाहिनी, तदितस्त्रैव चोभयावगाहिनी । न चैकैकाभाववियो 'द्वौ न स्तः' इति धियोऽत्रै लक्षण्यम् , शब्दादिना 'द्रौ न स्तः' इति निश्चयेऽप्येकैकामारसंशयापत्तिः विषयानुगर्म विनाऽनुगताकारप्रत्ययाऽयोगश्च । द्वित्वाधिकरणप्रतियोगित्वमात्रावगाहित्वे च तादृशद्वित्राधिकरणव्यक्तिविशेषविरहिणी तथाविधोमयशालिनि 'तादृशौ द्वौ न स्तः' इति प्रत्ययापत्तिः, सामानाधिकरण्याद्यमावेऽपि प्रतीतेरनुगताकारत्वाच न तस्या द्वित्वविशेष्यतावच्छेदकावच्छिमात्वसंसगण द्वित्वसमानाधिकरणविशिष्टाभावावगाहित्वम्, घटत्व पटत्याद्यन्यतरावच्छिनप्रतिययोगिताकामावविषयत्वं चाः द्वित्वाधिकरणयोरेव प्रतियोगिल्लोन्लेखात स्वपर्याप्त्यधिकरणसंबन्धेन द्वित्ताभावविषयत्वमपि न युक्तिमिति वाच्यम्, द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेन घटादिमति पटत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकामावादिविषयतया, तत्तद्घटादिमति च तत्तद्घटान्यघटत्वावछिन्नाभावादिविषयतयोपपत्तेरिति वाच्यम्, अनन्ता भावे द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वकम्पने गौरवात एकाभावसिद्धेः । एवं च घटस्य घटत्वावच्छिन्नध्वंसप्रतियोगित्वेऽपि द्रव्यस्वावच्छिन्नध्वंसाऽपतियोगित्वमुपपत्तिमत् । तदुक्तम्-"तद्भावाऽव्ययं नित्यम्" [त००५-३०] इतिः इति नेत!
न, तद्भावेन व्ययस्याऽप्रसिद्वौ तदभावस्य वक्तुमशक्यत्वात् , असतोऽनिषेधात , स्वीकृतं चैतदन्यैरपि-“असओ नस्थि निसेहो" [वि० आ० भा० १५७४ ] इत्यादिना ।
[ वस्तु नित्यानित्य उभयरूप कैसे ? वैशेषिकों का पूर्वपक्ष ] इस प्रसंग में वैशेषिक प्रादि का यह कहना है कि --
'सोऽयम इस प्रत्यभिज्ञात्मक प्रतीति से तत्ताविशिष्ट और इचन्तादिविशिष्ट में ऐषध से स्थैर्य सिद्ध होने पर भी नित्यानित्यरूप एक वरतु को सिद्धि नहीं हो सकतो क्योंकि घटप्रतियोमित्यरूप से ध्वंस के अनुभव के समय समानसामग्री से वेद्य होने के कारण घट में ध्वंस-प्रतियोगिकत्व रूप अनित्यत्व का अनुभव होने पर भी नित्यश्व का अनुभव नहीं होता, अतः प्रनित्य वस्तु को नित्यता में कोई प्रमाण नहीं है, बल्कि धंस प्रतियोगिस्वरूप अनित्यत्ष और ध्वंसाऽप्रतियोगित्वरूप नित्यत्व में विरोध है । अतः एक के साथ दूसरे का रह्ना सम्भव नहीं हो सकता।
[प्रय प्रतियोगिसत्वमात्रेण....... ] इस पर यदि जैनों की ओर से कहा जाय कि प्रतियोगी की सत्ता मात्र से अभाव का विरोध नहीं होता किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकविशिष्ट प्रतियोगी को सत्ता के साथ अभाव का विरोध होता है, इसीलिये तो एक घर के आश्रय देश में द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताक घटाभाव रहता है. क्योंकि-ऐसे देश में 'घटौ न स्तः' 'द्वौ न स्तः' यह प्रतीति सर्वसम्मत है। इसलिये द्रव्यत्वावच्छिन्न वंसप्रतियोगित्वाभाधरूप नित्यत्व का प्रतियोगी ध्वंसप्रतियोगित्व चटत्वावछिन्न ध्वंसप्रतियोगित्यरूप से घट में यद्यपि रहता है, फिर भी ध्यत्वावच्छिन्न ध्वंसमातियोगितास्वरूप से ध्वंसप्रतियोगित्व घट में न रहने से उस में उक्त प्रभाव के रहने में कोई विरोध
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ६ श्लो० ३७
नहीं है । अतः ध्वंस का प्रतियोगी यह ध्वंस का अप्रतियोगी भी होना सम्भवित होने से नित्यानित्यरूप एक वस्तु की सिद्धि में कोई बाधा नहीं है ।
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[ न च घटपटौ न स्त......... [] जैनों के इस प्रतिपादन के बीच में वैशेषिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि एक घट के आश्रय देश में द्वित्वरूप से घटाभाव का दृष्टान्त लेकर उपरोक्त रीति से किसी एक ध्वंसप्रतियोगित्व के आश्रय में रूपान्तर- ध्वंसप्रतियोगितात्व रूप से ध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव नहीं सिद्ध किया जा सकता, क्योंकि उक्त दृष्टान्त हो असिद्ध । जैसे, घट या पट के आश्रय में होने वाली 'घटपटौ न स्तः' यह प्रतीति घट के आश्रय में पटाभावविषयक और पट के में घटrera farयक एवं घटपट दोनों के अनाश्रय देश में घटाभाव और पटरभाव उभयविषयक होती है । अतः द्वित्वरूप से घटपटोभयाभाव प्रसिद्ध है । इसी प्रकार तद्धट के आश्रय देश में 'घ न स्तः' यह प्रतीति तव्टान्घटाभाव को करती है और भाव को विषय करती है अतः द्वित्वरूप से घटाभाव भी असिद्ध है ।
दुर्घट
जैन:-- [न च एकैकाभावधियो०.... ] वैशेषिकों के इस कथन के बीच में अगर जैन यह कहें कि ऐसा मानने पर १. एक एक अभाव की बुद्धि में 'द्वौ न स्तः' इस उभयाभाव को बुद्धि का वैलक्षण्प नहीं होगा, क्योंकि जैसे 'घटो नास्ति' 'पटो नास्ति' ये बुद्धि घटाना वत्य-पटाभावस्य रूप से घटाभाव और पटाभाव को विषय करती है उसीप्रकार 'द्वौ न स्तः' यह बुद्धि भी उन्हीं रूपों से उन उन अभाव को विषय करती हैं । २. उपरांत, 'द्वौ न स्तः' इन शब्द से एकेक प्रभाव का निश्चय होने पर भी एक एक अभाव के संशय की आपत्ति होगी क्योंकि उक्त शब्दजन्य निश्चय एक एक प्रभाव को घटाद्यभावत्वरूप से विषय न करके द्वित्ववत्प्रतियोगि काभावस्वरूप से विषय करता है । ३. एवं घाव पाभाव का किसी एक रूप से अनुगमन होने से घटाभाव-पटाभाव की 'द्वौ न स्तः इस रूप में अनुगताकार प्रतीति मी नहीं होगी ।
[ द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्व ०... का अवतरण ] वैशेषिक की ओर से यदि यह कहा जाय कि १ “उक्त प्रतोति प्रत्यक्ष या शब्दबोध हो, सभी द्वित्वाधिकरणप्रतियोगिकत्वमात्र रूप से एक विषयक होती है श्रतः एक एक अभावज्ञान और 'द्वा न स्तः' इन ज्ञान का वैलक्षण्य नहीं हो सकता, क्योंकि दोनों ज्ञान भिन्न-भिन्न रूप से एक एक अभाव को विषय करते २. तथा ' न स्त:' इन शब्द से एक एक असाय का निश्चय होने पर भी एक-एक प्रभाव के संशय को अप भी नहीं दी जा सकती। क्योंकि 'द्वौ न स्तः' इन सभी प्रतीतियों के द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्वेन एक एक अभावविषयक होने से उक्त सभी प्रतीतिकाल में एक एक अभाव का संशय इष्ट है । ३. द्वित्वाधिकरणप्रतियोगिकत्वरूप से प्रत्येक प्रभाव का अनुगम हो जाने से प्रत्येक अभाव को विषय करने वाले 'द्वौ न स्तः' इस प्रतीति के अनुगताकारत्व की अनुपपत्ति भी नहीं हो सकती है ।
[ दित्वाधिकरणप्रतियोगित्व.... ] जंनः वैशेषिकों का यह तीनों कथन ठीक नहीं है क्योंकि'द्वौ न स्तः' यह प्रतोति यदि द्वित्वाधिकरण प्रतियोगित्व रूप से अभावविषयक होगी तो यस्किवित् एक-एक घटपट व्यक्ति से शून्य और अन्य यत्किश्वित् घट-पट यह व्यक्ति द्वय के आश्रयीभूत देश में भी 'घटपटौ न स्तः' इस प्रतीति की प्रापत्ति होगी ; क्योंकि - 'उस देश में मो द्वित्व का अधिकरण जो तद्देश में विद्यमान घट-पटव्यक्तिद्वय है तत्प्रतियोगिक अभाव विद्यमान है ।
A
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स्याका टीका एवं हिन्दी विवेचन |
१४५
[ सामानाधिकरण्यायभावेपि....का अवतरण ] वैशेषिकः -'घटपटो न स्त' यह प्रतीति वित्त्व का विशेष्यतावच्छेदक जो घटत्वपटत्वादि धर्म, तवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से द्वित्वसमानाधिकरण घटत्वादि से विशिष्ट प्रभाव को विषय करती है अथवा घटत्व पटत्व एतदन्यतर धर्मावच्छिन्नप्रतियोगिताक प्रभाव को विषय करती है तो-पूर्वोक्त दोष नहीं होगा क्योंकि-'यत्किञ्चित् घर और यफिश्चित पट के प्राश्रय देश में जो अन्य यत्किश्चित घट और पट व्यक्ति का अभाव है वह द्वित्व के विशेष्यतावच्छेवकीमत घटत्वाद्यवच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सम्बन्ध से द्वित्वसमान रणीभूत घटत्वादि से विशिष्ट नहीं है और न वह प्रभाव घटत्व-पटत्व अन्यतरावच्छिन्न प्रतियोगिताक है । अत एव उस अभाव को विषय कर 'घटपटौ न स्तः' इस प्रतीति को प्रापसि नहीं हो सकती।
[सामानाधिकरण्या०.... ] जैन:-यह मो ठीक नहीं है क्योंकि-द्वित्वसामानाधिकरण्य का और घटत्व-पटत्व अन्यतरत्वका ज्ञान न रहने पर भी 'घटपटोन स्तः' इस प्रनगताका कारप्रतीति का उदय होता है। किन्तु उसे द्वित्वसमानाधिकरणविशिष्ट प्रभावत्वरूप से अथवा घटत्व-पटत्वान्यतरावच्छिन्न प्रतियोगिताकाभावस्वरूप से अभावविषयक मानने पर सामानाधिकरण्य और अन्यतरत्व की प्रज्ञान दशा में उक्त प्रतीति न हो सकेगी।
[ द्वित्वाधिकरणयोरेव...का अवतरण ] वैशेषिकः-उक्त प्रतीति को स्वपर्याप्ति अधिकरण सम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताकद्वित्वाभावविषयक मानकर उक्त समस्त दोषों का परिहार किया जा सकता है।
[वित्वाधिकरणयोरेव०.... ] जैनः-यह भी ठीक नहीं है क्योंकि-'उक्त प्रतीति द्वित्वाधिकरण में हो प्रतियोगित्व को विषय करती है अत एव द्विस्वाधिकरण में प्रतियोगित्व का प्रपलाप कर उसे द्वित्व में प्रतियोगित्व का ग्राहक मानना प्रयुक्त है । प्रतः एक एक घटपटादि वाले देश में घटपटोभयत्वेन घटपटादि के अभाव को मानना अनिवार्य होने से प्रतियोगी के साथ अभाव का विरोध सिद्ध न होकर प्रतियोगितावच्छेदकार्थाच्छन्न के साथ ही अभाव का विरोध सिद्ध होता है।
[द्वित्वावच्छिन्नप्रति..... ] वैशेषिक प्रतिपादन के बीच में जनों की ओर से न चकेका० इत्यादि से जो उपरोक्त निवेदन किया गया उसके उत्तर में वैशेषिक कह रहा है कि इसके विरोध में यह कहा जा सकता है कि 'घटपटो न स्तः' इस प्रतीति द्वित्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वरूप से घटाश्रय देश में पटवान्छिन प्रतियोगिताक अभाष और पटाश्रय देश में घटस्वावच्छिन्न प्रतियोगिश्वकत्वेन तदघटान्यघटाभावको विषय करती है अत: उक्त प्रतीति से द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक अतिरिक्त घटपटोभयामाव की सिद्धि न होने से प्रतियोगि के साथ अभाय विरोध निर्वाध है।वशेषिकों के न च 'घट-पटौ० इत्यादि से किये गये प्रतिपादन के विरुद्ध जन की ओर से कहा जाय कि यह भी ठोक नहीं है क्योंकि 'अनन्त घटत्वाद्यवच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव में द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोमिताकत्व को कल्पना में गौरव है । अत. द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक एक प्रभाव की सिद्धि लाघव से होती है।
और जब द्वित्वावच्छिन्न प्रतियोगिताफ अभाव सिद्ध है तो यह भी सिद्ध मानना होगा कि अभाव का विरोध प्रतियोगो को सत्ता के साथ नहीं होता किन्तु प्रतियोगितावच्छेदकावच्छिन्न का सत्ता के साथ होता है। श्रतः घट में घटत्वावच्छिमध्यसप्रतियोगित्व के होने पर भी द्रव्यत्वावरिष्ठश्नध्वंसप्रतियोगित्व का अभाव युक्तिसंगत है । जैसा कि तत्त्वार्थसूत्र में कहा गया है-'तद्भावाव्ययं नित्यम्' अर्थात तद्भामरूप में व्यय का अभाव ही तद्भावरूप से वस्तु की नित्यता है।'
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૧૬
[ शास्त्रबार्ता स्त०६ श्लो० ३७
[ इति चेत ? न, तसाधन.... ] बैशेषिक:-प्रथ प्रतियोगिल.... इत्यादि से जनों का यह कथन समोचीन नहीं है, क्योंकि-'त दुरव से अर्थात प्रत्यत्वरूप से नाश प्रसिद्ध होने से द्रव्यत्वरूप से नाश के अभाव को नित्यता कहना शक्य नहीं है क्योंकि असत का निषेध नहीं होता है। विशेषावश्यकभाष्य के प्रथमगणधरवाद की 'असओ णस्थि निसेहो इस १५७४ वी गाथा के अनुसार 'असत् का निषेध नहीं होता है' यह बात जैन को भी मान्य है।
किश्च, 'घटो नास्ति' इति प्रतीत्याऽत्यन्ताभावस्य सामान्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वेऽपि बंसस्य न तथात्वम् , 'कपाले घटध्वंसः' इत्यत्र प्रतियोगितामात्रेणैव घटस्य चंसेऽन्वयात् , 'अन्तरा श्यामे घटे रक्तं नास्ति' इति प्रतीतौ च सामयिकरक्तात्यन्ताभावस्यैव विषयत्वात् , अन्यथा रक्ततादशायामपि तथाप्रत्ययापत्तेः । न च ध्वंसप्रागभावयोरव्याप्यवृत्तिरक्तन्यावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्वकल्पनाद् रक्ततादशायां ध्वंसादेस्तदसत्त्वाद् न तथाप्रत्यय इति वाच्यम् , अनन्तध्वंसमागमावेषु तादृशप्रतियोगिताकत्व-तदच्याप्यवृत्तित्वयोः 'रवतं नास्ति' इत्यादिप्रतीतावनन्तध्वंसादिविषयकत्वस्य च कल्यनामपेक्ष्यान्यत्र कतृप्ततादृशप्रतियोगिकात्यन्ताभावस्येवान्तरा श्यामादौ सामयिकसंवन्धस्य युक्तत्वात् , तत्कारणबाधेन भाविरक्तादिध्वंसाद्यसंभवाच्च ।
[कि च. घटो नास्ति.... ] इसके अतिरिक्त यह ज्ञातव्य है कि घटो नास्ति इस प्रतीति से अत्यन्ताभाव में घटत्वरूप सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व की सिद्धि होने पर भी ध्वंस में सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व प्रसिद्ध है क्योंकि-'कपाले घटध्वंस' इस प्रतीति में ध्वंस में प्रतियोगितामात्र सम्बन्ध से घट का मान मानने से उक्त प्रतीति की उपपत्ति हो जाने से ध्वंस में घटत्वावच्छिन्न प्रतियोगितासम्बन्ध से घट का मान प्रयुक्त है। इसी प्रकार 'अन्तरा श्याम घट' यानो जिस घर में यत्किश्चित् पूर्वरक्तरूप का नाश होकर श्यामरूप को उत्पत्ति हुई है और उत्तरकाल में श्यामरूप का नाश होकर नया रारूप उत्पन्न होनेवाला है ऐसे घट में श्यामर दशा में जो 'रक्त नास्ति' यह प्रती
प्रतीति होती है उसमें ध्वंस में तत्वाबस्छिन्न प्रतियोगिता सम्बन्ध से रक्त का विशेषणविधया भान नहीं माना जा सकता, क्योंकि उस समय भाधि रक्त का ध्वंस नहीं है और पूर्व रक्त के ध्वंस की प्रतियोगिता रक्तत्वाइन नहीं हो सकतो फ्योंकि र तात्य उसका अतिरिक्तवत्ति धर्म है और यदि उसमें प्रतियोगितामात्र सम्बन्ध से ध्वंस में रक्त का विशेषणविधया भान माना जायगा तो 'मध्यरक्त घट' में अर्थात् जिस घर में यत्किञ्चित रक्तरूप का नाश हो चुका है और भविष्य में अन्य रक्तरूप पेश होने वाला है और वर्तमान में यत्किचित् रयत है उसमें 'रयतं नास्ति' इस प्रतीति को आपत्ति होगी क्योंकि उस घर में भी प्रतियोगिता सम्बन्ध से रयत विशिष्ट पूर्व रक्त का ध्वंस विद्यमान है, अतः सन्तरा श्यामघर में 'जो रक्तं नास्ति' यह प्रतीति होती है वह रक्त वंस को विषय न कर सामयिक रफ्तात्यन्ताभाव को विषय करती है । अतः उक्त प्रतीति भी ध्वंस के सामान्यधर्मावच्छिनप्रतियोगिताकत्व में प्रमाण नहीं है।
[न च ध्वंसप्राग०.... ] यदि यह कहा जाय कि “वंस और प्रागभाव में रक्तत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व को अव्याप्यवृत्ति मानने से अन्तराश्याम घट में ध्वंसप्रागभाव की रक्तत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्वरूप से प्रतीति हो सकती है किन्तु मध्यरक्त घर में रफ्लकाल में ध्वंसादि में रक्तत्वा
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त्या०का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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वच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व न मानने से 'रक्तं नास्ति' इस प्रतीति की आपत्ति नहीं हो सकती । अतः अन्तराश्याम घट में 'रक्तं नास्ति' इस प्रतीति के विषयरूप में एक अतिरिक्त सामयिक रफ्तात्यन्ताभाव की कल्पना उचित नहीं है। अतः इस रीति से ध्वंस में सामान्यधर्मावच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व की सिद्धि प्रक्रियग"-तो यह ठीक नहीं है मोंकि अयंस और प्रागभावों में रक्तत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व और उसमें अव्याप्यत्तित्व तथा 'रक्तं नास्ति' इत्यादि प्रतीति में अनंत ध्वंसप्रागभावादि विषयकत्व की कल्पना में महागौरव है । अत: त्रिकाल में रक्तशून्य जल आदि द्रव्य में जो नित्यरत्तात्यन्ताभाव क्लप्त है उसका मन्तराश्यामघट में सामयिक सम्बन्ध और मध्यरक्तघट में उसके सामयिकसम्बन्ध का अभाव स्वीकार करने में हो लाघव है। रक्तादि और इसके ध्वंस का कारण न होने से उसमें भाविरक्तादि का ध्यस सम्भव न होने से अन्तराश्यामघटनाठ रक्तध्वंसादि में अध्याप्य वृत्ति रक्तत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व की कल्पना भी सम्भव नहीं हो सकती है।
इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि यदि अन्तिम रवतध्वंस प्रामाणिक हो तो उसमें रक्तस्वाच्छिन्न प्रतियोगिताकत्व सिद्ध होने से अन्तराश्याम घटादि में विद्यमान रक्तध्वंस में भी रक्तस्वाच्छिन्न प्रतियोगितामत्व की कल्पना हो सकती है किन्तु कारण के प्रभाव से अन्तिमरक्त और उसका ध्वंस असम्भव है क्योंकि- 'यह तभी सम्भव हो सकता है जब सर्वजीवमुक्ति से महाप्रलय का होना प्रामाणिक हो । किन्तु सर्वजीवमुक्ति सम्मव न होने से महाप्रलय का सम्भव न होने के कारण अन्तिमरक्त और उसका ध्वंस प्रसिद्ध है अतः किसी भी ध्वंस में रकतत्वावच्छिन्नप्रतियोगिताकत्व की सिद्धि न होने पर अन्तरा श्यामघटाविनिष्ठ पतध्वंस में उस की कल्पना भी नहीं हो सकती।
इत्थं च "तद्भावाव्ययं नित्यम्" [त० सू० ५/३० ] इत्यस्य वंसप्रतियोगितानवच्छेदकरूपवद् नित्यम्' इत्यर्थः, ध्वंसप्रतियोगितावच्छेदकरूयरच्चाऽनित्यम्, इति नोभयासमावेशः, न चाग्रसिद्धिः" इत्यपि न सुष्टु समाधानम् । अथ वृक्ष शाखा-मृलाद्यवच्छेदेन कापिसंयोगतदभाववदेकत्रापि द्रव्यतया पर्याय तया च नित्यानित्यत्वमुपपतन्यते, गुलाफलादो श्यामतारक्ततयोविभिन्नदेशावच्छेदरूयायाः खण्डशो व्याप्तलक्षण्येनेवान्योन्यच्याप्तिव्यवस्थितविभिन्नदेशानवच्छिन्नाऽपृथग्भावस्यैव तदर्थत्यादिति चेत् ! न, आश्रयन्यनवृत्तेरेवावच्छेदक वेन घटत्वेन घटेऽनित्यतायाः, द्रव्यत्वेन च नित्याताया असंभवात् । न हि भवति शाखायां शाखात्वावच्छेदेन कपिसंयोगाभावः, वृक्षलायच्छेदन च कपिसंयोग इति । किञ्च, एवं नित्यत्वादिज्ञानस्याऽनित्यत्रादिधीप्रतिबन्धकतायामव्याप्यवृत्तित्वज्ञानाद्युत्तेजकत्वं वाच्यमिति गौरवमिति ।
[नित्यत्व-अनित्यन्त्र के सह समावेश में विवाद ] यदि आप जैनों को और से 'तभाषाऽव्ययं नित्यम्' इस सूत्र का 'ध्वंसप्रतियोगिता का अनवच्छेदक जो रूप, तद्रूपवान् नित्य है' इस प्रकार नित्य का लक्षण किया जाय, और 'ध्वंस. प्रतियोगिता का अवच्छेदक जो रूप तरूपवान् अनित्य है' इस प्रकार अनित्य का लक्षण किया जाय, तो नित्यस्व और अनित्यस्व का एकवस्तु में समावेश अनुचित नहीं होगा, जैसे द्रव्यत्वेन घट का
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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३७
ध्वंस न होने से ध्वंसप्रतियोगिता का लवासोतलीभूत व्यत्व का आश्रय होने से घर नित्य होगा और घटस्वेन घट का वस होने से ध्वंसप्रतियोगिता का अवच्छेदकोभत घटत्व का आश्रय होने से अनित्य भी होगा और इस प्रकार नित्यत्य की परिभाषा करने पर प्रसिद्धि भी नहीं होती।"
पक:-किन्तु यह समाधान भी समीचीन नहीं है। क्योंकि, ध्वंसप्रतियोगिता के धर्मायच्छिन्नत्व में प्रमाण न होने से एक ही वस्तु में नित्य और अनित्य के उक्त दोनों लक्षण असम्भवग्रस्त हैं।
यदि जैनों की ओर से इस प्रकार विचार प्रस्तुत किया जाय कि जैसे "वक्ष में शाखा और मूल आदि प्रवच्छदक भेद से कषिसंयोग और कपिसंयोगाभाब का एक यक्ष में समावेश होता है उसी प्रकार द्रव्यत्व और पर्यावरूप अवच्छेदका मेद से एक व्यक्ति में नित्यत्व और अनित्यत्व का भी समावैश उपपन्न हो सकता है। यदि इस पर यह आपत्ति जताई जाय कि-'कपिसंयोग और कपिसंयोगाभाव के दृष्टान्त से नित्यत्य अनित्यत्व के एकत्र समावेश का समर्थन युक्तिसंगत नहीं हो सकता, क्योंकि कपिसंयोग और फपिसंयोगाभाव ये दोनों तो यावदाश्रयभादी नहीं है किन्तु जैन मत में वस्तु का नित्यत्वाऽनित्यत्व तो यावदाययभावी माना गया है। क्योंकि प्रत्येक वस्तु अपने पूरे काल में द्रष्यतया नित्य और पर्यायतया अनित्य होती है। तो इस आपत्ति के उत्तर में जनों की ओर से यह कहा जा सकता है कि-"गुजाफल की श्यामता और रक्तता की भांति यावाश्रमभावी नित्यत्व-अनित्यत्व का एकत्र समावेश होने में कोई बाधा नहीं है। अन्तर केवल इतना है कि गुजाफल में श्यामता और रक्तता की विभिन्न देशावच्छेवेन खण्डशः व्याप्तिः है और नित्यत्वाऽनित्यत्व की अन्योन्यच्याप्ति उससे विलक्षण है और यह बैलक्षण्य विभिन्न देश से अनवच्छिन्न अपृथाभाव-अविनाभावरूप है 1 क्योंकि गुजा का वन्तलग्नभाग और उससे अतिरिक्तभाग गुजा के देश है उनमें पन्तलग्नदेशावच्छवेन श्यामता है और अन्यदेशावच्छेदेन रक्तता है किन्तु द्रक्ष्यत्व-पर्याय ये घटादि के देश नहीं है किन्तु घटादिनिष्ठ धर्म हैं । अतः उनसे प्रचच्छिन्न अविनाभाव विभिनदेशानवच्छिन्न अधिनाभावरूप है।"
किन्तु हमारे (धशेषिकों के) मत से जैनों का यह कथन भी समीचीन प्रतीत नहीं होता क्योंकि आश्रय का न्यूनवृत्ति धर्म अर्थात् 'प्रवच्छेद्य के प्राधय में विद्यमान अभाव का प्रतियोगी धर्म' ही अवच्छेदक होता है । जैसे कपिसंयोगाभावाश्रय वृक्ष में तादात्म्यसम्बन्ध से देशतः अविद्यमान शाखाअभाव की प्रतियोगीभूत शासा, यह वक्षनिष्ठ कपिसंयोगाभाष को प्रबछेदक होती है। यहां घटत्व अनित्यतारूप अवच्छेद्य के आश्रय घट में न्यूनवृत्ति न होने से अनित्यता का, एवं द्रव्यत्व नित्यतारूपअवच्छेद्य के आश्रय द्रव्य में न्यून वृत्ति न होने से नित्यता का अवच्छेदक नहीं हो सकता। यदि 'प्रवच्छेदक आश्रयन्यून वत्ति होता है' यह नियम न माना जाय तो शास्था में कपिसंयोग न होने की दशा में शाखा में शाखात्यावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव, एवं वृक्ष में कपिसंयोग होने की दशा में वृक्षत्यावच्छेदेन वृक्ष में कपिसंयोग को आपत्ति होगी।
इससे अतिरिक्त नित्यत्व-अनित्यत्व का एकत्र समावेश मानने में यह भी दोष है कि अनिस्यत्वज्ञान में जो नित्यत्वज्ञान की प्रतिबन्धकता होतो है उसमें व्याप्यत्तित्व ज्ञान को उत्तेजक मान कर अनित्यत्व युद्धि में अव्याप्यत्तित्वज्ञानाभावविशिष्ट नित्यत्वज्ञान को प्रतिबन्धक मानना होगा और ऐसा मानने से प्रतिबन्धकतावच्छेदक में गौरव होने से प्रतिबन्धकता में गौरव की आपत्ति अनि
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वार्य होगी। अतः न्यायसंगत तथ्य यह है कि एक वस्तु में नित्यत्वाऽनित्यत्व का समावेश न माना जाय।" (यह वैशेषिकों का कथन पूरा हुआ।)
अत्र ब्रूमः-प्रत्यमिव वस्तुनो नित्यानित्यत्वे मानम्, पूर्वोत्तरततेदंतास्वभावभेदानुविद्धस्यैवोर्वतासामान्याख्याभेदस्य तया विषयीकरणात् । न च तत्तेदंतोभयनिरूपितकस्वभावमेव तत्, भिन्भकाले तदभावादेव च तदननुभव इति सांप्रतम् , 'इदानीं तत्तास्वभावमिदम्' इति व्यवहारप्रामाण्यप्रसङ्गात् । किञ्च, विशिष्टात्यन्ताभादवद् विशिष्टध्वंसोऽपि परेणाऽकामेनापि स्वीकर्तव्यः 'शिखी विनष्टः' इति प्रतीतैरन्यथानुपपत्तेः । न च विशेष्यनाशसामग्रयभावाद् विशिष्टनाशानुपपत्तिः, विशेषणात्यन्ताभावकृतविशिष्टात्यन्ताभाववद् विशेषणादिनाशकृतविशिष्टनाशसंभवात् । विशेषणनाशादेव परम्परासंबन्धेन तत्प्रतीत्युपपत्त्या विशिष्टनाशाऽसिद्धौ च स्वपर्याप्त्यधिकरणसंबन्धेन द्वित्वाभावादिनैव 'द्वौ न स्तः' इत्यादिप्रतीत्युपपत्तौ द्विस्वावच्छिन्नाभावादेरप्युच्छेदप्रसङ्गः। एवं च श्वणनिशिष्यध्यमाद स्थैर्य मंदालित स्थैर्य सिद्धम् , विशिष्टातिरिक्तत्ववादिनः सार्वभौमस्य मते च सुतराम् | न च तन्मते विशिष्ट सत्तानिश्चयेऽपि सत्तासंदहापत्तिः, परस्यापि विशिष्टसत्तानिश्चयस्य सत्तानिश्चयत्वशून्यतया विशिष्टसत्तानिश्चयत्वेन पृथक्प्रतिबन्धकतावश्यकत्वात् । न चानन्तविशिष्टपदार्थकल्पनापत्तिः, परस्यापि विशिष्टनिरूपिताधिकरणतानन्त्यकल्पनस्यावश्यकत्वात् । विना च विशिष्टातिरेक 'शिखरविशिष्टे पर्वते न वह्विधीः' इति धीने सुघटा।।
[वैशेषिकों के विस्तृत पूर्वपक्ष का जैनों की ओर से प्रतिकार ] वैशेषिक के उक्त कथन के विरुद्ध जैन विद्वानों की ओर से यह कहा जा सकता है कि वस्तु के नित्यत्वाऽनित्यत्व में प्रत्यभिज्ञा ही प्रमाण है। क्योंकि पूर्ववत्ती तता और उत्तरवर्ती इदन्ता, इन दो स्वभावों के भेद से मिलित अभेद ही उस प्रत्यालिजा का विषय होता है । जिसे न्याय की परिभाषा में अवतासामान्य कहा जाता है और उसके इस नामकरण का बीज यह है कि-'पूर्व से प्रारम्भ होकर उत्तर उत्तर में अनुत्तित होना।' यह पूर्वोत्तरभावी वस्तुओं में अनुगत होने वाले मूलद्रव्यस्वरूप होता है । जैसे प्रतिक्षण परियत्तित होने वाला घटादि तथा मुद्गरादि के अभिघात से उत्पन्न होने वाले कपालादिरूप उसके विलक्षण परिणाम में अनुस्यूत होने वाला मिट्टो द्रव्य ।
[ तत्ता-इदंतानिरूपित एक स्वभाव वस्तु होने की शंका ] __ इस पर यदि यह शंका की जाय कि--"तत्ता और इदन्ता रूप विभिन्न स्वभाव की सत्ता में कोई प्रमाण नहीं है किन्तु वस्तु तत्ता और इदन्ता उभय से निरूपित एकस्वभावरूप ही होती है। इदन्ताकाल में तत्तानिरूपितरवेन और तत्ताकाल में बदन्तानिरूपितत्वेन वस्तु स्वभाव का अनुभव इसलिये नहीं होता कि उस समय स्वभाव के निरूपक तत्ता और इचन्ता विद्यमान नहीं होती। और स्वभाव का अनुभव निरूपक के अनुभव के साथ ही होता है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि, तत्ता और इदन्ता इन दोनों से निरूपित एक ही स्वभाव वाली वस्तु मानने पर 'इदानी तत्तास्वभावमिवम्'
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! शास्त्रवा० स्त० ६ लो०३७
इस व्यवहार में प्रामाण्य की आपत्ति होगी। क्योंकि जो स्वभाव इदातानिरूपित है वही तत्ता से निरूपित है और तत्तानिरूपितत्वेन स्वभावव्यवहार के लिये लत्ता का अस्तित्व अपेक्षित नहीं है किन्तु शानमात्र अपेक्षित है क्योंकि व्यवहार के प्रति व्यवहर्तब्य पदार्थ स्वरूपतः कारण नहीं होता किन्तु उसका ज्ञान कारण होता है।
[विशेषणनाश से विशिष्टनाश अवश्य मान्य ] इसके अतिरिक्त यह भी ध्यान देने योग्य बात है कि-जैसे विशेषण के अभाव से विशिष्ट का अत्यन्ताभाव होता है उसी प्रकार विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश भो इच्छा विरुद्र होते हुये भी वैशेषिक को मानना होगा। अन्यथा शिखा का नाश होने पर शिखी विनष्टः शिखाधर नष्ट हो गया' यह प्रतीति नहीं हो सकेगी। इसके विरुद्ध यह नहीं कहा जा सकता कि-'विशेष्य के नाश की सामग्री न होने से विशेष्य का नाश नहीं हो सकता'-क्योंकि जैसे विशेषण के प्रत्यन्ताभाव से विशिष्ट का अत्यन्ताभाव होता है उसी प्रकार विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश भी हो सकता है अर्थात् जैसे विशेष्यनाश की सामग्नो विशिष्ट की नाशक है इसी प्रकार विशेषणनाश को सामग्री भी विशिष्ट की नाशक है।
[ परम्परासम्बन्ध से विशिष्टनाश अघटित ] यदि यह कहा जाय कि विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि शिखा के नाश होने पर 'शिखी नष्टः' यह प्रतीति परम्परा से यानी स्वप्रतियोगीवस्व सम्बन्ध से शिखावान् में शिखानाश को विषय समझ कर उपपन्न हो सकती है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'हो न स्त:' इत्यादि प्रतीति को स्वपर्याप्स्यधिकरण सम्बन्ध से द्वित्वाभावविषयक मानना सम्भव होने के कारण द्वित्वाच्छिनाभाव-विषयक मानने की प्रावश्यकता नहीं रहेगी; फलतः द्वित्वावच्छिन्नाभाव से उच्छेय को आपत्ति होगी। अत: अब तक के विचारों के आधार पर यह सिद्ध होता है कि क्षणविशिष्ट वस्तु का ध्वंस होने से अस्थिर एवं विभिन्नक्षणों से सम्बद्ध होने वाली वस्तु का अपने मूलस्वरूप से ध्यान न होने से स्थिर, इस प्रकार स्थिरास्थिर उभयात्मक वस्तु की सिद्धि निर्बाध है ।
[शुद्ध-विशिष्ट भेद पक्ष में शुद्धसत्ता संदेह का निराकरण ) यह विशेष ज्ञातव्य है कि विशिष्ट शुद्ध में भेद मानने वाले वासुदेव सार्दमौम के मतानुसार वस्तु का विशिष्टरूप से नाश और शुद्ध रूप से अवस्थान निर्बाध एवं अनायास सिद्ध है। यदि सावंभौम के मत के सम्बन्ध में यह शंका की जाय कि-'विशिष्ट और शुद्ध में भेट मानने पर घटादि द्रव्य में गुणकर्मान्यत्वविशिष्ट सत्ता का निश्चय होने पर भो शुद्ध सत्ता का निश्चय न होने से सत्ता के संदेह की प्रापत्ति होगी'. तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विशिष्ट और शुद्ध में प्रमेदवादी के मत में भी विशिष्ट सत्तानिश्चय में सत्तानिश्चयत्व न होने के कारण विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंबेह के प्रति विशिष्ट सत्तानिश्चयत्वेन पृथक प्रतिबन्धक मानना आवश्यक होता है। अलः सार्वभौमार में भी विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंदेह के प्रति पया प्रतिबन्धक मान लेने से उक्त आपत्ति नहीं हो सकती । कहने का आशय यह है कि 'सत्ताभावः सत्तावत्तिः ' इस प्रकार सत्ताभाव में सत्तरसामानाधिकरप्यावगाही ज्ञान रहने पर 'सत्तावान यह निश्चय सत्ता संदेह का प्रतिबन्धक नहीं होता ।
