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स्या० का टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
विवेचनता का यह रूप बताया जाय कि चित्रज्ञान का विवेचन करने वाली बद्धि चित्रज्ञान को ग्रहण न कर उसके अर्थ-आकार विशेष को हो ग्रहण करती है । इस प्रकार नीलादि एक-एक आकार के ग्रहण के समय चित्रज्ञान का पूर्णतया ग्रहण न होना हो उसका अविवेचन है" तो इस प्रकार का अविवेचन चित्रद्रव्य के सम्बन्ध में भी समान है। अर्थात चित्रव्यवादीको प्रोर से यह कहा जा सकता है कि जब एकस्व में परिणत चित्रव्य को विवेचन करने वाला बोध उदित होता है तो वह द्रव्य के विभिन्न आकारों को हो ग्रहण करता है। चित्रव्य को पूर्णतया ग्रहण नहीं करता । तो इस प्रकार द्रव्य के एक-एक आकार के ग्रहण काल में पूर्णरूप से चित्रव्य का प्रग्रहण ही उसका अविवेचन है । अतः यह स्पष्ट है कि चित्रज्ञान और चित्रद्रव्य के प्रशश्यविवेचनत्व में कोई अन्तर नहीं है ।
एतेन 'ग्राहकै कस्वरूपस्य नानाग