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अतः उक्त निश्चयविरहविशिष्ट सत्तानिश्चयत्व रूप से सत्तानिश्चय को सत्तासंदेह के प्रति प्रतिवन्धक मानना आवश्यक रहेगा। किन्तु उक्त निश्चय के रहने पर भी 'सत्ताभायः गुणकर्मान्यत्वविशिस्टसताववृत्तिः यह निश्चय न रहने पर 'गुणकर्मान्यत्वविशिष्टसतावान्' इस निश्चय को सत्तासंदेह के प्रति प्रतिबन्धकता होती है अतः विशिष्टससानिका को सलाह के रिश्रमप्रमिलापकता माननी होगी। क्योंकि-'सत्तानिश्चय को जिस पूर्वोक्त रूप से प्रतिबन्धकता होती है वह रूप उक्त निश्चयसमानकालीन विशिष्ट सत्तानिध्य में नहीं है, अतः उक्तरूप से विशिष्ट सत्तानिश्चय को सत्तासंवेह के प्रति प्रतिबन्धकता नहीं हो सकती।
[शुद्ध-विशिष्ट अभेद पक्ष में गौरव का निरसन ] यवि यह कहा जाय कि-"विशिष्ट और शुद्ध में भेव मानने पर अनन्त विशिष्ट पदार्थ की कल्पना में गौरव होगा अत: विशिष्ट और सुद्ध का भेदपक्ष समीचीन नहीं है"-तो यह काथन भी प्रसंगत है क्योंकि-'विशिष्ट शुद्ध के अभेदबाद में भी शुद्धनिरूपिताधिकरण:ता से भिन्न विशिष्टनिलपित अनन्त अधिकरणता की कल्पना आवश्यक होती है। इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि शुद्ध और विशिष्ट में भेव माने बिना 'शिखर विशिष्टे पर्वते न यतिधी: शिखरविशिष्ट पर्वत में वह्निज्ञान का अभाव है' यह बुद्धि उपपन्न न हो सकेगी क्योंकि उक्त बुद्धि शिखरविशिष्ट पर्वत में विशेष्यतासम्बन्ध से वह ज्ञानाभाव को विषय करती है। किन्त पर्वत में विशेष्यता सम्बन्ध से वह्नि ज्ञान रहने के कारण शिखर विशिष्टपर्वत में उसका प्रभाव नहीं हो सकता क्योंकि-विशेष्यवृत्तिधर्म का विशिष्ट में प्रभाव नहीं माना जाता। कारण गुणकर्मान्यावविशिष्ट सत्ता न गुणवृत्ति' यह बुद्धि विशिष्ट शुद्ध के अभेद वादीयों को प्रमान्य नहीं है। यहां सत्तारूप विशेष्य में गुणवत्तित्व विद्यमान होने से विशिष्ट सत्ता में उसके प्रभाव को नहीं माना जाता।
___ वस्तुतः क्षणानामिदानीमिति धीव्यपदेशनियामकः संबन्धविशेषः क्षणेषु क्षणपरिणतेषु च द्वेधा परेण वक्तव्या, स्वस्मिन्नपि तथाधीव्यपदेशप्रवृत्तः । तथा चान्तरङ्गत्वात् तादात्म्यनियत एव स उचितः, इति सिद्ध क्षणरूपतया जगतः पर्यायत्या क्षणभंगुरत्वम् । तदुक्तं ग्रन्थकृतव धर्मसंग्रहण्याम्-''जं वत्तणादिरूत्रो कालो दव्यस्स चेव पजाओ" इति । "'किमयं भंते ! कालो ति पवुच्चइ ? गोयमा ! जीया देव, अजीया चेव" इति पारमर्षमप्येतदर्थानुपाति 1 यस्मिन्नेव क्षणे घटस्तस्मिन्नेव पट इति तु शब्दमात्रम्, इति न साधारणातिरिकक्षणसाधकम् ।
[सारा जगत् पर्यायतः क्षणभंगुर है ] विशेषण के नाश से विशिष्ट का नाश होता है इस विचार के संदर्भ में वस्तुस्थिति यह है कि 'इवानी' इस बुद्धि और व्यवहार की प्रवृत्ति क्षण और क्षणस्थ दोनों में होती है। बैशेषिक मत में क्षण और क्षणस्थ में भेद होने से उन दोनों के साथ क्षण का दो प्रकार का सम्बन्ध मानना होगा।
१. यद वर्तनादिरूपः कालो द्रव्यस्येव पर्यापः। २. क एष भगवन् ! काल इति प्रोच्यते ? । गौतम ! जीवाश्चैत्र, अजीवाश्चैव ।
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[ शास्त्रवा० स्त०६ श्लो० ३७
जैसे क्षण के साथ क्षण का तादात्म्य संबंध यह क्षण में 'इदानों इस बुद्धि का नियामक है, एवं क्षणस्थ वस्तुओं में क्षण का कालिक सम्बन्ध 'इदानी इस बुद्धि और व्यवहार का मियामक है । इस प्रकार दो संबन्ध के स्थान में उचित यह है कि क्षण और क्षणस्थ वस्तुओं के साथ क्षण का ऐसा हो सम्बन्ध माना जाय जो तादात्म्यनियत हो, क्योंकि-'जो सम्बन्ध तादात्म्य नियत होगा यह अन्तरंग यानी अपथक सिद्ध होने से अकृत्रिम होगा, अतः ऐसा सम्बन्ध एकोपादानोपादानकत्व हो सकता है । क्षण और क्षणस्थ दोनों ही एकोपादन के उपादेय होते हैं। इस प्रकार क्षण और क्षणस्थ वस्तु वोनों में क्षण का जो समानोपादानकत्व सम्बन्ध है वही उन दोनों में 'इदानीं' इस बुद्धि और व्यवहार का नियामक है। इस प्रकार यह क्षण और क्षणस्थ पदार्थों में तादात्म्य नियत सम्बन्ध सिद्ध होता है तो उन दोनों का तादात्म्य सिद्ध होने से क्षण क्षणभंगुर होने के कारण क्षणात्मक पर्यायरूप से क्षणस्य वस्तु की भी क्षणभंगुरता सिद्ध होती है।
[ काल जीवाजीव के वर्तनापर्याय रूप है ] क्षण और क्षणस्थ वस्तु के तादात्म्यनियत सम्बन्ध का समर्थन धर्मसंग्रहणी' ग्रन्थ में ग्रन्थकार श्रीमद् हरिभद्रसूरि महाराज के ही शब्दों से सम्पन्न होता है-उन के शब्द का स्पष्टार्थ यह है कि 'वर्तनादि रूप काल यह द्रव्य का ही पर्याय है। इस प्रकार काल को मुख्य का पर्याय कहने से दोनों का तादात्म्य स्फुट रूप से प्रकट होता है, क्योंकि-'द्रव्य और पर्याय का तादात्म्य सुप्रसिद्ध है। इस तथ्य को श्री गौतम गणधर के काल सम्बन्धी प्रश्न के उत्तर में परषि भगवान महाबोर का हर उत्तर वचन भी अनुमोदक है कि जीव और अजीव ही काल है। ऐसा मानने पर यह प्रश्न हो सकता है कि यदि क्षण और क्षणस्थ अभिन्न है सो क्षणस्थ के भेद से क्षण का भेव मानना भी प्राव. श्यक होने से जिस क्षण में घट होता है उसी क्षण में पट होता है। इस प्रकार क्षणस्थ घट-पट के भेद का और क्षण के. ऐक्य का प्रतिपादक यह व्यवहार किस प्रकार उत्पन्न होगा? इस प्रश्न का स्पष्ट उत्तर यह है कि उक्त व्यवहार केवल शब्द मात्र है । अर्थात् उसका अर्थ बाधित है । अत: वह विभिन्न वस्तुओं से सम्बद्ध अतिरिक्त क्षण का साधक नहीं हो सकता।
प्रतियन्ति च लोका अपि निस्याऽनित्यत्वं वस्तुनः-'घटरूपेण मृद्रव्यं नष्ट, मृद्रपेण न नष्टम् इति, 'घटरूपेण घटो नष्टः, न तु मृद्रपेण' इत्यादि । अत्र च 'दण्डत्वेन दण्डे घटहेतुत्वम्, न तु द्रव्यत्वेन' इत्यत्रेवावच्छिन्नत्वं तृतीयाः, स्वाश्रयन्यूनवृत्तरेवावच्छेदकत्वमित्यस्य च (नियमस्य) प्रकृतदृष्टान्त एव भङ्गः । अथाऽन्यथासिद्धिनिरूपकतानवच्छेदकनियतपूर्ववर्तितावच्छेदकरूपवत्त्वं हेतुत्वं नाऽव्याप्यवृत्तिः, इति तत्र 'दण्डे' इति दण्डवृत्तित्त्रम् , 'दण्डत्वेनेति च दण्डत्वाऽभिन्नत्वम् , 'न द्रव्यत्वेनेति च द्रव्यत्वाभेदाभावो भासत इति घेत् ? न, विशिष्टरूपेऽविशिष्टरूपाऽभेदान्वयस्य निराकांक्षत्वात् , अन्यथा 'दण्डत्वं घटहेतुत्वम्' इत्यस्यापि प्रसङ्गान् !-"तथाप्येकचिशेष्यकत्वानुरोधाद् 'न द्रच्यत्वेन' इत्यत्र द्रव्यत्वावच्छिन्नस्वाभाव एवार्थः । न हि 'दण्डत्वेन दण्डो घटहेतुर्न द्रव्यत्वेन' इत्पत्र 'दण्डवृत्तिघटहेतुत्वं दण्डस्वावच्छिन्न, दण्डवृत्तिस्तदभावश्च द्रव्यत्वावछिन्न' इति भिन्नाश्रयो बोधोऽनुभूयते, किन्तु
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स्या० १० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
'दण्डवृत्ति घटहेतुत्वं दण्डन्यावच्छिन्न द्रव्यत्वानवच्छिन्नं चेत्येकाश्रय एवेति" चेत् ? सत्यम् । तात्पर्य भेदेनोभयथापि बोधदर्शनात् 'मृद्र पेण घटो(न)नष्टः' इत्यत्रापि कदाचिद् मृद्रूपानवच्छिमनष्टत्वचोधात् , नानापर्यायत्वाद् वस्तुनः । यदि च तत्र तदभावावच्छेदकत्वालम्बनः प्रत्ययस्तत्र तदवच्छेदकत्वाभारावलम्बनतयवान्यथासिद्धः क्रियते, तदा संयोगाभावोऽस्यव्याप्यवृत्तिनं स्यात् , 'मूले वृक्षे न कपिसंयोगः' इत्यस्यापि मूले क्षनिष्ठकपिसंयोगावच्छेदकत्वाभावविपयतयेवोपपत्तेः।
अथ 'कपिसंयोगाभावो न वृक्षवृतिः' इति बाधकाभावाद् मूलस्य वृक्षवृत्तिकपिसंयोगाभावावच्छेदकत्यम् , 'नष्टत्वाभायो न घटवृत्तिः' इति बाधकसत्त्याच न घटवृत्तिनष्टत्वाभावाचच्छेदकत्वं मृद्र पस्यति चेत् ! न, तत्र तवृत्तित्वाभावस्याप्यच्याप्यत्तित्वेन तद्धियस्तत्र तद्धृत्तिताधियोप्रतिबन्धकवान । यत्तु-वृत्तित्वस्य नाऽव्याप्यत्तित्वम् , 'अग्रे वृक्षे न कपिसंयोगः' इत्यत्राधावच्छिमकपिसंयोगाभावे वृक्षवृत्तित्वस्य, 'गुणान्यत्वविशिष्टा सत्ता न गुणवृत्तिः' इत्यत्र गुणान्यत्वविशिष्टसत्ताभावे गुणवृत्तित्वस्य, 'घट-पटत्वोभयं न घटति' इत्यत्र च घटत्वपटत्योभयाभावे घटवृत्तित्वस्य विषयत्वात्' इति"-तत्तु 'मूले वृक्ष कपिसंयोगो न शाखायाम्', 'द्रव्ये गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता न गुणे' इत्यादिधियामेकविशेष्यकत्वाननुरोधा न शोभते । नन्येवं वृक्षे पटे न कपिसंयोगः' इत्यपि स्यादिति चेत् ! न, देशनिष्ठावच्छेदकत्वस्य पटे:भावात, इतरावच्छेदकत्व विवक्षायां चेष्टत्वादिति दिग। गौरवादिकं च नित्यत्वा-ऽनित्यत्वयोस्तिवेऽवच्छिन्नवे न दोषायेति । एवमनुभव सिद्धं नित्यानित्यकरूपं वस्तु प्रतिक्षिपन् विरोधभीतो वैशेपिकश्चित्रपटे चित्रकरूपमपि कथमभ्युपेयात् ? । इति संप्रदायः । तदाहुः
"चित्रमेकमने च रूपं प्रामाणिक चदन् । योगो वैशेषिको वापि नानेकान्तं प्रतिक्षिपेत् । १॥" [वीतरागस्तोत्र ] इति ।
[एक वस्तु में नित्यत्वा-नित्यत्वोभय की लोकसिद्ध प्रतीति ] व्याख्याकार का कहना है कि-वस्तु के नित्यानित्यत्व में उक्त युक्तिओं के अतिरिक्त लोकप्रतीति भी प्रमाण है। क्योंकि घटनाश होने पर ऐसी प्रतीति निविवाद सिद्ध है कि 'मबद्रव्य घटरूप से नाट हो गया किन्तु मत्तिकारूप से नष्ट नहीं हुआ।' एवं 'घट घटरूप से नष्ट हुआ, किन्तु मत्तिका रूप से नष्ट नहीं हुआ।''घट चला गया मृत्तिका बनी हुई है। कारण यह है कि 'घटरूप से मध्य नष्ट हो गया और मद्रप से नष्ट नहीं हुआ इस के संस्कृत रूप 'घटरूपेण मृद्रव्यं नष्ट, मद्रपेण न नष्टम्' इसमें तृतीया विभक्ति का अर्थ अवच्छिन्त्य है । इसलिये उक्त प्रतीति का विषय है मवद्रष्य में घटरूप से अवच्छिन्न नष्टता यानी ध्वंसप्रतियोगिता और मृदूपावच्छिन्न नष्टता=(ध्वंसप्रतियोगिता) का
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| शास्त्रवार्ता. स्त०६ श्लो० ३७
अभाव । इस प्रकार उक्त लोक प्रीतीति से एक द्रव्य में नष्टत्वरूप अनित्यत्व और मष्टस्वाभावरूप नित्यत्व की सिद्धि स्पष्ट है । इस मान्यता के विरुद्ध यह जो शंका है 'घटरूप-घटत्व यह नष्टता के आश्रय घर में न्यूनयत्ति न होने से नष्टता का अबस्छेदक नहीं हो सकता' वह शंका असंगत है क्योंकि-'दण्डत्वेन वण्डे घटहेतुत्वं न तु ध्यत्वेन'-दण्ड में घरहेता दण्डत्यरूप से है, द्रव्यश्वरूप से नहीं है' इस धाक्य में तृतीया का अवच्छिन्नरवरूप अर्थ सर्वमान्य है। और यहां हेतुता का अबच्छेदक दण्डत्व दण्ड में न्यूनयत्ति नहीं है प्रतः 'अवच्छेद्याश्रय में न्यूनवृत्ति धर्म ही प्रवच्छेदक होता है। यह नियम इसी वाक्य में ही व्यभिचरित है ।
[ दंडत्वादिस्वरूप होने से हेतुता अन्याप्यवृत्ति न होने की शंका ] यदि यह शंका की जाय कि-"कार्यवृत्ति अन्यथासिद्धि की निरूपकता का अनवच्छेवक और कार्यनियतपूर्ववृत्तिता का अवच्छेदक धर्मवत्ता ही हेतुता है, और एवंभूत दण्डत्वावि धर्मवत्ता रूप हेतुता अन्यान्यत्ति नहीं है। इसीलिये 'पण्डे दण्डस्वेन घर हेतुता, न द्रस्यत्वेन' इस वाक्य का अर्थ यह नहीं हो सकता कि 'दण्ड में दण्डश्यावच्छेदेन घट हेतुत्व और तव्यत्वावच्छेवेन घरहेतुत्वाभाव है, क्योंकिदण्डत्व व हेतुता एक होने से स्व. स्व का अवच्छेदक नहीं हो सकता। किन्तु 'दण्डे-दण्डत्वेन घटहेतुत्वं न तु दुग्धवेन' इस वाण कार्य पार है-टगर में घट हेतुता दण्डत्वाभिन्न होती है किन्तु द्वन्यस्वाभिन्न नहीं होती, तस्यत्वानेवाभावयती होती है। यह अर्थ इस रीति से लम्य है,-'दण्डे इस शन्ध से दण्डवृत्तित्व का, “वत्वेन' इस शब्द से दण्डत्वामिन्नत्व का और 'न व्यत्वेन' इस शब्द से द्रव्यत्वाभव के प्रभाव का लाभ होता है । अतः उक्त वाक्य में तृतीया का अवचिन्त्य अर्थ अमान्य होने के कारण 'अवच्छंद्याश्रय में न्यूनवृत्ति हो अवच्छेवक होता है। इस नियम का व्यभिचार प्रसिद्ध है । अतः मृत्तिका घटरूपेण नष्टा न तु मदपेण' इस वाक्य में घटात्मक रूप नष्टता का अवच्छेवक नहीं हो सकता।"---
किन्तु यह शंका ठीक नहीं है क्योंकि दण्डनिष्ठघर हेतुता जब उक्त प्रकार से दण्डत्वस्वरूप है तब उसमें 'दण्डत्वेन' इस शम से 'दण्डनिष्ठघटहेतुतारूप दण्डवं दण्डत्याभिन्न' इस प्रकार वण्डत्व के अमेव का अन्वयम्रोध नहीं हो सकता। क्योंकि किश्चितिशिष्टतष्ट्रप में अधिशिष्ट तप का अभेवान्वय निराकांश होता है । अन्यथा घट हेतुतात्वरूप से दण्डत्व में वण्डत्व का अभेद-बोध कराने हेतु 'दण्डत्वं घटहेतुत्वम् इस प्रयोग की भी प्रापत्ति होगी।
[बोध एऋविशेष्यक होने की शंका का निराकरण ] यदि उक्त के प्रतिवाद में वैशेषिक की ओर से यह कहा जाय कि-"उक्त वाक्य में तृतीया का अर्थ अवच्छिन्नत्व मानने पर भी उससे 'दत्वं दण्डनिष्ठघरहेतुतावच्छेदक, द्रव्यरवं दण्डनिष्ठघटहेतुतानवच्छेदक' अर्थात् 'वण्उत्थ दण्डनिष्ठ घटहेतुता का प्रच्छेदक है और द्रध्यत्व घटहेतुता का अनवच्छेदक हैं. इसप्रकार का बोध नहीं माना जा सकता क्योंकि इस बोध में दण्डव और दव्यत्व उभयविशेष्यकत्व होने से एकविशयकत्व की हानि हो जाती है । अतः 'न द्रव्यत्वेन' इस शव का स्वावच्छिन्नत्वाभाव हो अर्थ मान कर उक्त याक्य से दण्डनिष्ठ घटहेतुता को एक ही को विशेष्य बना कर उस दण्डनिष्ठ घटहेतुता में दण्डत्वावच्छिन्नत्व और वव्यत्वाय रिछत्वाभाव का बोध मानना होगा; और वहीं एकविशेष्यकोष अनुभवसिद्ध है किन्तु 'दाइत्वेन दण्डो घटहेतुः न प्रध्यस्वेन.' इस वावय से
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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
'ण्ड विघट हेतुत्व बडत्वावच्छिस हैं और दण्डवृत्तिघटहेतुत्वाभाव द्रव्यत्वावच्छिन है' इस प्रकार विभिन्न विशेष्यक बोध अनुभवसिद्ध नहीं है । अब जब 'बण्डवृत्तिघटहेतुतत्व से अवच्छिन्न है' इस प्रकार एकविशेध्य बोध ही अनुभवसिद्ध है, तब इसी प्रकार 'भूद्रव्यं घटरूपेण नष्टम्. मृद्रूपेण न नष्टम्' इस बाय से भी नष्ट नाशनव्यनिष्टत्वाभाव मनूपायच्छिन्न है' इस प्रकार विभिन्नविशेष्यक बोध नहीं माना जा सकता; जिससे मुद्रश्य में नष्टत्व नष्टस्वाभाव सिद्ध हो सके । अतः एकवस्तु उक्त लोकप्रतीति से नित्यश्व-अनित्यत्य की सिद्धि नहीं हो सकती ।" - किन्तु यह ठीक नहीं है क्योंकि तात्पर्यभेद से लोक में दोनों प्रकार का बोध देखा जाता है । इसलिये ' मृदूपेण घटो (न) नष्ट:' इस वाक्य से मृद्रूप में घटवृत्ति नष्टता के अथच्छेद करवानाव के बोष की तरह कदाचित् घट में मृद्रूपावच्छिन्ननष्टता के अभाव का बोध भी हो सकता है। क्योंकि वस्तु विभिन्न पर्यायात्मक होती है अतः यह भो घट का पर्याय हो सकता है ।
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[ विरोधी उभय के एकत्र समावेश पर शंका ]
यदि यह कहा जाय कि- “उक्त स्थल में अर्थात् 'घटरूपेण घटो नष्टः न तु मुद्रारूपेण' एवं 'दण्डत्वेन दण्डो घटहेतुः न तु द्रव्यत्वेन' इस में जो क्रम से घटात्मकरूप में नष्टतावच्छेदकत्व और मुवद्रव्यत्व में नष्टत्वाभावावच्छेदकत्व तथा दण्डत्य में घटहेतुतावच्छेदकत्व, और द्रव्यत्व में घटहेतुत्वाभाव के अवच्छेदकत्वको विषय करने वाली प्रतीति श्रवगत होती है उसकी उपपत्ति क्रमशः मृद्रव्यत्य
नवच्छेदकत्वाभाव और द्रव्यत्य में घटहेतुतावच्छेदकत्वाभाव को विषय मानने पर भी हो सकती है अतः एकस्तु में परस्पर विरोधी भावाभावोभय का समावेश उक्त प्रतीति द्वारा समयत नहीं हो सकता" - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर आपत्ति यह है कि संयोग और
योगाभाव भी अव्याप्यवृत्ति नहीं होगा। क्योंकि मूले वृक्षे न कपिसंयोग' इस प्रतीति की भी 'मूल में वृक्षनिष्ठकपिसंयोगावच्छेदकत्व का अभाव है' इसप्रकार के बोधरूप में उपपत्ति हो सकती है । अतः इस प्रतीति से भो वृक्ष में कपिसंयोगामाव की सिद्धि न होने से कपिसंयोगाभाव की श्रव्याप्यवृत्तिता भी प्रप्रामाणिक हो जायगी ।
इस आपत्ति से बचने के लिये यदि यह कहा जाय कि 'कपिसंयोगाभावः न वृक्षवृत्तिः । ' ऐसी बाधक प्रतीति न होने से उक्त प्रतोति में मूल में वृक्षवृत्तिकपिसंयोगाभाव के प्रवच्छेदकत्व का भान युक्तिसंगत है किन्तु 'नष्टत्वाभावः न घटवृत्ति:' इस प्रकार बाघक प्रतोति होने से मृद्रूप में घटवृत्तिनष्टत्वाभाव के अवच्छेदकत्व का भान 'मृदूपेण घटो न नष्ट:' इस प्रतीति में नहीं माना जा सकता' तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि तन्निरूपितवृत्तित्वाभाव भी अध्याप्यवृत्ति होता है । अत एव तन्निरूfuaa त्वाभाव का ज्ञान सन्निरूपितवृत्तिता के ज्ञान का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता । अतः नष्टस्वाभाव में घटवृत्तित्वामाव का ज्ञान रहने पर उसमें घटवृत्तित्व का ज्ञान सम्भव होने से 'मृदूपेण घटो न नष्ट:' इस प्रतोति में मृद्रूप में घटवृत्तिनष्टत्वाभाव के अवस्छेदकत्वमान में कोई बाधा नहीं हो सकती
[ वृत्तित्वाभाव अव्याप्यवृत्ति न होने की शंका ]
इस संदर्भ में यदि यह कहा जाय कि "वृतित्व प्रव्याप्यवृत्ति नहीं होता क्योंकि 'अग्रे वृक्षे न कपिसंयोगः ' इस स्थल में अप्रदेशावच्छिन्न कपिसंयोगामाथ में वृक्षवृत्तित्व का भान होता है न कि
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[ शास्त्रवार्ता ० स्त० ६ इलो० ३७
कपिसंयोग में अप्रदेशावच्छिन्न वृक्षवृत्तिश्व का भान होता है । इसीप्रकार 'गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता न गुणवृत्तिः ' इस स्थल में गुणात्पत्यविशिष्टसत्ताभाव में गुणवृत्तित्व का भान होता है न कि सत्ता में गुणान्यत्वविशिष्टत्यावच्छेदेन गुणवृत्तित्वाभाव का भान होता है । इसीप्रकार 'घटपटोभयत्वं न घटवृत्ति' इस स्थल में भी घटत्व-पटत्व उभयाभाव में घटयत्तित्व का ही भाग होता है न कि उभयस्वच्छेन घटत्व पटवोभय में घटवृत्तित्याभाव का भान होता है । श्रतः वृत्तित्वाभाव के अध्यायवृत्तित्व में कोई प्रमाण न होने से नष्टत्व में घटयुतित्व होने से नष्टश्वाभाव में घटवृतित्व का भान सम्भव नहीं है ।" तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि 'मूले वृक्षे कपिसंयोगः न शाखायाम्' और 'द्रव्ये गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता न गुणे' इत्यादि प्रतीतियों में क्रमशः 'मूल में वृक्षवृत्ति कपिसंयोगान बच्छेदकत्व और शाखा में वृक्षवृत्तिकपिसंयोगावच्छेदकत्व' का भान मानने पर, एवं 'द्रव्यत्व में गुणान्यस्वविशिष्ट सत्ता का अवच्छेदकत्व और गुणत्व में गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता का प्रनवच्छेदकत्व' का भान मानने से विशेष्यभेद हो जाता है। अतः उन प्रतोतियों में एक विशेषयकत्व के अनुरोध से क्रम से कविसंयोग में शाखावच्छेदेन वृक्षवृत्तित्व और मूलायच्छेदेन वृक्षवृत्तित्वाभाव का एवं गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता में गुणाव्यवविशिष्टसप्तत्यावच्छेदेन द्रव्यवृत्तित्व और उसमें सत्त त्यावच्छेदेन विद्यमान गुणवृत्तित्य का भी गुणान्यत्वविशिष्टसत्ता त्वावच्छेदेन अभाव का बोध मानना ही उचित है । इसप्रकार ये प्रतीति तत्रिरूपितवृत्तित्व के अव्याप्यवृत्तित्व होने में प्राण हैं ।
[ 'वृत्ते पटे न कपिसंयोगः ' इस प्रयोग में प्रामाण्यशंका का निवारण ]
इस पर यदि यह शंका की जाय कि “ऐसा मानने पर 'वृक्षं पटे न कपिसंयोग: इस प्रयोग में भी प्रामाण्य आपत्ति होगी क्योंकि इस से भी वृक्ष में कपिसंयोग और पट में कपिसंयोग के प्रभाव का बोध मानने पर भिन्नविशेष्यकरण की आपत्ति होगी । अतः वृक्ष में पटावच्छेदेन कपिसंयोगाभाव का भात मानना हो उचित है" तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि पट देशविधया वृक्षनिष्ठ कपिसंयोगाभाव का प्रवच्छेदक नहीं हो सकता क्योंकि पट वृक्ष का अवयव न होने से देशविघया वृक्ष का सम्बन्ध नहीं है । और नियम यह है कि तत्सम्बन्धी देश ही तन्निष्ठधर्म का प्रवच्छेदक होता है। यदि यह कहा जाय कि उक्त वाक्य से होनेवाले बोध में, पट में कालविधया अवच्छेदकत्व विवक्षित है और पटात्मक काल वृक्ष का सम्बन्धी होने से वृक्षस्थित कपिसंयोगाभाव का अवच्छेदक हो सकता है-" तो इसका उत्तर यह है कि उस स्थिति में उक्त प्रयोग के प्रामाण्य की आपत्ति इष्ट ही है ।
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वस्तु को नित्यानित्यात्मक मानने पर जो नित्यत्व ज्ञान के प्रति अनित्यत्वज्ञान की प्रतिबन्धकता में अव्याप्यवृत्तित्वज्ञान के उत्तेजकत्व की कल्पना से गौरव की आपत्ति प्रदर्शित की गई थी वह भी नहीं हो सकती, क्योंकि जब नित्यत्व और अनित्यत्व का प्रदच्छित्य श्रर्थात् अवच्चकभेव से दोनों का एकत्र संनिवेश प्रामाणिक है तो उक्त गौरव फल मुख होने से दोषावह नहीं हो सकता । अतः उक्त गौरव वस्तु के नित्यत्व-निश्रय के अभ्युपगम में बाधक नहीं हो सकता ।
यदि वैशेषिक विद्वान् विरोध से भयभीत होकर अनुभवसिद्ध भी नित्याऽनित्यात्मक एकवस्तु के अस्तित्व का प्रतिषेध करेगा, तो चित्रपट में एक चित्ररूपसत्ता कर अभ्युपगम भी उस के मत में कैसे सम्भव होगा ? जैसा कि आचार्यश्री हेमचन्द्रसूरि ने अपने वीतराग स्तोत्र में कहा है कि एक चित्रवस्तु में एकरूपता और अनेकरूपता को प्रामाणिक मानने वाले नैयायिक और वैशेषिक मतानुयाय श्रनेकान्तवाद का निषेध नहीं कर सकते ।
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स्या० २० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अत्र नव्या:-चित्रपटेऽव्याप्यवृत्तीन्येव नील-पीतादीनि नानारूपाणि 'एक रूपम्' इति प्रतीतेः 'एको धान्यराशिः' इतिक्त समूहकत्वविषयत्वात् । सविषयाऽवृत्तिव्याप्यत्तिवृत्तिजातेख्याप्यवृत्तिवृत्तिलविरोधस्त्वग्रामाणिक एव 1 अत एप
"लोहितो यस्तु वर्णेन मुखे पुच्छे च पाण्डुरः ।
श्वेतः खुर-विषाणाभ्यां स नीलो धूप उच्यते ॥ १॥" इत्यादिकमुपपद्यते । तत्र चित्रकरूपकल्पने तु गौरवम् , तथाहि-चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति न नीलस्वादिना हेतुत्वम् , व्यभिचारान् । नापि रूपत्वेन, नीलमात्रारब्धेऽपि तदापतेः । अथ नीलेतर-पोतेतररूपादेरपि तत्र हेतुत्वाद् न तदापत्तिः, यत्रैकाययवे नीलम् , अपरत्र च पीतजनकाग्निसंयोगः, तत्रावयवे पीतरूपोत्पत्त्यनन्तरमेवावयविनि चित्रोपत्तिस्वीकाराद् न व्यभिचारः। न च नीलाभावादिपटकस्यैव समायेन विजातीयचित्रं प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वेन हेतुत्वमस्त्यिति वाच्यम् , नील-पीनोमयकपालारब्धे घटे पाकनाशितावयवपीतस्यचित्रेऽवयवे व्याप्यवृत्तिनीलोत्पत्तिकाले चित्रोत्पत्त्यापत्तः । न च कार्यसहभावेन नीलाभारादीनां तद्धतुत्वाद् नायं दोष इति वाच्यम् , नील-पीत-श्वेतत्रितयकपालारब्धे पाकेन पीत-श्वेतयोः क्रमेण नाशे श्वेतनाशकालेऽपि तदापत्तेः । नील नीलजनकतेजःयोगान्यतरत्यावच्छिन्नाभावत्यादिना हेतुत्वे तु गौरवम , संयोगस्याय्याप्यवृत्तित्वेन प्रतियोगिन्यधिकरणत्वनिवेशे च सुतराम् । न चानवच्छिन्नविशेषणतया प्रतियोगितावच्छेदकाविशेषितोक्ताभायहेतुत्वसंभवः, प्रतियोगिकोटाबुदासीनप्रवेशाप्रवेशाभ्यामविनिगमादिति चेत् न, पाकमावादपि चित्रोत्पत्तः ।
[चित्ररूपमीमांसा में नव्य नैयायिक मत ] अनेकरूपसमूहात्मकचित्ररूपवादी नव्य नैयायिकों का यह मत है कि चित्रपट में अध्याप्यवृत्ति नील-पीतादि नानारूपों को उत्पत्ति होती है । न कि नोल-पोतादि से विलक्षण अतिरिक्त चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। चित्रपट में 'अत्र एक रूपम्: इस घट में एक रूप है' यह प्रतोति ‘एको धान्यराशिः' इस प्रतीति के समान समूहगत एकत्व के द्वारा उपपन्न होती है । अतः चित्रपट में एक चित्र रूप की सत्ता सिद्ध है । यदि यह कहा जाय कि-"सविषयकपदार्थ में अवसि और स्पाप्यवृत्ति (पदार्थ) में वांत जो जाति होती है वह अव्याप्यवृत्ति नहीं होती'-इस नियम का, नीलपीतादि का प्रध्याप्यवृत्ति मानने पर, विरोध होगा क्योंकि सविषयकज्ञानादि में प्रत्ति और व्यावृत्ति जलीयरूपावि में वृत्ति जो रूपत्वादिजाति, उस में प्रत्याप्यत्ति नीलपोतादिवत्तित्व हो जायगा :'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्तजाति के अव्याप्यत्तिात्तत्व में विरोष होने का कोई प्रमाण नहीं है बल्कि उसके विरुद्ध शास्त्रवचन उपलब्ध होता है । जिस में नोलवृष की इस प्रकार परिभाषा दी गई है कि-'जिस वष का वर्ण रयत हो, तथा मुख और पुच्छ में पाण्डुर, (एक विलक्षणरूप जो रक्ताभश्वेत होता है) और खुर तथा विधाण में श्वेतरूप होला है उसे नोलवृष कहा जाता है। यह वचन अतिरिक्तचित्ररूप
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( शास्त्रवासा स्त०६ श्लो० ३७
के पक्ष में नहीं उपपन्न हो सकत किन्तु एक द्रव्य में अव्याप्यत्ति नीलपीतादि को उत्पत्ति मानने पर हो उपपन्न हो सकता है।
[एक चित्ररूप के साथ कार्यकारणभाव में गौरवादि] यदि यह कहा जाय कि-'उक्तवचन में विभिन्नरूयों का वर्णन जो किया गया है वह वृष के विभिन्न अंगों के रूप का वर्णन है न कि स्वयं वष का। वृष का रूप तो नीलपीतादि से अतिरिक्त चित्ररूपात्मक ही है ।'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यदि उक्तवृष में एक चित्ररूप को कल्पना की जायगी तो गौरव होगा; क्योंकि चित्ररूप के प्रति एक अतिरिक्त कार्यकारणभाव को कल्पना करनी होगी । अब प्रश्न यह होगा कि (१) चित्ररूप के प्रति किस को कारण मानेंगे? यदि चित्ररूप के प्रति नीलादिरूप को नीलत्वादिरूप से कारण मानेंगे तो अन्वय व्यभिचार होगा क्योंकि नीलकपालमात्र से आरब्ध घट में स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलरूप के होने पर भी चित्ररूप की उत्पत्ति नहीं होती। (२) यदि नीलत्वादिरूप से नीलपीतादि सभी रूपों को चित्ररूप के प्रति परस्पर सापेक्ष कारण माना जायगा, तो दो सीन प्रकार के रूपों से युक्त अवयवों के द्वारा आरब्ध द्रव्य में भी चित्र की उत्पत्ति होने से व्यतिरेक व्यभिचार होगा। (३) यदि चित्ररूप के प्रप्ति रूपत्वेन कारण माना जायगा तो नीलमात्र से आरब्ध द्रव्य में भी चित्ररूप की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा । फलतः इस कार्यकारणभाष में भी अन्वयन्यभिचार को आपसि होगी।
[एक चित्ररूप सिद्ध करने का विस्तृत प्रयास ] (४) यदि कहें-चित्ररूप प्रति नीलेतर-पीतेतर रूपादिको कारण मानेंगे तब उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि जहां नीलरूपवत मात्र अवयव से किसी द्रव्य का आरम्भ होता है वहां नीलेतररूप कारण नहीं है, और जहाँ नील-पीत उभयविध अवयवों से द्रध्य का आरम्भ होगा वहाँ नोलेतर-पीतेतर रयतेतरादि समो रूपों के रहने से चित्ररूप की उत्पत्ति में कोई बाधा न होगी। इस पर यदि यह शंका की जाय कि-'जहाँ एक अवयव में नीलरूप है और अन्य अवयव में पीतजनक अग्निसंयोग है वहाँ ऐसे दो अक्यवों से आराध घट में चित्ररूप की उत्पत्ति तो होतो है किन्तु चित्ररूपोत्पत्ति के पूर्व नीलेतर रूप उस द्रव्य में नहीं है, अतः उक्त कार्यकारण भाव में व्यभिचार होगा'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त स्थल में नीलातिरिक्त प्रदयत्र में अग्निसंयोग से पीतरूप की उत्पनि हो जाने के बाद ही अवयवो में चित्ररूप की उत्पत्ति होती है, अतः उस स्थल में नीलेतरपोतेतर रूपात्मक कारण का अस्तित्व होने से व्यभिचार नहीं हो सकता।
हनीलाभावादिषटक की कारणता की आशंका ] इस पर यदि फिर से यह प्रश्न किया जाय कि-"चित्ररूप के प्रति नोलेतर पीतेतर रूपादि को स्वाश्रय-समवेतत्व सम्बन्ध से कारण मानने की अपेक्षा नोलरूपाधभाव-एटक को स्थाश्रय-समवेतत्व सम्बन्ध से चित्ररूप के प्रति कारण मानने में लाघव है। अतः नीलाभाव टफ ही कारण है; अत एव जहाँ एक अवयव में नोलरूप है और अन्य अवयवों में पीतजनक अग्निसंयोग है वहां अवयवों में पीतरूप उत्पत्ति के पूर्व भी अवयवो में चित्ररूप की उत्पत्ति मानने में कोई बाधा नहीं हो सकतो, क्योंकि नीलाभाव पीताभावादिषटक स्वाश्रय समवेतत्व सम्बन्ध से उक्त अवयवी में विद्यमान है।"तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जहाँ नील-पीत दो कपालों से चित्रघट उत्पन्न होता है और पाक से पीत
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स्या० फ० टीका एवं हिन्दी विवेचन !
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अययन के पीसरूप का और घट के चित्ररूप का नाश होता है वहां नष्टपीतरूप वाले प्रश्यव में पाक द्वारा व्याप्यसि नीलरूप की उत्पत्तिकाल में घट में चित्ररूप की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा, क्योंकि उसके पूर्व घर में नीलादिअभावषटक स्वाश्रय समवेतत्व सम्बन्ध से विद्यमान है। किन्तु नीलेतररूपादि को चित्ररूप के प्रति कारण मानने में यह आपत्ति नहीं होगी, क्योंकि उक्त स्थल में नीलेतररूप स्वाश्रयसमवेतत्त्व सम्बन्ध से घर में विद्यमान नहीं है।
[कार्यसहभावेन अभावपटक कारणता की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि नोलामादि में चित्ररूप के प्रति कार्यसहमाव से कारणता होतो है अतः कार्यकाल में नीलादिप्रभाव के रहने पर ही कार्य को उत्पत्ति हो सकती है। उक्त स्थल में नष्टपोतरूप वाले कपाल में व्याप्यवृत्तिनीलरूपोत्पत्तिकाल में नीलस्पाभाव नहीं है, अतः उस काल में चित्रोत्पत्ति का प्रसङ्ग रूप दोष सम्भव नहीं है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जहाँ नील-पीत और श्वेत इन तीन रूपवाले कपालों से कोई घट उत्पन्न होता है और उस में पाक से पीतरूप और श्वेत. रूप का नाश क्रम से होता है वहाँ उस घट में श्वेतरूप नाश काल में चित्ररूपोत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा, क्योंकि उस काल में पोतश्वेतादिरूपों का अभाव स्वाश्रयसमयेतत्व सम्बन्ध से विद्यमान है।
यदि इस दोष के निवारणार्थ नीलाभावावि को नील और नीलजनकतेजःसंयोगान्यतरत्वापच्छिन्न अभावत्वरूप से कारण माना जाय तो उक्त आपत्ति का धारण तो यद्यपि हो सकता है क्योंकि उक्त घट में पाक से पोतरूप नाश के अनन्तर श्वेतरूप नाशकाल में नीलजनकतेजःसंयोग होने से नील. नोल जनकतेजःसंयोगान्यतराभाव नहीं है । तथापि ऐसा मानने में, नौलेतररूपस्वादिरूप से कारणता मानने की अपेक्षा गौरव है और संयोग प्रव्याप्यत्ति होने से नील नोलजनकतेजःसंयोगान्यतराभाव के रह जाने से उक्त आपत्ति का परिहार नहीं हो सकेगा । यदि अभाव में प्रतियोगिव्याधिकरणता का निवेश करेंगे तो और अधिक गौरव होगा।
निरवच्छिन्नविशेषणताघटितस्त्राश्रयसमवेतन संबन्ध से कारणता की शंका ]
इन सब वोषों के निवारणार्थ (५) यदि यह कहा जाय कि-"प्रतियोगितावच्छेदक से अविशेषित उक्त प्रभाय को निरवरिछम्न विशेषणता से घटित स्वाश्रय समवेतत्व सम्बन्ध से कारण मानने में उक्त दोष नहीं है क्योंकि नीलजनकतेजःसंयोगकाल में नील-नीलजनकतेज संयोगान्यतराभाष निरवच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से (स्वाश्रय) अबरच में न रहने के कारण उक्त सम्बन्ध से स्वाश्रय समवेतत्व सम्बन्ध से उक्त अभाव घट में नहीं रहेगा, अत एव उस में चित्ररूपोत्पत्ति का प्रसङ्गन हो सकेगा और प्रतियोगितावच्छेदक अभाव में विशेषण न रहने से गौरव भी नहीं होगा। क्योंकि तत्तदभाव तत्तव्यक्तित्वरूप से कारण होगा।"-तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रतियोगिकोटि में उदासीन के प्रवेशाऽप्रवेश में कोई विनिगमक न होने से नील-वायुसंवामान्यतराभाव को भी प्रतियोगितावच्छेदकाऽविशेषितरूप से निरवच्छिन्नविशेषणताघटित स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से कारणता की आपत्ति होगी। अतः नीलाभावादि षटक को कारण मानना युक्तिसंगत नहीं है किन्तु नीलेतर पोतेतर रूपादि को ही चित्ररूप के प्रति कारण मानना उचित है।
अनेकरूपबादी:-चित्ररूपवादी के इस विस्तृत कथन पर यहाँ विचार करने पर यह कार्यकारणभाष भी उचित नहीं प्रतीत होता, क्योंकि नीलघट के विभिन्न अवयवों में भिन्न प्रकार के लेप द्रव्य का प्रयोग कर जब घट पकाया जाता है तब पाक से अवयव और अवयवी के रूप का नाश
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[शास्त्रवा•ि स्त० ६ श्लो० ३७
हो जामे पर एक साथ ही सभी अवययों में नील-पीतादि विभिन्न रूपों की और प्रवयवी में चित्ररूप की उत्पत्ति होती है, यह उत्पत्ति चित्ररूप के प्रति मोले-तर-पीतेतरावि को हेतु मानने पर नहीं घट सकेगी।
अथ रूपजन्यतावच्छेदकं विजातीयचित्रत्वम् , अग्निसंयोगजन्यतावच्छेदक चापरम् , अग्निसंयोगजचित्रं प्रत्यवच्छेदकत्वसंबन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताका नीलजनकाग्निसंयोगादेरभावा उक्तप्रत्यासत्या हेतवः, रूपजनकविजातीयाग्निसंयोगोऽपि, इति न वायवादौ तदापत्तिः । अस्तु वा तेजःसंयोगमात्रजन्ये विजातीयचित्रे विजातीयतेजःसंयोगस्य, पाकरूपोभयजन्ये विजातीयचित्रे चोभयोरेव हेतुत्वम् , रूपमात्रजातिरिक्त एव वा विजातीयतेजःसंयोगो हेतुः, फलवलेन
जात्यकल्पनात् , अग्निसंयोगमात्रजातिरिक्ते रूपहेतुताया वक्तुमशक्यत्वात , नीलेतादिसमाजाभावात , नीलाभावादिहेतुतावादिन एवात्र वैयरथयात् । पाकजचित्रे वा मानाभावः, पाकादवयवे नानारूपोत्पत्त्यनन्तरमेवावयविनि चित्रस्वीकारे लायवात् । न चावयविनि चित्रजनकत्वाभिमतस्य पाकस्यावयवनील-पीतादिजनकरवे नील-पीतादिजनकत्वावच्छेदकजातिसांकर्यम् , तत्र पाकनानात्वस्वीकारादिति चेत् ! न, चित्रस्थले नीलादिसामधीसत्त्वाद् नीलाद्यापत्तिवारणाय नीलादौ नीलेतररूपादेः प्रतिबन्धकत्वकल्पने गौरवात्-इत्याहुः ।
[एक चित्ररूपबादी की ओर से पुनः स्वपक्ष स्थापन ] इस संदर्भ में यदि यह कल्पना की जाय कि "चित्ररूप की दो जाति होती है-एक रूपजन्यतावच्छेदक और दूसरी अग्निसंयोगजन्यतावच्छेदक । इन में अग्निसंयोगजन्यचित्ररूप के प्रति अवच्छेदकत्वसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक नोलजनकाग्निसंयोगादि का अभाव स्वाश्यसमवेतत्वसम्बन्ध से कारण है और रूपजनक विजातीयप्रग्निसंयोग भी कारण है। ऐसा मानने पर पाकमात्र से चित्र पोत्पत्ति में कोई बाधा नहीं हो सकती क्योंकि जिस द्रव्य में पाकमात्र से चित्ररूप उत्पन्न होता है उसके विभिन्न उन्हीं अवयवों में नीलपीतादिजनकग्निसंयोग होता है जिन में नीलीतादि की उत्पत्ति होती है। अतः अबच्छेदकतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक नोलादिजनका िनसंयोगाभाव पीतादिभाग में रहेमा, एवं पीतादिजनकाग्निसंयोगाभाव नीलादि में रहेगा। इस प्रकार नोलपीतादिजनकाग्निसंयोग का अवछेदकतासम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक प्रमावस्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से अधययी द्रव्य में रहने से उस में पाफ मात्र से चित्ररप की उत्पत्ति होने में कोई बाधा नहीं हो सकती। रुपजनक विजातीय प्रग्निसंयोग को भी उन अभावों का सहकारो मानने से वायु प्रादि में चित्ररूपो. स्पति का प्रसंग भी नहीं हो सकता, क्योंकि यद्यपि वायु के अवयवों में अवच्छेदकतासम्बन्घावच्छिन्न प्रतियोगिताक नोलपोतादिजनकाग्निसंयोग का अभाव रहने से उक्त प्रभाव स्वाथ्यसमवेतत्व सम्बन्ध से वायु में विद्यमान है किन्तु रूपजनक विजातीयअग्निसंयोग उस में न होने से चित्ररूपोत्पत्ति उस में नहीं हो सकती क्योंकि अग्निसंयोग का जन्यतावच्छेदक चित्रत्व निसंयोग के जन्यतावच्छेवकरूपत्वकाथ्याप्य धर्म है और ट्याग्यधर्मावच्छिन्न कार्य की उत्पत्ति में व्यापकधर्मायच्छिन्न कार्ष की उत्पादक सामग्री प्रयोजक होती है। अतः रूपत्वावच्छिन्न का कारण विजातीयाग्मिसंयोग वायु में न होने से उस में चित्ररुपोत्पत्ति का प्रसङ्ग न हो सकेगा। इस के अतिरिक्त एक और भो
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स्याक टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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कल्पना हो सकती है-जैसे तेजःसंयोगमात्र से जन्य विजातीय चित्ररूप में विजातीय तेजःसंयोग कारण है एवं पाक और रूप उभयजन्यविजातीयचित्र में पाक और रूप दोनों कारण है-अथवा तेजःसंयोगमात्रजन्य और पाकरूपोभयजन्य चित्र रूपों का रूपमात्रजन्यभिन्नत्वरूप से अनुगम कर जन दोनों के प्रति रूपमात्रजन्य से भिन्न चित्ररूप के प्रति विजातीय तेजःसंयोग कारण है । इसप्रकार उन दोनों रूपों के प्रति एक कारण को कल्पना की जा सकती है। क्योंकि फल के बल से वैजात्य की कल्पना हो सकती है।
यदि यह शंका की जाय कि- जैसे तेजासंयोगमात्रजन्य और पाकरूपोभयजन्य चित्ररूपों का रूपमात्रजभिन्नत्वरूप से अनुगम कर उन दोनों के प्रति यानी रूपमात्रजभिन्न के प्रति विजातीयतेज:संयोग में एक कारणता को कल्पना की जाती है, उसोप्रकार रूपमात्रजन्यविजातीयचित्र औ रूपोमयजन्य विजातीयचित्र इन दोनों का अग्निसंयोगमात्रजभिन्नत्यरूप से अनुगम कर उन दोनों के प्रति पानी अग्निसंयोगमात्रजभिन्न रूप के प्रति रूप कारण है यह कल्पना भी क्यों न की जाय ?'-तो यह शंका उचित नहीं है क्योंकि रूप में रूपत्वेन कारणता मानने पर नीलमात्रारब्धघट में भी चित्ररूप को आपत्ति होगी और नीलपीतेतररूपत्वाविना कारणता मानने पर पाक और रूप उभयजन्य चित्र में व्यभिचार होगा-जैसे, नोलकपालमात्रारम्धघट के एकभाग में पाक से नीलरूप का नाश होकर उस में पोसजनक अग्निसंयोग होने पर एक कपालगत नीलरूप और अन्यकपालगत पोतजनकाग्निसंयोग से घट में चित्ररूप की उत्पत्ति होती है किन्तु उस के पूर्व नीलेतररूप स्वाश्रयसमवेतत्त्वसम्बन्ध से घट में इ है। तथा यह आपत्ति यानी अग्निसंयोगमात्रजभिन्नचित्ररूप में रूपकारणता को आपत्ति चित्ररूप के प्रति नौलाभावादिषटकको कारणलाबादी के मत में होगी, क्योंकि पाक मोर रूप उभयजन्य चित्ररूप में नीलाभावादि षट्क को कारणता का व्यभिचार नहीं है।
नोलपीतेतररूपादि को चित्ररूप के प्रति कारणतावादी तो यह भी कह सकता है कि पाकमात्रजन्यचित्ररूप में कोई प्रमाण नहीं है क्योंकि जहाँ पाकमात्र से चित्ररूप की उत्पत्ति होने का अनुभव होता है वहाँ यह मानने में लाघव है कि पाक से अवयव में अनेक रूपोत्पत्ति के बाद ही अवयवो में चित्ररूपोत्पत्ति होती है । इस पर यदि यह शंका की जाय कि-' अवयवी में चित्ररूप का अनक जो पाक है उसको अवयव में नील पोताव का जनक मानने पर नीलपीतादि के जनकतावच्छेवक जाति में सांकर्य होगा क्योंकि चित्ररूप के अमनक नीलजनक प्रग्निसंयोग में नीलजनकतावच्छेदक जाति है किन्त पीतजनकतावच्छेधक माति नहीं है, ऐसे हो चित्रहप के प्रजनक पोतजनहानियोग में पीतजनकतावच्छेवक आति है किन्तु नीलमनकतावच्छेदक जाति नहीं है और वे दोनों जाति चित्रजनक अग्निसंयोग में विद्यमान है-" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि चित्रजनक पाक और नीलपीतादिजनक पाक भी विभिन्न है। अतः चित्र में नोलपीतेतरा विरूप को कारण मानने में कोई आपत्ति
किन्तु नव्य नैयायिक को मोर से कहा जा सकता है कि विचार करने पर अतिरिक्त चित्ररूपवावी का यह मत युक्तिसंगत प्रतीत नहीं होता । क्योंकि चित्ररूपोत्पत्तिस्थल में अवयवी में नीलादिरूप की उत्पादकसामग्री भी विद्यमान रहती है। अत: चित्रावयवी में नीलादि की उत्पत्ति की प्रापत्ति का वारण करने के लिये समवाय सम्बन्ध से नीलादि के प्रति नोलेतररूपादि स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रतिबन्धक है ऐसी कल्पना करनी पड़गी जिसमें गौरव होगा। [नयमत समाप्त ]
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शास्त्रवातात. ६ श्लो० ३७
तन्नेति संप्रदायानुसारिण:-अव्याप्यवृत्तिनीलादिकल्पन एव गौरवात् । तथाहिंअवच्छेदकतासंबन्धेन नीलादिकं प्रति समवायेन नीलेतररूपादीनां प्रतिबन्धकत्वं वाच्यम् , अन्यथा पीतावयवावच्छेदेन नीलोत्पत्तिप्रसङ्गात् । न च नीलस्य स्वाश्रयावच्छेदेन नीलजनकत्वस्वाभान्यादेव न तदापनिरिति वाच्यम् , विनताशप्रतिवध्यप्रतिबन्धकमावं तथास्वाभाज्या:निवादात् । ननु समवायेन नीलं जायत एव पीतावयवावच्छेदेनेत्यत्र चापादकाभाव इति चेत् १ न, समवायस्येवावच्छेदकताया अपि कारणनियम्यत्वात् । एवं च नीलादो नीलेतररूपादीनां, नीलेतररूपादौ वा नीलादीनां प्रतिवन्धकत्वे विनिगमकाभावः, मम तु नीलेतररूपादौ नीलादीनां न प्रतिबन्धकत्वम् , नील-पीतारब्धे पीतरूपत्त्रप्रसङ्गस्य बाधकरवात् ।
अथ ममापि नीलत्वादिकमेव प्रतिवध्यतावच्छेदकम् , न तु नीलेतररूपत्वादिकम् , गौरवात् । न च नीलत्वेन प्रतिबन्धकत्वम् न तु नीलेतरत्वेन, गौरवात , इत्येव कि न स्यात् ? इति वाच्यम् , प्रतिबन्धकतावच्छेदकगौर वस्याऽदोपस्यात् ।।
[ नव्यमतानुसार अध्याप्यवृत्तिरूप कल्पना में गौरव-प्राचीन मत ]
साम्प्रदायिक नैयायिकों का इस संदर्भ में कथन यह है कि अतिरिक्त चित्ररूप पक्ष में गौरव नहीं है, किन्तु अव्याप्यवत्ति नीलादिरूपों की उत्पत्तिपक्ष में होगौरव है। जैसे-इस पक्ष में अवच्छेचकता सम्बन्ध से नीलाविरूप के प्रति समवायसम्बन्ध से नोलेतररूप को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक है, अन्यथा पीतावयवावच्छेदेन भी अवयवो में नीलरूप की उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा।
यदि यह कहा जाय कि- "नील में स्वाश्रयावच्छेदेन ही नीलजनन का स्वभाव है। इसलिये पीतादिमाग में नीलोत्पत्ति का प्रसङ्ग नहीं हो सकता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रतिबध्य. प्रतिबन्धकभाव माने बिना नीलावि में उक्तस्वभाव की सिद्धि ही नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि- "नील समवायसम्बन्ध से उत्पन्न होता ही है किसु पीतभाग में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नोलोस्पत्ति का कोई आपादक न होने से पीतभाग में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलोत्पत्ति का प्रसङ्ग नहीं हो सकता"- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि समवाय जैसे कारण से नियम्य होता है उसी प्रकार प्रयच्छेइकता भी कारणनियम्य होती है अतः यह कहना कि 'नील समवाय से ही उत्पन्न होता है' उचित नहीं है क्योंकि अवच्छेदकता सम्बन्ध से नील को उत्पत्ति न मानने पर अवयवी में उत्पन्न होने वाले नोल रूप को नील अवयव में भी अवच्छेदकता न हो सकेगी । अतः इस स्थिति में जैसे अवच्छेदकतासम्बन्ध से नोलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलेतर रूपावि में प्रतिबन्धकता होती है उसोप्रकार, कोई विनिगमना न होने से अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलेतररूपादि के प्रति नीलादि में भी प्रतिबन्धकता सिद्ध होगी । इसलिये इस मत में दो प्रतिबध्य-प्रतिबन्धक भाव को कल्पना में गौरव है ।
चित्ररूपवादी के मत में यह गौरव नहीं हो सकता। क्योंकि उन के मत में समवाय से नोलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलरूपादि ही प्रतिबन्धक होगा । किन्तु समवाय से नीलेतररूपावि के प्रति स्वाश्रयसमवेतस्व समबन्ध से नीलादि को प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकता नहीं होगी, क्योंकि इस दूसरो प्रतिबन्धकता को मानने पर नोलापीतारन्ध घट में नोरूपस्य की
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स्था.क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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आपत्ति प्रसक्त होती है- यह इस प्रकार, नीलपोतारम्घ घट में चित्ररूपवादी के पक्ष में नोलादिरूप की उत्पत्ति तो होती ही नहीं है- होती है केवल चित्ररूप की उत्पत्ति, किन्तु उक्त प्रतिबन्धकता को मानने पर चित्ररूप नोलेतररूपत्वेन नील से प्रतिबध्य हो जाने के कारण न उत्पन्न हो सकेगा।
[ नव्यमत की ओर से गौरव का आपादान-पूर्वपक्ष ] मध्य नैयायिक :- साम्प्रदायिक नैयायिकों के मत में भी नीलत्वादि हो नीलेतररूपादि का प्रतिबध्यतावच्छेवक होगा, न कि नोलेतररूपत्वावि नीलादि का प्रतिबध्यतावच्छेदक । क्योंकि नीलस्वावि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने की अपेक्षा नौलेतरस्वादि को प्रतिबध्यतावच्छेदक मानने में गौरव है । इस पर यदि साम्प्रदायिकों को प्रोर से यह प्रश्न किया जाय कि नीलत्व को प्रतिबध्यताबच्छेवक मानने पर नोलेतरत्य को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानना होगा और नीलेतरत्व को प्रतिबध्यतावच्छेवक मानने पर नीलत्व प्रतिबन्धकताक्छेदक होगा अतः नीलस्व को प्रतिबन्धकतावच्छेदक मानने को अपेक्षा मोलेताच पो प्रतिक्षायाछेदका मानाने में गौरव होने से नीलेतररूपादि के प्रति नोलस्वेन प्रतिवन्धकता वाला पक्ष ही उचित है"-तो साम्प्रदायिकों की यह उक्ति ठोक नहीं है क्योंकि प्रतिबध्यतावच्छेदक का गौरव ही दोषरूप होता है, प्रतिबन्धकतावच्छेदक का गौरव दोषरूप नहीं, कारण जो प्रतिबध्यतावच्छेदक होता है वह प्रतिबन्धकाभाव का कार्यतावच्छेदक होता है। अतः प्रतिबन्धकामाधनिष्ठ कारणता जो कार्याऽव्यवहितप्रापक्षणावच्छेदेन कार्याधिकरणवृत्तिअभावप्रतियोगित्वाभाव रूप है उस के प्रतिबध्यतावच्छेवक कोदि में गुरुतरप्रतिबध्यतावच्छेवकरूप कार्यतावच्छेदक का प्रवेश करने से कारणता के शरीर में गौरव होगा, किन्तु प्रतिबन्धकतावच्छेदक के गुरु होने से प्रतिबन्धकतावच्छेदकावच्छिन्नाभावरूप प्रतिबन्धकामाध के गुरुतरशरीरक होने पर भी कारणता के शरीर में उस का प्रवेश न होने से कारणता के शरीर में लाघव होगा।
दूसरी बात यह है कि प्रतिबन्धकतावच्छेदकावच्छिन्नाभाव को गुरुशरीरक होने पर भी उसे तद्व्यक्तित्वरूप से कारण मानने में लाघव होगा । किन्तु प्रतिबध्यतावच्छेदक के गुरु होने पर कार्यकारणभाव में लाधव नहीं होगा क्योंकि प्रतिबन्धकप्रभाव का कार्यतावच्छेदक गुरु होगा।
अस्तु वाऽवच्छेदकतया नीलादों समवायेन नीलादीनामेव हेतुत्वम् । न च नानारूपवत्कपालारज्यघटनोलस्य तत्कपालावच्छेदेनोत्पत्तिप्रसङ्गः, केवलनीलत्वादिनैव तद्धतुत्वात् । समवायेन नीलादौ च स्वसमवाथिसमवेतत्वसम्बन्धन नीलादीनां हेतुन्वम् । व्याप्यसिनीलस्थलेऽव्याप्यवृत्तित्ववारणाय चावच्छेदकतया नीलादी स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमायित्वसंपन्धेन नीलेतररूपादीनां हेतुत्वम् , इत्यष्टादश कार्यकारणभावाः । चित्ररूपेऽप्येतावन्त एक, चित्ररूपे नीलेतररूपादिषट्कस्य, नीलादी नीलादिषट्कस्य हेतुत्वात् , नीलादौ नीलेतरादिषट्कस्य प्रतिबन्धकलाञ्चेति नाधिक्यम् ।
नव्य नैयायिक कहते हैं- अथवा अवयवी में उत्पन्न होने वाले प्रत्याप्यसिनीलादि की अवच्दछकतासम्बन्ध से पीतादि भाग में उत्पत्ति का परिहार करने के लिये अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलादि का कारण मान लेने से अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलावि के प्रति नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानने की आवश्यकता न होने से उक्त प्रतिवन्धकता की कल्पना
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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ इलो० ३७
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प्रयुक्त गौरव नहीं होगा। यदि इस पर यह शंका की आय कि 'नीलपीतादि अनेकरूपवान् कपालों से उत्पन्न होनेवाले घट में जो अध्याप्यवृत्ति नीलरूप उत्पन्न होता है उसको प्रवच्छेदकता सम्बन्ध से कपाल में उत्पत्ति का प्रसङ्ग होगा क्योंकि उसमें भी नीलरूप समवायसम्बन्ध से विद्यमान हैं"तो यह ठीक नहीं है- क्योंकि - अवच्छेदकता सम्बन्ध से नोलादि के प्रति केवल नीलादि अर्थात् नीलेतररूपाभावविविशिष्टनीलत्या विरूप से कारण मान लेने पर उक्त दोष नहीं हो सकता । इस प्रकार अवच्छेदकतासम्बन्ध से नोलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से केवल नीलत्वादिरूप से छः कार्यकरणभाव सिद्ध होते हैं । इसी प्रकार नोलादिकपाल से अनारब्ध घट में समवायसम्बन्ध से नीलादि की उत्पत्ति की आपत्ति का परिहार करने के लिये समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतश्व सम्बन्ध से नीलादि को भी कारण मानना होगा। इसप्रकार ये कार्यकारणभाव भी छः होगा । एवं नीलादिकपालमात्र से आरब्ध घट में उत्पन्न होने वाले मील की उस घट के अवयवों में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति की आपत्ति रूप अव्याप्यवृत्तित्व का वारण करने के लिए अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतद्वव्य समवायित्वसम्बन्ध से नोलेतररूपादि को कारण मानना होगा। ये भी छः कार्यकारणभाव हुए। इस प्रकार अव्याप्यवृत्ति नीलादि के उत्पत्ति पक्ष में १६ कार्यकारणभाव हुये । जब चित्ररूपवाद में देखिये
चित्ररूपपक्ष में भी इतने हो कार्यकारणभाव होंगे जैसे चित्ररूप में नोलेतर रूपादि के छः कार्यकारणभाव तथा समवाय से नोलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलादि के छः कार्यकारणभाव । तथा समवाय से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलेतरादि के प्रतिबन्धक होने से समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादिरूपामात्र के छः कार्यकारणभाव हुये । इस प्रकार अव्याप्यवृत्तिनीलरूपादि की उत्पत्ति पक्ष में तथा अतिरिक्त चित्ररूप को उत्पत्ति पक्ष में कार्यकारणभाव की संख्या में साम्य होने से अतिरिक्त चित्ररूप की कल्पना में गौरव का उद्भावन असंगत है । यद्यपि ऐसा कह सकते हैं, तथापि —
वस्तुतोऽवच्छेदकतया नीलादावुक्त संवन्धेन नीलेतररूपविशिष्टनीलत्वादिनैव हेतुत्वम् । न च नीलेतर वाद्यवच्छिन्नं प्रति नीलविशिष्टनीलेतरत्वादिना हेतुत्वे विनिगमकाभावः, नीलत्वापेक्षया नीलेतरत्वस्य गुरुत्वात् । एतेन 'उक्तसंबन्धेन नीलेतरादेनलादिकं प्रति हेतुत्वम्, नीलादीनां नीलेतरादिकं प्रति वा इति विनिगमनाविरहाद् द्वादश कार्यकारणभावापत्तिः' इत्यपास्तम् । इत्थं चातिनिष्कपदस्माकं द्वादशैव कार्यकारणभावाः, तव त्वष्टादशेति चेत् । न, ममापि नीलाड़ी नीलेतर रादिप्रतिबन्धकत्वेनैव शुक्लावयवमात्रारब्धे नीलाद्यनुत्पत्तिनिर्वाहात्, नीलादौ नीलादिहेतुत्वाऽकल्पनात् कार्यकारणभावसंख्यासा म्यात्, अव्याप्यवृत्तिनानारूपतत्यागभावध्वंसादिकल्पना गौरवस्य च तवाधिकत्वात् ।
[ अन्ततः अन्याप्यवृत्ति नीलादि पक्ष में लाघव-पूर्वेप चालु ]
इस पर अव्याप्यवृत्तिनोलादिवादी का कथन यह है कि इस मत में अवच्देवकतासम्बध से नीलादि के प्रति समवाय से नीलादि की कारणता है और श्रवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवाथिसमवेत द्रव्यसमवायित्वसम्बन्ध से नीलेतररूपादि की काररता है इन दोनों का परित्याग
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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
कर उनके स्थान में प्रवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रतिस्वसमदायिसमवेतद्रव्यसमयायित्वघटित सामानाधिकरण्यसम्बन्ध से नीलेतररूपविशिष्ट नीलस्वादिरूपेण एक ही कारणता माननी योग्य है। इसके विरुद्ध यह विनिगमनाऽभाव का उद्भावन किया जाय कि-नीलेतरत्वाधवच्छिन्न के प्रति उक्त सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से नीलबिशिष्ट नीलेतरत्वादिरूप से कारणता को लेकर विनिगमनाविरह होगा-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नौलत्व की अपेक्षा नोलेतरत्व गुरुभूत धर्म है, अतः यह कारणता स्वीकार्य नहीं हो सकती।
यदि यह कहा जाय कि-"व्याप्यतिनीलस्थल में नीलरूप के अध्याप्यवृत्तित्व का वारण करने के लिये, अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेत ध्यसमधायित्व सम्बन्ध से नीलेतर रूपादि कारण है यह मान-अथवा अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलेतरादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायित्व सम्बन्ध से नीलादि को कारणता है यह मानें-इन दो पक्ष में विनिगमनान होने से दोनों को मानना पड़ेगा तो व्याप्यवृत्ति नील के अध्याप्यवृत्तित्व वारक कार्यकारणभाव बारह हो जायेंगे। अत: अश्याप्यवत्ति नीलादिवादी के मत में २४ कार्यकारणभाव की आपत्ति होगी"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि नीलस्वादि की अपेक्षा नौलेतरत्वादि गुरु होने से नीलादि के प्रति नीलेतर - रूपादि की कारणता ही मान्य होगी। तथा उक्त रोति से प्रथम और तृतीय कार्यकारणमाव के स्थान में एक हो कार्यकारणभाव मान लेने से अव्याप्यवत्तिनीलादिषादी के मत में केवल १२ ही कार्य कारण भाव होगा, किन्तु चित्ररूपवादो मत में उक्त १८ कार्यकारणभाव आवश्यक होने से उस मत में गौरव अपरिहार्य है।
[गौरव के विरुद्ध साम्प्रदायिक चित्ररूपवादी का उत्तरपक्ष ] इस पर चित्ररूपवादी का यह कहना है कि चित्ररूपपक्ष में चित्रपट में नीलादि की उत्पत्ति का परिहार करने के लिये समवाय से नीलादि के प्रति स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरावि की प्रतिबन्धकता मानी जाती है उसी से शुक्लअवयव मात्र से आरब्ध अवयवी में नीलादि उत्पत्ति की आपत्ति का भो परिहार हो जायगा । अतः समयाय से नीलादि के प्रति स्वाधयसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलादि को कारण मानने की आवश्यकता नहीं होगी। अतः चित्ररूपवादी के मत में भी कार्यकारणभाव की संख्या समान हो जायगी । प्रतः चित्ररूपबादी के पक्ष में कार्यकारणभाव कल्पना के आधिक्य का गौरव नहीं दिया जा सकता, बल्कि अव्याप्यवृत्ति नीलादि की उत्पत्ति पक्ष में बहुत गौरव होगाजैसे, नानारूपवान् प्रवयवों से आरब्ध अवयवी में अव्याप्यवृत्ति नानारूप और उस के प्रागभाव एवं ध्वंस आदि की कल्पना में अत्यधिक गौरव है अत: नानारूपवत अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी द्रव्य में अव्याप्यवृत्ति नानारूप की उत्पत्ति मानने की अपेक्षा उस में एक अतिरिक्त चित्ररूप की उत्पत्ति मानने का पक्ष ही युक्तिसंगत है।
किश्च, अव्याप्यवृत्तिरूपपक्षेऽवछेदकतासंबन्धेन रूपे उत्पन्न पुनस्तेनैव संबन्धेनास्यवे रूपोत्पत्तिवारणायावच्छेदकतासंबन्धेन रूपं प्रत्यवच्छेदकतासंबन्धेन रूपं प्रतिबन्धक कल्पनीयमिति गौरवम् । न चाश्ययिनि समवायेनोत्पधमानमेवावयवेऽवच्छेदक्तयोत्पत्तुमर्हतीत्यवयदिनि रूपस्य प्रतिबन्धकस्य सच्चेन रूपसामग्रथभावादेव नावयवेऽवच्छेदकतया तदा रूपोत्पत्यापत्तिरिति वाच्यम्, एवं वयविनिष्टरूपाभावोत्रच्छेदकतासंबन्धेन रूपं प्रति हेतुर्वाच्यः, तथा च
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[ शास्त्रवा० स्त० ६ लो० ३७
नानारूपवत्कपालारब्धघटस्य नीलरूपादेनीलकपालिकावच्छेदेनानुत्पत्तिप्रसङ्गात्, तदद्वयविनि कपाले रूपसत्त्वात् । अपि च, नीलपीतवत्यग्निसंयोगात्, कपालनीलनाशात् तदवच्छेदेन रक्त न स्यात्, समत्रायेन रूपं प्रति तेन रूपस्य प्रतिबन्धकल्वान, तद्वछिन्नरूपे तदवच्छिन्नरूपस्य प्रतिवन्धकत्वकल्पने चातिगौरवम् ।
[अव्याप्यवृत्तिरूप बादो नव्यमत में विशेष गौरव ] रूप के प्रव्याप्यवृत्तित्व पक्ष में प्रयच्छदकतासम्बन्ध से रूप उत्पन्न हो जाने के बाद पुनः उसी सम्बन्ध से अवयव में रूप की उत्पत्ति का धारण करने के लिये अवच्छेदकतासम्बन्ध से रूप के प्रति अबछेदकता सम्बन्ध से रूप को प्रतिबन्धक मानना ही होगा अतः रूप के प्रव्याप्यवृत्तित्व पक्ष में प्रतिबन्धकता को इस कल्पना का गौरव है । यदि यह कहा जाय कि-"जो रूप अवयवी में समयायसम्बन्ध से उत्पन्न होता है, वही अवयव में अवच्छेदकता सम्बन्ध से उत्पन्न होता है । अतः अवयवी में समवाय से रूपोत्पादकसामग्नी अवयव में अवच्छेदकप्ता सम्बन्ध से रूपोत्पत्ति में अपेक्षित होती है। इसलिए अवयवोगतरूप जब अवच्छेदकता सम्बन्ध से अवयव में उत्पन्न हो जाता है तब उस समय अवयवी में समवाय से रूपोत्पादक सामग्री नहीं रहती, क्योंकि समवाय से रूप के प्रति समवाय से रूप की प्रतिबन्धकता वरुप्त है। अत: उक्त सामग्री के अभाव से ही अवयव में अवच्छेदकता सम्बन्ध से रूपोत्पत्ति की आपत्ति नहीं हो सकती। अतःप्रवच्छेश्कता सम्बन्ध से रूप के प्रति अवच्छेवकतासंबन्ध से रूप को पथक प्रतिबन्धक मानने को प्रावश्यकता न होने से उक्त गौरव नहीं हो सकता ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अवयविनिष्ठरूप को प्रतिबन्धक मानने पर अवयविनिष्ठरूपाभाव को भी अवच्छेवकता सम्बन्ध से रूप के प्रति कारण मानना होगा। फलतः नोल-पीत कपाल द्वय से उत्पन्न घट में नीलकपालिकावच्छेदेन नोलरूप की अनुत्पत्ति का प्रसंग होगा, क्योंकि नीलकपालिका के अवयवी कपाल में रूप विद्यमान रहता है । इसके अतिरिक्त दूसरा दोष यह है कि नील-पीत उभयरूपवान् घट में अग्निसंयोग से कपाल के नील का नाश होने पर तत्कपालावच्छेदेन घर में रक्तरूप की उत्पत्ति न हो सकेगी क्योंकि समवाय से रूप के प्रति समवाय से रूप प्रतिबन्धक होता है, अतः उक्त घट में पोतकपालावच्छेवेन पीतरूप रहने से समवाय से रूप की उत्पत्ति कैसे हो सकती है ? यदि इस आपत्ति के परिहार के लिये तक्वच्छिन्न रूप के प्रति तवच्छिन्नरूप को प्रतिबन्धक माना जायगा तो प्रतिबध्यप्रतिबन्धकभाव की अवच्छेदक कुक्षि में प्रवच्छेदक विशेष का निवेश करने से अवच्छेदकभेद से प्रतिबध्य-प्रतिवन्धक भाव बाहुल्य प्रयुक्त महान् गौरव होगा।
अथावच्छिन्नानीलादौ नीलाभावादिषदकमवयवगतमव यविंगतं च हेतुः, रक्तनीलारब्धे रक्तनाशकपाकंन व्याप्यतिनीलोत्पत्तिदशायां चावयविनि न नीलाभावः, इति न तत्रावच्छिन्ननीलोत्पत्तिः नीलमात्रारब्धे पाकन क्वचिद्रक्तरूपोत्पत्तौ च प्राक्तननीलनाशादेवायच्छिन्ननीलोत्पत्तिरिति चेत् ? म, नील-पीत-श्वेताद्याब्धे श्वेताद्यवच्छेदेन नीलजनकपाके सति प्राक्तननीलनाशेन तत्तदवच्छिन्ननानानीलकल्पनापेक्षयकचित्रकल्पनाया एव लघुत्वात् ।
___ अथ व्याप्यवृत्तिरूपस्याप्यवच्छेदकस्वीकारादवच्छेदकतया नीलादिकं प्रत्येव समवायेन नीलादेहेतुत्वम् । न चैवं घटेऽपि तया नीलाधापत्तिः, अवयवनीलत्वेन द्रव्यविशिष्टनीलत्वेन
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स्था०क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
वा तद्धेतुत्वात् । न च नीलमात्र-पीतमात्रकपालिकाद्वयारब्धनीलपीतकपाले तदापत्तिः, नीलकपालिकावच्छिन्नतदवच्छेदेन तदुत्पत्तेरिष्टत्वात् । अस्तु वा सया नीलादौ नीलेतररूपादेरेव विरोधित्वमिति चेत् ? न, नीलाद नीलेतररूपादिप्रतिबन्धकतयैवोपपत्ती तत्र नीलादिहेतुतायां मानाभावेन नानारूपवदवयवारब्धे चित्ररूपस्यैव प्रामाणिकत्वात् , व्याप्यवृत्तेरवच्छेदकायोगाव, नीलेतरादौ नीलादेः प्रतिबन्धकस्वेऽविनिगमाच्च ।
[ अवच्छेदकतासम्बन्ध से पुनः रूपोत्पत्ति के वारपा की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि- 'अवच्छिन्नता सम्बन्ध से उत्पन्न रूप को अवच्छिन्नता सम्बन्ध से पुन: उत्पत्ति का वारण करने के लिये उक्त प्रतिवध्यप्रतिबन्धकभाव न मान कर यह कार्यकारणभाव मानना उचित है कि प्रवच्छिन्न नील को उत्पति में प्रवयव और अवयवो में निरवच्छिन्नविशेषणतासम्बन्ध से नालाभाय कारण है। एवं इसीप्रकार अवच्छिन्नपीतादि की उत्पत्ति में प्रवयवो में और अवयव में पीतादि का अभाव कारण है तो उक्त आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि अवच्छिन्नतासम्बन्ध से पुनः उत्पत्ति होगी तो वह अवच्छिन्न नील की उत्पत्ति हो होगी और अवच्छिन्ननोल को उत्पत्ति में अवयवावयवी में नीलाभाव अपेक्षित है किन्तु अवच्छिन्नता सम्बन्ध से उत्पन्न नील के अवयवी में नीलाभाव नहीं रहता । एवं रक्त और नील कपाल से आरब्ध घट में रसनाशक अग्निसंयोग होने पर व्याप्य वृत्तिनील की उत्पत्ति होती है, अवच्छिन्न नील को उत्पत्ति नहीं होती ।क्योंकि अवयवी में नीलाभाव नहीं रहता । एवं नीलकपालमात्र से उत्पन्न घट में पाक से एक कपाल में रक्तरूप को उत्पत्ति होने पर उस घट में अधपिछन नील की उत्पत्ति होती है। प्रतः उस के पूर्व प्राक्तन नील का नाश मानना आवश्यक होता है अन्यथा अवयवी में नीलाभाव न रहने पर अवच्छिन्ननील को उत्पत्ति नहीं होतो'
[एक चित्ररूप पक्ष में ही लाघच ] तो यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि नौलपीत और श्वेत कपाल से उत्पन्न घट में श्वेतकपाल में नीलजनक पाक होने पर उस घट में एक कपाल के पीत होने से व्याप्यवृत्ति नील की उत्पति नहीं मानी जा सकती और अवच्छिन्न नौल की उत्पत्ति भी तब तक नहीं हो सकती जब तक पूर्व नील का नाश न माना जाय । क्योंकि पूर्वनोल के रहते हुये अवयवो में निरवच्छिन्ननीलाभावस्वरूप कारण का संनिधान न होगा । अतः पूर्वनोल का नाश होकर नीलकपालावच्छेदेन तथा पाक से नीलीभूत श्वेतकपालावच्छेदेन, नील की उत्पत्ति माननी होगी-तो इस प्रकार विभिन्नकपालावच्छेदेन विभिन्ननोलरूप को कल्पना करने की अपेक्षा एक चित्ररूप की उत्पत्ति मानने में लाघव है।
[व्याप्यवृत्तिरूप में सावच्छिन्नत्व की आशंका ] यदि यह कहा जाय कि-"स्याप्यवत्तिरूप का भी प्रवच्छेदक होता है, इसलिये अवच्छेवकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय से नीलादि कारण होता है। यहां यह नहीं कह सकते कि-'ऐसा कार्यकारणभाव मानने पर घट में उत्पन्न होनेवाले नीलरूप की घट में भी प्रवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति को आपत्ति होगी, क्योंकि अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय से अवयवनीलत्वेन, अथवा स्वसमधायिसमवेतत्व सम्बन्ध से द्रव्यविशिष्टनीलत्वेन नील को कारण मानने से वह दोष नहीं
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[ शास्त्रवा० स्त. लो०३७
लग सकता । यदि यह कहें कि-'नोलमात्र और पीतमात्र रूप से विशिष्ट कपालिकाहय से जो नीलपीत कपाल उत्पन्न होता है उसमें अवच्छेदकतासम्बन्ध से तत्कपालगतनोलरूप की आपत्ति होगी। क्योंकि-तत्कपालगतरूप अवयवरूप होने से कारण हो सकता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकिनील-कपालिकाविशिष्ट तत्कपालाबच्छेदेन तस्कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से तत्कपालगतनोलरूप की उत्पत्ति इष्ट है। यदि कहें तरकपालगतनोलरूप में नीलकपालिकाविशिष्ट तत्कपालावच्छेद्यत्व अनुभवविरुद्ध है तो अवच्छेदकतासम्बन्ध से नोलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलेतररूपादि को विरोधी मानकर उक्त प्रापत्ति का परिहार हो सकता है।"
[ व्याप्यवृत्ति रूप में सावच्छिन्नत्य की आशंका का परिहार ] किन्तु विचार करने पर व्याप्यवत्तिरूप के अवच्छेदक का प्रम्युपगम कर प्रयच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवाय से नीलादि को कारण मानना उचित नहीं प्रतीत होता। क्योंकि जब उक्त नोलपीतकपाल में अवच्छेवकता सम्बन्ध से तत्कपालगतरूप को उत्पत्ति की आपत्ति का परिहार करने के लिये प्रयच्छेदकता सम्बन्ध से नोलादि में समवाय से नीलेतररूपादि को प्रतिबन्धक मानना आवश्यक ही है तब अवच्छेदकतासम्बन्ध से नीलाव के प्रति समवाय से नीलादि को कारण मानने में कोई प्रमाण नहीं बच जाता ।
इस पर यदि यह कहें कि-'उक्त कार्यकारणभाव न मानने पर नीलपीतकपाल से उत्पन्न घट में उत्पन्न होने वाले नीलरूप की नीलकपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति न हो सकेगी क्योंकि प्रबच्छेदकत्तासम्बन्ध से नीलरूप का कोई कारण नहीं है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि नीलपोतकपालारब्ध घट में नील-पोत दो रूपों की उत्पत्ति मानते की अपेक्षा लाघव से एक चित्ररूप की उत्पत्ति मानना हो प्रामाणिक है तथा व्याप्यवत्ति का अवच्छेदक होने में कोई यक्ति न होने से नीलकपालमात्र से
न होने वाले घटनिष्ठ नीलरूप की भी नीलकपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति के अनुरोध से उक्त कार्यकारणभाव नहीं माना जा सकता और अब अवच्छेवकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति कोई कारण नहीं है, तब प्रयच्छेदकतासम्बन्ध से नीलादि के प्रति नोलेतररूपादि को प्रतिबन्धक मानने को भी आवश्यकता नहीं है । यदि च व्याय्यवृत्ति का अवच्छेदक मान कर अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति समन सम्बन्ध से नीलादि की कारणता मानी जायगी और नीलमात्र एवं पीतमात्र कपालिकादय से उत्पन्न नीलपीतकपाल में अवच्छेदकता सम्बन्ध से नीलोत्पत्ति का परिहार करने के लिये समवाय से नीलेतर रूप को प्रतिबन्ध माना जायगा तो अवच्छेदकता सम्बन्ध से नोलेतरादिरूप के प्रति समवायसम्बन्ध से नीलादि को प्रतिबन्धकता के साथ विनिगमनाविरह होगा। अत: उचित यही है कि व्याप्यवृत्ति का अवच्छदक न माना जाय और नीलपीतादि कपालों से उत्पन्न घट में नोलपोतादि की उत्पत्ति न मान कर एक चित्ररूप की ही उत्पत्ति मानी जाय । और अवच्छेवकता सम्बन्ध से नीलादि के प्रति समवायसम्बन्ध से नीनादि की कारणता का परित्याग कर दिया जाय ।
__ यदि च स्वाश्रयसंबन्धेन नीलं प्रति स्वव्यापकसमवायेन नीलरूपं हेतुरुपेयते, नीलपीताद्यारब्धस्थले च स्वाश्रयसंबन्धेन नीलरूपस्य पीतकपालेऽपि संभवेन व्यभिचाराद् रक्तसंबन्धेन हेल्वभावादेव न तत्र नीलोत्पत्तिरिति विभाव्यते, तदा नीलं प्रति नौलेतररूपादेः प्रतिबन्धकरवं चित्ररूपवादिना न कल्पनीयमित्यतिलाघवम् । एवं च 'सामानाधिकरण्यसंबन्धाऽवच्छिमप्रति
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स्या० के० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
योगिताको नीलेतराऽभावः समानावच्छेदकत्वप्रत्यासच्या नीलहेतु:' इत्यपि निरस्तम्, सामानाधिकरण्यस्य व्याप्यवृत्तित्वाच' इत्याहुः |
[ 'प्रतिबन्धकता की कल्पना न करने से लाघव' - चित्ररूपवादी ]
इस पर यदि यह शंका की जाय कि नीलपीतादि कपालों से उत्पन्न घट में चित्ररूप की उत्पत्ति मानने पर नीलपीतादि रूप की उत्पत्ति को भी आपत्ति होगी क्योंकि समवाय सम्बन्ध से नीलपीतादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलपीतादि कारण होता है। अतः इस आपत्ति का परिहार करने के लिये समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादिरूप को प्रतिबन्धक मानना होगा और विनिगमनाविरह से समवाय से नीलेतरादि के प्रति स्वसमवाथिसमवेतत्व सम्बन्ध से नोलमंद को भी प्रतिबन्धक मानना पड़ेगा ।'
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तो इस का उत्तर यह है कि नीलनादिरूप जब समवाय से उत्पन्न होता है तब वह स्वाथ्यसम्बन्ध से अपने श्राश्रयभूतवच्य के अवयव में भी उत्पन्न होता है, जैसे, नीलकपाल मात्र से उत्पन्न घट में अब समवाय से नीलरूप उत्पन्न होता है तब यह स्वाभय सम्बन्ध से नीलकपाल में भी उत्पन्न होता है | अतः समवाय से नीलरूप की उत्पत्ति में, स्वाधय सम्बन्ध से नील के प्रति स्वव्यापक समवाय अर्थात् स्व है व्यापक जिस का ऐसा समवाय यानी स्वविशिष्ट समवाय सम्बन्ध से कारणभूत नील रूप का भी संनिधान अपेक्षित होता है । फलतः नीलपोतकपाल से प्रारब्ध होने वाले घट में समवायसम्बन्ध से नीलरूप को उत्पत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि यदि उस घट में नीलरूप उत्पन्न होगा तो स्वाश्रय सम्बन्ध से नीलरूप के प्रति स्थविशिष्ट समवायसम्बन्ध से नीलरूप की कारणता में व्यभिचार हो जायगा क्योंकि नीलपीतारब्ध घटनिष्ठ नोलरूप स्वाधयसम्बन्ध से पीत कपाल में भी रहेगा किन्तु उस में स्वव्यापकसमवाय से नीलरूप नहीं रहता । अ: उक्त स्थल में स्वाश्रपसम्बन्ध से नीलरूप के उत्पादक नीलरूप का अभाव होने से समवाय से नीलपीतारब्ध घट में नीलरूप की उत्पत्ति का प्रसंग नहीं हो सकता। इसलिये चित्ररूपवादी के मत में समवायसम्बन्ध से नीलादि के प्रति स्वसमaf समवेतत्व सम्बन्ध से नीलेतरादिरूप को प्रतिबन्धक मानने की भी आवश्यकता न होने से चित्ररूपवाद में महान् लाघव है ।
[ व्याप्यवृत्ति पदार्थ निरवच्छिन्न होता है ]
कुछ लोग नीलपीतारब्ध घट में उत्पन्न होनेवाले नीलरूप की पीत कपाल में अवच्छेदकतासम्बन्ध से उत्पत्ति का परिहार करने के लिये प्रवच्छेदकता सम्बन्ध ले नील के प्रति सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलाभाव को अवच्छेदकता सम्बन्ध 'कारण मानते हैं । नीलपीत कपाल से उत्पन्न होने वाले घट में नीलरूप में नीलेतर रूपाभाव का सामानाधिकरण्य नील कपालावच्छेदेन होता है, पोतकपालावच्छेदेन नहीं होता है । श्रत एव उक्त घटगत नीलरूप में जो नौलेतररूप का सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक अभाव, उस की श्रचच्छेदकता पोत here में न होकर नीलकपाल में हो होती है, अतएव उक्त घट में नोलकपालावच्छेदेन नील की उत्पत्ति होती है, पोतकपालावच्छेदेन नहीं होती है । किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि सामानाधिकरभ्यव्याप्यवृत्ति होता है, अत एव सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छ्रित प्रतियोगिताक नीलेतराभाव भी व्याप्यवृत्ति ही होगा और व्याप्यवृत्ति का अवच्छेदक होने में कोई प्रमाण नहीं है, प्रतः
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[ शास्त्रमा स्त० ६ श्लो० ३७
सामानाधिकरण्यसम्बन्धावच्छिन्नप्रतियोगिताक नीलेतराभाव को अवच्छेदकता सम्बन्ध से कारण मानना असम्भव है।
केचित्त-विजातीयचित्रं प्रति स्वविजातीयत्व-स्वसंघलितत्वोभयसंवन्धेन रूपविशिष्टरूपत्वेनैव हेतुत्वम् । स्वजात्यं च चित्रत्वातिरिक्त यत्स्ववृत्ति तद्धिन्वधर्मसमवायित्वम् । स्वसंवलिंतत्वं च स्वसमवायिसमवेतद्रव्यसमवायिवृत्तित्वम् । न च स्वत्वाननुगमः, संवन्धमध्ये तत्प्रवेशान्' इत्याहुः ।
[विजातीय चित्र के प्रति रूपकारणता में विशेष मत ] कुछ लोगों का कहना है कि, विजातीयचित्र अर्थात् रूपमात्रजन्य चित्र के प्रति स्वविजातीयत्वस्वसंवलितत्व उभयसम्बन्ध से रूपविशिष्ट रूप कारण है । इन सम्बन्धों में 'स्वविजातीयत्व' का अर्थ है चित्रवभिन्न स्ववृत्ति धर्मों से भिन्न धर्म का समवायसम्बन्ध से आश्रयत्व, और दूसरे स्वसंवलितत्व' सम्बन्ध का अर्थ है स्व के समवायसम्बन्ध से आश्रय में समवाय सम्बन्ध से रहने वाले द्रव्य का जो समवाय सम्बन्ध से पाश्चय, उस में वृत्तित्व । जैसे यदि किसी घट की उत्पत्ति नील और पोत कपाल से होती है तो उस घट में विजातीयचित्र की उत्पत्ति होती है । क्योंकि, कपालगत पीतरूप कपालगतनीलरूप से विशिष्ट हो जाता है। जैसे स्वपद से कपालगत नीलरूप, उस में वृत्ति चित्रवभिन्न धर्म नीलत्व-रूपत्व आदि । उससे भिन्न पीतत्व रूप धर्म का समवाय से आश्रयत्व अन्य कपालगत पीतरूप में है। इसी प्रकार दूसरे सम्बन्ध में स्व का अर्थ है-कपालगतनीलरूप, उसका समवाय से आश्रय नौलकपाल, उसमें समवाय से रहने वाला द्रव्य घट, उसका समवाय से आश्रय पोतकपाल. उसमें पीतत्व वत्ति है। इस प्रकार उक्त दोनों सम्बन्धों से रूपविशिष्टरूप स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से घर में विद्यमान है। अतः इस घर में रूपमात्रजन्य विजातीय चित्ररूप को उत्पत्ति निधि है । इस में यदि यह शंका की जाय कि-"स्वत्व प्रतिव्यक्ति वृत्ति होने के कारण अननुगत होता है अतः उक्त सम्बन्धों में विजातीय चित्र को उत्पत्ति न हो सकेगी।"-तो इस शंका के उत्तर में यह कहा जा सकता है कि स्वत्व का प्रवेश प्रकार या विशेष्य वल में करने पर हो अननुगम दोष होता है किन्तु प्रकृति में स्वत्व का प्रवेश सम्बन्ध के शरीर में है अतः अननुगम दोष नहीं हो सकता क्योंकि सम्बन्ध के शरीर में स्वत्व का प्रवेश केवल परिचायफरूप में होता है, विशेषणरूप में नहीं होता, कारण यह फि सम्बन्ध द्वारा जिसका वंशिष्ट्य विविक्षित होगा वही सम्बन्ध के पूर्वभाग से स्वभावतः जुटता है।
परे तु-नीलपीतोभयाभाव-पीतरक्तोभयाभावादीनां स्वसमयायिसमवेतत्वसंबन्धावच्छिनप्रतियोगिकाना, समवायावच्छिन्नप्रतियोगिताकानां च विजातीयविजातीयपाकोभयाभावादीनां यावचावच्छिन्नप्रतियोगि । ताक एकोऽभावश्चित्रत्वावच्छिन्नं प्रति हेतुः' इत्याहुः ।
[चित्ररूप के प्रति अभाव कारणतावादी विद्वानों का मत ] अन्य विद्वानों का कहना है कि-नीलपीत एवं पीत रक्त आदि स्वसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से जिस में रहते हैं उसमें चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार जिस में विजातीयरूप जनक
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स्या० का टीका एवं हिन्वी विवेचन ]
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विजातोयपाक समवाय सम्बन्ध से रहता है अथवा विजातीयरूप और विजातीयरूपान्तरजनकपाक समवायसम्बन्ध से रहता है उसमें भी चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। जैसे नोलक्रपालद्वय से उत्पन्न घट में विभिन्न अवयवावच्छेदेन विजातीयप द्वय का जनकपाक होने पर रक्त घट की उत्पत्ति होती है। इसी प्रकार नीलकपालवृयजन्य घट में किसी एक कपाल अवच्छेदेन विजातोयरूप जनक पाक का संनिधान होने पर भी चित्ररूप की उत्पत्ति होती है। इन सब स्थिति के संग्रह के लिये स्वसमवापिसमवेतत्व सम्बन्ध से नोलपीतोभयामाव, पोतरक्तोभयाभाव आदि अभाव, एवं समवायसम्बन्धावच्छिन्न प्रतियोगिताक विजातीयविजातीयपाकोभयाभाव, इन सब अभावों का जो स्वरूपसम्बन्ध से यावत्त्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक अभाव, वही एक प्रभाव सर्वत्र चित्रत्वावच्छिन्न के प्रति कारण है। इसका प्राशय यह है कि जहां ये समस्त प्रभाव होंगे यहाँ यावतअभाव का अभाव न होने से कारण का बाघ होने से चित्ररूप को उत्पत्ति न होगी। जहाँ इन प्रभावों में कोई एक अभाव न होगा जैसे नीलपीतकपाल से घटोत्पत्तिस्थल में घट में स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से नील-पोतोभयाभाव नहीं होता अतः वहाँ उक्त सभी अभावों का यावत्वावच्छिन्न प्रतियोगिताक प्रभाव होने से चित्ररूप की उत्पत्ति होने में कोई बाधा नहीं होती।
'रूपत्वेनैव चित्रं प्रति हेतुत्वम् , कार्यसहभावेन चित्रेतराभावस्य हेतुत्वेनानतिप्रसङ्गान्' इत्यन्ये । परे तु-'चित्रत्यावच्छिन्ने रूपत्वेनैव हेतुत्वम् , नील-पीतोभयारब्धवृत्तिचित्रत्वाचान्तरवलक्षण्यावच्छिन्ने च नीलरवेन पीतत्वेन च हेतुता, एवं त्रितयारब्धे तस्त्रितयत्वेन, नीलपीतोभयादिमात्रारब्धे च नील-पीतान्यतरादीतररूपत्वेन प्रतिबन्धकत्वाद् न त्रितयारब्धचित्रवति द्वितयारब्धचित्रप्रसङ्गः । न चैवं गौरवम् , प्रामाणिकत्वात् । वस्तुतः समवायेन द्वितयचित्रादों स्वाधिकरणपर्याप्तवृत्तिकत्वसंबन्धेनेव द्वितयादीनां हेतुत्वम् , नातः प्रागुक्तप्रतिवन्धकत्वकल्पनागौरवम्' इत्याहुः ।
[चित्रेतररूपामावकारणतावादी मतविशेष ] दूसरे विद्वानों का मत है कि समवाय से चित्र के प्रति स्वसमवायिसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपत्वेन रूपसामान्य ही कारण है। ऐसा कार्यकारणभाव मानने पर नीलकपालद्वय से उत्पन्न घट में नीलरूप के साथ चित्ररूप की उत्पत्ति को आशंका नहीं की जा सकती क्योंकि चित्ररूप के प्रति चित्रेतररूपाभाव भी कार्यसहभावेन कारण है । नीलकपालद्वयारब्ध घट में चित्रोत्पत्ति के आपति-क्षण में बत्रेतर नीलरूप विद्यमान होने से चित्रेतराभाव रूप कारण के अभाव से चित्रोत्पति का प्रतिप्रसङ्ग नहीं हो सकता।
[भिन्न-भिन्न चित्ररूप की विभिन्न कारणतावादी अन्य मत ] प्रत्य विद्वानों का मत है कि-यह ठीक है कि चित्रसामान्य के प्रति रूपत्वेन रूपसामान्य कारण है किन्तु सभी चित्र समान नहीं होता। जैसे नीलपोतकपाल से उत्पन्न घट के चित्रत्व में और रक्तश्वेत कपाल से उत्पन्न घट के चित्रत्व में एवं नीलपोतरक्तश्वेतादिकपाल से उत्पन्न घट के चित्रत्व में वैलक्षण्य लोकानुभवसिद्ध है। अतः नीलपोतोभयारब्धघरवृत्ति चित्रत्वव्याप्यधित्रत्वावच्छिन्न के प्रति नील और पीतरूप को नीलत्वेन-पीतत्वेन कारणता है। एवं नीलपीतरक्तत्रितय से आरब्धघट में
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो. ३७
चित्रत्वच्याप्यचित्रत्वावच्छिन्न के प्रति नीलपीतरक्त को नीलत्व-पीतत्व-रक्तत्व रूप से पृथक्-पृथक कारणता है । प्रश्न हो सकता है कि नोल-पीत-रक्त त्रितयारब्ध घट में नोल-पीत उभय से उत्पन्न होने वाला चित्ररूप भी क्यों नहीं उत्पन्न होता है ? तो इसका उत्तर यह है कि नीलपीतउभयादिमात्रारब्ध चित्ररूप में नोलपीतान्यतरादि से भिन्न (रक्तादि) प्रतिबन्धक है ।
यद्यपि इस मत में गौरव प्रतीत होता है, क्योंकि चिन्नत्वव्याप्य अनेक चित्रत्व की कल्पना होती है किन्तु यह गौरव प्रामाणिक होने से दोषरूप नहीं है । प्रामाणिक इसलिये है कि उभयमात्रज और उभयाधिकरूपज चित्र रूपों में विलक्षणता लोकानुभवसिद्ध है। यदि त्रितयारब्धचित्ररूप के आश्रय में द्वितयारन्धचित्र के प्रति उक्त प्रतिबन्धकता को कल्पना के गौरव का परिहार ही अ हो तो समवायसम्बन्ध से विजातीयरुपद्वयजन्यचित्रादि के प्रति विजातीय रूपढय को स्वाधिकरणपर्याप्तवृत्तिकत्व-सम्बन्ध से कारण मान लेना चाहिये ऐसा मारने पर पितया मिला केसर यभूतघट में द्वितयारधचित्ररूप की उत्पत्ति को आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त घट तोनरूपवाले तीन कपालों में पर्याप्तिसम्बन्ध से वृत्ति होता है । अतः उस घट में रूपद्वय का स्वाधिकरण-पर्याप्तधृत्तिकरय सम्बन्ध बाधित है। अत एव स्वाधिकरणपर्याप्तवृत्तिकत्व सम्बन्ध से रूपद्वय को तदुभयजन्य चित्र के प्रति कारण मानने पर उक्त आपत्ति नहीं हो सकती । यद्यपि यथाश्रत में यह कार्यकारणभाव उचित नहीं प्रतीत होता क्योंकि यदि स्वाधिकरणपर्याप्तवत्तिकत्वसम्बन्ध से प्रत्येकरूप को नीलत्वपीतत्वादि रूप से कारण माना जायगा तो नील-पोतकपालारब्ध घट में नील पोत किसी का भी स्वाधिकरणपर्याप्त वत्तिकत्व सम्बन्ध न होने से नीलपीतोभयज चित्र की उत्पत्ति न हो सकेगी। यदि नोलपीतोभयको उभयत्वेन कारण माना जायगा तो स्वाधिकरणपर्याप्तबत्तिकत्व उस सम्बन्ध हो जायगा। क्योंकि नीलपोतोभय का समवायसम्बन्ध से कोई भी एक अधिकरण नहीं होता अतः इसका तात्पर्य यह मानना होगा कि नीलपीतउभयमात्रज चित्ररूप में नीलस्व-पीतत्व गत द्वित्व स्वाश्रयाधिकरण-पर्याप्तत्तिकत्व सम्बन्ध से कारण है। नीलत्व-पीतत्वगत द्वित्व का यह सम्बन्ध नील-पीतकपालारब्ध घट में प्रक्षण्ण है। किन्तु नोलपोतरक्तकपालारब्ध घट में नहीं है अतः नीलपोतकपालमात्रारब्ध घट में चित्रोत्पत्ति की अनुपपत्ति और नोलपोतरक्तकपालारब्ध घट में नोलपोतरेभयमानजन्य चित्रोत्पत्ति की प्रसक्ति नहीं होगी।
___ उच्छङ्खलास्तु 'नील-पीत-रखताधारब्धघटादौ नील-पीत-रक्तादिभ्य एव नील-पीतोभयपीतरक्तोभयजन्त्रितयजादिचित्राणामुत्पत्तिः, सपा सामग्रीसत्त्वात् । न चैकमेव तदस्त्यिति वाच्यम्', तत्तदवयवद्वयमात्रावच्छेदनेन्द्रियसंनिक विलक्षणचित्रोपलम्माद , जातेरव्याप्यवृत्तित्वे पुनररत्वेकमेव तत्, किश्चिदवच्छेदन तत्र नीलत्व-पीतत्व-रक्तत्व विलक्षणचित्रत्वादिसंभवान' इत्याहुः।
[ अनेक चित्ररूप सहोत्पत्निवादी उच्छसलमन ] किसी भी साम्प्रदायिक शृंखला में बद्ध न होने वाले कतिपय विद्वानों का यह कहना है कि नीलपोतरक्तआदि कपालों से उत्पन्न घट में नीलपीतरक्तत्रितयजन्य, नीलपीतोमयजन्य और रक्तपीतोभगजन्य एवं रक्तनोलोभयजन्य इन सभी चित्र रूपों को उत्पत्ति होती है क्योंकि उक्तघट में इन चित्र रूपों की उत्पादक सामग्री विद्यमान है । उक्त घट में किसी एक ही चित्ररूप को उत्पत्ति नहीं मानी
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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जा सकती क्योंकि भिन्न-भिन्न अवयवद्वयमात्रावच्छेदेन इन्द्रिय-संनिकर्ष होने पर भिन्न-भिन्न चित्ररूप का उपलम्भ होता है । किन्तु यदि जाति को श्रव्याप्यवृत्ति माना जाय तो उन सभी जातियों से अर्थात् नीलत्व- पीतत्व रक्तत्व आदि अव्याप्यवृत्ति जाति से आश्लिष्ट एक चित्र की उत्पत्ति मानी आ सकती है। क्योंकि एक रूप में अवच्छेदकभेद से उन सभी जातियों का समावेश हो सकता है ।
परेतु - ' तत्र व्याप्यवृत्तीन्येव नील-पीतादीन्युत्पद्यन्ते, नीलादिकं प्रति नीलेतरादिप्रतिबन्धकत्व-नीलाभावादिकारणत्वकल्पनापेक्षया व्याप्यवृत्तिनीलपीतादिकल्पनाया एव न्याय्यस्वात्' इत्याहुः । तन्ने त्यन्ये- नीलकपालावच्छेदेन चक्षुः संनिकर्षे पीतादेरुपलम्भापत्तेः, नीलाद्यवयवावच्छेदेन संनिकर्षस्य नीलादिग्राहकत्वकल्पने च गौरवात् ।
[ व्याप्यवृत्ति नीलपीतादि उत्पत्तिवादी अन्य मत ]
कतिपय अन्य विद्वानों का इस सम्बन्ध में एक और मत है, वह यह कि नीलपीतादि कपालों से उत्पन्न घट में व्याप्यवृत्ति हो नीलपीतादि की उत्पत्ति होती है । क्योंकि चित्ररूपादि के मत में, नीलपीतकपालारब्ध घट में नीलादि को उत्पत्ति के परिहार के लिये नीलादि के प्रति नीलेतरादि को प्रतिबन्धक मानना और नीलपीतकपालारब्ध घट में व्याप्यवृत्ति नीलादि की उत्पत्ति मानने वाले के मत में नीलादि प्रतियोगीमाभावादि को कारण मानना इस को अपेक्षा नीलपीतावि कपालारब्धघट में व्याप्यवृति नीलपीतादि की उत्पत्ति की कल्पना ही लाघव से न्यायसंगत है ।
कुछ
लोग इस मत का यह कह कर निराकरण करते हैं कि नीलपीताद्यारम्धघट में व्याप्यवृत्ति नीलावि की उत्पत्ति मानने पर नीलकपालावच्छेवेन चक्षुः संनिकर्ष होने पर भी पीतादि के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। यदि इस आपत्ति के परिहारार्थं नीलादि श्रवधवावच्छेदेन चक्षुः संनिकर्ष को नीलादि का ही ग्राहक मानेंगे तो गौरव होगा ।
यत्तु - 'एतत्कपालावच्छिन्न संयोगादिप्रत्यक्षानुरोधेनैतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिकत्वे सति यत्तन्नीलान्यत्तद्भिन्नं यदेतद् घटसमवेतं तस्यैतत्कपालविषयक साक्षात्कारं प्रत्येतत्कपालावच्छेदेनैतद्यदचक्षुः संनिकर्षस्य हेतुत्वाद् न पोतावयवावच्छेदेन संनिकर्षे नीलादिचाक्षुषापचिः' इति ।
[ पीतावयव में नील चाक्षुष आपत्ति का प्रतीकार ]
कुछ विद्वानों का यह कहना है कि व्याप्यवृत्ति नीलादि को उत्पत्ति मानने पर पीतावयवावच्छेदेन चक्षुः संनिकर्ष से नीलादि के चाक्षुषप्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिए किसी नवीन कार्यकारणभाव को कल्पना करना आवश्यक नहीं है किन्तु एतत्कपालाबसिंयोग आदि का प्रत्यक्ष एतत्कपालावच्छेदेन चक्षुः संनिकर्ष से ही होता है अतः एतत्कपालावच्छिन्न संयोगादि प्रत्यक्ष के प्रति जो एतत्कपालावच्छेदेन एतद् घट के साथ अक्षुः संनिकर्ष की कारणता होती है उस कारणता से निरूपित कार्यवच्छेदक में किञ्चित् परिवर्तन करने से ही उक्त प्रापत्ति का परिहार हो सकता है । जैसे यह कहा जा सकता है कि एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिक जो तनीलान्य, उससे भिन जो एतद्धटसमवेत, तद्विषयक जो एतत् कपालविषयक प्रत्यक्ष उसके प्रति एतत्कपालावच्छेदेन एतद्घटचक्षुः संनिकर्ष कारण
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[ शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० ३७
है । कार्यकारणभाव को इस रूप में परिवर्तित कर देने पर नोलपीतकपाल से उत्पन्न घट में उत्पन्न होने वाले व्याप्यवृत्तिनीलरूप का पोतावयवावच्छेदेन घट के साय चक्षु का संनिकष होने पर प्रत्यक्ष नहीं प्रसक्त हो सकता। क्योंकि उस घर में विद्यमाननीलरूप एतस्कपालानवच्छिन्नवृत्तिक जो तन्नोलान्य, उससे भिन्न एतद्घटसमवेत हो जाता है. अत एव एतत्कपाल के साथ उसका प्रत्यक्ष तभी हो सकता है जब एतत्कपालाबच्छेदेन एततघट के साथ चक्षुःसंनिकाई हो । अतः पोतावयवावच्छेदेन घट के साथ चक्षुःसंयोग होने पर नील के चाक्षुष की आपत्ति नहीं होगी। उक्त कार्यतावच्छेदक के शरीर में एतत्कपालानवच्छिन्नत्तिकत्व यदि तन्नीलान्य का विशेषण न बनाया जायगा तो एतत्कपालावच्छिन्नसंयोग तन्नीलान्यभिन्न न होगा । अतः इस का प्रत्यक्ष एतत्क्रपालावच्छेदेन एतदघट के साथ चक्षःसनिकर्ष के कार्यतावच्छेवक से आक्रान्त न होने के कारण उक्तसंनिकर्ष के विना भी उमके प्रत्य होगी । इसीप्रकार उक्तकार्यतावच्छेदक में तन्नीलान्यत्व का प्रवेश न करने पर एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिकभिन्न एतत्घटसमवेत का ही प्रवेश होगा। फलतः नीलपीतकपालारधघट में उत्पन्न नीलरूप व्याप्यवृत्ति होने के कारण एतत्कपालानवच्छिन्नत्तिक होगा। अतः तद्धिन्न एतद्घटसमवेत में इस का समावेश न होने से उसका प्रत्यक्ष भी उक्तसंनिकर्ष के कार्यतावच्छेदक से आक्रान्त न हो सकेगा। अतः उक्त संनिकर्ष के अभाव में भी पीतावयवावच्छेवेन घासंनिकर्ष होने पर उस के प्रत्यक्ष की अपत्ति दुरि होगी । एवं यदि उक्तकार्यतावच्छेदक कोटि में तन्नोलान्य के स्थान में केवल नोलान्यमात्र का प्रवेश किया जायगा तो परस्पर व्यवहित दो पीत और दो नील कपालों से उत्पन्न घट में जो दो नीलरूप उत्पन्न होंगे, दोनों ही एतत्कपालानवच्छिन्नवृत्तिक नीलान्य एतद्घटसमवेत रूप होंगे अतः अन्यकपालगल नोलरूप से उत्पन्न घटगत नोलरूप का प्रत्यक्ष भी एतत्कपालावच्छिन्नचक्षुःसंनिकर्ष के कार्यतावच्छेवक से आक्रान्त हो जायगा । अतः प्रन्यकपालावच्छिन्नचक्षसंयोग के अभाव में भी एतत्कपालावच्छेवेन चक्षुःसंयोग होने पर भी इसके प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी। इसोप्रकार उक्त कार्यतावच्छेदक कोटि में यदि एतत्घटसमवेतत्व' का यदि निवेश न किया जायगा तो एतत्कपालाना न्नवृत्तिक तन्नोलान्य से एतत्कपाल का प्रावारकवस्त्र भी संयोग सम्बन्ध से द्रव्य के अव्याप्यवृत्तित्वपक्ष में एतत्कपालानवच्छिन्नत्तिकतन्नीलान्यभिन्न होगा। अतः तद्विषयकसाक्षात्कार भी एतत्कपालावच्छेदेन चक्षुसंयोग के जन्यतावच्छेदक से प्राधान्त हो जायगा । तथा उसका 'एतत्कपाले वस्त्रम्' इस प्रकार का साक्षात्कार भी एतत्कपालावच्छेवेन एतद्धचक्षुःसंयोग के कार्यतावच्छेदक से आक्रान्त हो जायगा, किन्तु उक्तसंयोग स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से वस्त्र में नहीं है अतः वस्त्र के उक्त प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति हो जायगी।
तन्न, तबाहेतुतायामतिगौरवान्, तत्कपालावच्छिन्नप्रत्यक्ष एव तत्कपालावच्छिन्नसंनिकपस्य हेतुत्वात् ।
किन्तु यह ठीक नहीं है, क्योंकि तत्कपालावच्छिन्न प्रत्यक्ष में तत्कपालावच्छिन्न संनिकर्ष कारण है । इस कार्य-कारणभाव को अपेक्षा उक्त कार्यकारणमाष में महान् गौरव है।
केचित्त-नानारूपवदवयवारब्धो नीरूप एव घटः, स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसंवन्धेनैव रूपस्य द्रव्यतत्समवेतचाक्षुषसाधारण्येन हेतुत्वादेतच्चाक्षपत्वात्' इत्याहुः । तन्नेत्यपरे-चित्रकयालिकास्थले तदसंभवात् । अन्ये तु- उद्भूतैकत्वस्याऽयोग्यव्यावृत्तधर्मविशेषस्यैव वा द्रव्य
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
चाक्षुषहेतुत्वेन रूपं विनापि तादृशघटचाक्षुषत्वोपपत्तिः, घटाकाशसंयोगादीनां गुरुत्वादिवदयोम्यत्वादेव संयोगादिचाक्षुषे स्वाश्रयसमवेतत्व संबन्धेन रूपाभावस्य प्रतिबन्धकत्वाकल्पनात्, तद्वृत्तिसंयोगादिप्रत्यक्षानुपपत्तेरभावात्' इत्याहुः ।
[ रूपविहीनघटवादी विशेष मत ]
कुछ विद्वानों का यह कथन है कि विभिरूपवान् अवयवों से उत्पन्न घट में कोई रूप ही उत्पन्न नहीं होता वह नीरूप ही होता है । ऐसा होने पर भी उस के चाक्षुष प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि द्रव्यचाक्षुष में समवाय से रूप को पृथक् कारण न मानकर द्रव्य और द्रव्यसमवेत चाक्षुष के प्रति स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्वसम्बन्ध से रूप को कारण मान लेने से नीरूप घट का भी चाक्षुषप्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि नीरूप घट में कपालिकागत रूप स्वाश्रयसमवेत वृत्तित्व सम्बन्ध से कारण होगा और नीलघटसमवेत परिमाणादि के प्रत्यक्ष में कपालगतरूप स्वाश्रयसमवेतवृत्तित्व सम्बन्ध से कारण होगा, अतः नीरूप घट और तत्समवेत, दोनों के प्रत्यक्ष की अनुपपत्ति नहीं हो सकती ।
किन्तु दूसरे विद्वान यह कह कर इस पक्ष का निराकरण करते हैं कि जहाँ कपालिका विभिन्नरूपवदत्रययों से उत्पन्न होगी वहाँ कपालिका भी नीरूप होगी, श्रुतः उस स्थल में घट और घटसमवेतप्रत्यक्ष को उपपत्ति न हो सकेगी ।
अन्य विद्वानों का मत है कि समवायसम्बन्ध से उद्भूत एकत्व अथवा प्रयोग्यव्यावृत्तधर्मविशेष अर्थात् चक्षुयोग्यवृत्तित्वविशिष्ट द्रव्यत्व यह द्रव्यचाक्षुष के प्रति कारण है अतः विभिन्नरूपवाले अवयवों से आरब्ध घट में रूप न होने पर भी इस का चाक्षुष प्रत्यक्ष हो सकता है। यदि यह शंका की जाय कि "उक्त घट का चाक्षुषप्रत्यक्ष सम्भव होने पर भी उक्तघट में विद्यमान भूतलादि के संयोग का प्रत्यक्ष नहीं हो सकेगा क्योंकि घटाकाशसंयोगादि के प्रत्यक्ष का वारण करने के लिये संयोगादि के चाक्षुषप्रत्यक्ष में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से रूप का अभाव प्रतिबन्धक होता है" तो यह ठीक नहीं है क्यों years के समान घटाकाशसंयोग आदि स्वभावतः अयोग्य होने से ही उस का प्रत्यक्ष न होगा । अतः उस के प्रत्यक्ष की आपत्ति का परिहार करने के लिये स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से रूपानाव के प्रतिबन्धत्व की कल्पना अयुक्त है ।
इत्येवमस्मिन् वत चित्ररूपे मिध्यादृशां दृक् तिमिरावृत्त (ति) परोपकृत्यै सुधियोऽत्र चैतज्ज्योतिर्मयं तत्त्रमुदीरयन्ति ॥ | १ ||
तथाहि 'चित्रावयविना नीरूपत्वं तावदनुभयवाधितम्, तत्र रूपवत्ताधियः सार्वजनीनत्वात् । न च संबन्धविशेषेणास्वरूपमेव तत्र प्रतीयत इति वाच्यम्, अन्यत्राप्यवयवरूपस्यैवैकत्व परिणामाख्यसंबन्धेनावयविंगततया प्रतीतावस्मन्मतप्रवेशात् । न चान्यत्रावयथगतेभ्योऽनेकरूपेभ्य एकस्यावयविगतस्य विलक्षणस्यैव रूपस्यानुभवादयमदोप इति वाच्यम्, अत्रेव तत्रापि वृत्तित्वाचच्छेदेनकत्वस्य तदवयववृतित्वावच्छेदेन च नानात्वस्पाऽविरुद्धत्वात् । एतेन 'सनीले रूवयविनि नीला नीलं स्वस्वावच्छेदेनोत्पद्यमानं रूपमविरोधाद्
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[ शास्त्रवासी० स्त० ६ श्लो० ३७
व्यापकमेवोत्पद्यते, सजातीय-विजातीयेषु नानापदार्थेषु जायमानं समूहालम्बनमिवैकं ज्ञानम्' इति वीधितिकृदुक्तं निरस्तम्, समूहालम्बनेऽप्येकत्यस्य संख्यारूयस्य त्वयानभ्युपगमाव, आश्रयगतैकत्वस्य चातिप्रसङ्गात, 'एकम्' 'एकम्' इत्यनुगतधिया सकलकवृत्त्यतिरिक्तकत्वस्वीकारे च द्वित्वादेरपि तादृशस्य स्वीकतु मुचितत्वेनैकत्व-द्वित्वाद्यविरोधात, एवमेव घटज्ञान-पटज्ञानयोरै क्यमित्यत्र द्विश्चनस्य सुघटत्वात्, भिन्नभिन्नावच्छेदेन तत्रैकत्व-द्वित्वोभयसमावेशसंभवात, प्रयोगस्य च विवक्षाधीनत्वात् । उवाच च वाचकमुख्य:- "अपिताऽनपितसिद्ध" [ तत्वार्थवत्र ५-३१] इति । एकत्वद्वित्वयोवृनाववच्छेदको च तद्व्यक्ति-तदंशौ। तथाप्येतद्व्यक्त्यवच्छेदेन 'इदमेकं ज्ञानम्' इत्येकत्वभानवद् घटे 'इदमेकं रूपम्' इत्युपपत्तावपि नानावयवरूपेष्यपि 'इदमेक रूपम्' इति धीः स्यादिति चेत् ? न, अभेदविवक्षायामिष्टत्वात्, भेदविवक्षायां च 'इदनुभयं नैकम्' इत्यत्रोभयत्वेनापृथक्कृततद्व्यक्तः पृथक्कृतकत्वानवच्छेदकार शक्तता पृथक किमान च्छेदकस्यात् । 'इदमुभयात्मकम्' इत्युभयत्वविशिष्टेदंत्वस्यैकत्वपर्याप्त्यनवच्छेदकत्वेन न स्यात, 'इदमेक रूपम्' इति तु शुद्धदंत्वस्यैकत्वपर्याप्त्यवच्छेदकत्वेन स्यादिति चेत् ?-स्यादेव यदि प्रदीर्घाध्यवसायिना तेनेदंत्वमेकावं च विविच्य न यर्यालोच्येतेति दिग।
[चित्ररूप के विषय में व्याख्याकार की मीमांसा ] व्याख्याकार ने चित्ररूप के सम्बन्ध में अनेक मतों का उपस्थापन कर यह बताया है कि उक्त समस्त मतवादी मिथ्यादर्शनी है अतः उन सभी की दृष्टि तिमिर (=अज्ञान) से आवृत है। अतः यह आवश्यक होने से कि चित्ररूप के सम्बन्ध में सत्य जिज्ञासुओं के हितार्थ विद्वज्जन प्रकाशमय तत्व का उद्घाटन करते हैं जिससे मिथ्याइष्टियों को भी आंख खुल जाय और चित्ररूप के सम्बन्ध में जो वास्तविकता है उसका अवबोध उन्हें भी हो जाय । इसी अभिप्राय से व्यास्याफार ने चित्र रूप के सम्बन्ध में अग्रिमविचार प्रस्तुत किये हैं। उनका कहना है कि--
[रूपविहीन घट स्थिति अनुभव विरुद्ध है ] विभिन्नरूपवान अवयवों से उत्पन्न होने वाले अवयवी द्रध्य को नीरूप मानना अनुभवविरुद्ध है क्योंकि उस द्रव्य में भी रूप की बुद्धि होना सर्वजनानुभवसिद्ध है। यदि यह कहा जाय कि "ऐसे अधययो द्रव्य में जो रूप प्रतीत होता है वह उस द्रध्य का अपना सप नहीं होता कित उसके अवयवों का रूप होता है जो स्वाथयसमवेतत्व सम्बन्ध से उस में भासित होता है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उस द्रव्य के प्रमयवों में विद्यमान रूप अनेक हैं और उस द्रव्य में रूप को एकत्वेन प्रतीति होती है । यदि अवयवगत अनेक रूपों की ही दमन प्रतीति मानी जायगी तो जैसे विभिन्नरूपवान् अवयवों से उत्पन्न अययधी द्रध्य में अतिरिक्त रूप न मानने पर भी अवयवगत अनेक रूपों की एकत्वेन प्रतीति की उपपत्ति की जायगी, उसी प्रकार एकजातीय रूपवाले विभिन्न अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में भी अतिरिक्त एक रूप की उत्पत्ति मानना आवश्यक न होगा, क्योंकि उस
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स्या का टीका एवं हिन्दी विवेधन ]
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दव्य के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि उस में भी अवयवगत रुप हो एकस्वपरिणामा. रमकसम्बन्ध से प्रतीत होता है, और ऐसा मानने पर जन मत का प्रवेश अपरिहार्य हो जायगा। कहने का आशय यह है कि अवयवगत अनेकरूपों का अवयवी में एकस्वेन परिणाम होता है अतः यह परिणाम अवयवी के साथ अवयसम्रूप का सम्बन्ध बन जाता है। इस प्रकार इस सम्बन्ध से अवयवी में अवयवगतरूप की एकरूपात्मना प्रतीति सम्भव हो सकती है।
[विलक्षणरूप का अनुभव एकरवपरिणाम विरोधी नहीं है ] इसके विपरीत यदि यह शंका को जाय कि-"एकजातीयरूपवान् अनेक अवयवों से उत्पन्न अवयवी तव्य में प्रवयवगत अनेक रूपों से एक विलक्षणरूप का अनुभव होता है अत एव यह मानना उचित नहीं प्रतीत होता कि अवयवगतरूपों का हो अवयवी में एकत्वेन परिणाम होता है, क्योंकि ऐसा मानने पर अवयवी में प्रतीयमानरूप में अवयवरूपों की अपेक्षा वैलक्षण्य न होने से उसका अनुभव न हो सकेगा"-तो यह ठीक नहीं है । क्योंकि जैसे विभिन्नरूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में प्रतीत होने वाले रूप में घटवृत्तित्वावच्छेवेन एकत्व और अवयवत्तित्वावच्छेदेन अनेकत्व मानने में कोई विरोध नहीं होता, इसी प्रकार एकजातोयनानारूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में प्रतीयमानरूप में भी घटवत्तित्वावच्छेदेन एकत्व और प्रययमवत्तित्वावच्छेदेन अनेकत्व मानने में कोई विरोध नहीं है । अतः उक्त अवयवी द्रव्य में अवयवगत अनेक रूपों से एक विलक्षणरूप के अनुभव में कोई बाधा नहीं हो सकती। क्योंकि अवयवीद्रश्य में प्रतीत होने वाले रूप में अवयवगतरूपों से जो विलक्षणता प्रतीत होती है वह और कुछ न होकर केवल एकात्मतारूप है और यह एकात्मता अनेकरूपों में भी घरवृत्तित्वाधच्छेदेन सम्भव है क्योंकि घट एक है।
[ एकसमूहालम्बनज्ञानवत् एकरूपोत्पत्ति-दीधितिकार ] इस संदर्भ में दीधितिकार का यह कहना है कि-अनेक नील अवयवों से उत्पन्न अवयवी में जो नोल उत्पन्न होता है वह यद्यपि तत्तन्नीलाबच्छेदेन उत्पन्न होता हुआ प्रतीत होता है, किन्तु ऐसे अवयवी में अवयवगत विभिन्न नीलरूपों से विभिन्न नील की उत्पत्ति मानने में गौरव तथा युक्त्यभाव होने से यही मानना उचित होता है कि सम्पूर्ण अवयवगत नील अवयधी में सर्वावयवव्यापी एक नीलरूप को उत्पन्न करते हैं। यह ठीक उसी प्रकार सुसंगत है जैसे सजातीयविजातीय अनेक पदार्थों में उत्पन्न होने वाला एक समूहालम्बनज्ञान । आशय यह है, जैसे भिन्न-भिन्न पदार्थ अपना अलग अलग शान उत्पन्न करते हैं किन्तु जब ऐसे अनेक पदार्थों को एक साथ अपने ज्ञान उत्पन्न करने का अवसर होता है तो वे भिन्न भिन्न ज्ञान को न उत्पन्न कर एक हो समूहालम्बन ज्ञान व्यक्ति को उत्पन्न करते हैं जो उन सभी पदार्थों को विषय करता है। इसी प्रकार एक एक नीलावयच अलग रूप को उत्पन्न करने का सामर्थ्य रखते हुये भी जब एक साथ उन्हें रूप को उत्पन्न करने का अवसर प्राप्त होता है तो उन सभी से एकरूप को उत्पत्ति मानना ही न्यायसंगत है।
[समूहालम्बन ज्ञानगत एकत्व संख्यारूप नहीं है-उत्तर पक्ष ] व्याख्याकार ने दीधितिकार के उक्त कथन का निराकरण करते हुये यह समीक्षा की है कि समूहालम्बन ज्ञान में भी जो एकत्व माना जाता है वह दीधितिकार को भी संख्यारूप में मान्य नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान और संख्या दोनों ही गुण है अतएव ज्ञान में संख्यात्मक एकत्व नहीं रह सकता।
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[ शास्त्रवा०ि स्त० ६ श्लो० ३७
यदि ज्ञान के प्राश्रय आत्मा के एकत्व से ज्ञान में ऐक्य का समर्थन किया जायगा तो एक आत्मा में क्रम से होने वाले विभिन्न ज्ञानों में भी ऐक्य का अतिप्रसङ्ग होगा। क्योंकि उन ज्ञानों में भी प्राधयगत एकत्व सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से उसी प्रकार अबाधित है जैसे एक काल में एक आत्मा में उत्पन्न होने वाले विभिन्न विषयक ज्ञानों में अबाधित होता है ।
[अनुगत एकत्वकल्पनावत् द्वित्यकल्पना संगति ] यदि इन दोनों के परिहार्य सह माना जाममा नि एक वस्तु में 'एकम् एकम्' इस अनुगताकार बुद्धि से एक ऐसा एकत्व सिद्ध होता है जो सकल एक में विद्यमान होता है और एकत्व संख्या से अतिरिक्त होता है । उस एकत्व से ही एक आत्मा में एक साथ उत्पन्न होने वाले विभिन्न विषयक ज्ञानों में एकत्व को उपपत्ति होती है।"-तो ऐसा मानने पर प्रत्येक युगल में "द्वौ द्वौ' इस प्रकार होने बालो अनुगत आकार वि से, द्वित्वसंख्या से अतिरिक्त, निखिलद्यसाधारण एक द्विस्वक करना आवश्यक हो जायगा । फिर इस प्रकार एकत्व नित्व आदि में अविरोध की उपपत्ति में कहीं कोई बाधा नहीं होगी। तथा यह मानने में 'घटज्ञानपटज्ञानयोरक्यम्' यह व्यवहार भी सहायक है, क्योंकि इस व्यवहार से द्विवचन विभक्ति से घटज्ञान और पटज्ञान में द्वित्व भो प्रतीत होता है और ऐक्य शब्ध से दोनों में एकत्व भी प्रतीत होता है । अतः इस व्यवहार वाक्य में द्विवचन की उपपत्ति एकत्व और द्विस्व के अविरोध से हो की जा सकती है और एकस्व-द्वित्व का यह अविरोध, भिन्न भिन्न रूपावच्छेदेन एकत्व और द्वित्व दोनों के एकत्र समावेश से निर्विघ्न उपपन्न हो सकता है । जैसे, घटपट दोनों को असम्बद्धरूप से ग्रहण करने वाले समूहालम्बन ज्ञान में तज्ज्ञानव्यक्ति-अवच्छेवेन एकत्व का और घटविषयकस्व-पटविषयकत्वावच्छेदेन द्वित्व का संनिवेश होता है। एकत्व द्वित्वादि का परस्पर अविरोध मानने पर 'प्रयं द्वौ' और 'हावयम्' इस प्रकार प्रयोग को आपत्ति नहीं दी जा सकती क्योंकि प्रयोग विवक्षानसार ही होता है अतः उक्त प्रकार की विवक्षा न होने से उक्त प्रयोग का आपादन नहीं हो सकता। वाचकमुख्य प्राचार्य श्रीमद् उमास्वाति ने सूत्र से इसी तथ्य का समर्थन किया है-सूत्र का अर्थ यह है कि प्रपित और अनपिल से मुख्य-गौणरूप से वस्तु की सिद्धि होती है । तात्पर्य यह है कि एक नय को अर्पणा यानी अपेक्षा-विवक्षा करने पर उस नय के विषयरूप में वस्तु को मुख्यरूप से सिद्धि होती है तब अन्यनय को अनर्पणा यानी अविवक्षा करने पर उस नय के विषयरूप में वही यस्तु गौण बन जाती है।
इस संदर्भ में यह ज्ञातव्य है कि एकत्व-द्वित्व का अवस्थान सांश वस्तु में हो अवच्छेदक भेद से हो सकता है क्योंकि उसो में एकत्व के तदव्यक्तिरूप प्रवच्छेदक और द्वित्व के अंशभेदरूप अवच्छेदक सुलभ हो सकते हैं । जैन मत्त में नितांत निरंश वस्तु मान्य न होने से वस्तुमात्र में एकत्व-अनेकत्व का समावेश सुकर है।
[अवयवरूपों में एकत्वबुद्धि की आपत्ति अभेदविवक्षा में स्वीकार्य ] ___ इस मान्यता के सम्बन्ध में यह प्रापत्ति उसकती है कि-'जैसे जानध्याक्तिरूप अवच्छेदक भेद से अनेक विषयक झानों में 'इदं एक ज्ञानम' इस प्रकार एकत्व का भान होता है, एवं घट व्यक्तिरूप अवच्छेदकभेद से घट में प्रतीत होने वाले अवयवगत नानारूपों में 'इदं एक रुपम्' इस प्रकार की प्रतालि होती है-उसो प्रकार अवयवरूपों में घटवत्तिता की प्रतीति न होने पर भी उन रूपों में 'इदं
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
एकं रूपम्' इस प्रकार की बुद्धि होनी चाहिये, क्योंकि उन रूपों में घटव्यक्तिरूप अवच्छेवकभेव से एure frana है । किन्तु यह प्रापत्ति ठीक नहीं है क्योंकि घट और घटावयवों में अभेद की विवक्षा में घटावयवगत रूपों में भी 'इदमेकं रूपम्' यह बुद्धि इष्ट है । मेदविवक्षा करने पर इस बुद्धि की पति नहीं दी जा सकती क्योंकि इस बुद्धि में एकत्व का घटव्यक्त्ययवच्छेदेन भान होता है, किन्तु उस समय घटव्यक्ति अवयवरूपों में प्रतोयमान एकत्व का अच्छे नहीं हो सकती, क्योंकि उस समय घटव्यक्ति घटावपवों से पृथक्कृत होती है और एकत्व घटावयवगत रूपों में प्रतीयमान होने के अनुरोध से घटावयवों से अपृथक्कृत रहता है। अतः घटावयवों से पृथक्कृत घटव्यक्ति कर घटावगवों से एक के साथ कोई सम्बन्ध नहीं रहता है । अतः घटावयवों पृथक्कृत घटयक्ति, घटावयवों से अपृथवकृत एकत्व का उसीप्रकार धनवच्छेदक होती है जैसे 'इदमुभयं कम्' इस स्थल में उभयत्वेन अपृथस्कृत एतदव्यक्ति पृथ्वकृत एकत्व का श्रनवच्छेदक होती है । आशय यह है कि एतद्व्यक्ति का जब उभयश्वेन ग्रहण होता है तब एकस्वरूप से उस का ग्रहण नहीं होता, क्योंकि 'मुभयमेकम्' ऐसी प्रतीति अनुभवविरुद्ध है । अतः एतद्द्व्यक्ति के उमयत्वेन ग्रहणकाल में उस में एकत्व का ग्रहण न होने से एकत्व एतद्यक्ति से पृथवकृत रहता है । प्रत एव उस समय दोनों में सम्बन्ध न होने से उभयत्वेन पृथक्कृत एतद्द्व्यक्ति पृथक्कृत एकत्व का अनयच्छेदक होती है । [ 'मयात्मक' इस प्रतीति के अभाव की आशंका ]
से
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इस संदर्भ में यह प्रपत्ति ऊठ सकती है कि- 'उभयत्व विशिष्ट इदंत्य एकत्व को पर्याप्ति का वच्छेदक नहीं होता । अतः इदमुभयात्मकम्' यह प्रतीति न हो सकेगी। क्योंकि, इस प्रतीति में उभयत्वविशिष्ट इवत्वावच्छेदेन एकवचनार्थ एकत्व का भान होता है और शुद्ध इत्य एकत्वपर्याप्ति का अवच्छेदक होता है तथा घट और घटावयवों की भेदविवक्षा में भी इदंस्वरूप से घटावयवगत नाना रूपों को विषय करने वाली 'इदमेकं रूपम् प्रतीति आपत्तिरूप होगी । 'किन्तु इस श्रापत्ति का उत्तर यह है कि यदि उक्त अध्यवसाय दीर्घकाल तक न होकर क्षणमात्रस्थायी होगा तो इदंत्व और एकस्य का विवेकपूर्वक पर्यालोचन न होने से 'इदमुभयात्मकम्' यह प्रतीति तथा घटावयवगल नानारूपों में 'इदं एकम्' यह प्रतीति होना इष्ट हो है । किन्तु यह उक्त प्रतीति दीर्घकाल तक स्थायी होगी तो 'इदमुभयात्मकम्' इस प्रतीति में व्यक्तिद्रयवृत्ति इत्व का भान स्पष्ट हो जाने से और उस इत्य के एकश्वपर्याप्ति का अवच्छेदक न होने से उक्त प्रतीति नहीं हो सकती ।
एवं 'इदमेकं रूपम्' इस प्रतीति में भासमान इदंत्व में 'अनेकवृतित्व के ज्ञान' रूप 'इर्दत्व का पर्यालोचन' होने से और उस इदंश्व में एकत्व को पर्याप्ति का अवच्छेवर न होने से 'इदमेकं रूपम्' इस प्रतोति की प्रापत्ति नहीं हो सकती ।
व्याप्यवृत्तिशुक्ला नानारूपवदत्रयव्युपगमे च शुक्लाद्युपलम्भे नीलाद्युपलम्भापत्तिरेव दोषः । तदाह-सम्मतिटोकाकार:- “आश्रय व्यापित्वेऽप्येकावयवसहितेऽप्यवयविन्युपलभ्यमानेऽपरत्वयवानुपलब्धावप्यनेकरूपप्रतिपत्तिः स्यात्, सर्वरूपाणामाश्रयव्यापित्वाद" इति । चित्रकरूपप्रतिपत्तिरप्यनुभवविरुद्रा, शुक्लादिरूपाणामपि निर्विगानं तत्र प्रतीतेः । यदाहु:- "न च चित्रपटादापास्तशुक्ल, दिविशेषं रूपमात्रं तदुपलम्भान्यथानुपपन्याऽस्तीत्यभ्युपगन्तव्यम्, कथम् १, 'चित्ररूपः पटः' इति प्रतिभासाभावप्रसक्तेः" इति । किञ्च एवं शुक्लावयवावच्छेदे
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ इलो० ३७
नापि चित्रोपलम्भः स्यात् । ननु (च १) चित्रत्वग्रहे परम्परयावयवगतनी लेतररूप-पीतेतररूपादिमत्रहो हेतु:, अत एव 'व्यणुकचित्रं चक्षुषा न गृह्यते' इत्याचार्याः । न च नीलेतररूपत्वा
fararrant न हेतुः, नीलत्व- पीतवादिनाऽवयवगतनीलपीतादिग्रहेऽप्यवयविचित्रप्रत्यक्षादिति वाच्यम्, विलक्षणचित्रप्रत्यक्षे तेन तेन रूपेण तत्तद्ग्रहस्यापि हेतुत्वात् । वस्तुतो नीलेतररूपत्वादिव्याप्यत्वेन नीलेतररूपत्व-पीतत्वाद्यनुगमाद् न क्षतिरिति चेत् ? न, त्र्यशुकचित्ररूपाग्रहे चतुरकचित्रप्रत्यक्षानुपपत्तेः नीलेतररूप-पीते तररूपादिमदवयवावच्छेदेनेन्द्रियसंनिकर्षस्यावयवनीलादिगतनीलत्वादिग्रहविरोधिदोषाभावानां च हेतुत्वे गौरवात् । अवयविनि साक्षानीलपीतादिग्रहस्य तद्ग्रहहेतुत्वे च तत्र नीलादिसिद्धिः, तद्ग्रहस्य भ्रमत्वायोगात् । [ व्याप्यवृत्ति अनेकरूपोत्पत्ति पक्ष में सर्वरूपोपलम्भापति ]
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जो कोई विद्वान शुक्लनीलादि नाना रूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवय विद्रध्य में शुक्लनीलादि नाना रूपों की उत्पत्ति मानते हैं और उन सभी को व्याप्यवृत्ति मानते हैं इस मल में यह दोष होता है कि यदि ऐसे प्री में शुक्लनीलादि सभी रूप व्याप्यवृत्ति होगे तो शुक्लादिरूप के उपलम्भकाल में नीलादिरूप के उपलम्भ की भी आपत्ति होगी क्योंकि जिस भाग में शुक्लादिरूप होगा उस भाग में नोलादिरूप भी व्याप्यवृत्ति होने से होगा, अतः उस भाग के साथ चक्षु का संयोग होने पर रूपग्राहक चक्षुसंयुक्तसमवाय संनिकर्ष शुक्लनीलादि सभी में समान रूप से होगा । व्याख्याकार ने इस दोष के सम्बन्ध में सम्मतितर्क ग्रन्थ के टीकाकार के एतदर्थ संवादी वाक्य का उद्धरण दिया जिस का अर्थ यह है कि विजातीय अनेक रूपवान् अवयवों से उत्पन्न श्रवयवी में विजातोय अनेक रूपों को आश्रयया मानने पर किसी एकरूपवान् अवयव के साथ अवयवो का उपलम्भ होने पर अन्यरूपवान् अवयव की अनुपलब्धि दशा में भी अनेक रूपों के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी, क्योंकि ऐसे प्रवयवी द्रव्य के सभी रूप श्राश्रयव्यापी होते हैं, अर्थात् उस द्रव्य के सब भागों में सब रूप रहते हैं । जो विद्वान विजातीय नानारूपवान् अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में एक चित्ररूप की सत्ता मानते हैं उनके मत में उस द्रव्य में एकमात्र चित्ररूप का ही प्रत्यक्ष अनुभवविरुद्ध है, क्योंकि उस द्रव्य में शुक्लादि विभिन्न रूपों के प्रत्यक्ष होने में किसी को विवाद नहीं है ।
[चित्ररूप प्रत्यक्ष का अपलाप अनुभवविरुद्ध है ]
पुन्हा लोगों का यह कहना है कि- 'चित्रपटादि में एक ऐसा रूप होता है कि जिस में शुक्लत्य पीतत्वादि अवान्तरजाति नहीं होती है और ऐसा रूप चित्रपटादि में मानना परमावश्यक है क्योंकि उसमें रूप माने विना उसका चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं हो सकता ।' व्याख्याकार के अनुसार यह कथन भी प्रसंगत है क्योंकि इस विषय में विद्वानों ने यह कहा है कि ऐसे पट में यदि केवल रूपसामान्य की सत्ता मानी जायगी हो 'रूपवान् पट:' इसी रूप में उसकी उपलब्धि होगी किन्तु 'चित्ररूप पटः इस सर्वजनानुभवसिद्ध प्रत्यक्ष का अपलाप हो जायगा । उक्त प्रकार के अवयवो द्रव्य में व्याप्यवृत्ति एक अतिरिक्त चित्ररूप का अस्तित्व मानने में एक यह भी दोष है कि जब केवल शुक्ल अवयव के साथ चक्षु का संनिकर्ष होगा और अवयवान्तर के साथ नहीं होगा तो उस समय शुक्ल अवयवावच्छेदेन भी उस द्रव्य में चित्ररूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति होगी ।
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स्या० का टीका एवं हिन्दी विषेचन ]
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[ उदयनाचार्य का चित्ररूप प्रत्यक्षोपपत्ति के लिये प्रयास ] यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि
"चित्रत्वेन रूप के प्रत्यक्ष में अवयवगत नीलेतररूप-पीतेतररूप आदि का अवययी में स्वाश्रयसमवेतत्वसम्बन्ध से प्रत्यक्ष कारण है, इसीलिये उदयन आचार्य ने यह कहा है-'यणुक के चित्ररूप का चाक्षुष प्रत्यक्ष नहीं होता क्योंकि ज्यणुक के अवयव द्वयणुक गत रूप अतोन्द्रिय होने से उसका स्वाश्रयसमवेतत्व सम्बन्ध से ज्यणुक में ग्रहण नहीं होता।' यदि इस कार्यकारणभाव के विरुद्ध यह शंका को जाय कि - 'अवयवगत नीलपीताविरूप का नोलत्व-पोतत्व आदि रूप से अवयवी में ग्रहण होने पर भो अवयवोगतरूप का चित्रवेन प्रत्यक्ष होता है अतः नीलेतररूपत्वादिना नोलेतररूपाविज्ञान को चित्रत्व प्रत्यक्ष में कारण मानने पर व्यतिरेक व्यभिचार होगा'-तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि नीलस्व-पोतस्वादिरूप से अवयवगतनीलपीतादि के ज्ञान से उत्पन्न होनेवाले अधयविगतचित्ररूपप्रत्यक्ष में और नीलेतररूपत्वादि रूप से अवयवगतनीलेतर रूपादि के ग्रहण से उत्पन्न होनेवाले अवयवीगत चित्ररूप के प्रत्यक्ष में, जातिभेद मानकर दोनों प्रकार के ग्रहों को विजातीय चित्र प्रत्यक्ष में कारण माना जा सकता है । अथवा नीलेतररूपस्वादिव्याप्यत्वरूप से नीलेतररूपत्व और पीतत्वादि का अनुगम कर के उक्त दोनों ग्रहों में प्रवयविचित्रप्रत्यक्ष के प्रति एक कारणता को वास्तवरूप में मानने में कोई क्षति नहीं है।"
किन्तु इस कार्यकारणभाव के बल पर शुक्लावयवावच्छेवेन अघयवो में चित्रोपलम्भ की आपत्ति का परिहार नहीं किया जा सकता। तदुपरांत, उपरोक्त कार्यकारण भाव मानने पर ज्यणक के चित्ररूप का ग्रह नहीं होता है, अतः चतरणक में इसके अवयव ज्यणकगत रूप का नीलेतरस्वध्याप्यरूप से अथवा चित्रत्वरूप से स्वाधयसमवेतत्व सम्बन्ध से चित्ररूप का ग्रहण न हो सकने के कारण चतुरणुक के चित्ररूप का प्रत्यक्ष न हो सकेगा।
[ व्यणुक-चतुरतुक के चित्ररूप प्रत्यक्ष की उपपत्ति का प्रयास ] यदि इसके उत्तर में यह कहा जाय कि अवयविगत चित्र प्रत्यक्ष में नीलेतररूप तथा पीतेतर रूपादियाले अश्ययावच्छेवेन इन्द्रियसंनिकर्ष कारण है, तथा अवयवगत नीलादि का परम्परा सम्बन्ध से अवयवो में नोलत्वादि का ग्रह कारण नहीं है कि तु उस ग्रह के विरोधी दोष का प्रभाव कारण है। अतः ग्यणक और चतरणक आदि के चित्रपका प्रत्यक्ष होने में कोई बाधा नहीं हो सकती, क्योंकि यणुक के अवयच द्वयणुकों में विद्यमान नीलादिरूप अतीन्द्रिय होता है । अत एव उसमं नोलत्यादि का ज्ञान प्रसक्त नहीं है अतः उसके विरोधी दोष को कल्पना न होने से उक्त दोष का अभावरूप कारण सुलभ है । यदि आचार्य मत के अनुसार श्यणुक के चित्ररूप का अग्रहण और चतुरणुक के चित्र का ग्रहण, दोनों का उपपावन करना हो तो चित्ररूप के प्रत्यक्ष में नीलेतररूपादिमत् एव पोतेतररूपाविमत् महदवयवायच्छेदेन इन्द्रिय संनिका और उक्तदोषाभाष को कारण मान लेना उचित है । उक्त दोषाभाष को कारण मान लेने से उक्त दोनों बात को उपपत्ति हो सकती है। इस पर यदि यहांका की जाय फि -'अतीन्द्रिय अवयव के नीलादि में नीलत्वादि का ग्रह अप्रसिद्ध होने के कारण तद्विरोधो दोष भी अप्रसिद्ध होने से उक्तदोषाभाव अप्रसिद्ध है, अतः उसे कारण मानना युक्तिसंगत नहीं हो सकता' तो इसके उत्तर में यह कहा जा सकता है कि अवयवगतनीलादि का स्वमिक-नीलस्वादि.
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[ शास्त्रवा०ि स्त०६ श्लो०३७
ग्रहविरोधिदोषवत्वसम्बन्धावनिप्रतियोगिताक अमाव कारण है । यह सम्बन्ध प्रत्यक्षयोग्य अवयवगतनीलादि के सम्बन्धरूप में प्रसिद्ध है और अतीन्द्रियअवयवगतनीलादि का यह व्यधिकरण सम्बन्ध है। अतः इस सम्बन्ध से प्रतीन्द्रिय अवयवगत नीलादि का चतुरणुकादि अवयवी में अभाव होने से उसमें चित्ररूप के प्रत्यक्ष में बाधा नहीं हो सकती।
परन्तु यह उपाय गौरवग्रस्त होने के कारण मान्य नहीं हो सकता। अतः अवयवी में व्याप्यवृत्ति चित्ररूप के अस्तित्वपक्ष में शुक्लावयवाच्छेदेन चित्रोपलम्भ की आपत्ति यथापूर्व बनी रहती है ।
____ यदि इस आपत्ति के परिहार के लिये अवयवी में समवायसम्बन्ध से नीलपीतादि नानारूपों के प्रत्यक्ष को चित्रत्वग्रह का हेत माना आगया तो शक्लावयवावच्छेदेन चित्रप्रत्यक्ष की आपत्ति का पहिार हो जाने पर भी प्रवयवी में नीलरूपादि के अभ्रान्त प्रत्यक्ष की सिद्धि भी हो जायगो क्योंकि उसके भ्रमरूप होने में कोई युक्ति नहीं है।
स्यादेतत् , अन्याप्यवृत्तिनीलादिकल्पे तादृग्नीलादिप्रत्यक्षे द्रव्यतत्समवेतप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति, अच्याप्यवृत्तिद्रव्यसमवेतप्रत्यक्षत्वावच्छिन्नं प्रति या चक्षःसंयोगावच्छेदकावच्छिनसमरायसंबन्धावच्छिन्नाधारतासंनिको निरूपकतया विषयनिष्ठो हेतुः संयोगादिप्रत्यक्षस्थले क्लप्स एव | न च नीलकपालिकाबच्छेदेन चनमानस्य सरसमानील-पीतोभयकपालावच्छिन्नत्यनियमात् तदवच्छेदेन संनिक पीतादिग्रहापत्तिः, संयोगव्यक्तिय देशव्यापिनी तत्र परम्परया तद्देश एवाबच्छेदको न तु संपूर्णोऽवयव इत्यभ्युपगमाद् न दोषः। नीलविशिष्टपीतादिना नीलपीतोभयादिना बावान्तरचित्रीगंभवान् नाबान्तरचित्रसिद्धिः, चित्रत्वेन सममवान्तरचित्रवनामानाधिकरण्यप्रत्ययस्यापि नील-पीनविशिष्टचित्रत्वसामानाधिकरण्यायगाहित्वात , नीलाविशेषितनीलादिभेदाश्रयरूपसमुदायेनानुगतचित्रप्रतीतिसंभशच्चित्रत्वसामान्यमप्यसिद्धमेवेति ।
__ मेवम् , अनुभवसिद्धस्य चित्रत्वरयोक्तरीत्यापलापे नीलादिप्रतीतेरपि भेदविशेषावगाहित्वन नीलत्वादेरप्यपलापप्रसङ्गात् ।
[ अध्याप्यवृत्ति नीलादि अनेकरूप पक्ष में दोष निवारण का प्रयास ]
शंकाः-नीलादिरूप के अन्याप्यवसित्वपक्ष में इस प्रकार के कार्यकारणभाव को अपनाया जा सकता है कि विषयतासम्बन्ध से द्रव्य के और द्रव्यसमवेत के प्रत्यक्ष के प्रति, अथवा द्रव्य में अव्याप्यवृत्तिसमवेत के प्रत्यक्ष के प्रति, चक्षसंयोग के प्रवच्छेदक देश से अवच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्न आधारता स्वरुप संनिझर्ष, नीरूपकता सम्बन्ध से हेतु है। यह कार्यकारणभाव नया नहीं है किन्तु घट में नीलादिमाग से अवच्छिन्न संयोग आदि के प्रत्यक्ष के प्रति प्रथमतः सिद्ध है अतः नीलादि को प्राव्याप्यवृत्ति स्वीकार करने पर किसी नवीन कार्यकारणमाव की कल्पना के गौरव को आपत्ति नहीं हो सकती तथा इस कार्यकारणभाव से नीलपीतादि अध्यायत्ति अनेक रूप के आश्रयभूत घट में नीलदेशावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर नीलेतररूप के प्रत्यक्ष की आपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि उक्त
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स्याक० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
घर में नीलभागावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर उक्त आधारतारूप संनिकर्ष निरूपकता सम्बन्ध से नीलेतररूप में नहीं रहता, क्योंकि नीलेतररूप की समवायसम्बन्धावच्छिन्न अाधारता चक्षुसंयोग के प्रवच्छेदकीभूत नोल देश से अवच्छिन्न नहीं है। ऐसा मानने पर यदि यह आपत्ति दी जाय कि-विजातोय नीलकपालिका के साथ चक्षुसंयोग होने पर परम्परा से नीलकपालिकावच्छेदेन घट के साथ भी चक्षुसंयोग होता है और वह संयोग नियम से नीलकपालिका में समवेत नीलपीतादिमाकपाल से भी अवच्छिन्न होता है । अत: नीलकपालावच्छेदेन चक्षुसंयोग के प्रवच्छेदकीभूत नीलपीतादिमत् कपाल देश से अवच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारता रूप संनिकर्ष निरूपकत्वसम्बन्ध से घटगतपीतरूप में है क्योंकि उस प्रकार के कपाल से उत्पन्न घट में पीतरूप को प्राधारता नीलपीतकपालावच्छिन्न होती है । अतः नीलकपालिकावच्छेदेन उक्त पीतरूप के प्रत्यक्ष को आपत्ति होगी'-किन्तु यह आपत्ति उचित नहीं है क्योंकि 'जो संयोग व्यक्ति जिस देश में व्यापक होती है तन्मूलकसंयोग में परम्परासम्बन्ध से वह देश हो अवच्छेदक होता है किन्तु वह सम्पूर्ण अवयव जो उस देश से घटित है-अवच्छेदक नहीं होता।' ऐसा मानने पर उक्त दोष नहीं हो सकता क्योंकि नीलकपालिका के साथ चक्षुसंयोग होने पर नीलकपालिका में समवेत नीलपोतकपाल के साथ भी चक्षुसंयोग होता है और उस संयोग से घर के साथ चक्षसंयोग होता है। यही संयोग घट में पीतरूप के प्रत्यक्ष के प्रति प्रयोजक बन सकता है, किन्तु यह संयोग नीलकपालिका के साथ जो प्रथम चक्षुसंयोग होता है तन्मूलक होने से उक्त नियमान सार उमका अवनोदक नीलकमल न होकर नीलकपालिका ही होगी। क्योंकि मूलभूत चक्षुसंयोग नालापालिका में ही व्यापक होता है । प्रतः घट के साथ जो चक्षु का संयोग होता है उस का अवच्छेदक नीलकपालिका ही होगी। तदवच्छेदेन घट में पोतरूप को आधररता न होने से चासंयोगावच्छेदकावच्छिन्न समवायसम्बन्धावच्छिन्नाधारता रूप संनिकर्ष निरूपकत्व सम्बन्ध से घटगत पोतरूप में नहीं रहता। तदुपरांत नीलपीतउभयकपाल से उत्पन्न घट में जो अवान्तर चित्ररूप की उत्पत्ति का उल्लेख किया गया है वह भी ठीक नहीं है क्योंकि अवान्तर चित्ररूप की सिद्धि में कोई युक्ति नहीं है। नीलपीत उभय कपाल से उत्पन्न घर म बुद्धि होती है उसे स्बसमवायिसमवेतसमवायिसमवेतत्वसम्बन्ध से नीलविशिष्टपीतविषयक मान लेने पर उपपत्ति हो सकती है। जैसे स्वपद का अर्थ है नीलरूप, उसका समवायो नीलफपाल, उस में समवेत है घट, उसका समवायी है पोतकाल, तत्समवेतत्व है पीतरूप में। अतः यह कहने में कोई बाधा नहीं है कि उक्तरूप में चित्ररूप की प्रतीति उक्त सम्बन्ध से नीलविशिष्टपीत को विषय करती है। अथवा नोलादि के प्रव्याप्यत्तित्वपक्ष में अव्याप्यवत्ति नीलपीतादि की उत्पत्ति होने से उनका परस्पर में सामानाधिकरण्य सम्बन्ध होता है अतः नीलपोतादिकपालोत्पन्नघट में होनेवाली चित्रप्रतीति सामानाधिकरण्य सम्बन्ध से नीलविशिष्टपीत को विषय करती है। अथवा यह भी कहा जा सकता है कि उक्त प्रतीति स्वसमाथिसमवेतत्व सम्बन्ध से नीलपीत उभय रूप को विषय करती है। अथवा नीलादि के अव्याप्यवृत्तित्वपक्ष में समवाय सम्बन्ध से नोलपोतोभय को विषय करती है। अर्थात् उक्त घट में होनेवाली 'अयं चित्रः' इस बुद्धि का विवरण 'अयं नीलविशिष्टपीतवान्' अथवा 'अयं नोलबान पीतवान' इस रूप में हो सकता है। सामान्यचित्रत्य में जो अवान्तरचित्रत्व के सामा. नाधिकरण्य को बुद्धि होती है उसके अनुरोध से मी अनान्तरचित्रत्व को फल्पना नहीं हो सकती, क्योंकि वह भी परम्परा सम्बन्ध से नीलपीतविशिष्टत्वरूप चित्रत्य के साप्तानाधिकरय को विषय कर उपपन्न की जा सकती है । सत्य बात तो यह है कि सामान्य चित्रत्व स्वयं हो असिद्ध है, क्योंकि
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[ शास्त्रवार्ता०स्त०६इलो० ३७
जो 'इदं चित्रम्' 'इदं चित्रम्' इस प्रकार अनुगत प्रतीति होती है वह बुद्धि प्रतियोगिता सम्बन्ध से भेदांश में नीलादि अप्रकारक नीलादिभेदवत रूप समुदाय को विषय करती है। जैसे-नीलपीत-पीतरक्त प्रादि कपालों से उत्पन्न घटों में जो 'इदं चित्रम्' 'इदं चित्रम्' इस प्रकार की बुद्धि होती है उस का अर्थ है यह स्वाश्रयत्व और स्वभिन्नरूपाश्रयत्व उभयसम्बन्ध से रूपवान है।
उत्तर:-किन्तु विचार करने पर नालादिरूप के प्रयाप्यवतित्ववादों का उक्त कथन समीचीन नहीं प्रतीत होता क्योंकि चित्रत्व अनुभवसिद्ध है अतः उक्त रीति से उसका अपलाप करने पर नोलादि प्रतीति को भी भेद विशेष का ग्राहक मान लेने से नीलस्वादि का भी अपलाप हो जायगा । कहने का तात्पर्य यह है कि नीलत्वादि का अपलाप करने के लिये भी कह सकते हैं कि-'अयं नील' 'अयं पोतः' इत्यादि प्रतीति नोलत्व-पीतत्वादि रूप किसी भावात्मक धर्म को विषय न करती हुयी अनीलपीतादि के भेद को ही विषय करती है, अर्थात् 'अयं नीलः' का अर्थ होता है 'अयं अनीलभिन्नः' । अथवा वह प्रतीति जितनी नीलव्यक्ति है तत्तवव्यक्तिमेदकटवदभेद को स्वप्रतियोगितावच्छेदकाभाववत्त्व सम्बन्ध से भेदत्वेन विषय करती है। अर्थात् 'अयं नील:' इस प्रतीति का अर्थ है अयं स्वप्रतियोगितावच्छेदकतत्तव्यक्तिमेदकूटाभाववत्त्वसम्बन्धेन भेदवान् । इस प्रतीति में तत्तव्यक्तिभेदकूट का संसर्ग कुक्षि में प्रवेश होने के कारण इस प्रतीति को उपपत्ति में तत्तद्व्यक्तिग्रह को अपेक्षा नहीं होती।
अस्तु तर्हि तत्र तत्रावयविनि नीलत्वादितत्तचित्रत्वाश्रयमेकमेव व्याप्यवृत्ति रूपादिकं लाघवात् [नीलत्यादिकमेव ? ], तत्राऽच्याप्यवृत्तिगुणविशेषाणामिव जातिविशेषाणामप्यव्यायवृत्तित्वेऽविरोधात्, परम्परव्यभिचारिजात्योः सामानाधिकरण्यस्य बाधकविरहात्त प्रमाणसिद्धस्यानभ्युपगममात्रेण निराकरणायोगात् । अत एव ककारादिपु सर्वेषु ताराद्याकारानुगतमतिरुपपद्यतेः एकस्यैव तारत्वादेः ककारादिवृत्तित्यात , उपपद्यते च मात-पापाण-सौवर्ण घटादारनुगतमतिरिति स्वतन्त्र एव पन्था इति चेत् ?
च्याप्यवृत्ति एक रूप वादी स्वतन्त्र मत की आशंका ] स्वतंत्रवादी:- नीलपीतादि के अध्याप्यत्तित्ववादी के विरुद्ध यह मानना अधिक युक्तिसंगत है कि नोलपीतादि विजातीयरूपावि युक्त अवयवों से उत्पन्न अवयवी द्रव्य में व्याप्यवृत्ति रूप उत्पन्न
नीलल्पपीलत्वाशिसभी जातियों का आश्रय होता है और वही 'चित्र' पद से निदिष्ट ता है इस प्रकार नीलत्व-पोतत्वादि जाति हो एकरूपवत्तितया चित्रत्वरूप होती है और एक एक रूपमात्रवृत्तितया नीलरवादिरूप होती है-इस कल्पना में लाधव है तथा कतिपय गुणों के अव्याप्यधत्तित्व के समान इन कतिपय जातियों को अध्याप्ययत्ति मानने में कोई विरोध नहीं है, क्योंकि गोत्व-अश्वत्वादि परस्पर व्यभिचारी जाति में सामानाधिकरण्य न होने पर भी नौलत्व-पीतत्वादि परस्पर व्यभिचारी जाति में सामान धिकारण्य मानने में कोई बाधा नहीं है। अत: बाधविरहरूप सतर्कप्रमाण से उन जातियों के सामानाधिकरण्य की सिद्धि होने पर उसका केवल यह कह कर निराकरण नहीं हो सकता कि 'परस्परव्यभिचारी जाति का सामानाधिकरण्य कहीं अन्यत्र स्वीकृत नहीं है ।' उन जातियों का सामानाधिकरण्य स्वीकृत है इसीलिये तो तार गकार में तारत्व कत्व का ध्यभिचारी और मन्द ककार में कत्व तारत्व का व्यभिचारी होने पर भी करव और तारत्व इन दोनों का
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स्या० क. टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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तार ककार में सामानाधिकरण्य माना जाता है और उसी से ककार-गकारादि समो तार वर्गों में ताराकार अनुगतबुद्धि को उपपत्ति हो सकती है। क्योंकि, एक ही तारत्व ककार-कार आदि सब में विद्यमान होता है । परस्पर व्यभिचारी जातियों का सामानाधिकरण्य मान्य है इसीलिये मृत्तिका, पाषाण और सुवर्ण के बने हुये घट में 'घटः' ऐसी अनुगत प्रतीति संगत होती है। क्योंकि घटत्व मत्तिका में या पाषाणघट में सुवर्णत्व का व्यभिचारी है और सुवर्णत्व कुण्डल-करकादि में घटत्व का ध्यभिचारी है, इसी प्रकार मृत्तिकात्व और पाषाणत्व घटेसरमृत्तिका और पाषाण में घटत्व का व्यभिचारी है, एवं घटत्य सुवर्ण के घट में मृत्तिकात्व-पाषाणत्व का व्यभिचारी है, फिर भी मृत्तिका और पाषाण के बने घरों में मृत्तिकात्व और पाषाणत्व के साय घटत्व का सामानाधिकरण्य होता है। इस प्रकार चित्ररूप के सम्बन्ध में यह एक स्वतन्त्र मार्ग भी प्रतिष्ठित हो सकता है ।
सत्यम् , एवमप्येकानेकवस्तुरूपाऽव्याहतावपि, सत्यामपि चित्रत्वग्राहकसामग्रयां नीलभागावच्छेदेन 'हर व चित्रम्' इति प्रतीतेस्नत्तदवच्छेदेन पर्याप्ताऽपर्याप्ततया स्वरूपतोऽपि तस्येकानेकात्मकस्य युक्तत्वात् । एवं हि चित्रप्रतिभासे नीलपीतादिमत्त्वग्रहहेतुत्वमपि न कल्पनीयम्, पनसमात्रदेशावच्छेदेन 'वनम्' इति बुद्धधभावस्येव नीलभागमात्रावच्छेदेन चित्रप्रतिभासाभावस्य विषयाभावादेवोपपत्तेः, तद्देशेनाऽचित्रादिधियश्च नयाधीनत्वात् ।
[स्वतन्त्र मत की समालोचना, चित्ररूप की स्वरूपतः एकानेकरूपता ]
इस स्वतन्त्र नवीन मत के सम्बन्ध में व्याख्याकार की यह विशेषोक्ति है कि-नीलपीतादिकपालों से उत्पन्न घट में, उक्तमत में उस घट के रूप में स्वरूपतः ऐक्य और नोलत्व-पीलत्वावि एकएक रूप से अनेकत्व अव्याहत होने पर भी ऐक्य-अनक्य दोनों रूप स्वरूपतः नहीं लब्ध होता है जब कि वस्तुस्थिति यह है कि दोनों रूप वहां स्वरूपतः है, क्योंकि पद्यपि केवल नोलभागावच्छेदेन चक्षुसंयोग होने पर मी चित्रत्वग्राहकसामग्री तो वहां निर्बाध है। जैसे-चित्रत्व ग्राहक सामग्री है चक्षुसंयुक्तसमवेतसमवायरूप संनिकर्ष और वह संनिकर्ष केवल नीलभागावच्छेदेन घट के साथ चक्षुसंयोग होने पर भी निधि है क्योंकि चक्षःसंयक्त घट में जो रूप समवेत है उस में नीलत्व और नीलत्वपीतस्वादि की समष्टिरूप चित्रत्व दोनों ही समवेत हैं । -तथापि नोलभागावच्छेदेन चित्रत्वेन रूप की प्रतीति न होकर 'इह न चित्रम्' इस प्रकार की प्रतीति होतो है । इस से यह सिद्ध होता है कि घट का उक्त व्याप्यवृत्ति रूप भी चित्रत्व नीलत्वपीतत्वादि विभिन्नजाति को समष्टिरूप से एक देश में पर्याप्त नहीं होता। अतः वह स्वरूपतः एक है इसीलिये घट के सम्पूर्ण भागों में विद्यमान होने से एक देश में पर्याप्त नहीं होता। और वह अनेक भी है, क्योंकि केवल नीलभागावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर 'इह नीलम्' इस प्रकार यह रूप नीलस्वादि एक एक रूप से घट के एक एक भाग मात्र में भी उपलब्ध होता है, इस उपलब्धि से एक एक भाव में नोलत्वादि एक एक रूप से उसकी पर्याप्तता सिद्ध होती है । इस प्रकार उक्त घट' का रूप नोलत्वादि एक एक रूप से स्वरूपतः भो अनेकात्मक है-इस प्रकार उसकी स्वरूपतः एकानेकोभयात्मकता निर्विवाद है।
उक्त घटगतरूप के उक्त रीति से स्वरूपतः एकानेकात्मक सिद्ध होने का एक सत् फल यह भी है कि चित्ररूप के प्रतिभास में नीलपीतादिरूपग्रह को कारण मानने को भी आवश्यकता नहीं रहती । क्योंकि जसे वन के विभिन्न जातीय वक्षों के समूहरूप होने से पनस एक विशेषज
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[ शास्त्रवा० स्त० ६ स्लो०३७
वृक्षावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर तस्वच्थेवेन समष्टिरूप धन का अभाव होने से उसमें 'वनम्' इस बुद्धि का प्रभाव होता है, इसी प्रकार उक्त घट में नीलभागमात्रावच्छेदेन 'इह चित्रम्' इस प्रकार के चित्रप्रतिभास का अभाव भो तदवच्छेवेन चित्ररूप विषय के अभाव से ही उपपन्न हो जाता है। किन्तु नोलभागमात्रावच्छेदेन जो 'इन द चित्र अबला हो होला' इस माद जो अचित्रत्व-नीलत्वादि को बुद्धि होती है वह नय द्वारा सम्पन्न होती है अर्थात् नीलत्वादिरूप एक एक की अपेक्षा से उस भाग में रूप में प्रचित्रत्व विद्यमान होने के कारण एक एक भाग में प्रचित्रत्व की बद्धि होती है । और नीलत्वात्मक एक रूप से उस भाग में उस रूप की पर्याप्तता को अपेक्षा से 'इह नीलम्' यह बुद्धि होती है।
तदिदमाह सम्मतिटीकाकार:-"अत एवैकानेकरूपत्वाचित्ररूपस्यकावयवसहितेऽवयविन्युपलभ्यमाने शेषावयवाऽऽवरणे चित्रप्रतिभासाभाव उपपत्तिमान , सर्वथा त्वेकरूपत्वे तत्रापि चित्रप्रतिभासः स्यात् , अवयविच्याप्त्या तपस्य वृत्त । न चाऽवयवनानारूपोपलम्भसहकारीन्द्रियमवयविनि चित्रप्रतिभासं जनयति, इति तत्र सहकार्यभावाञ्चित्रप्रतिभासानुत्पत्तिरिति वाच्यम्, अवचिनोऽप्यनुपलब्धिप्रसङ्गात् । न हि चाक्षषप्रतिपत्त्याऽगृह्यमाणरूपस्यावयविनो वायोरिवअहणं दृष्टम्। न च चित्ररूपच्यतिरेकेणापरं तत्र रूपमात्रमस्ति यतस्तत्प्रतिपत्त्या पटाहणं भवेत्र" इत्यादि । तदेवं चित्ररूपयत् सिद्धं नित्यानित्यत्वादिरूपेणेकानेक वस्त्विति परिभाषनीयं सुधीभिः । विस्तरस्तु स्यावादरहस्ये ॥३७॥
[चित्ररूप मीमांसा का उपसंहार ] व्याख्याकार ने इस संदर्भ में सम्मतिटीकाकार के उक्त तथ्य के संधादी वचन को उद्धत किया है जिसका अर्थ इस प्रकार है-चित्र रूप के एकानेकरूप होने से एकावयवसहित अययवि की उपलब्धि के समय अन्य समस्त अवयवों के आवत रहने पर अवयवी में चित्रप्रतिभास का अभाव उपपन्न होता है । यदि चित्ररूप सर्वथा एक होता तो घट के एक भाग में भी चित्रत्वेन उस का प्रतिभास होता, क्योंकि समस्त घट में विद्यमान होने से सर्वथा एकरूप घटत्व जैसे प्रत्येक घटव्यक्ति में पर्याप्त होता है उसी प्रकार सम्पूर्ण अवयवी में व्याप्त चित्ररूप भी सर्वथा एकरूप होने पर अवयवी के प्रत्येक भाग में भी पर्याप्त होता।
यदि यह कहा जाय कि 'उक्त अवयवी में जो केवल नोलभागावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर चित्ररूप का प्रतिभास नहीं होता वह इसलिये नहीं कि उसमें चित्ररूप नहीं है, अपितु इसलिये नहीं होता कि हतिय अवयवगत विजातीय रुपों के उपलम्भ से सरकत होकर ही अवयवी में चि
चित्रप्रत्यक्ष का जनक होता है। अतः नोलभागमात्रावच्छेदेन चक्षसंनिकर्ष होने पर अवयवगत घिजातीयरूपों के प्रत्यक्षरूप सहकारी के अभाव से चित्रप्रतिभास को अनुत्पत्ति होती है'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर एकदेशमात्रावच्छेदेन चक्षुसंनिकर्ष होने पर अवयवी को भी उपलब्धि न हो सकेगी क्योंकि सहकारी के अभाव से उस में चित्ररूप की उपलब्धि हो नहीं सकती और अन्य कोई रूप उसमें रहता नहीं जिसके साथ उसको उपलब्धि हो । तथा यह बात स्वीकार्य नहीं हो सकती कि 'रूप का चाक्षुषप्रत्यक्ष न होने पर भी अवयवी का चाक्षष प्रत्यक्ष होगा'-क्योंकि, जसे रूप का प्रत्यक्ष न होने
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स्या क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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से वायु का चाक्षष प्रत्यक्ष नहीं होता, उसी प्रकार रूप को छोडकर किसी अन्य अवयवो का भी प्रत्यक्ष दृष्ट नहीं है। 'चित्ररूप का ग्रहण न होने पर भी किसी अन्य रूप के साथ अवयवो का
हट हो सकता है-ह भीही हा . सकता क्योंकि विभिन्न रूपवान अवयवों से उत्पन्न अवयवी में चित्ररूप से भिन्न कोई रूप नहीं होता जिससे कि उस रूप के प्रत्यक्ष के साय घटादि उक्त प्रकार के अवयवो का ग्रहण हो सके।"
उपरोक्त संवादी वचन का उद्धरण देते हुए अन्त में व्याख्याकार ने यह कहा है कि बुद्धिमानों को इस तथ्य की ओर ध्यान देना चाहिये कि एकानेक चित्ररूप के समान निस्यत्व-अनित्यत्व आदि रूप से भी प्रत्येक वस्तु एकानेकात्मक होती है। इस सम्बन्ध में विस्तृत विचार ध्याख्याकार के स्यावादरहस्य नामक ग्रन्थ में प्राप्त है।
३८ वी कारिका में क्षणिकत्व का साधक क्षयेक्षणरूप चतुर्थ हेतु का निराकरण किया गया है'क्षयेक्षणात्' इति तुर्यहेतु दृषयन्नाह--- मूलम्-अन्ते क्षयेक्षणं घाघक्षणक्षयप्रसाधनम् ।
तस्यैव तत्स्वभावत्वायुज्यते न कदाचन ॥३॥ अन्ते क्षयेक्षणं च अन्ते नाशदर्शनं च, आद्यक्षणक्षयप्रसाधनं प्रथमक्षणे वस्तुनः सर्वथा नाशस्यानुमापकं तदुक्तम् , तस्यैव वस्तुनः तत्स्वभावत्वात् अन्त एवं क्षयस्वभावत्वाच, न युज्यते कदाचन तत् , अन्यथाऽतत्स्वभावस्थापत्तेः !॥३८॥
[अन्त में क्षयदर्शन इस चौथे हेतु की आलोचना का प्रारम्भ ] भावमात्र में क्षणिकत्व को सिद्ध करने की बौद्धों को एक युक्ति यह है कि घट-पटादि माव पदार्थों का अन्त में नाश देखा जाता है, इस से यह अनुमान होता है कि भाव नश्वर स्वभाव है । जब नश्वरत्व उसका स्वभाव है तो वह भाव किसी भी क्षण स्वभाव से मुक्त नहीं हो सकता। अतः जिस क्षण में घटपटावि के नाश का दर्शन होता है उसके पूर्व क्षणों में मो उसका नाश होता है। इस प्रकार भाव को क्षणिकता अर्थात् प्रतिक्षण नाशग्रस्तता सिद्ध होती है। अर्थात भाव अपनी उत्पत्तिक्षण से लेकर और अपने अन्तिम क्षण तक अर्थात् अपने नाशवशं नक्षण के प्रव्यवहितपूर्वक्षण तक सम्पूर्ण क्षणों में नाशग्रस्त होता है । यद्यपि ऐसा मानने में यह शंका होती है कि भाव का उत्पत्तिक्षण भाव का स्थितिक्षण भी होता है क्योंकि 'आध क्षण का सम्बन्ध' हो उत्पत्ति है और यहो उस क्षण में उसको स्थिति है। अत: उत्पत्तिक्षण में भो भाव को नाशग्रस्त भानने पर एक ही क्षण में परस्परविरोधी स्थिति और नाश का एक वस्तु में समावेश प्रसक्त होता है।"-किन्तु इस का उत्तर यह है कि यदि भाव अपने उत्पत्तिक्षण में अनश्वरस्वभाव होगा तो कालान्तर में भी उसके उस स्वभाव के अनुवर्तन को प्रसक्ति होने से अन्त में उसके नाशदर्शन की अनुपपत्ति होगी। प्रतः उत्पत्ति. क्षण में उसको नश्वरता अन्त में नाशदर्शन को अन्यथानुपपत्ति से सिद्ध है और उसके दर्शन से उस क्षण में उसको स्थिति भी सिद्ध है अतः दोनों प्रमाणसिद्ध हाने से उनमें विरोध असिद्ध है। इस प्रकार बौद्धमतानुसार भाव अपने उत्पत्तिक्षण में भी नाशग्रस्त होता है। किन्तु बौद्धसम्मत क्षणिकरव
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! शास्त्रवास्ति०६ श्लो०-३६
स्वोत्पत्ति के प्रव्यवहित उत्तरक्षण में उत्पन्न होने वाले ध्वंस के प्रतियोगित्वरूप में प्रसिद्ध है । इस प्रसिद्धि का प्राधार भाव की उत्पत्ति के अव्यवहितोत्तरक्षण में भाव के ध्वंस की उत्पत्ति है और यह ध्वंस उत्तरभावात्मक है। किन्त अन्त में नाशदर्शन की अन्यथानपपत्ति से भाव अपने उत्पत्तिक्षण में भी जिस नाश से ग्रस्त होता है वह नाश अमन्य है जो निवृत्ति' शब्द से व्यवहत होता है, अतः भाव प्रतिक्षण नश्वर है इसका अर्थ है भाव प्रतिक्षण निवृत्त है। इस प्रतिक्षणनिवृत्ततारूप क्षणिकता के ही साधनार्थ 'अन्त में नाशदर्शन' रूप हेतु का उपन्यास किया गया है।
इसके विरुद्ध ग्रन्थकार का कहना यह है कि वस्तु का स्वभाव यह है।-'अन्त में ही नष्ट होना' अतः उससे भाव का प्रतिक्षण नश्वरत्व कदापि नहीं सिद्ध हो सकता। यदि आद्यक्षण में भी वह नाशस्वभाव होगा तो उसके नाश को अदृश्य स्वभाव मानना होगा क्योंकि श्राद्यक्षण में उसके नाश का दर्शन नहीं होता और जब वह अदृश्यनाशस्वभाव हुआ तब उसमें दृश्यनाशस्वभावत्वाभाष की आपत्ति होगी, फलतः अन्त में भी नाश के दर्शन को उपपत्ति न हो सकेगी ॥३॥
___३९वीं कारिका में पूर्वकारिका में उक्त विषय का समर्थन करते हुये उसके विरुद्ध बौजाभिप्राय का उल्लेख किया गया है
एतदेव समर्थयभाह___ मूलम्-आदौ क्षयस्वभावे च तत्रान्ते दर्शनं कथम् ।
तुल्यापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भायथोदितम् ॥ ३९ ॥ आदी प्रथमक्षण एव, क्षयस्वभावे च-नाशस्वभावे च, तत्र-वस्तुन्यभ्युपगम्यमाने, अन्ते दर्शनं कथम् ? आदावेव किं न तदर्शनम् । इति भावः। पगभिप्रायमाह-तुल्यापरापरोत्पत्तिविप्रलम्भात-सदृशोत्तरोत्तर क्षणप्रतिरोधात् अन्न एव तद्दर्शनम् , नादौं, प्रतिबन्धकसत्त्वादिति । अत्र स्वाभियुक्तसम्पतिमाह-यथोदितं पूर्वप्रन्ये वृद्धः ॥ ३६॥
[ नूतन नूतन उत्पत्ति से नाश का अदर्शन-चौद्ध ] यदि भाव को प्रथमक्षण में ही नाशस्वभाव माना जायगा तो जब प्रथमक्षण में उसके नाश का दर्शन नहीं होता तो अन्त में उसका दर्शन कैसे हो सकेमा ? अर्थात् अन्त में नाशस्वभाव के सश यदि आद्यक्षण में भी भाव नाशस्वभाव होगा तो आशक्षण में हो उस नाश का दर्शन क्यों नहीं होता? इस प्रश्न के उत्तर में बौद्ध का यह कथन है कि पूर्वक्षण के सदृश उत्तरोत्तरक्षणों की उत्पत्ति होती है। उन सदृश क्षणों से प्रतिरोध होने के कारण प्रारम्भ में नाश का दर्शन न होकर अन्त में ही होता है, क्योंकि प्रारम्भ में महशोत्तरक्षण रूप दर्शन का प्रतिबन्धक उपस्थित रहता है और अ.त में उक्त प्रतिबन्धक न होने से नाश का दर्शन होता है । यह उक्त प्रश्न का उत्तर आधुनिक नहीं है किन्तु इस उत्तर में पूर्वाचार्यों की भी सम्मति है क्योंकि उन के ग्रन्थों में यह बात कही गई है ॥३९॥
४० वीं कारिका में बौद्धमत के पूर्वाचार्य के उस कथन को उद्धृत किया गया है जिसका संकेत पूर्व कारिका में दिया गया है . .
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स्या०० रीका एवं हिन्दी विवेचन ]
१८१
किमुदितम् ? इत्याहमूलम्–'अन्ते क्षयेक्षणादादी क्षयोऽदृष्टोऽनुमीयते ।
सदृशनावरुनुत्पात्तद्ग्रहाहि तवग्रहः' ॥४०॥ अन्ते क्षयेक्षणात्-अन्ते नाशदर्शनाव आदौ-उत्पत्तिकाले, क्षया-नाशः, अदृष्टोऽप्यनुभीयते, अनश्वरस्यान्तेऽपि तदयोगात् । कथं तर्हि प्राक् तदग्रहः १ इत्याह-सदृशेन-तुल्यक्षणेन, अबरुद्धत्वात् । तद्ग्रहादि-सदृशबहादेव, तदग्रहः-आद्यक्षयाग्रहः । अत्र 'घटोत्पत्तिक्षणो घटध्वंसाधिकरणः, घटघंसाधिकरणक्षणपूर्वक्षणत्वात्' इत्यनुमाने घटोत्पनिमाच्यक्षणे व्यभिचारः, हेतौ घटोत्पत्त्यपूर्वत्वविशेषणे च संतानेन व्यभिचार इति दूषणं स्फुटमेवेति ॥४०॥
[ अन्तिम नाशदर्शन में बौद्ध के प्राचीन ग्रन्थ की सम्मति ] "भाव का अन्त में नाश देखा जाता है । उस नाशवर्शन से उत्पत्तिकाल तथा नाशदर्शनकाल के पूर्व सभी क्षणों में भाव के नाश का दर्शन न होने पर भी उसका अनुमान होता है क्योंकि यदि उत्पत्तिक्षण तथा द्वितीयादिक्षणों में उसको अनश्वर माना जायगा तो अन्त में भी उसका नाश न हो सकेगा। इस सम्बन्ध में इस प्रश्न का कि 'यदि उत्पत्तिक्षण में तथा द्वितीयाविक्षरणों में भी का नाश होता है तो उसका प्रत्यक्ष क्यों नहीं होता?' उत्तर यह है कि उत्पत्तिकाल को उत्तरक्षण में पूर्वोत्पन्न भाव के सदृश दूसरे क्षणिकभाव की उत्पत्ति जैसे होती है इसी प्रकार द्वितीयादिक्षण में भो पूर्वोत्पन्न भाव के सदृश अन्य भाव की उत्तर क्षणों में उत्पत्ति होती रहती है। इन सदृशक्षणों के वर्शन से ही पूर्व में होनेवाले भावनाश के दर्शन का प्रतिबन्ध हो जाता है।"
इस प्रसङ्ग में व्याख्याकार ने भाघ के प्रथम-द्वितीयादि क्षणों में बौद्धाभिमत भाव नाश के अनुमान का प्रयोग कर उसका निरकारण बताया है। बौद्धाभिमत अनुमान का प्रयोग इस प्रकार हो सकता है कि 'घट का उत्पत्तिक्षण घटध्यंस का अधिकरण है, क्योंकि वह घटध्वंसाधिकरण क्षण का पूर्वक्षण है।' इसी प्रकार घट के द्वितोयाविक्षणों में भी अनुमान का प्रयोग हो सकता है। किन्तु इस अनुमान में व्यभिचार है, क्योंकि घटोत्पत्ति के पूर्व का क्षण भी घटध्वंसाधिकरणक्षण का पूर्व क्षण है किन्तु यह घटध्वंसाधिकरण नहीं है । यदि इस व्यभिचार के वारणार्थ हेतु में 'घटोत्पत्ति के अपूर्वस्व' का विशेषणविधया प्रवेश किया जाय तो घटोत्पत्ति के पूर्वक्षण में व्यभिचार का वारण हो जाने पर भी घटसन्तान में व्यभिचार दोष अत्यन्त स्पष्ट है, क्योंकि सन्तान में घटोत्पत्ति का अपूर्वत्व और घटध्वंसाधिकरण क्षण का पूर्वक्षरणत्व विद्यमान है, किन्तु घरध्वंसाधिकरणत्व सिद्ध नहीं है ॥४०॥
४१ वीं कारिका में प्रथम द्वितीयादिक्षणों में भावनाश के अग्रह के बौद्धोक्त हेतु का निराकरण किया गया है।
तदअहहेतुं दृपयन्नाह प्रन्थकार:मूलम् -एतदप्यसदेचेति सदृशो भिन्न एव यत् ।
भेदाऽग्रहे कथं तस्य तत्स्वभावत्वतो ग्रहः ? ॥ ४१ ॥
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[ शास्त्रवासी स्त०६लो. ४२
एतदपि-परोक्तम् , असदेव अनुपपद्यमानार्थकमेव, यदु-यस्माद ,सदृशो भिन्न एवभेदघटित एव । तद्भिन्नत्वे सति तवृत्तिधर्मवच्चं हिं सादृश्यम् । तद्वृत्तिश्च धर्मो विधिरूपो निषेधरूपो वेत्यन्यदेतत् । ततः किम् ? इत्याह-भेदाग्रहे सति कथं तस्य सदृशस्य ग्रहः । कुतः इत्याह-तत्स्वभावत्वतः भेदयटितस्वभावत्वात् । न च तद्घटितं तदग्रहे गृह्यते, जलत्याग्रहे जलवस्वभावत्वाऽप्रदर्शनात् ॥४॥
भेदग्रह न होने पर सादृश्य का अग्रहण ] बौद्ध के इस कथन का कि 'सदृशग्रह से प्रथमादि क्षणों में भावनाश का अग्रह होता है'-अर्थ ही अनुपपन्न है क्योंकि सदृशभाव भेदघटित ही होता है। तात्पर्य यह है कि तत्सदृश वही है जो कि तभिन्न हो व तद्गतविशिष्टयभवान हो अथात सत से भिन्न होते हुये तनिष्ठधर्म की आश्रयता ही सादृश्य है, हो, यह अन्य एक बात है कि सारश्य के स्वरूप में प्रविष्ट तनिष्ट धर्म विधिरूप हो या निषेधरूप हो । अर्थात सादृश्य के विवरण में तनिष्ठधर्म का विधि अथवा निषेध-किसी एक निश्चित रूप से निवेश न होकर सामान्यतः तनिष्ठधर्मस्वरूप से निवेश है । स्थिरवाही के मत में यह धर्म भावात्मक होता है क्योंकि पूर्वोत्तरक्षणों के साथ सम्बन्ध रूप भावात्मकधर्म उस मत में प्रामाणिक है किन्तु बौद्धमत में मावात्मक सभी अर्थ क्षणिक होने से यह धर्म निषेधात्मक=अतघ्यावृत्ति रूप होता है । इस प्रकार सादृश्य जब नियम से गेवघटित है तय भेदग्रह न होने पर सदृश का ज्ञान नहीं हो सकता है, क्योंकि जो जिस से घटित होता है वह उसके प्रग्रह में महीत नहीं होता जैसे जलव का अग्रह रहने पर जलस्वघटित जलस्वभावत्व का भी अग्रह देखा जाता है ॥४१॥
४२ वों कारिका में उक्त आक्षेप के बौद्धाभिमत उत्तर को प्रस्तुत करते हुये उस में भी दोष
बताया गया है
पराभिप्रायमाशङ्कतेमूलम् तदर्थनियतोऽसौ यद्भेदमन्याग्रहाडि तत् ।
न गृह्णातीति चेत्तुल्यः सोऽपरेण कुतो गतिः ? ॥४॥ तदर्थनियतः अधिकृतकक्षणार्थविषय इत्यर्थः, असौ-ब्रहः सदृशपरिच्छेदः, यद्यस्मात् , भेदं नानान्वलक्षगम्, तत्-तस्माद , अन्याऽग्रहाद्वि-तदा प्रतियोग्यग्रहणादेव न गृह्णाति, तत्वतस्त्वस्त्येव स वस्तुतः सदृशग्रहे । एवं हि तन्नाशाहप्रतिबन्धको दोपः, न तु सदृशत्वग्रहोऽप्यपेक्षितः । न हि शुक्ती रजतसारूप्याहोऽप्युल्लिखितरजतभेद एव रजतत्वभ्रमजनकः, रजतभेदग्रहे रजतत्वभ्रमस्यैवाऽभावात् , किन्तु स्वरूपत [व, तद्वदनापीति भावः । अत्र शुक्ती रजतसहचरितचाकचिक्यादिधर्मवत्वग्रहादेव रजतभ्रमः, प्रकृते तु सदृशदर्शनं निर्विकल्पतयाऽसरकल्पं न नाशवहविरोधि, अतिप्रसङ्गात् । अस्तु वा यथाकथञ्चिदेतत्, तथापि सादृश्यस्य दुहत्वात् तदुक्तेरेवानुपपत्तिः, इत्यभिप्रायत्रानुत्तरयति-इति चेत् ? ययुक्ताभिप्रायवान
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स्या... टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
भवान तदा सा-गृह्यमाणः क्षणः, अपरेण प्रारगृहीतेन क्षणेन, तुल्यः सदृशः । 'इति' इतिशेषः कुसो गतिः कथं परिच्छित्तिः १-उपायाभावाद् न कथञ्चिदित्यर्थः ।।४२॥
[भेदग्रह न होने पर भी सादृश्यत्रह शक्य है-चौद्ध आशंका ] उक्त आक्षेप के उत्तर में बौद्धों का यह कहना है कि सदृश का निश्चय नियम से प्रस्तुतक्षणविषयक होता ही है । प्रर्थात् उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के सादृश्य का ज्ञान, उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के भेद और पूर्वक्षरणवृत्तिधर्म का ग्राहक यदि माना जाय तो भेव के विशेषणरूप में पूर्वक्षण का भी ग्राहक मानना ही पड़े
पडेगा किन्त वह यक्तिसडत नहीं हो सकता. क्योंकि उक्तज्ञान उत्तरक्षण में होता है और उस क्षण में भेद के पूर्वक्षणरूप प्रतियोगी का ग्रहण नहीं हो सकता, क्योंकि उसक्षण में पूर्वक्षण अविद्यमान है । तथापि सदशग्रह के विषयभूत उत्तरक्षण में पूर्वक्षण का मेद वस्तुतः विद्यमान होता है । इस प्रकार वस्तुतः तद्भिन्न में तदभेद को ग्रहण न करने वाला भी 'तनिष्ठधर्मग्रह रूप सदृशग्रह तन्ना. शग्रह में शक्य है और वही प्रतिबन्धक दोष होता है । तन्नाशग्रह के प्रतिबन्ध के लिये सदृशत्व के पूर्णस्वरूप का यानी मेवघटित ज्ञान अपेक्षित नहीं होता ।
[शुक्ति में रजतसादृश्य ज्ञान भेदज्ञानमूलक नहीं होता ] तथा, यह कल्पना चौद्धों की कोई अपूर्व कल्पना नहीं है किन्तु यह स्थिरवादी को भी मान्य है । जैसे, शुक्ति में रजत सादृश्य का ज्ञान शुक्ति में रजतत्वभ्रम का जनक होता है। किन्तु वह ज्ञान रजतभेद का विषय न करके रजतयत्तिचाकचिवयरूप धर्म का हो ग्रहण करता है। क्योंकि यदि उस ज्ञान में शुक्ति में रजतभेद का मो भान माना जायेगा तो उसके अनन्तर शुक्ति में रजतत्वभ्रम ही न हो सकेगा क्योंकि रजतभेदज्ञान रजतत्वज्ञान का विरोधी होता है। अतः जैसे रजत का भेव स्वरूपतः तथा र त्तिचाकविषयधर्मज्ञानतः, रजतत्वभ्रम का जनक होता है उसी प्रकार उत्तरक्षण में पूर्व क्षण का भेद स्वरूपतः, तथा पूर्वक्षणवृत्तिधर्म ज्ञानतः, पूर्वक्षण के नाशग्रह का प्रतिबन्धक हो सकता है ।
[ बौद्ध मत में अन्त में भी नाशदर्शन की अनुपपत्ति ] बौद्ध को उपरोक्त प्राशंका के समाधान में व्याख्याकार का यह सूचन है कि-शुक्ति में रजतनिष्ठ चाकचिक्यादि धर्म के विशिष्टज्ञान से हो शुक्ति में रजतत्यभ्रम की उत्पत्ति होती है, किन्तु प्रकृत में, पूर्वक्षण के सदृश उत्तरक्षण का दर्शन निर्विकल्प यानी विशिष्टाऽविषयक होने से असन्तुल्य होता है, इसलिये यह नाशग्रह का विरोधी नहीं हो सकता क्योंकि विशिष्टाऽविषयक प्रसत्तुल्यज्ञान को यदि नाशग्रह का विरोधी माना जायगा तो अन्तिमघरक्षण के उत्तरक्षण में जो विसहशदर्शन होता है यह भी विशिष्टाऽविषयक होने से असत्तुल्य होते हुये भी नाशग्रह का विरोधी हो जायगा। इस प्रकार विसदृशक्षणदर्शन में भी नाशग्रह के विरोध का अतिप्रसङ्ग होने से अन्त में भी नाशदर्शन की अनुत्पत्ति होगी।
[सादृश्यग्रह दुःशक्य होने से बौद्ध कथन अनुचित ] यदि बौद्ध की ओर से किसी प्रकार सहशदर्शन को नाशग्रहविरोधिता और विसशदर्शन में नाशग्रह प्रविरोध का उपपावन किया जाय अर्थात यह कहा जाय कि सहशवर्शन विशिष्टाविषयक होने से अनुभवारूह न होने के कारण असत्तुल्य होने पर भी वस्तुगत्या सशविषयक होने से सादृश्य के प्रतियोगीक्षण के मास ग्रह का प्रतिबन्धक होता है, किन्तु विसदृशक्षण का दर्शन विशिष्ट विषयक
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१६२
[ शास्त्रवा० स्त० ६ श्लो० ४३-४४
शय
होने से प्रसत्तुल्यतया सदृशदर्शनतुल्य होने पर भी वस्तुगत्या सशविषयक न होने से सादृश्य के प्रतियोगी के नाशग्रह का प्रतिबन्धक नहीं हो सकता।-तब भी बौद्धमत में यह दोष निर्यार है कि सादृश्य दूग्रंह होने के कारण 'युर्वक्षण के नाश का आग्रह सदृशग्नहहेतक है यह कथन ही अनुपपन्न है। यह है कि जो विषय अज्ञात होता है उसका कथन नहीं हो सकता क्योंकि कथन शब्दरूप है और शब्दप्रयोग में शब्दार्थज्ञान कारण होता है। इसी आशय को ग्रन्थकार ने एस्तुत कारिका के उत्तरार्म से सूचित किया है, जिसका अर्थ यह है कि 'गृह्यमाणक्षण पूर्वगृहीत के सदृश है' यह ज्ञान बौद्धमत में कैसे हो सकता है ? क्योंकि पूर्वक्षण का साइश्य पूर्वक्षणभेवघटित है और उत्तरक्षणग्रहणकाल में पूर्वक्षण के विद्यमान न होने से पूर्वक्षण का ग्रहण न होने के कारण उसके भेव से घटित सादृश्यज्ञान का कोई उपाय न होने से 'उत्तरक्षण पूर्वक्षण के सदृश है यह ज्ञान किसी प्रकार सम्भव नहीं है ।।४२॥
४३ वो कारिका में उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के सादृश्यज्ञान न होने से सम्भावित दोष का प्रतिपादन किया गया है
तदगती को दोषः ? इत्यत आइमूलम्-तथागतेरमावे च वचस्तुच्छमिदं ननु ।
सदृशेनावरुद्धत्वात्तद्ग्रहाद्धि तदग्रहः ॥४३॥ तथागतेः भेदयरिच्छित्तेः अभावे च सति, इदं प्रागुक्तम् भवतो वचः, 'ननु' इत्याक्षेपे तुच्छ असारम् , अन्ययाऽबोधकत्वात् । किम् ? इत्याह-यदुत 'सदृशेनावरुद्धत्वात् तद्ग्रहाद्धि तदग्रहः' [ का० ४० ] इति ॥ ४३ ॥
पूर्वक्षणभेदघटितपूर्वक्षण सादृश्यज्ञान का अभाव होने पर बौद्ध का यह पूर्वोक्त बचन कि'तुल्य उत्तरक्षण से अवरुद्ध हो जाने के कारण पूर्वक्षण के नाश का अग्रह पूर्वक्षणसदृश उत्तरक्षराग्रह से होता है-निःसार हो जायगा, क्योंकि वह शाब्दबोध का जनक न हो सकेगा ॥ ४३ ॥
बौद्ध की ओर से यदि यह आशंका की जाय कि 'उत्तरक्षण के दर्शन में पूर्वक्षण के भेद का उल्लेख न होने पर भी उत्तरक्षण के लविकल्पकग्रह में पूर्वक्षण के भेद का उल्लेख होने ने से साश्य का विशिष्ट ग्रह सम्भव है प्रतः पूर्वक्षणसदृश उत्तरक्षण से पूर्वक्षण के नाश का अग्रह होता है इस वचन की अनुपपत्ति कसे हो सकती है ?' तो इस आशंका का उत्तर का० ४४ में दिया गया है -
दर्शने भेदानुल्लेखेऽपि विकल्प तदुल्लेखात सादृश्यविकल्पसंभवात् कथमुक्तवचसोउनुपपत्तिः ? इत्याशङ्कायामाहमूलम्-भावे वास्या यलादेकमनेकत्रहणात्मकम् ।
अवयि ज्ञानमेष्टव्यं सर्व तक्षणिकं कुतः ? ॥४४॥ भावे वाऽस्याः मेदगतेः बलात्-अस्वरसादपि, अनेकग्रहणात्मक-पूर्वापरब्रहणरूपम् एकमन्वयि ज्ञानमेष्टव्यम् , अन्यथा भेदग्रहदशायां प्रतियोगिबहाभावात् तद्ग्रहानुपपत्तेः, प्रदीर्घपर्यालोचनानुपपत्तश्च । यत एवम् तत्-तस्मात् सबै क्षणिकं कृतः ? उक्तवानस्यवान्वायकत्वान् ? ॥ १४ ॥
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
१९३
[ भेदज्ञान स्वीकारने में अन्ययी ज्ञान सिद्धि से क्षणिकत्व भंगापत्ति ]
हठपूर्वक स्वाभिमत न होने पर भी यदि उत्तरक्षण में पूर्वक्षण के सेव का ज्ञान माना जायेगा तो 'उत्तरक्षण पूर्वक्षण सदृश है' यह ज्ञान अनेकग्रहण रूप अर्थात् पूर्वक्षण-उत्तरक्षणग्राही ज्ञानरूप हो और ऐस होने पर ज्ञात का पूर्व और उत्तर क्षणों के साथ सम्बन्ध होने से ज्ञान को विभिन्नकालान्वयी मानना होगा क्योंकि ऐसा न मानने पर मेदज्ञानकाल में पूर्वक्षणरूप प्रतियोगी का जान न होने से पूर्व क्षणभेदज्ञान श्रनुपपन्न हो जायगा । एवं ज्ञान को विभिन्न कालान्वयी न मानने पर प्रदीर्घ पर्यालोचन अर्थात् लोकानुभवसिद्ध कतिपयकालसम्बन्धी ज्ञान की भी अनुपपत्ति होगी, तो इस प्रकार जब उक्त ज्ञान एक विभिन्न कालान्वयी भावात्मक पदार्थ सिद्ध हो गया तो सभी भाव क्षणिक होते हैं यह कैसे सिद्ध हो सकता है ? ||४४ ॥
४५ कारिका में प्रसङ्गसङ्गतिवश पूर्वोक्त दोष से भिन्न दोष का निरूपण किया गया हैप्रसङ्गात् क्षणिकत्वे दोषान्तरमाह
मूलम् - ज्ञानेन गृह्यते चार्थो न चापि परदर्शने I तदभावे तु तद्भावात्कदाचिदपि तत्त्वतः ॥ ४५ ॥
न च परदर्शने - बौद्धमते, ज्ञानेनार्थोऽपि नीलादिरपि गृह्यते = ग्रहीतुं शक्यते, तस्त्वतः परमार्थतः कदाचिदपि । कुतः ? इत्याह- तदभावे तु तद्भावात् नीलाद्युत्पच्यनन्तरमेव ज्ञानोत्पत्तेः अर्थ-ज्ञानयो हेतु हेतुमद्भावाभ्युपगमात् तस्य च पौर्वापर्यनियतत्वात् । एवं वर्तमान संबन्धित्वावगमोऽर्शस्य क्षणद्वयावस्थितित्वं विना दुर्घटः ।
=
जनकोऽथ वर्तमानकालतया नाक्षसंविदि प्रतिभाति, किन्तु तस्यां तत्समानकालभाव्याकारः, तस्य च तथावभासाद् वर्तमानार्यावगमोक्तिरिति वाच्यम्, ज्ञानकाले ब भासमानस्य नीलादेर्ज्ञानाकारताऽसिद्धेः, अन्यथाऽन्तखभासमानस्य सुखादेरप्यर्थाकारताप्रसक्तिः, इति ज्ञानसत्तैबोत्सीदेत् ।
गृह्यमाणस्य ज्ञानसमानसमयस्य जनकना, जनकस्य च क्षणिकत्वेन वर्तमानतयाऽतीतस्य न प्रतिभासः इति समारोपिताकारग्राहि सर्वमेव ज्ञानमिति सांप्रतम्, नील-द्विचन्द्रज्ञानयोरविशेषापत्तेः । न च बाह्यार्थवादिना तयोरविशेपोऽभ्युपगन्दच्यः प्रमाणाऽप्रमाणविभागविलयप्रसक्तेः । न च ज्ञानार्थयोरेक-सामग्रीजन्ययोः सहभावित्वेन वर्तमानग्रहणं क्षणिकत्वेऽपि वैभाषिकमताश्रयणेनाभ्युपगन्तव्यम्, क्रियानियमस्य कर्मशक्ति निमित्तत्वेन व्यवस्थापितत्वादिति ॥ ४५ ॥
[ क्षणिकवाद में अर्थ ग्रहण की अनुपपत्ति |
बौद्धमत के अनुसार भाव को क्षणिक मानने पर ज्ञान से नील आदि पदार्थों का भी तत्त्वतः ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि नीलादि का उत्पत्ति के अनन्तर ज्यों ही बौद्धमतानुसार नीलादि का
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। शास्त्रवार्ता० स्त० लो०४५
नाश हो जाता है, त्यों ही ज्ञान को उत्पत्ति होती है क्योंकि अर्थ और ज्ञान में हेतु-हेतुमद्भाव बौद्धमत में भी मान्य है । यतः हेतु-हेतुमद्भाध उन्ही पदार्थों में होता है जिन में पूर्वापरभाव होता है, अतः अर्थ का वर्तमानसम्बन्धित्वरूप से जो 'अयं नीलः' इत्यादि रूप में ज्ञान होता है वह नीलादि को क्षणद्वयतक स्थायी माने बिना नहीं उपपन्न हो सकता, क्योंकि ज्ञान का वर्तमानक्षण नीलादि का द्वितीयक्षण होता है। अतः उस क्षण में नीलादि के रहे विना इसका तत्क्षणसम्बन्धित्वरूप से जान कथमपि सम्भव नहीं हो सकता ।
यदि यह कहा जाय कि-'इन्द्रियजन्य ज्ञान में उसके कारणभूत अर्थ का वर्तमानकालीनत्यरूप से भान नहीं होता अपितु ज्ञान के उत्पत्तिकाल में जो ज्ञान में अर्थ का समान आकार उत्पन्न होता है उसी का भान होता है। उस आकार का वर्तमानत्वरूप से भान होने से ही उस ज्ञान को वर्तमानत्वेन अर्थनाही ज्ञान कहा जाता है। यह समीचीन नहीं है क्योंकि ज्ञानकाल में नीलादि बाह्यदेश से सम्बद्ध होकर भासित होता है । क्योंकि 'अयं नीलः' इसप्रकार इदन्वरूप से ही मील के भान का उदय होता है और इन्स्य पुरोवेशसम्बन्धरूप ही है, अतः उसमें ज्ञानाकारता असिद्ध है। यदि प्रा. अबभासमान शान कोका बाद्य अकार माना जायगा तो अन्त: प्रवभार दृष्टि से ज्ञान और सुखादि में कोई अन्तर न होने से सुखादि में भी बाह्याथ को समानकारता सिद्ध हो आयगी। फलतः बाह्यार्थ और तत्प्रयुक्त सुखादि के कारणरूप बाह्मार्थ के ज्ञान का उच्छेद हो जायेगा ।
यदि इस दोष के भय से यह कहा जाय कि-'ज्ञान के जनकभूत अर्थ को जान की समानकालिकता आवश्यक नहीं है, अतः ज्ञान में तत्तदाकारता की उपपत्ति के लिये यह मानने को आवश्यकता नहीं है कि ज्ञान अपने उदयकाल में उत्पन्न होने वाले आकार का ग्राहक होता है, तथा यह भी मानना सम्भव नहीं है कि उसके जनकभूत अर्थ का ही वर्तमानतथा मान होता है, क्योंकि अर्थ क्षणिक होने से ज्ञान काल में अतीत हो जाता है अतः वर्तमानतया उसका प्रतिभास सम्भव नहीं है। किन्तु युक्ति. संगत यह है कि सभी जान कल्पित आकार को ग्रहण करता है। अतः ज्ञान से गहीत हो ले इस आकार में ज्ञानाकारत्व को अनुपपत्ति का प्रश्न ही नहीं खड़ा हो सकता । क्योंकि कल्पना के सम्मुख कोई अनुपपत्ति नहीं खड़ी हो सकती।"-तो यह कथन भी उचित नहीं है क्योंकि नीलाद्याकार ज्ञान को कल्पित विषयक मानने पर नोलज्ञान और द्विचन्द्रज्ञान में कुछ वैलक्षण्य न हो सकेगा, क्योंकि दोनों ही ज्ञानों के विषय में प्रारोपितत्व समान है और अबायार्थ यादी को उन दोनों ज्ञान में अवलक्षण्य कथमपि स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि ज्ञान मात्र को आरोपित विषयक मानने पर ज्ञानों में प्रमाण और अप्रमाण का यानी प्रमा और भ्रम के विभाग का विलय हो जायगा।
यदि यह कहा जाय कि-"ज्ञान और अर्थ एकसामग्रीजन्य होने से सहभाबी होता है अतः अर्थ क्षणिक होने पर भी वर्तमानतया उसका ग्रहण सम्भव है। इस वैभाषिक मत का आश्रय लेने से उक्त दोष नहीं हो सकता" तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि भानक्रिया में तत्तदर्यविषयकत्व का नियम तत्तदर्थरूप ज्ञान के कर्म को कारणता से ही व्यवस्थित होता है । किन्तु जब झाकिया और उसका अर्थ सहभायो होगा तो उन में पौवापर्य न होने से तन्नियत कार्यकारणभाव भी सम्भव न होने से ज्ञान में अर्थविशेषविषयकत्व का नियम ही उपपन्न न हो सकेगा ॥४५॥
४६ थीं कारिका में अभ्युपगमवाव से अर्थग्रह को स्वीकार कर भाव के क्षणिकत्व पक्ष में अन्य दोष का प्रदर्शन किया गया है
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स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
अभ्युपगम्याप्यर्थग्रहं दोषान्तरमाह
मूलम् - ग्रहणेऽपि यदा ज्ञानमपत्युत्पत्स्यनन्तरम् । तदा तत्तस्य जानाति क्षणिकत्वं कथं ननु ? ॥४६॥ ग्रहणेऽप्यर्थस्य यदा ज्ञानमुदेति तदा तद् ब्रह्यम् उत्पत्त्यनन्तरं - उत्पत्तिनाशकाले, अपैति नश्यति । अतस्तस्य क्षणिकत्वं कथं नतु १ - नैव जानाति, अवस्तुत्वात् तस्य ज्ञान - स्य च वस्तुग्राहकत्वात् ॥ ४६ ॥
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[ नष्ट अर्थ के क्षणिकत्व का ग्रहण कैसे ? ]
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यदि इसी प्रकार अर्थ के ज्ञान का अभ्युपगम कर भी लिया जाय तो भी यह तो निश्चित ही है कि जिसकाल में ज्ञान का उदय होता है वह अर्थोत्पत्ति का नाशकाल होता है अतः उस समय अर्थ नष्ट हो गया रहता है । इस प्रकार अर्थोत्पत्ति के अव्यवहितोत्तरक्षण में होनेवाला श्रर्थनाश हो अर्थ का क्षणिकत्व है । अतः बौद्धमत में वह उमरगोत्न ज्ञान अर्जन श्रमिक होने से उसे कैसे जान सकता है ? क्योंकि ज्ञान तो वस्तु का ग्राहक होता है प्रवस्तु का नहीं, और यहाँ क्षणिकत्व यानी पूर्वक्षणवृत्ति अर्थ का नाश तो अवस्तु है । इसलिये ज्ञान उसका ग्राहक नहीं हो सकता, क्योंकि ज्ञान प्रमाणभूतज्ञान वस्तु का हो ग्राहक होता है ।। ४६ ।।
४७ वीं कारिका में बौद्ध के इस आशय का कि- 'वस्तुग्राही दर्शन क्षणिकस्व का भी ग्रहण कर सकता है क्योंकि वह स्वरूपतः निर्विकल्पक स्वभाव होता है अतः वह क्षणिकत्व का विशेषण रूप से ग्रहण नहीं करता' उल्लेख कर के निराकरण किया गया है ।
जानात्येव वस्तुदर्शनं क्षणिकत्वमपि स्वरूपतोऽविकल्पस्वभावत्वात् विकल्पयति तु न, इति पराशयमाह
मूलम् — तस्यैव तत्स्वभावत्वात्स्वात्मनैव तदुद्भवात् ।
यथा नोलादि ताद्रूष्यान्नैतन्मिथ्यास्वसंशयात् ||४७||
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+
"तस्यैव-अर्थस्य तत्स्वभावत्वात् क्षणिकत्वस्वभावत्वात्, स्वात्मनैव - ज्ञानात्मनैव, जानाति क्षणिकत्वम् । कुतः ? तद्भवात् क्षणिकस्वभावादर्थादुत्पतेः । निदर्शनमाह--यथा नीलादि जानाति ताद्रूयात् विषयसारूप्यात् न तु विकल्पविवया, तथेदमपीति भावः । " अत्रोत्रम्--नैतद्-यदुक्तं परेण, तन्नीत्यैव मिथ्यात्वसंशयात्, क्षणिकत्वबोधे सांख्यानामालोचने शुक्ले पीतदर्शनादुत्तरकाले तत्र पीताऽनिश्चयात् । 'प्राकू पीतानालोचनमनुमीयते ' चेत् ? क्षणिकत्वदर्शनेऽपि तुल्ययोगक्षेममेतदिति ॥ ४७ ॥
[ क्षणिकत्व वोध में मिध्यात्वसंशय आपत्ति |
"अर्थ क्षणिकत्व स्वभाव होता है और उस क्षणिकत्वस्वभाव अर्थ से उत्पन्न होने के कारण ज्ञान भी अर्थ के क्षणिकत्वस्वभाव को उसके अन्य आकार के समान प्राप्त करता है । अत एव
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[ शास्त्रवाता. स्त०६ श्लो० ४८
अणिकत्व ज्ञान के प्राकार स्वरूप में अन्तत हो जाता है। इसलिये ही ज्ञानस्वरूपात्मनाक्षणिकत्व को उसीप्रकार ग्रहण करता है जैसे नीलादि अर्थ के समान आकार होने से नीलावि को ग्रहण करता है किन्तु नीलादि अंश में सविकल्पक नहीं होता।" इसके उत्तर में ग्रन्थकार का यह कहना है कि क्षणिकत्वबोध के क्षणिकत्वांश में सविकल्पक न होने से उसमें मिथ्यात्व का संशय हो जायगा अतः वह ज्ञान अर्थ में क्षणिकत्व का निश्चायक नहीं हो सकता। अतः अर्थ में क्षणिकत्व को सिद्धि न हो सकेगी।
व्याख्याकार ने ग्रन्थकार की इस उक्ति को एक दृष्टान्त से समर्थन देते हुये कहा है-जैसे सांख्यों के मत में शंखगत शुक्ल का जब केवल आलोचन होता है-अर्थात् शुक्लत्वरूप से उसका मान न होकर केवल स्वरूपतः ज्ञान होता है, तब दोषवश शुक्लशंख में पोत रूप का दर्शन होता है-किन्तु उस ज्ञान में पीतत्वेन शुक्ल का भान होने से पोतत्वेन पीतप्रतियोगिक अभाव का मान सम्भव होने से उक्त ज्ञान में पीताभावधान में पीतप्रकारत्व का संशय जाग्रत होने से उत्तरकाल में पीतरूप का निश्चय नहीं होता। इसी प्रकार क्षणिकत्व बोध में अर्थ में क्षणिकत्व का विषयविधया भान न होने पर अर्थ में अक्षणिकत्वग्रह का विरोधी न होने के कारण अक्षणिक में क्षरिणकत्वग्राहित्व का संदेह हो सकता है और इस संदेह के कारण अर्थ में क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता।
यदि इसके सम्बन्ध में यौद्ध की और से यह कहा जाय कि-"उक्त दृष्टान्त और दार्शन्तिक क्षणिकत्वबोध में वैषम्य है, जैसे-दृष्टान्तस्थल में पीत का अनिश्चय पीतदर्शन में मिथ्यात्वसंशयप्रयुक्त नहीं होता है किन्तु पीत के अनिश्चय से यह अनुमान किया जाता है कि पूर्व में पीत का पालोचन नहीं है। इसलिये पीतालोचनरूप कारण के अमाव से पीतनिश्चयरूप कार्य का अभाव होता है"-तो ठीक नहीं, क्योंकि इस कथन का क्षणिकत्व के दर्शन के सम्बन्ध में भी योगक्षेम तुल्य है। अर्थात क्षणिकत्व के दर्शन के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि पूर्व में क्षणिकत्व का मालोचन न होने से क्षणिकवालोचनरूप कारणा के अभाव से हो क्षणिकत्व का निश्चय होता है। व्याख्याकार का तात्पर्य केवल यह दिखाने में है कि उक्त प्रकार से क्षणिकत्व का बोध मानने पर क्षणिकत्व का निश्चय नहीं हो सकता । इसका कारण क्षणिकत्वबोध में मिथ्यात्व का संशय है अथवा पूर्व में क्षणिकत्व के आलोचन का अभाव है-इन दोनों कारणों में किसी एक में उनका कुछ अभिनिवेश नहीं है ॥४॥
४८ वीं कारिका में स्व अनुमान से भी क्षणिकत्व बोध की अशक्यता बताई गई हैस्वानुमानतोऽपि न क्षणिकत्वबोध इल्पाहमूलम्-न चापि स्वानुमानेन धर्मभेदस्य संभवात् ।
लिङ्गधर्मातिपाताच तत्स्वभावाचयोगतः ॥४८॥ न चापि स्वानुमानेन जानाति क्षणिकत्वं, यथा मद्रपमनित्यं तथाऽयमपीति । कुतः ? इत्याह-धर्मभेदस्य संभवात् चेतनेतररूपधर्मभेदोपपत्तेः, किश्चित्ताद्रप्येऽपि तथा ताप्याभावेन साधारण्या व्याप्तेरविकल्पनात् । दोपान्तरमाह-लिङ्गधर्मातिपाताच-लिङ्गरूपातिलङ्घनाच तदात्मन एव स्वानुमानपक्षे । कुतः १ इत्याह -तत्स्वभावाद्ययोगतः उस्यार्थस्य न तज्ज्ञानं म्वभावः, नापि कार्यम, न चान्येन गम्य इति यावत् , तद्र पविशेषाभावात् ।
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स्या० क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ क्षणिकत्व बोध के लिये अनुमान असमर्थ ] ज्ञान स्वानुमान से अर्थात् स्वर्मिक अथवा स्वहेतुक अनुमान से भी क्षणिकत्व का ग्राहक नहीं होता। तात्पर्य, इस प्रकार का अनुमान नहीं हो सकता कि-'ज्ञानग्रह्मभाव अनित्य है क्षणिक है, क्योंकि ज्ञानग्राद्य है. जैसे ज्ञान का स्वरूप क्योंकि ज्ञान चेतन है और ग्राह्यभाय अचेतन है: अतः उन दोनों में भेव स्वभाविक है। यद्यपि ज्ञानग्राह्यत्वरूप से दोनों में सारूप्य है, किन्तु इस प्रकार का सारूप्य नहीं है-जिस से ज्ञान और ग्राह्य-चेतन और अचेतन उभय-साधारण व्याप्तिबोध हो सके। दूसरा दोष यह है कि ज्ञान को क्षणिक अर्थ का अनुमापक मानने पर लिङ्गधर्म का उल्लंघन होगा। क्योंकि लिङ्ग का धर्म होता है साध्य का अविनाभाव अर्थात साध्य को व्याप्ति तथा पक्षधर्मता। और उन में (बौद्धमतानुसार) व्याप्ति का ज्ञान होता है तत्स्वभाव यानो तत्तादात्म्य से तथा तदुत्पत्ति से, इन दोनों से भिन्न साधन के द्वारा अविनाभावरूप लिङ्गधर्म ग्राह्य नहीं होता । ज्ञान न तो अर्थ का स्वभाव है अर्थात् ज्ञान में न तो अर्थ का तादात्म्य है-और न वह अर्थ का कार्य है, अर्थात न अर्थाधीनोत्पत्तिक है, क्योंकि ज्ञान और प्रर्थ को सहभावी मानने पर उन में पौवापर्य न होने से कार्यकारणभाव नहीं हो सकता। और क्रमभात्री मानने पर ज्ञान में अर्थाधीनोत्पत्ति होने से ध्याप्ति. रूप लिङ्गधर्म की हानि न होने पर भी पक्षधर्मतारूप लिङ्गधर्म की हानी होगी क्योंकि क्षरिणकत्व पक्ष में ज्ञान काल में अर्थ का नाश हो जाने से दोनों में सम्बन्ध दुर्घट है। इस प्रकार ज्ञान में लिङ्गधर्म का अभाव होने से उससे क्षणिक अर्थ का अनुमान नहीं हो सकता।
न चार्थक्रियालक्षणसत्वेन क्षणिकत्वानुमानमपि युक्तम् , ततः क्षणापस्थितिमात्रसाधने सिद्धसाधनात , क्षणाण स्थितिनिवन्धनत्वाद् बहुक्षण स्थितेः, क्षणादृयमभावस्य च तेन सह प्रतिबन्धाहेण साधयितुमशक्यत्वादिति भावः॥४८॥
यदि यह कहा जाय-अर्थनियारूप सत्व से क्षणिकत्व का अनुमान होगा-तो यह भी थुक्तिसंगत नहीं है क्योंकि क्षणस्थायित्वरूप क्षणिकत्व का साधन करने में सिद्धसाधन होगा क्योंकि बहक्षणसम्बधरूप स्थायित्वपक्ष में भी अर्थ में क्षणिकत्व मान्य होता है. क्योंकि बरक्षणसम्बन्ध अस्थितिमलक ही होता है। यदि क्षण के अनन्तर अर्थाभाव' अर्थाद अर्थ में स्वोत्पत्त्यनंतरक्षण में उत्पन्न ध्वस के प्रतियोगित्वरूप क्षणिकत्व का साधन किया जायगा तो वह शक्य नहीं है, क्योंकि अर्थक्रियारूप सत्त्व में इस प्रकार के क्षणिकरत्व का व्याप्तिग्रह नहीं है ।। ४ ।।
४६ बों कारिका में 'नित्यवस्तु में अर्थक्रियाकारित सम्भव न होने से परिशेष अनुमान से अर्थ में क्षणिकस्य की सिद्धि हो सकती है' इस शंका का परिहार किया गया है
अथ नित्यस्याब्रियाऽक्षमत्वात् पारिशेष्यात शणिकत्व सेत्स्थतीत्याशङ्कयाहमूलम्-नित्यस्यार्थक्रियायोगोऽप्येवं यक्या न गम्यते ।
सर्वमेवाविशेषेण विज्ञानं क्षणिकं यतः॥४९॥ एवं सति नित्यस्यार्थक्रियाऽयोगोऽपि न गम्यते युक्त्या, नित्यस्यैवाज्ञानात् । अत्र हेतुमाह-यतः सर्वमेव विज्ञानमविशेषेण क्षणिकम् । एवं च बहुक्षणस्थायित्वरूपं नित्यत्वं कथं बहुक्षणग्रहम् सुग्रहम् ? इति भावः ॥ ४६ ॥
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[शास्त्रवार्ता० स्त०६ श्लो०-५०
अर्थ में क्षणिकत्वसाधक परिशेषानुमान सम्भव नहीं हो सकता। कारण, नित्य में अर्थक्रियाकारित्व के अभाव का ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि युक्तिपूर्वक विचार करने पर नित्य का ही ज्ञान नहाँ उपपन्न हो सकता। जब नित्य ज्ञान नहीं होगा तब उसमें अर्थक्रियाकारित्वाभावका भी ज्ञान नहीं हो सकता क्योंकि अभावज्ञान में प्रधिकरणज्ञान की अपेक्षा होती है। नित्य का ज्ञान क्यों नहीं हो सकता ? इस प्रश्न का उत्तर यह है कि यतः सभी ज्ञान समानरूप से क्षणिक होता है। अतः किसी भी जान से भिन्नकालिक अनेक क्षणों का ज्ञान न हो सकने से बहुक्षणस्थायित्वरूप नित्यत्व का ज्ञान क्षणिकवाद में असम्भव है ॥ ४९ ।।
५० वीं कारिका में इस वस्तुस्थिति का प्रतिपादन किया गया है कि स्थायीवस्तु में अर्थक्रियाकारित्व का अभाव भी नहीं है । न चार्थक्रियाऽभावोऽप्यक्षणिके, इति वस्तुस्थितिमाहमूलम्-तथाचित्रस्वभावत्वान्न चार्थस्य न यज्यते ।
___ अर्थक्रिया ननु न्यायाक्रमाक्रमविभावनी ॥५०॥ तथाचित्रस्वभावत्वात् क्रमवत्परिणामानुविद्धाक्रमवदद्रव्यरूपत्वात् , न चार्थस्य न युज्यतेऽथक्रिया-किन्तु युज्यते, ननुनिश्चितम् न्यायात्-अनुभवसहितात तर्कात् । कीदृशी? इत्याह-'क्रमाक्रमविभावनी-युगपदयुगपदुत्पत्तिका सुखदुःखज्ञानजननजलाद्यानयनादिरूपा । तत्र च काचिदम्मदादिसंवेद्या, अन्यथा चानाशी । तेन न येल घटेन कदापि जलानयनादि न कृतं तस्यार्थक्रियाकारित्वाभावादसत्तवम् , अन्ततम्तयासिद्धनानशेयत्यादिपर्यायरूपाया अप्यर्थक्रियायास्नेज करणादिति द्रष्टच्यम् ।। ५० ॥
इतरनतो नोड्डयनं विधार्नु पक्षी समर्थः सुगतान्मजोऽयम् । विमृधरस्तार्किकतकशक्त्या यतो विलूनः क्षणिकत्वपक्षः ॥१॥ निरीक्ष्य साक्षादवलम्ब्यमानं पर विशाणं क्षणिकत्वपक्षम् ।। म्यादाइविद्यामालम्बनं भोः श्रयन्तु विज्ञाः ! सुदृढ़ हिताय ||२||
[नित्य वस्तु में अर्थक्रिया का असंभा नहीं है । अर्थ चित्रस्वभाव होता है अर्थात क्रमिक परिणामों से युक्त अक्रमिक द्रव्यरूप होता है । तात्पर्य, अर्थ में दो अंश होते है, एक स्थायो जिसे द्रव्यशब्द से अभिहित किया जाता है और दूसरा क्रमिक परिणाम जो अस्थिर-क्षणिक होता है । इसलिये उप्स में अर्थक्रियाकारित्व का होना युक्तिविरुद्ध नहीं है, किन्तु युक्तिसंगत है । इसका हेतु-अर्थक्रिया, न्याय-अनुभवसहिततर्क से कम और अक्रम से होने वाली क्रियाओं को समष्टिरूप में, सिद्ध होती है। कहने का आशय यह है कि अर्थ से दो प्रकार की क्रियाएँ होती हैं । कुछ युगपद् =एकसाथ होती हैं और कुछ प्रयुगपद्=कम से होती है । जैसे घटरूप
१. प्रत्यन्तरे 'भाविनी'।
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स्या० १० टीका एवं हिन्दी विवेचन ।
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प्रथं से सुखदुःख की ज्ञान-क्रिया और जलानयन की क्रिया एकसाथ होती है और जल तथा अन्य द्रध्य के आनयन की क्रिया क्रम से होती है। क्योंकि एक ही घट से जल अन्न वालुका आदि का आनयन एकसाथ नहीं हो सकता । इन सभी क्रियाओं को समष्टि हो अर्थक्रिया शब्द से अभिहित होती हैं । उनमें कुछ अर्थक्रिया साधारण मनुष्यों से गृहोत होती हैं और कुछ नहीं गृहीत होतो। अत: जिस घट से कभी जलानयनादि कार्य नहीं होता उसमें अक्रियाकारित्व का अभाव समझ कर उसे असत नहीं कहा जा सकता । क्योंकि ऐसा घट भी सिद्धपुरुषों द्वारा गहीत होता है । अत: ऐसे घट में अन्य प्रकार की अर्थक्रिया में विवाद होने पर भी ज्ञानज्ञेयत्वादिपर्यायरूप अर्थक्रिया निविवादरूप से होती है । अत: अथ कियाकारित्वरूप सस्व द्रव्यात्मना स्थिर वस्तु में युक्तिसङ्गत होता है। इसलिये नित्य में अर्थक्रियाकारित्व के अभाध का ग्रह न हो सकने से अर्थ में क्षणिकत्वसाधक परिशेषानुमान की कल्पना दुःशक्य है।
व्याख्याकार ने इस विचार का दो पद्यों में उपसंहार किया है-जिन में प्रथम पद्य का आशय यह है कि बौद्ध-पक्षी क्षणिकत्वपक्ष का अवलम्बन कर विभिन्न विशाओं में उड्डयन करने अर्थात अपने पक्ष को रक्षा के लिये विभिन्न युक्तिओं का अवलम्बन करने में समर्थ नहीं रह गया है, क्योंकि उस का बहु प्रकार से प्रसरणशील क्षणिकत्वपक्ष जैन ताकिकों को तर्कशक्ति से उच्छिन्न हो चुका है।
दूसरे पद्य का प्राशय यह है कि बौद्ध द्वारा अवलम्बित क्षणिकत्व पक्ष का उच्छेब स्पष्ट देखते हये समझदारों का यह कर्तव्य है-उन्हें अपने हित के लिये स्याद्वादविद्या का आस्था पूर्वक अवलम्बन करना चाहिये ॥ ५० ॥
___५१ वी कारिका में बौद्ध के क्षणिकत्यवाद का तटस्थ पुरुषों द्वारा वणित तात्पर्य बताया गया है
क्षणिकत्ववादतात्पर्य विषयवार्तामाहमूलम्-अन्यत्वभिदधत्येवमेतदास्थानिवत्तये ।
क्षणिक सर्वमेवेति वुडेनोक्तं न तत्त्वतः ॥५१॥ अन्ये तु-मध्यस्थाः एवमभिदधति यदुत-एतदास्थानिवृत्तये रागनिबन्धनविषयनित्यस्ववासनापरित्यागाय, 'क्षणिकं सर्वमेव' इति युद्धे नोक्तम् , न तत्वत: न यथाश्रुततत्त्वबोधनाभिप्रायेण । उच्यते चानित्यतामाश्नाभावनायवमस्मदीयैरपि । तदुक्तम्- [ योगशास्त्र ४-५७ ]
"यत्प्रातस्तन्न मध्यावे, यद् मध्याह्न न तनिशि । निरीक्ष्यते भवेऽस्मिन हि पदार्थानामनित्यता ॥" इति ॥५१॥
[राग उच्छेद के लिये क्षणिकलोपदेश ] कुछ ऐसे मध्यस्थ मनीषी हैं जिन का यह कहना है कि बुद्धने भावमात्र में जो क्षणिकत्व का उपवेश दिया है वह 'क्षणिकत्व ही भावमात्र का तात्त्विकरूप हैं इस अभिप्राय से नहीं, किन्तु इस अभिप्राय से उपदेश दिया है कि जगत के पदार्थों में मनुष्य की आस्था न हो । अर्थात् मनुष्य जगत् के विषयों को नित्य समझकर उन में प्रासक्त न हो-यही विश्व को क्षणिक बताने में बुद्ध का तात्पर्य है। क्योंकि जो स्थिरवादी विद्वान हैं वे मी जगत में अनित्यता की भावना भावित करने के लिये जगत के पदार्थों को क्षणिकता का उपपादन करते रहते हैं-जैसे कहा है कि-जो वस्तु प्रातः देखने में प्राती है
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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ लो० ५२-५३
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वह मध्याह्न में नहीं रह जाती और जो मध्याह्न में उपलब्ध होतो है वह रात्रि में नष्ट हो जाती है - ऐसा लोक में प्रत्येक पदार्थ के विषय में देखा जाता है अतः जगत् के पदार्थ अतिश्य हैं ।। ५१ ।। ५२ वीं कारिका में 'विज्ञानमात्र ही सत्य है उस से भिन्न कोई भी वस्तु सत्य नहीं है' इस aaiपदेश के तटस्थसम्मत तात्पर्य का प्रतिपादन किया गया है
विज्ञानवादतात्पर्यविषयप्रतिपादनायाह
मूलम् — विज्ञानमात्रमध्येवं बाह्यसङ्गनिवृत्तये ।
विनेयान् कांश्चिदाश्रित्य यद्वा तद्देशनार्हतः ॥ ५२ ॥
एवं क्षणिकत्ववत् विज्ञानमात्रमपि ज्ञानातिरिक्तस्था लीकत्वज्ञाने तन्मः त्रप्रतिबन्धेन बाह्यसङ्गनिवृत्तये धन-धान्यादि वाह्यार्थपरिषङ्गपरित्यागाय, सामान्यतो विनेयानाश्रित्योक्तम् । विशेषविषयमाह-यदा: अर्वनः ज्ञानयोग, कविद् विनेयान तिनिपुणानाश्रित्य तद्देशना --ज्ञानवाददेशना ।। ५२ ।।
[ चापदार्थसंग त्याग के लिये विज्ञानमात्रोपदेश ]
बुद्ध ने जो यह उपदेश दिया है कि- 'विज्ञानमात्र ही पारमार्थिक वस्तु है- ज्ञान से अतिरिक्त जो 'कुछ अवगत होता है, वह सब मिथ्या है इसका भी तात्पर्य क्षणिकत्वोपदेश की तरह वस्तु के तास्वरूप के प्रतिपादन में नहीं है किन्तु ज्ञान भित्र वस्तु को मिथ्या बताकर धनधान्यादि में मनुष्य की आसक्ति को दूर कराने में है । यह उपदेश सामान्यतः सभी शिष्यों के लिये दिया गया है अथवा ज्ञान और ज्ञानभिन्न सम्पूर्ण वस्तुत्रों में क्षणिकत्व का उपदेश सर्व साधारण मनुष्यों के लिये किया गया है और ज्ञानवाद का उपदेश अहं प्रर्थात् ज्ञाननय के सिद्धान्त को समझ सकने में समर्थ कतिपय अत्यन्त बुद्धिमान् शिष्यों को उद्देश करके दिया गया है । ।। ५२ ।।
५३ वीं कारिका में यह तटस्थ वर्णित तात्पयं अयुक्त नहीं है किन्तु यही युक्त है इस तथ्य का उपपादन किया गया है।
न चैतदुक्तं युद्धाकृतं न युक्तमित्याह-
मूलम् - न चैनदपि न न्याय्यं यतो बुद्धो महामुनिः ।
सुर्ववद् विना कार्य हव्यासत्यं न भाषते ॥५३॥
,
न चैतदपि = अनन्तरमुक्तम्, न न्याय्यं न सतिमिति वाच्यम् यतो बुद्धी महा मुनि:- विदितच्च निरुपधि परदुःखग्रह। खेच्छामूलक देशनाप्रवृत्तिशाली च परैरिष्यते, अतोऽयं सुवद कार्य विना = परहितानुबन्धि प्रयोजनं विना न भारते द्रव्यासत्यम् । यथा हि
वैद्यः कटुकटुकषानभीतस्य परस्य प्रवृत्तयेऽकटुकमपि वदन् नानाप्तः स्यात्, तथा वृद्रोऽयक्षणिकेकरूयं ज्ञप्तिमात्रास्वभावं च विनेयमतिपरिष्काराय तथा वदपि नानाप्तः स्यात्, अन्यथा तु स्यादेव । तथा च तदात्वे तद्देशनाया अब तात्पर्यम्, अन्यथा तु तस्यानाप्तत्वमेवेति भावः ॥ ५३ ॥
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स्था० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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[ बुद्ध का पूर्वाति तात्पर्य ही युक्तियुक्त है ]
बुद्ध का क्षणिकत्व और विज्ञानवाद के उपदेश का जो तटस्थ द्वारा तात्पर्य बताया गया है, वह अयुक्त नहीं है किन्तु बही युक्तिसङ्गत है, क्योंकि बौद्ध सम्प्रदाय वाले मानते हैं कि बुद्ध एक महामुनि है, वे तत्त्ववेत्ता हैं और वे निःस्वार्थ भाव से मनुष्यों के दुःख को दूर करने की इच्छा से उपदेश देने में प्रवृत्त है, अतः सुबंध के समान वे परहितसाधनरूप प्रयोजन के विना द्रव्य असत्य का भाषण नहीं करते। आशय यह है कि जैसे सुबंध कडुद्रा औषध पीने के लिये तैयार न होने वाले रोगी को उस औषध के सेवन में प्रवृत्त करने के लिये कटु श्रौषध को भी मधुर बताते हुये अनाप्त-असत्यवादी नहीं माना जाता, उसीप्रकार बुद्ध भी जो वस्तु दव्यात्मना स्थिर है और ज्ञानमात्रस्वभाव नहीं है उसे भी शिष्यों की बुद्धि को परिष्कृत वैराग्यवासित करने की भावना से सर्वात्मना क्षणिक और सर्वथा ज्ञानैकस्वरूप बताते हुये अनाप्त नहीं हो सकते। यदि बुद्ध के उक्त उपवेश का यह तात्पर्य न मानकर वस्तु की तात्विक रूपता के प्रतिपादन में माना जायगा तो वे निश्चित ही अनाप्त होंगे, क्योंकि वस्तु का बुद्ध द्वारा उपदिष्ट उक्तरूप तात्त्विक नहीं है । यतः वे आप्त पुरुष है अतः उनके उपदेश का वही तात्पर्य हो सकता है अन्यथा उनको अनाप्तता का निराकरण असम्भव है ।। ५३ ॥ ५४ वीं कारिका में माध्यमिकों के मत का उल्लेख किया गया है
दान्तरमाह -
मूलम् — ब्रुवते शून्यमन्ये तु सर्वमेव विचक्षणाः । न नित्यं नाप्यनित्यं यस्तु युक्त्योपपद्यते ॥५४॥
अन्ये तु विचक्षणाः=वितण्डापण्डिता माध्यमिकाः, सर्वमेव वस्तु शून्यं ब्रुवते । कुतः १ इत्याह- यद्यस्मात् वस्तु युक्त्या विचार्यमाणं न नित्यं नाप्यनित्यमुपपद्यते ॥ ५४ ॥
,
[ माध्यमिक के शून्यवाद की मीमांसा ]
दूसरे विद्वान जो वितण्डा कथा में अत्यन्त कुशल हैं और जिनकी 'माध्यमिक' शब्द से तार्किक क्षेत्र में प्रसिद्धि हैं वे समस्त वस्तु को शून्यात्मक कहते हैं। क्योंकि उनकी दृष्टि से, वस्तु के सम्बन्ध में युक्तिपूर्वक विचार करने पर वह नित्य अथवा अनित्य किसी भी रूप 'नहीं उपपन्न होतो १५४।। ५५ कारिका में पूर्वोक्त कारिका के वक्तव्य को हो स्पष्ट किया गया है-एतदेव प्रकटयाह-
मूलम् — नित्यमर्थक्रियाभावात् क्रमाक्रमविरोधतः । अनित्यमपि चोत्पादव्ययाभावान्न जातुचित् ॥ ५५ ॥ क्रमाक्रमविरोधतः = क्रमव द्विज्ञानादिकार्यकारित्वे भेदप्रसङ्गात्, अक्रमवत्कार्यकारित्वे चैकदा सर्वकार्योत्पत्तेः अर्थक्रियाभावाद् नित्यं वस्तु न युक्तम् । अनित्यमप्युत्पादव्ययाभावाजातुचिद् न युक्तम् । न हि तौ स्वतः परतः, उमाभ्याम्, अनिमित्तों वा संभवतः । आये, कारणापेक्षा भावेन देशादिनियमाप्रसक्तेः । द्वितीयेऽपि सत्त्वे कारणत्रदुत्पत्तिविरोधात,
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[ शास्त्रवाता. स्त० ६ श्लो० ५५
असत्त्वे खरंविषाणवदुत्पाद-नाशाऽयोगात्, उभयस्वभावत्वे च विरोधात् । तृतीये चोभयदोषानुषङ्गात्, “प्रत्येकं यो भवेद् दोषो द्वयोर्भावे कथं न सः" इत्युक्तत्वात् । चतुर्थे चानभ्युपगमात् । तदुक्तम्
"न खतो नापि परतोन द्वाभ्यां नाप्यहेतुतः । उत्पन्ना जातु विद्यन्ते भावाः क्वचन केचन' ॥१॥ इति ॥५५॥
[नित्य पदार्थ में क्रमाऽक्रम से अर्थक्रियानुयपत्ति-शून्यवादी ] क्रम और अकम दोनों ही प्रकार से नित्य में अर्थजनकता का बाध होने से वस्तु को नित्य नहीं माना जा सकता । आशय यह है कि वस्तु को कम से विज्ञान आदि कार्यों का जनक मानने पर भेद को प्रसक्ति होगी अर्थात जो वस्तु जिस कार्य को पहले नहीं उत्पन्न करती यह बाद में भी उसे नहीं उत्पन्न कर सकती, क्योंकि यदि उस में बाद में उत्पन्न होने वाले कार्य के प्रति सामर्थ्य होगा तो प्रथमोत्सन्न कार्य के साथ ही उसे उस कार्य को भी उत्पन्न करना चाहिये । अत: यह मानना आवश्यक होगा कि में उपर होनी चाले कार्य जनक और पूर्व में उत्पन्न होने वाले कार्य के जनक में भेद है। यदि वस्तु को अक्रम से अपने कार्यों का जनक माना जायगा तो एक ही काल में समस्त कार्य को उत्पत्ति का अतिप्रसल होगा। प्रतः नित्य में किसी भी प्रकार अर्थक्रिया को जनकता सम्भब न होने से वस्तु को नित्य मानना प्रयुक्त है ।
_ [ उत्पाद-व्यय की असिद्धि से अनित्यता भंग ] इसी प्रकार वस्तु को प्रनित्य मानना मो युक्तिसंगत नहीं है क्योंकि उसका उत्पाद और विनाश प्रसिद्ध है। यहां उत्पाद-विनाश के सम्बन्ध में चार पक्ष को कल्पना हो सकती है जैसे कि उत्पत्ति और विनाश (१) स्वतः होते हैं अथवा (२) अन्य से होते हैं अथवा (३) स्व और अन्य दोनों से होते हैं कि वा (४) विना निमित्त के ही होते हैं ?
(1) इन में प्रथमपक्ष मानने पर स्वतः होने वाले उत्साद और विनाश में किसी देशकालादि कारण की अपेक्षा न होने से देशविशेष और कालविशेष में हो उन के होने का नियम न सिद्ध हो सकेगा।
(२) दूसरे परतः पक्ष में उत्पन्न होने वाला कार्य सत् है ? या असत् ? कि बा सत्र-असत उभयात्मक ? यह तीन विकल्प उपस्थित होते है। (१) यदि कार्य को सत् माना जायगा तो जैसे प्रथमतः विद्यमान होने से उस समय कार्य को उत्पत्ति नहीं होती उसी प्रकार परतः = यानी पर प्रयोग के बाद भी कार्य की उत्पत्ति नहीं हो सकती। अथवा यदि कार्य प्रथमतः विद्यमान रहेगा तो उसकी कारणाधीन उत्पत्ति मानना उचित नहीं हो सकता क्योंकि कार्य के सत होने पर कारण का उत्पादनव्यापार निरर्थक होगा क्योंकि असव को सन बनाने में ही कारणव्यापार की सार्थकता मानी जाती है, किन्तु इस पक्ष में कार्य पहले से ही सत् है । (२) यदि कार्य को असत् माना जायगा तो जैसे खरविषाण का उत्पाद और विनाश नहीं होता उसी प्रकार कार्य का भी उत्पाद और विनाश नहीं १. नागार्जुनविरचिते माध्यमिककारिकानन्थे प्रत्ययपरीक्षाप्रकरणे श्लो १ ।
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स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
हो सकता ( ३ ) सत्व और असत्व में विरोध होने से उसे सद्-असत् उभयस्वरूप भी नहीं माना
जा सकता ।
(३) तीसरे पक्ष में अर्थात् स्व और अन्य दोनों से कार्य का उत्पाद व्यय मानने पर पूर्व के दोनों पक्षों के दोष प्रसक्त होंगे, क्योंकि जो दोष प्रत्येक पक्ष में होता है वह दोनों पक्षों को अपनाने पर केले नहीं होगा अर्थात् होगा हो ऐसा विद्वानों ने निश्चय कर रखा है ।
(४) चतुर्थ पक्ष में अनभ्युपगम दोष है अर्थात् उत्पाद व्यय दोनों को निर्निमित्तक कोई भी नहीं मानता। जैसा कि नागार्जुन को माध्यमिक कारिका के प्रत्ययपरीक्षा प्रकरण के प्रथम श्लोक में कहा गया है कि कोई वस्तु कभी और कहीं स्वतः परतः अथवा स्व पर उभयतः अथवा हेतु भित्र से किंवा हेतु के प्रभाव से नहीं उत्पन्न होते ॥५५॥ और
५६ वीं कारिका में उत्पाद और व्यय न मानने पर पुत्रोत्पत्ति का ज्ञान होने पर सुख पुत्रविनाश का ज्ञान होने पर दुःख कैसे सम्भव होगा ? इस प्रश्न का उत्तर दिया गया हैनन्वेवं कथं पुत्रोत्पादज्ञानं सुखम्, तद्ध्वसे च ज्ञाते दुःखम् १ इत्यत आहमूलम् — उत्पाद व्ययबुद्धिश्च भ्रान्ताऽऽनन्दादिकारणम् । कुमार्याः स्वप्नवज्ज्ञेया पुत्रजन्मादिबुद्धिवत् ॥ ५६ ॥
उत्पाद व्ययबुद्धि लौकिकी, परमार्थेन भ्रान्ता व वस्तुसती । किं वत् ? इत्याह-कुमार्याः स्वमवत्-स्वापदशायामकृतसंभोगायाः कन्यायाः संभोगानुभव ( ०नुभूति) वत् । sarपि साऽऽनन्दादिकारणम्, आदिना शोकग्रहः । किं वत् १ इत्याह--पुत्रजन्मादिबुद्धिवत्, आदिना पुत्रमरणग्रहः, 'कुमार्याः स्वप्ने' इति योज्यते ।
[ लौकिक उत्पाद-व्ययबुद्धि भ्रान्त है ]
लोक में जो उत्पाद और विनाश की बुद्धि होती है वह यथार्थ नहीं होती किन्तु भ्रमरूप होतो है और वही श्रानन्द और शोक को जनक होती है। इसका समर्थन कुमारी जिसे जाग्रदवस्था में कभी संभोग का अवसर प्राप्त नहीं हुआ उसे स्वप्नावस्था में सम्भोगानुभूति होती है। ऐसी भी स्वाप्तिक अनुभूति आनन्दादि का कारण होती है। यहां 'आदि' पद से अन्य स्थानिक अनुभूति से होने वाला शोक प्राह्य है । यह आनन्द या शोक जनक अनुभूति इस प्रकार है- जैसे स्वप्न में सुखजनक पुत्रजन्म की बुद्धि और दुःखजनक पुत्रविनाश की वृद्धि होती है तो जैसे उक्तबुद्धि भ्रमरूप होने पर भी सुख और दुःख का उत्पादक होती है उसी प्रकार जाग्रदवस्था में होनेवाली पुत्र के उत्पाद और विनाश की बुद्धि भ्रमरूप होने पर भी उससे सुख और शोक की उत्पत्ति हो सकती है।
अत्रायममी संप्रदायः- नीलादयो न परमार्थं सद्व्यवहारानुपातिनः, विशददर्शनावभासितत्वात्, तिभिरपरिकरितढरावभासीन्दुद्वयवत् । न चन्द्रद्वयज्ञानं चाध्यत्वाद् श्रान्तम्, नीलादिज्ञानं वाध्यत्वाद् न तथेति सांप्रतम्, वाध्यत्वानुपपत्तेः । तथाहि--याधकेन न विज्ञानस्य तत्कालभावि स्वरूपं वाध्यते, तदानीं तस्य स्वरूपेण प्रतिभासनात् । नाप्युत्तर
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[ शास्त्रवार्ताः स्त० ६ श्लो० ५६
कालम् , क्षणिकन्वेन तस्य स्वयमेवोत्तरकालेऽभावात् । नापि प्रमेयं प्रतिभासमानेन रूपेण वाध्यते, नस्य विशदप्रतिभासादेवाभावाऽमिट्ठः । अप्रतिभासमानेन तु रूपेण स्वत एव वाधः । नापि प्रवृत्तिरुत्पन्ना वाध्यते, उत्पन्नत्वादेवाऽसत्ताऽयोगान , अनुत्पन्नाथास्तु स्वत एवं बाधः।
[माध्यमिक सम्प्रदाय का मतसंक्षेप ] उत्पाव व्यय का निराकरण करनेवाले इन माध्यमिक मतानुयायोओं की परम्पराप्राप्त मान्यता यह है कि जैसे तिमिर रोग से दूषित नेत्र से उत्पन्न होनेवाले ज्ञान का विषय मूत चन्द्रद्वय विशदज्ञान का विषय होने पर भी पारमाथिक-यथार्थ व्यवहार का विषय नहीं होता, उसीप्रकार नीलादि भी विशववर्शन का विषय होते हुए भी यथार्थध्यवहार के विषय नहीं होते। यदि यह कहा जाय कि-"चन्द्रद्वय का ज्ञान बाध्य होने से भ्रमरूप होता है अत एव उस का यथार्थव्यबहार का विषय न होना युक्तिसंगत है, किन्तु नीलादि ज्ञान अवाध्य होने के कारण भ्रमरूप नहीं है अतः नीलादि का यथार्थव्यवहार का विषय न होना युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि बाध्यत्व का निर्वचन न हो सकने से किसी ज्ञान को बाध्यत्व के आधार पर भ्रमात्मक नहीं कहा जा सकता। बाध्यता की अनिर्वचनीयता नितान्त स्पष्ट है-जैसे, बाध्यता का यदि यह अर्थ किया जाय कि-बाधक ज्ञान द्वारा पूर्वज्ञान के उत्पत्तिकाल में ही उस के स्वरूप का साध होता है । अर्थात उस की निःस्वरूपता का बोध होता है तो यह सम्भव नहीं है क्योंकि उस समय उस ज्ञान के स्वरूप का भान आनविक यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि 'उस के उत्तरकाल में बाधक ज्ञान द्वारा उस के स्वरूप का बाप होता है -क्योंकि क्षणिक होने से उत्तरकाल में पूर्वज्ञान स्वयं निवृत्त हो जाता है अतः बाधक ज्ञान को उस के स्वरूप का बाधक मानना निरर्थक है । उसका यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि 'बाधक झान से उस के विषय का गृह्यमाणरूप से बाध होता है क्योंकि उस का विषय विशदरूप से प्रतिभासित हुना है; अतः उस का बाध असिद्ध है। इसीप्रकार उस का यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि पूर्वज्ञान के विषय का बाधकज्ञान द्वारा उस रूप से बाध होता है जो रूप उस ज्ञान द्वारा उस के विषय में गृहीत नहीं होता'-क्योंकि जिस रूप से विषय पूर्व ज्ञान द्वारा गहीत नहीं होता उस रूप से उस का बाध स्वतः सिद्ध है अतः उस में भी बाधकज्ञान का कोई उपयोग नहीं हो सकता। बाधकज्ञान से पूर्वज्ञान को बाध्यता का यह भी अर्थ नहीं हो सकता कि -'पूर्वज्ञान से उत्पन्न होनेवालो प्रवृत्ति का बाधकज्ञान से बाध-असत्त्वबोध होता है'-क्योंकि पूर्वज्ञान से प्रवृत्ति की उत्पत्ति होने से उस में सत्ता का होना सुस्पष्ट है, क्योंकि आद्यक्षरणसम्बन्ध को ही उत्पत्ति कहा जाता है और क्षणसम्बन्ध ही सत्ता है प्रत एवं प्रवृत्ति में उस के विद्यमान रहने पर बाधक ज्ञान से उस में असत्व क
सकता । यदि यह कहा आय कि पूर्वजान से अनुत्पन्न प्रवृत्ति का बाधकज्ञान द्वारा बाध होता है अर्थात उस की उत्पत्ति का प्रतिरोध होने से उस की असत्ता होती है तो यह भी ठीक नहीं-क्योंकि अनुत्पन्न प्रवृत्ति का असत्त्व भी स्वतः सिद्ध है, अत: उस में भी बाधक ज्ञान का कोई उपयोग नहीं है।
किञ्च, बाधक न बाध्यापेनया भिन्नसंतानम् ,अतिप्रसङ्गात् । एकसंताननपि न तदेककालम् , असंभवात् । नापि भिनकालमेकार्थम् , उत्तरघटज्ञानस्य पूर्वघटनानवधिकतापत्तः । नापि भिन्नाथम् , उत्तरपटज्ञानस्य तथात्वापत्तेः । नाप्यनुपलब्धिर्वाध्यज्ञानसमानकाला तदाधिका, तस्या
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स्या० का टीका एवं हिन्वी विवेचन |
असिद्धः। नाप्युत्तरकालभाविनी वाध्यज्ञानैकार्थविषया, एकविषयकस्य तदर्थसाधकत्वेनाऽवाध. कत्वात् । नापि विभिनषिया, तस्यास्तदानी स्वविषयसाधकल्वेव बाध्यज्ञानविषयाभावाऽसाधकत्वात ।
[बाधकज्ञान में संभावित अनेक प्रकार की बाधकता असिद्ध ] इसीप्रकार बाधकज्ञान के सम्बन्ध में विचार करने पर उस में बाधकता भी सिद्ध नहीं होती, क्योंकि यदि बाध्य ज्ञान के सन्तान से भिन्न सन्तान में होनेवाले उत्तरकालिकज्ञान को बाधक माना जायमा ता प्रतिप्रसङ्गहोगा, अथातचत्र का शुक्ति-तत्वज्ञान मंत्र के शुक्ति-रजतज्ञान का बाधक हाँ जायया। बाध्यज्ञान के सन्तान में उत्पन्न होनेवाला ज्ञान भी बाधक नहीं हो सकता क्योंकि यदि बाध्यज्ञान के साथ उत्पन्न होनेवाले ज्ञान को बाधक माना जायगा तो असम्भव होगा क्योंकि बाध्यज्ञान और बाधक ज्ञान परस्परविरुद्ध अर्थ विषयक होने से उन का एक साथ में एक सन्तान में उदय हो नहीं हो सकता। यदि बाध्यज्ञान के सन्तान में उस के उत्तरफाल में होनेवाले ज्ञान को बाधक माना जायगा तो उत्तरकाल में होगा शाद में पूर्व काल के घटज्ञान की बापकता को आपत्ति होगी । बाध्यज्ञान के विभिन्न विषयक समानसन्तानवर्ती उत्तरकालभावी ज्ञान को भी बाधक नहीं माना जा सकता क्योंकि ऐसा मानने पर घट ज्ञान के उत्तर उत्पन्न होनेवाले पटशान में भी घटज्ञान की बाधकता को प्रापत्ति होगी। इसीप्रकार अनुपलब्धि को यानी भिन्न अर्थ की उपलब्धि को भी बाधक नहीं माना जा सकता क्योंकि बाध्यज्ञानकाल के समानकाल में उत्पन्न होनेवाली अनुपलब्धि बाधक नहीं हो सकती क्योंकि बाघ्यज्ञान के समानकालिक अनुपलब्धि प्रसिद्ध है क्योंकि एक काल में दो ज्ञान का जन्म नहीं होता । बाध्यज्ञान के उत्तर काल में होनेवाली अनुपलब्धि को भी बाधक नहीं माना जा सकता क्योंकि यदि यह अनुपलब्धि बाध्यज्ञान के विषयभूत अर्थ को ही विषय करेगी तो वह बाध्यज्ञान की समान विषयक होने के कारण उस के विषय मूत प्रर्थ की साधक ही हो सकतो है न कि बाधक । इसीप्रकार बाध्यज्ञान से भिन्नविषयक अनुपलब्धि को भी बाधक नहीं माना जा सकता क्योंकि मिन्नविषयक अनुपलब्धि अपने विषय को ही साधक होगी न कि बाध्यज्ञान के विषय के अभाव को साधक होगी।
न च दुष्टकारणप्रभवत्वेनेन्दुद्वयधियोऽसत्यार्थविषयत्त्वावगमो बाध्यत्वम् , असिद्धः, इन्द्रियेण दोषाऽग्रहणात् । न च समानसामग्रीकस्य नरान्तरस्य तदग्रहणादितरत्र दुष्टकारणानुमानम् , तिमिराभावाद् नरान्तरे सामग्रीसाम्याऽसिद्धेः । न च मिथ्यारूपत्वेन तत्र दुष्टकारणजन्यवानुमानम्, इतरेतराषयात् । न चेन्दुद्वयज्ञानस्य विसंवादित्वादसत्यत्वम्, समानजातीयतद्विज्ञानानुत्पत्तिरूपविसंवादस्य यात्तिमिरमसिद्धेः, विजातीयज्ञानोत्पत्तर्विसंवादत्वे च स्तम्मादिप्रतिभासेऽतिप्रसङ्गात । ततो न नील-द्विचन्द्रादिज्ञानयोः कश्चिद् विशेषः, द्विचन्द्रवद् नीलस्य विवर्यमाणस्यानुपपन्नत्वात् ।।
[दुष्टकारणजन्यत्व बाध्यताप्रयोजक संभव नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि-"बाध्यत्व के उक्त निर्वाचन सम्भव न होने पर भी अन्य प्रकार से निर्वचन हो सकता है-जैसे यह कहा जा सकता है कि बाध्यत्व का अर्थ है चन्द्रवयज्ञान में दुष्टकारण
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[ शास्त्रवार्त्ता० स्त० ६ इलो० ५६
जन्यत्व से असत्यार्थविषयकत्व का बोधन ।” किन्तु यह भी ठीक नहीं है क्योंकि दुष्टकारणजन्यत्व स्वरूपतः उक्तप्रकार से बाधक नहीं हो सकता किन्तु उसके ज्ञान को बाधक मानना होगा और उसका ज्ञान सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि वह दोषघटित है, अतः इन्द्रिय से दोष का ग्रहण अशक्य होने से इन्द्रिय द्वारा दोषघटित दुष्कारणजन्यत्व का भी ज्ञान नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि- दुष्टकारणजन्यत्व का इन्द्रियजन्य ज्ञान भले न हो परन्तु श्रानुमानिकज्ञान तो हो ही सकता है, जैसे इसप्रकार का अनुमान हो सकता है कि जिसप्रकार की सामग्री से एक व्यक्ति को चन्द्रद्वय का ग्रहण होता है उसीप्रकार की सामग्री से श्रन्य व्यक्ति को चन्द्रद्वय का ग्रहण नहीं होता । इस से यह सिद्ध होता है कि चन्द्रद्रय का ज्ञान दुष्टकारणजन्य है ।" तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस मनुष्य को चन्द्रद्वय का दर्शन होता है उस का नेत्र तिमिर रोग से ग्रस्त रहता है अतः उस के ज्ञान की सामग्री तिमिरदोष से घटित होती है और जिसे चन्द्रद्वय का ग्रहण नहीं होता उसका नेत्र तिमिरग्रस्त नहीं होता अतः उस की ज्ञानसामग्री तिमिरदोष से घटित नहीं होती । अत एव चन्द्रद्वय को देखनेवाले और चन्द्रद्वय को न देखकर एक चन्द्रमात्र को देखनेवाले मनुष्यों की ज्ञानसामग्री में समानता असिद्ध है । यह भो नहीं कहा जा सकता कि 'चन्द्रद्वयदर्शन में मिथ्यात्व से दुष्टकारणजन्यत्व का अनुमान हो कर उस उस ज्ञान का बाध होता है- क्योंकि ऐसा मानने में अन्योन्याश्रय दोष स्पष्ट है । जैसे, मिथ्यात्व की सिद्धि होने पर दुष्टकारणजन्यत्व को सिद्धि होगी और दुष्टकारणजन्यत्व की सिद्धि होने पर मिथ्यात्व की सिद्धि होगी। यदि यह कहा जाय कि 'चन्द्रद्वयज्ञान में विसंवादित्व से असत्यत्व का ज्ञान होता है और इस ज्ञान का होना हो उस का बाध है ।" तो यह भी ठीक नहीं है, क्योंकि विसंवाद का अर्थ (i) यदि 'समानजातीय चन्द्रद्वय के ज्ञान की अनुत्पत्ति' माना जायगा तो वह प्रसिद्ध है क्योंकि जब तक हृष्टा के नेत्र में तिमिर रोग का सम्बन्ध रहता है तब तक चन्द्रद्वय के ज्ञान की उत्पत्ति होती रहती है। अतः चन्द्रद्रयज्ञान के समानजातीयज्ञान की अनुत्पत्ति प्रसिद्ध है । (ii) यदि बाध्यज्ञान के विजातीयज्ञान की उत्पत्ति को विसंवाद मान कर उस ज्ञान से पूर्वज्ञान की असत्यता का अवधारण किया जायगा तो स्तम्भादि ज्ञान भी चन्द्रद्वयज्ञान से विजातीय होने के कारण उस में भी विसंवादित्व का प्रतिप्रसंग होगा । फलतः स्तम्भादि के ज्ञान से भी चन्द्रद्वय के ज्ञान को सत्यता की सिद्धि की आपत्ति होगी । इन विचारों का निष्कर्ष यह फलित होता है कि नीलज्ञान और चन्द्रद्वयज्ञान में कुछ भी अन्तर नहीं है । अतः जैसे चन्द्रद्वय की सत्ता श्रनुपपश्न है उसीप्रकार विचारविषयीभूत नीलादिपदार्थ की भी सत्ता अनुपपत है।
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न चैवं नीलादेभिन्नस्यानुपपतेरभेदस्य न्यायप्राप्तत्याज्ज्ञानाद्वैतापत्तिः, न शून्यतेति वाच्यम्, नीलादेविचित्रस्य प्रतिभासे जगतोऽपि चित्रताप्राप्तेः तदुक्तं--" किं स्यात्साचित्र - तैकस्याम्०" इत्यादि । न च नीलाद्यनुपरक्तं प्रकृतिपरिशुद्धज्योतिर्मात्रमेव तत्त्वमस्तु न शून्यतेति वाच्यम्, तथाभूतज्योतिर्मात्रस्य कदाचनाप्यप्रतिपत्तेः । 'नीलादेख मास शून्यतापि न प्रतीयत इति चेत् ? किं तत्तः १ न हि वयं प्रतिभासविरतिलक्षणां शून्यतां ब्रूमः किन्तु प्रतिमासोपमयं सर्वधर्माणाम् । उक्तं च- " प्रतिभासोपमाः सर्वे धर्माः" इति । प्रतिभासश्व सर्वो भेदाभेदशून्यः । न हि नीलस्वरूपं सुखाद्यात्मना भिन्नमभिन्नं वानुभूयते, अन्यापेक्षत्वात् तथानुभवस्य । न च भेदाऽवेदन मे चैकत्ववेदनम् एकत्वाऽवेदनस्यैव भेदवेदनत्यप्रसङ्गात् ।
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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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एतेन 'प्रतिभासे सति कथं शून्यता ?' इत्यपास्तम्, 'तस्यैकानेकस्वभावाश्योगतः शून्यता' इति प्रतिपादनात् । तदुक्तमाचार्येण
"भाषा धन निरूपन्ते तद्रपं नास्ति तत्वतः ।
यस्मादेकमनेक वा रूपं तेषां न विद्यते ॥श" इति । ततो बाह्यमाध्यात्मिकं वा रूपं न तत्त्वम् , स्यूल-परमाण्यादिरूपानुपपत्तेः, किन्तु सांकृतमेव । संवृतिश्च त्रिधा १. एकालोकसंवृतिमरीचिकादिषु जलभ्रान्तिरूपा, २. अपरा तत्ववृतिः सत्यनीलादिप्रतीतिरूपा, ३. अन्या चाभिसमयसंवृतियोगिप्रतियत्तिरूपा, योगिपतियत्तेरपि ग्राह्यग्राहकाकारतया प्रवृत्तः, उक्तं च भगवद्भिः- “कतमन् संवृतिसत्त्वं यावल्लोकव्यवहारः" इति ।
[ज्ञानाद्वैत मिद्धि की आपत्ति का निराकरण ] इस पर यह शंका की जाय कि-यदि विचार करने पर यही सिद्ध होता है कि नीलादि का ज्ञानमात्र होता है-ज्ञान से भिन्न नीलादि को उपपत्ति नहीं होती। तो नीलादि में ज्ञान का अभेद न्यायतः प्राप्त होता है। क्योंकि यह न्याय निर्विवाद है कि जो जिस से भिन्न नहीं सिद्ध होता वह उस से अभिन्न होता है। फलतः नीलादि में ज्ञान का अभेद होने से अद्वैत ज्ञान की सत्ता सिद्ध होती है । अतः उक्त विचारों से भी माध्यमिक सम्मत शून्यता की सिद्धि नहीं हो सकती"-तो यह ठीक
है क्योंकि नील-पीताद्वात्मक चित्रज्ञान की सत्ता स्वीकारने पर चित्रात्मक जगत का भी अभ्युपगम न्यायप्राप्त होता है। क्योंकि उसमें कोई विनिगमना नहीं है कि ज्ञान तो चित्रात्मक हो और अर्थ चित्रात्मक न हो । अतः चित्रात्मक ज्ञान की भी सिद्धि न हो सकने से शून्यता का निराकरण नहीं हो सकता। जैसा कि माध्यमिक को एक कारिका में कहा गया है कि-'यदि एक अर्थ व्यक्ति में चित्रता के समान एक बुद्धि में भी चित्रता नहीं प्रमाणित होती तो मत हो। क्योंकि यदि वस्तु को यदि यही रुचिकर है कि वह चाहे ज्ञान हो चाहे अर्थ हो चित्रात्मक नहीं हो सकता तो उसमें हम क्या हस्तक्षेप कर सकते हैं !"-कहने का स्पष्ट आशय यह है कि युक्तिद्वारा न चित्रात्मक अर्थ की सिद्धि होती है और न चित्रात्मक ज्ञान की सिद्धि होती है । अतः शून्यता की सिद्धि अपरिहार्य है।
[निर्मल ज्ञानज्योति की एकमात्र सत्ता अनुभव बाह्य ] यदि इस निष्कर्ष पर यह शंका की जाय कि नीलपीताद्यात्मक ज्ञान सिद्ध न होने पर भी यह तो सिद्ध हो सकता है कि नीलपीतादि से असंक्लिष्ट निसर्गतः निर्मल ज्योतिस्वरूप ज्ञानमात्र हो पारमार्थिक तत्त्व है । फलतः इस सिद्धि से मो शून्यता का बाध हो सकता है।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इस प्रकार के ज्योति को कभी प्रतिपत्ति नहीं होती और जो वस्तु कभी प्रतिपत्ति का विषय नहीं होती उसे स्वीकार करना सम्भव नहीं है। यदि यह शंका की जाय कि-"नील-पीतादि अर्थों के अवभास की शून्यता की भी प्रतिपत्ति नहीं होती अतः शून्यता का भी अभ्युपगम नहीं हो सकता"- तो इस शंका से शून्यतावादी की कोई हानि नहीं है, क्योंकि शून्यतावादी नीलपीतादि अर्थों के प्रतिभासाभाव को शून्यता नहीं कहते किन्तु समस्त धर्मों के प्रतिभासोपमत्य को शून्यता कहते हैं। "सर्व शून्यात्मक है"-उन के इस कथन का प्राशय यह है कि समस्त धर्म प्रतिभास तुल्य-मायासहश है। जैसा कि माध्यमिक आचार्यों ने स्पष्ट कहा है कि-'अशेष धर्म प्रतिभासोपम मायोपम होते हैं।
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० ५६
श्राशय यह है कि प्रतिभास सभी भेद और अमेव से शुन्य होते हैं । जैसे, नीलप्रतिभास का सुखादि प्रतिभास से भिन्न अथवा अभिन्न रूप में अनुभव नहीं होता श्योंकि प्रतिभासों में भेव का अनुभव प्रतिभासमात्र विषयों में माता के सापेक्ष है और अभद का अनुभव प्रतिमासमान विषयों में अभेद सिद्धि सापेक्ष हैं। अतः नीलादि बाह्यार्थ में और सुखादि आन्तर अर्थ में भेद अथवा अभेद सिद्ध न होने से प्रतिभासमात्र को भेदाभेदशून्य मानना आवश्यक है। अतः जैसे प्रतिभास भेदाभेदशून्य है उसी प्रकार सभी धर्म भेदाभेवशून्य है। यही सर्थशून्यता का अर्थ है।
इस पर यदि यह कहा जाय कि-"नीलादिप्रतिभास में सुखादि प्रतिभास का अभेदानुभव नहीं होता- यह बात ठीक नहीं है क्योंकि उनमें भेद का अनभव न होना ही प्रभेद तो यह उचित नहीं है क्योंकि इस के विपरीत यह भी कहा जा सकता है कि उन दोनों में एकत्व का अनुभव न होना ही उन दोनों में भेद का अनुभव है। अतः प्रतिभास में भिन्नता अथवा अभिन्नता के अनुमव का जो प्रभाव बताया गया-वह सर्वथा युक्तिसङ्गत है। इसीलिये--'प्रतिभास का अस्तित्व सिद्ध है अतः शून्यता कैसे प्रतिष्ठित हो सकती है ? यह विरोध का कथन भी निरस्त हो जाता है क्योंकि प्रतिभास में एकत्व और अनेकत्वरूप स्वभाव का अभाव होने से ही शून्यता प्रतिष्ठित होती है। ऐसा शून्यबादी आचार्यों ने बताया है जैसा कि-आचार्य नागार्जुन को एक कारिका में स्पष्ट कहा गया है कि-जिस रूप से भाव की प्रतीति होती है वह रूप उनका तात्त्विकरूप नहीं है क्योंकि वह रूप भाव से अभिन्न अथवा भिन्न रूप में सिद्ध नहीं हो पाता।' अतः बाह्य अथवा आध्यात्मिक अर्थाव नीलादि और सुखादि का जो रूप अवगत होता है यह तात्त्विकरूप नहीं है। क्योंकि स्थूल परमाणु विज्ञान आदि का स्वरूप विचार करने पर उपपन्न नहीं हो पाता। अतः जो भी बाह्य अथवा आध्यात्मिकरूप प्रतीत होता है यह सब संवृतिमूलक होने से अतात्विक है। जिस संवृति से विभिन्नरूपों की प्रतीति होती है वह तीन प्रकार की होती है, १. एक लोकसंदति-जो कि मरुप्रदेश में चमकने के किरणपुञ्ज में मगादि को होने वाली जल भ्रान्ति रूप है। २. दूसरी तत्त्वसंवृति जो लोक में सत्य मानी जानेवाली नीलादि अर्थ को प्रतीतिरूप है और ३. तीसरी अभिसमयसंवृति है जो योगीजनो को विभिन्न अर्थों को प्रतीति रूप होती है। क्योंकि योगी प्रतिपत्ति भी ग्राह्य और ग्राहक के आकार में प्रवृत्त होती है । आशय यह है कि उक्त सभी प्रतीति-जैसे मरुमरीचिका में जलभ्रान्ति एवं नीलादि की लौकिक प्रतीति और योगी को होने वाली ग्राहा-ग्राहकाकार प्रतोति ये अपनी पूर्व पूर्व को समानाकार प्रतीति से उत्पन्न होती है । उसी प्रकार पूर्वपूर्व प्रतीति हो उत्तरोत्तर समानाकार प्रतोतिनों को उत्पादिका. संवृत्ति कही जाती है। क्योंकि संवृति शब्द, करण अर्थ में संपूर्वक वृधातु से क्ति प्रत्यय से निष्पन्न होने के कारण उस अर्थ का बोधक होता है जिस से वस्तुतत्त्व का संवरण: अनवभास होता है । उक्त प्रतीतियाँ बस्तुतत्त्व का संवरण करती है इसीलिये ये संवृत्ति शब्द से अभिहित होतो हैं । और उन प्रतीतित्रों में भासित होने वाले विषय सांवृत-काल्पनिक या असत् कहा जाता है। जैसा कि प्राचार्य भगवान ने कहा कि उक्त संतिओं में किसी भी संवति के विषय में तथ्य यह है कि जब तक लोकव्यवहार होता है तब तक उसकी सत्ता होती है । उनके मूलवाक्य में संवृतिसत्व के सम्बन्ध में 'कतम' शब्द का प्रयोग होने से संवृति के त्रैविध्य को सूचना होती है। बहुत में एक के बोधनाथ ही तमप् प्रत्ययवाले ऐसे शब्द का प्रयोग होता है और वह बहुत्व संवृति को त्रित्व संख्या स्वीकार करने से उपपन्न होती है।
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स्या. क. टोका एवं हिन्दी विवेचन ]
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ततो मध्यमक्षणरूपा संविदेव सर्वधर्मरहिता परमार्थसतीति सिद्धम् । आह च"मध्यमा प्रतिपत सैव, सैव धर्मनिरात्मता । भृतकोटिश्च सैवेयं तथ्यता सैव शून्यता ॥१॥" इति । __सा चाविभागणाप्यविधानपाट निभवनम्व भासते, तदन्तम्"अविभागोऽपि बुद्धथात्मा विपर्यासितदर्शनैः । ग्राह्य-ग्राहकसंवित्तिभेदवानिव लक्ष्यते ॥१॥” इति ।
___समस्ताविद्याविलये तु स्वच्छसंविन्मात्रमाभासते, तदुक्तम्"नान्योऽनुभाव्यो बुद्धयास्ति तस्या नानुभवोऽपरः ।
. ग्राह्य-ग्राहकवैधुर्यात् स्वयं सैव प्रकाशते ॥१॥" इति ॥५६॥
[ सर्वधर्मरहित मध्यमक्षणरूप संवित् की परमार्थ सत्ता] इस प्रकार उक्त तर्कपूर्ण विचार और शून्यवादी प्राचार्यों के प्रधनों से यह सिद्ध है कि सम्पूर्ण धर्मों से रहित मध्यम क्षणरूपा एकानेक रूपों से अनिर्वचनीय संविद ही परमार्थ सत् है । यही शून्यता है । जैसा कि नागार्जुन को एक कारिका से स्पष्ट है कि मध्यमाप्रतिपद् यानो मध्यम मार्ग, धर्मनैरात्म्य, भूतकोटि यानी सत्य को पराकाष्ठा, तथ्यता और शून्यता सब एक ही तत्त्व है। अर्थात ये सभी शब्द एक ही परमार्थ तत्त्व के बोधक हैं। उक्त शून्यता सर्वथा निविभाग है। किन्तु अविद्यायश-अनादिकालप्रवृत्तभ्रमप्रवाहवश विभिन्न रूपमत् प्रतीति होती है । जैसा कि एक कारिका में कहा गया है कि-'बुद्धि अर्थात् समस्त धर्मों से शून्य मध्यमाप्रतिपद् प्रादि शब्दों से अभिहित संवितरूपशून्यता सर्वथा निविभाग होने पर भी विपर्यासप्रस्त चित्तवाले मनुष्य को ग्राह्य, गृहीता और ग्रहण (ज्ञान) इन भेदों से युक्त जैसी प्रतीत होती है। उक्त शून्यता के विषय में यह भी सिद्धान्त है कि समस्त प्रविद्या का बिलय होने पर वह एकमात्र स्वच्छ संवित रूप में प्रकाशित होती है। यह बात भी एक कारिका द्वारा प्रतिपादित को गई है-अनुभव में आनेवाली कोई वस्तुधुद्धि स्वच्छसंवित रूप शून्यता से भिन्न नहीं है और विषय का अनुभव भी उससे भिन्न नहीं है क्योंकि प्राह्य और प्राहक का पृथक् अस्तिश्व न होने से स्वच्छ संवित रूप शून्यता ही स्वयं प्रकाशित होती है ॥५६॥
५७ षी कारिका में शून्यवाद की उक्तरीति से प्रतिपादित स्थापना का निराकरण किया गया हैएतनिराकरणवार्तामाहमूलम्-अत्राप्यभिदधत्यन्ये किमित्थं तत्त्वसाधनम् ।
प्रमाणं विद्यते किश्चिदाहोस्विच्छन्यमेव हि ॥५७॥ अनापि-शून्यतावादेऽपि, अन्येवादिनः अभिदधति यदुत-किमित्थं तत्त्वसाधनं शून्यतातत्त्वसाधनम् किञ्चित् प्रमाणं-वस्तुसद् विद्यते, आहोस्विच शून्यमेव हिन विद्यते प्रमाणम् ? इत्यर्थः ॥५७||
[ माध्यमिक के शून्यवाद की समालोचना ] उक्त शून्यवाद के सम्बन्ध में अन्यवादियों का कहना है कि क्या इस प्रकार शून्यता तस्व का साधन सम्भव है? इस प्रश्नात्मक संकेत का यह आशय है कि शुन्यता का साधक कोई वास्तविक प्रमाण है ? अथवा अन्य सभी के समान वह भी शून्य ही है अर्थात शून्यता का साधक कोई पारमार्थिक प्रमाण नहीं है ? ५८ वी कारिका में उक्त दोनों पक्षों में दोष बताया गया है
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[ शास्त्रवार्त्ता स्त० ६ श्लो०-५८-५९.६०
पक्षद्वये दोषमाह -
मूलम् — शून्यं चेत्सुस्थितं तत्त्वमस्ति बेच्छून्यता कथम् ? 1 तस्यैव ननु सद्भावादिति सम्यग्विचिन्त्यताम् ॥ ५८ ॥
शून्यं चैव शून्यतायां प्रमाणं तदा सुस्थितं सम्यग् व्यवस्थितं तत्त्वम्, अवस्तुसता प्रमाशेन प्रमेयच्यवस्थितेरित्युपहासः । अस्ति चेतु प्रमाणं तत्साधकम् तदा कथं शून्यता तस्यैवप्रमाणस्य सद्भावात् तच्चरूपत्वात् सकलपदार्थाभावाऽसिद्धेः, इति सम्यग् विचिन्त्यतां माध्यस्थ्यमालव्य || ५८ ॥
यदि शून्यतासाधक प्रमाण भी शुन्य हो तब तो शून्यता तत्त्व की बडी अच्छी सिद्धि होगी ! अर्थात् यह एक उपहास की बात है कि प्रमाण के असव होने पर भी प्रमेय की सिद्धि हो । तथा यदि शून्यता का साधक कोई प्रमाण विद्यमान है तो वह प्रमाण हो एक सत्यवस्तु सिद्ध हो जाता है अतः उस के रहते समस्त पदार्थ के अभाव की सिद्धि कैसे हो सकती है यह माध्यमिक को भी मध्यस्थभाव से अर्थात् अपने मत में प्रभिनिवेश का परिश्याग कर सोचना चाहिये ।। ५८ ।।
५६ वीं कारिका में माध्यमिकों को इस प्राशंका का कि 'शून्यता प्रतीयमान अर्थों से विलक्षण किसी वस्तुरूप में प्रतिभासित नहीं होती अतः उस में प्रमाण का अन्वेषण निष्फल है किन्तु समस्तधर्म की प्रतिभाससुल्यता ही शुन्यता है - इस का उत्तर दिया गया है
अथ न शून्यता नाम काचित् विविक्ता प्रतिभासते यस्य प्रमाणान्वेषणं फलवत् स्यात्, किन्तु प्रतिभासमत्वं सर्वधर्माणामित्याशङ्क्याह
मूलम् प्रमाणमन्तरेणापि स्थादेवं तत्त्वसंस्थितिः ।
अन्यथा नेति सुन्यकमिदमीश्वरचेष्टितम् ॥ ५९ ॥ प्रमाणमन्तरेणापि विनापि व्यवस्थापकम् एवं तत्त्वसंस्थितिः सर्वधर्माणां मायोपमत्वव्यवस्थितिः स्यात्, अन्यथा - अनुभूयमानानन्तधर्मात्मकरवे च न स्याद् व्यवस्थितिः । इदमीश्वरथेष्टितम् – स्वतन्त्राज्ञामात्रम् । सर्वधर्मराहित्येऽपि मानमवश्यमन्वेपणीयमिति भावः ॥५६॥
'प्रमाण के बिना भी समस्त पदार्थों में मायोपमत्व की सिद्धि हो सकती है और समस्त पदार्थों में अनन्तधर्मात्मकता का अनुभव होने पर भी सिद्धि नहीं हो सकती' - यह निर्णय ईश्वर की केवल निराधार श्राज्ञा ही कही जा सकती है। किन्तु किसी में ऐसा सामर्थ्य नहीं है जिसकी केवल आज्ञा से ही वस्तु का कोई तात्त्विक या अहात्विक रूप सिद्ध हो सके । अतः परमार्थसत् वस्तु समस्त धर्मों से रहित होने में भी प्रमाण का श्रन्वेषण आवश्यक है । । ५६ ।।
६० वीं कारिका में उक्त कथन के विरुद्ध बौद्ध के अभिप्राय को प्रस्तुत कर उसका निराकरण किया गया है।
..
पराशयमाशङ्क्य निराकुरुते
मूलम् — उक्तं विहाय मानं बेच्छून्यतान्यस्य वस्तुनः ।
शून्यत्वे प्रतिपाद्यस्य ननु व्यर्थः परिश्रमः ॥ ६० ॥
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२११
स्वा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन 1
उक्तं शून्यतासाधकं मानं विहाय चेद्यद्यन्यस्य वस्तुनः शून्यता, मानं पुनरशून्यमेवेति न दोष इति भावः, तदा प्रतिपाद्यस्य यमुद्दिश्य शून्यतासाधकं मानं प्रयुज्यते तस्य, शून्यत्वे व्यर्थः परिश्रमः प्रकृतप्रयोगस्य, अन्यथा शशशृङ्गमुद्दिश्याप्येतत्प्रयोगं किं न कुरुपे ? । तथा च सुष्ट्रक्तं भट्टेन - "सर्वदा सदुपायानां वादमार्गः प्रवर्तते I
अधिकारोऽनुपायत्वाद् न वादे शून्यवादिनः || १ ||" इति ॥ ६० ॥
यदि माध्यमिक की ओर से यह कहा जाय कि- "सर्वशून्यता का अर्थ है - शून्यतासाधक प्रमाण को छोड कर ग्रन्य समस्त वस्तुओं की शून्यता । अतः शून्यतासाधक प्रमाण के अशून्य होने पर भी कोई दोष नहीं है" - तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि प्रमाण के समान ही प्रतिपाद्य पुरुष के विषय में भीमक को यह मानना होगा कि जिस पुरुष के प्रति शून्यतासाधक प्रमाण का प्रयोग होता है वह भी अशून्य है, क्योंकि उसके शून्य होने पर शून्यतासाधक प्रमाण के प्रयोग का परिश्रम व्यर्थ होगा । यदि असत् प्रतिपाद्य के प्रति भी शून्यतासाधक अनुमानप्रयोग किया जाय तो 'शशशृङ्गादि के प्रति भी माध्यमिक बौद्ध शून्यता के साधक प्रमाण का प्रयोग क्यों नहीं करते ?' इस प्रश्न का उनकी ओर से कोई उत्तर नहीं दिया जा सकता। इस सम्बन्ध में कुमारिलभट्ट ने यह ठीक ही कहा है कि जिनके मत में अपने श्रभिमतपक्ष के साधक उपायों का अस्तित्व है उन्हीं के बीच बाद कथा हो सकती है । शून्यवादी के पास अपने पक्ष का साधक उपाय न होने से वह बाद के लिये अधिकारी ही नहीं हो सकता [ श्लो०वा० सूत्र ५ निरालम्वनवादे श्लो० १२८ ] ॥६०॥
६१ व कारिका में प्रतिपाद्य पुरुष को अशून्य मानने पर माध्यमिकमत में दोष बताया है-तदशून्यताय दोषमाह -
मूलम् -- तस्याप्यशून्यत्तायां च प्राशिनकानां बहुत्वतः । प्रभूताऽशून्यतापत्तिरनिष्टा संप्रसज्यते ॥ ६१ ॥
तस्यापि प्रतिपाद्यस्यापि, अशून्यतायामभ्युपगम्यमानायाम्, प्रानिकानां पर्यनुयोक्तॄणाम्, बहुत्वतः बाहुल्याव, प्रभूताऽशून्यतापत्तिः बहूनां तात्त्विकतापत्तिः, अनिष्टा तत्र संप्रसज्यते = बलादापतति ॥ ६१॥
यदि माध्यमिकवादी प्रमाण के समान प्रतिपाद्य पुरुष की भी अशून्यता स्वीकार करेगा तो प्रश्नकर्ताओं के बाहुल्य से बहुतों के अशून्यता को आपत्ति होगी, अर्थात् बहुतों को तात्त्विक मानना पढ़ेगा, जो माध्यमिक को अनिष्ट है ।। ६१ ॥
६२ वीं कारिका में पूर्वकारिका में उक्त विषय का स्पष्टीकरण किया हैइदमेव स्पष्टयति-
मूलम् - यावतामस्ति तन्मानं प्रतिपाद्यास्तथा च ये ।
सन्ति ते सर्व एवेति प्रभूतानामशून्यता ॥ ६२ ॥
यादतां श्रमातॄणामस्ति तत्मानं - शून्यता साधकं प्रमाणम्, तथा ये प्रतिपाद्यास्ते सर्व एव सन्ति परमार्थतो, न तु शून्याः, इति हेतोः प्रभूतानामशून्यतेति । ननु य एव
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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ६ श्लो० ६२ परिशीलितसुगतश्रुतोपनिषद्गलितनिखिलाविद्याकलंकः, स एवाऽशून्यः, तस्यैव च निर्धर्मकसंधिन्मानं मानमशून्यं, परमार्थसत्वात् , इतरेषां तु वादि-प्रतिवादिप्राश्निकानां च्यवहारत एव सत्त्वम् । तत एव च साध्य-साधन-दृष्टान्तादिभेदेनोक्तप्रपश्चाऽसत्यतानुमानसंभवः, तदुक्तमाचार्यण-"सर्व एवायमनुमानानुमेयव्यवहारः सांवृतः” इत्यादीति चेत् ? न, तर तत्वज्ञानिनः शून्यतानुभवस्य त्वयैव [१ तवैव ] श्रद्धाविषयत्वात् । अनुमानेन च प्रामुक्तेन न नीलादिज्ञाने द्विचन्द्रादिज्ञानतुल्यमसत्यत्वं सायितुं शक्यम् , बाध्यत्वाऽवाध्यत्वाभ्यामुभयबैलक्षण्यात् । न च बाध्यबाधकभाको निराकृत एवेति वाच्यम्, व्यवहारसिद्धस्य तस्य निराकतु - मशक्यत्वात् , बाधकेन ज्ञानस्य, स्वरूपस्य, विषयस्य, फलस्य बाऽबाधेऽपि वाध्यत्रानेऽप्रामाण्यज्ञापनात् , तदुक्तं सूरिणा-"किन्तु ज्ञानस्यासद्विषयत्वम्', अर्थस्य चासत्प्रतिभासनं तेन ज्ञाप्यते” इति । अत्र ज्ञानस्यासद्विषयत्वं तदभाववति तत्प्रकारकत्वम् , अर्थस्यासत्प्रतिभासनं च स्वाभाववद्विशेष्यकज्ञानप्रकारत्वम् , तथाभानं च तदभावस्फूर्त्या मानसाध्यक्षोहादिना दीर्घाध्यवसायिनेति तत्वम् ।
जितने प्रमाताओं को शून्यतासाधक प्रमाणः : अस्तित्व मान्य होगा और जितने पुरुषों के प्रति उस प्रमाण का प्रयोग होगा वे सब परमार्थ सव होंगे. शून्य नहीं हो सकते । इस कारण बहुतों को अशून्यता प्रसक्त होगी।
[एक ही तत्त्वज्ञानी को अशून्य बताना युक्तिशून्य है ] यवि माध्यमिक की ओर से यह कहा जाय कि-"अनेक प्रमाता-प्रतिपादक पुरुषों को अशून्य
आवश्यक है। अशुन्य एकमात्र वही व्यक्ति है जिसका संपूर्ण अविद्या कलंक सुगत-बद्ध से प्राप्त तत्वविद्या के परिशीलन से निर्मूल हो चुका है और उसी का सर्वधर्मों से रहित एकमात्र संविद् रूप प्रमाण ही प्रशून्य है क्योंकि यही परमार्थ सत् है। उससे अन्य वादी-प्रतिवादी प्राश्निकादि की केवल व्यावहारिक सत्ता है। और साध्य-साधन और दृष्टान्तादि में भेद भी व्यावहारिक ही सव है। अतः प्रपश्च में प्रसत्यता के साधक उक्त अनुमान का प्रयोग निर्वाध रूप से सम्भव है। जैसा कि प्राचार्य ने कहा है-अनुमान-अनुमेय का समस्त व्यवहार ही संवृतिमूलक है ।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि ऐसे तत्त्वज्ञानी और उसके शून्यता तत्व के अनुभव की सत्ता माध्यमिक को केवल श्रद्धा का ही विषय है, उसमें कोई प्रमाण नहीं है। जिसमें कोई प्रमाण न हो उसे किसी की श्रद्धा के आधार पर स्वीकार नहीं किया जा सकता। प्रतः पूर्वोक्त अनुमान से नीलादि पवार्थों के ज्ञान में चन्द्रद्वयादि के ज्ञान के समान असत्यता का साधन नहीं हो सकता क्योंकि चन्द्रद्वयादि का ज्ञान बाध्य है और नीलादि का ज्ञान बाध्य है-अतः दोनों में वलक्षण्य है। इसके विरुद्ध यह कहना सम्भव नहीं है कि'बाध्य-बाधक भाव का युक्तिपूर्वक निराकरण किया जा चुका है अतः बाध्यत्व-अबाध्यत्व के आधार पर उन ज्ञानों को विलक्षण बताता सम्भव नहीं है क्योंकि बाध्य-बाधकभाव व्यवहार सिद्ध है, प्रतः उसका निराकरण अशक्य है । बाधक ज्ञान से ज्ञान का, उसके स्वरूप का, विषय का और फल का बाधन होने पर भी बाध्यज्ञान में अप्रामाण्य का ज्ञापन हो सकता है। जैसा कि सूरि ने कहा है कि ज्ञान में असद्विषयकत्व यानी बाधक ज्ञान से बाध्यज्ञान में असद्विषयत्व और अर्थ में, असत् होते हुये
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__ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
भी प्रतिभासमानता का ज्ञापन होता है।' ज्ञान में असद्विषयकस्य का अर्थ है 'तदभावद्विशेष्यक तत्प्रकारकत्व'- अर्थात जिस प्रर्य में जिस धर्म का प्रभाव है उस अर्थ में उस धर्म का प्रकार रूप से (विशेषणरूप से) अवगाहन करना। तथा अर्थ के असद प्रतिमासन का तात्पर्य यह है स्वाभाववाद विशेष्यक ज्ञानप्रकारत्व अर्थात् जिस (मूतलादि) वस्तु में जिस अर्थ का अभाव है, उस भूतलादि को विशेष्य रूप से ग्रहण करने वाले ज्ञान में उस अर्थ का प्रकार रूप में भासित होना। उसका भान अर्थात प्रकारविधया मासित होने वाले अर्थ के अभाव को स्फुति यह इस प्रकार संपन्न होता है कि प्रतियोगीज्ञान और अमावज्ञान में देत-तम.दाव होने से प्रतियोगीज्ञान होने पर उसके बुद्धि होने पर मानसाध्यक्ष तथा विशेष्यविधया भासित होने वाले पदार्थ के सम्बन्ध में जहादि से धर्मीभूत अर्थ के दीर्घकालस्थायी अध्यवसाय से सम्पन्न होता है।
कहने का आशय यह है कि यद्यपि 'बाध्यज्ञान जिस धर्मों में जिस धर्म को प्रकारविधया ग्रहण करता है उस धर्मी में उसके अभाव का ज्ञान उस समय सम्भव नहीं है क्योंकि जिस ज्ञान में जिस वस्तु में जो अर्थ जिस समय प्रकाररूप में मासित होता है वह शाम ही उस वस्तु में उस अर्थ के अभाव ज्ञान का विरोधी होता है । अतः उस समय गाभुत याद में कारोभूत अर्थ के प्राम ज्ञान न होने से. ज्ञान में तदभावविशेष्यकरयविशिष्ट तत्प्रकारकत्व और अर्थ में स्वाभावयद्विशेष्यकज्ञानप्रकारश्व का ज्ञान दुर्घट है, तथापि यदि धर्माभूतवस्तु का दीर्घकाल तक अव्यवसाय होता है सो जिस धर्मो मूत वस्तु में जिस अर्थ का ज्ञान हुआ है उस अर्थ के प्रतियोगीजानरूप कारण से उस अर्थ के अभाव की बुद्धि उत्पन्न हो जाती है। और वस्तुतः धर्मीभूत वस्तु में प्रकारविधया भासित होनेवाले अर्थ का प्रभाव होने से मानस अध्यक्ष द्वारा उस वस्त में उस प्रर्थ के प्रभाव का ज्ञान हो जाता है, क्योंकि यह मानसाध्यक्ष सद्विषयक होने से असद्विषयक बाध्यज्ञान से प्रतिरुद्ध नहीं होता। प्रथवा धर्मोभूत वस्तु के विषय में ऊह यानी अन्यान्य उपायों से उस वस्तु को देखने पर, प्रकारविषय या भासमान अर्थ के प्रभाव का जो कि उस वस्त में विद्यमान है-ज्ञान हो जाता है। अतः जिस धर्मीभूतवस्तु में जिस अर्थ का प्रकार विधया जो ज्ञान होता है उसके रहते भी धर्मीभूत वस्तु में उस अर्य के अभाव का ज्ञान हो जाने से उस ज्ञान में तवभाववद्विशेष्यकत्वविशिष्ट तत्प्रकारकस्व का और उस अर्थ में स्वाभाववद्विशेष्यकज्ञानप्रकारत्व का ज्ञान सुघट हो जाता है।
कथं च बाध्यबाधकभावानभ्युपगमे स्कन्ध-संतानादिविकल्पाना निर्विषयत्वोपवर्णनं युक्तिमत स्यात् ? कथं वा बाध्यबाधकमावप्रतिषेधविधायियुक्त्युपन्यासो न व्यर्थः स्यात् ?, समारोपव्यवच्छेदार्थ तदुपन्यासे तद्ववच्छेदस्य स्वरूपापहाररूपत्वे बाध्यबाधकमावोपगमप्रसङ्गाव, उदयकाल एव तदपहारे तदर्थ शास्त्रप्रणयनानुपतेश्च ।
[पाध्यबाधकमात्र के अस्वीकार में युक्तिशून्यता] यह भी विचारणीय है कि बाध्यबाधकभाव न मानने पर स्कन्धसन्तानावि ज्ञानों में निविषयकत्व का प्रतिपावन भी कसे युक्तिसंगत हो सकता है ? और बाध्यबाधकभाव के प्रतिषेधक युक्ति का प्रयोग भी क्यों व्यर्थ नहीं होगा? यदि इस के उपन्यास का प्रयोजन समारोप का व्यवच्छेद माना जाय तो ध्यवच्छेव स्वरूपापहार रूप होने से बाध्य-बाधकभाव अनिवार्यरूप से स्वीकार्य हो जाता है। भावमात्र के क्षणिकरवपक्ष में समारोप के उदयकाल में हो समारोप का स्वरूपापहार हो जाने से समारोप के पवच्छेद के लिये शास्त्ररचना भी अनुपपन्न होगी।
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[ शास्त्रवार्ता स्त० ६ श्लो० ६२
अथ शास्त्रादेः प्राक्तनसमारोपक्षणादुत्तरसमारोपक्षण जननाऽसमर्थः क्षणः समुपजायत इति तनिवृत्तिः तर्हि बाघकाद् बाध्य निवृत्तिरपि तथैव संपत्स्यत इति न तन्निराकरणं युक्तम् । 'ईदृशं बाध्यत्वमेव फलतो नीलादिज्ञाने साध्यते' इति चेत् १ न प्रत्यक्षवाधात् । न हि द्विचन्द्रादिज्ञान इव सत्यनीलादिज्ञानेऽवतरति कस्यापि बाध इति । अथ द्विचन्द्रादों बाधोऽपि लोकाभिमत एव, तत्र लोकमंवृतिसिद्धं सच्चम् इति लोकानां सत्त्वाभिमानः, इति परमार्थतोsari तत्र शास्त्रेण ज्ञाप्यते । एवं च नीलादौ परमार्थाऽसच्चसाधने लोकवाध्यत्वाभावेऽपि न दोप:, 'प्रकाशस्य प्रकाशता' इत्यत्र लोकसिद्धस्यापि भेदस्य 'नीलादीनां स्वभाव :' इत्यत्र चाभेदस्य विचारासहत्वेन परमार्थतोऽसच्चादिति चेत् ? न, लोकसिद्धस्य माध्यस्य साधने लोकसिद्धस्य बाघस्य दोषत्वात्, अलौकिकस्य च साध्यस्याप्रसिद्धेः । परमार्थसत्त्वज्ञानं नास्त्येव नीलाद लोकानाम त्वमात्रमेव हि स्वानुभूयते तच्च न प्रकृतबाधकम् घटज्ञानेऽपि नीलघटाभावज्ञानवत् सवज्ञानेऽपि परमार्थसत्त्वाभावज्ञानोपपत्तेरिति चेत् ? तर्हि द्विचन्द्रादावप्यसत्त्वमात्रमनुभूयते, न तु परमार्थतोऽसच्चम् इति का साध्यसिद्धिः ९ ।
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किञ्च, सकलशून्यतापक्षस्य यथा स्वप्नेऽप्यप्रत्ययेन निरासः, तथा स्वच्छसंविदतिरिक्तशून्यतापक्षस्य द्रष्टव्यः, मध्यमक्षणस्थायिनः संविन्मात्रस्य कदाप्यनुपलम्भात्, स्वपरव्यवसायिन एवं ज्ञानस्य स्फुटमुपलम्भात् । न चानुपलब्धप्रत्ययेनोपलब्धप्रत्ययबाधा सुघटा, अतिप्रसङ्गात् । न चासत नीलाद्याकाराणां परिस्फुरणं न तु तुरङ्गभृङ्गादीनामित्यत्र बीजमस्ति । न च निर्धर्म के संविन्मात्रे क्षणिकत्वादिवमोऽपि घटते । इति वासनामात्रमेतत् परेषाम् | तस्माद् यथानुभव मेकानेकस्वरूपमेव वस्तु श्रद्धेयम्, तत्र विरोधस्य निरस्तत्वात् निरसिष्यमाणत्वाच्चेत्यवसेयम् ॥ ६२ ॥
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सौगत ! प्रणयिनी नितान्तं शून्यता तंव न मुञ्चति चित्तम् । प्राज्ञपदि न कश्चन हर्षस्तेन शून्यहृदयस्य तवास्ति ॥ १ ॥ मुग्धमाध्यमिक ! मध्यमसंवित् किं सता चत समाश्रयणीया । उत्तम सुविदितामिह चित्र तामानाप्य न हताश ! हतः किम् १ ॥ २ ॥ [ शास्त्रसार्थकता उपपत्ति का माध्यमिक प्रयास व्यर्थ है ]
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fe यह कहा जाय कि "शास्त्ररचना की निरर्थकता नहीं हो सकती क्योंकि शास्त्र से, पूर्ववर्ती समारोपक्षण से उत्तरकालिकसमारोपक्षण के उत्पादन में असमर्थ क्षण की उत्पत्ति होती है । इस तत्त्वज्ञानात्मक क्षणकाल में पूर्ववर्ती समारोपक्षण का सजातीय समारोपक्षण परस्परविरुद्ध होने के कारण नहीं उत्पन्न हो पाता और इस क्षण से व्यवहित हो जाने से इस से इस क्षण के उत्तरकाल में भी समारोपक्षण की उत्पत्ति नहीं होती । इसप्रकार शास्त्र से समारोप की निवृसि सिद्ध होती है।" तो यह कहना भी वादी के अभिमत का साधक नहीं हो सकता क्योंकि उसी रीति
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स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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से बाधकज्ञान से बाध्यज्ञान को निवृत्ति मी सम्भव हो सकने से बाध्य-बाधफभाध का निराकरण अयुक्त है। यदि यह कहा जाय कि-'नीलादिज्ञान में भी सर्वशून्यताज्ञान से फलतः तदभाववधिशेष्य. कत्वे सति तत्प्रकारकत्व रूप प्रसद्विषयकत्व का ही साधन होता है तो यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि लोकहदि से नीलाविज्ञान में सद्विषयकत्व होने के कारण असद्विषयकत्व का प्रत्यक्षबाध है । क्योंकि जैसे चन्द्रदय के ज्ञान का लोकाभिमत बाध होता है उस प्रकार लोक दृष्टि से सत्य बाले नीलादिविषयक ज्ञान का कोई लोकसिद्ध बाध नहीं होता।
इस के विरुद्ध यदि यह कहा जाय फि-'यद्यपि यह सत्य है कि द्विचन्द्रादि का बाध लोकाभिमत हो है और उस बाध में लोकसंवृति-तत्वसंवृतिसिद्ध सत्ता है इसलिये उस में लोक को सत्त्व का अभिमान होता है तथापि शास्त्र से उसमें पारमायिक सत्य के अभाव का ज्ञापन होता है-उसी प्रकार नोलादि तथा नीलाविज्ञान में लोकबाध्यत्व न होने पर भी परमार्थ सत्त्व के अभाव का साधन करने में कोई दोष नहीं हो सकता। क्योंकि जैसे 'प्रकाशस्य प्रकाशता यानी प्रकाश की प्रकाशरूपता' और 'नीलादीनां स्वभाव:-नीलादि का स्वभाव' इन व्यवहारों में लोकसिद्ध भो भेद युक्तिसह न होने से परमार्थ से उसका अभाव होता है उसी प्रकार नीलादि भी पुक्तिसह न होने से उनके परमार्थसत्त्व का प्रभाव हो सकता है। किन्तु यह कथन भी ठीक नहीं है। क्योंकि लोकसिद्ध साध्य का साधन करने में लोकसिद्ध बाध का दोष होना अनिवार्य है। नीलादि में जो प्रसव साधनीय है वह अन्यत्र राशविषाणादि में लोकसिद्ध है अतः उसका अनुमान करने पर नोलादि का लोकसिद्ध सत्त्व एवं नोलादिक्षान का लोकसिद्ध सद्विषयकत्व बाधक हो सकता है। यदि यह कहा जाय कि- नीलादि और उस के ज्ञान में जो असत्व तथा प्रसद्विषयकत्व सापनीय है वह लौकिक न होकर मलौकिक है अतः उस में लोकसिद्ध बाध दोष नहीं हो सकता तो यह ठीक नहीं है क्योंकि अलौकिक साध्य अप्रसिद्ध है।
यदि यह कहा जाय कि-"नीलादि में लोक को परमार्थ सत्व का ज्ञान नहीं होता है किन्तु उसमें लोक को सत्त्व मात्र काही अनुभव होता है और सत्त्व का अनुभव परमार्थसत्त्व के प्रभाव साधन में बाधक नहीं हो सकता क्योंकि जैसे मृतलादि में घटप्रकारक ज्ञान होने पर भी नोलघाभावप्रकारक ज्ञान होता है उसी प्रकार नीलावि में सामान्यरूप से सत्त्व का ज्ञान होने पर भी परमार्थसत्त्व के अभाव का ज्ञान हो सकता है"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि द्विचन्द्रादि में भी लोक को असत्त्वमात्र काही अनुभव होता है। परमार्थसत्याभाव का अनुभव नहीं होता। अत: परमार्थसत्त्वाभाव कहीं सिद्ध नहीं है, अत एव साध्याऽप्रसिद्धि दोष होने से नोलावि में परमार्थसत्त्वाभाव का साधन नहीं हो सकता।
इस संदर्भ में यह भी विचारणीय है कि जैसे सर्वशून्यतापक्ष की स्वप्न में भी प्रतीति न होने से उसका निरास होता है उसी प्रकार स्वच्छसंविद् से भिन्न सर्वशून्यतापक्ष का भी निराकरण समझना चाहिये क्योंकि मध्यमक्षणस्थायी अर्थात् ग्राह्य तथा ग्राहक न होने से ग्राह्यक्षण और ग्राहकक्षण के मध्यमक्षरण में स्थायी अर्थात् ग्राह्य ग्राहकाकारविनिर्मुक्त ऐसे स्वच्छसंवि मात्र का कमी उपलम्भ नहीं होता। क्योंकि स्वपरव्यवसायी ज्ञान का ही स्पष्ट उपलम्म होता है, अर्थात जो ज्ञान उपलब्ध होता है वह स्वस्वरूप और स्वभिन्न का बोधक होने से ग्राह्यग्राहक उमयाकार हो होता है। जो प्रत्यय अनुपलब्ध-असिद्ध है उससे उपलब्ध यानी सिद्ध प्रत्यय का बाध सुघट नहीं हो सकता। क्योंकि ऐसा मानने पर अतिप्रसङ्ग होगा। अर्थाद शुक्ति में रजतमेवज्ञान अनुपजात रहने पर मी शुक्ति में रजतज्ञान का बाधक होगा, क्योंकि अनुपजातवशा में वह अनुपलब्ध प्रत्ययरूप है।
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________________ 216 [शास्त्रबार्ता० स्त०६ श्लो०६३ यह भी विचारणीय है कि जब नीलादि अर्थ और अश्वशृंगादि समानरूप से असत है तो उन में नीलादि का स्फुरण हो और अश्वशृंगादि का न हो इसका कोई उचित कारण नहीं है। दूसरी रात यह है-यदि विश्व केवल संविद्रूप यानी जानमात्रात्मक है तो निश्चितरूप से वह निधर्मक है, प्रतः उस में क्षणिकत्व धर्म बताना भी प्रयुक्त होगा। इसलिये स्वच्छ संवितमात्र की ही परमार्थ सत्ता है और वह भी क्षणिक है यह बौखों का केवल वासनामात्र है, उसमें कोई युक्ति अथवा प्रमाण नहीं है। अस: उचित यह है कि लोकानुभव के अनुसार वस्तु एकानेकात्मक है-इस सिद्धान्त पर ही श्रद्धा करनी चाहिये / क्योंकि एक वस्तु में एकत्व अनेकत्वादि के विरोध का निराकरण किया जा चुका है और आगे भी किया जाने वाला है। व्याख्याकार ने माध्यमिक के साथ अब तक की चर्चा का यह कहते हुये उपसंहार किया है कि पता ने प्रेमिका के सपा यमिक रित्त को पूर्णरूप से अपने स्वाधीन कर लिया हैवह इसकी पकड से निकल नहीं पाता। अतः माध्यमिक शून्य हृदय हो जाने से विद्वानों के साथ विचारगोष्ठी में [ उसके मुंह पर ] कोई प्रसन्नता नहीं दीखती। खेद है कि माध्यमिक ने सब [=सज्जन] होते हये भी मुग्धतावश मध्यमासंवित का समाश्रयण क्यों किया है और सुप्रसिद्ध चित्रस्वरूप उसमा संविद् को उपलब्ध न कर सकने के कारण हताश और पीडित क्यों नहीं होता?॥६२॥ अस्य विषय विभागामिधित्सयाहएवं च शन्यवादोऽपि सछिनेयानुगुण्यतः। अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्त्ववेदिना॥६३ एवं ष-उक्तरीत्याऽघटमानत्वे चेत्यर्थः, शून्यवादोऽपि, तछिनेयानुगुण्यतः शून्यताविपयविभागावधारणप्रवणशिष्यहितानुरोधात् , तत्त्ववेदिना-बुद्धन, अभिप्रायतः तत्प्रयोजनाभिप्रायान उक्तः, न तु तत्वाभिधित्सया, इति लक्ष्यते संभाव्यते / विना तूपकारक कारणं द्रव्यमृषाभाषित्वे बुद्धस्यानासत्यप्रसङ्गादिति // 6 // पूर्णा सुगतसुतमतवार्ता / शून्यवाद जब उक्त रीति से उपपन्न नहीं होता तो यही मानना उचित होगा कि तत्त्वदर्शी बुद्ध ने शून्यता के विषविभाग अर्थात्-शून्यवाद के विषयविभाग-वास्तवाभिप्राय को समझने में कुशल शिष्यों के हित के विचार से शुन्यवाद का इस तात्पर्य से उपदेश दिया है कि जिस से वे सांसारिक विषयों में आसक्त न हो / शून्यता की देशना में निश्चय ही उनका यही तात्पर्य सम्भव प्रतीत होता है, न कि 'शून्यता ही वस्तुतत्त्व है' इस प्रतिपादन के अभिप्राय से, क्योंकि लोककल्याण की भावना के विना द्रव्याऽसत्य का वक्तृत्व मानने पर उन में अनाप्तस्व की प्रापति हो सकती है // 63 // _ 'यस्यासन' यह श्लोक और उसका अर्थ पूर्वस्तबकवत् यहां समझ लेना / तदुपरांत एक श्लोक इस स्तबक की समाप्ति में अधिक उपलब्ध होता है जो बहुत सुन्दर है श्रमो ममोच्चैरियता कृतार्थः सन्तोत्र संतोषभृतो यदस्मात् / खलैः किमस्मिन , भ्रमरस्य भोग्यं सौभाग्यमन्जस्य न वायसम्य / / भाषार्थ -हमारे इस ग्रन्थ को देखकर सज्जनवृद प्रसन्न हुए हैं, इतने से हो मेरा परिश्रम सफल है। हां, दुष्टपुरुषों का मुझे क्या प्रयोजन ! अरविंद के भोग का सौभाग्य मधुकर का हो होता है, कौआ का कभी नहीं होता। स्तवक ६-समास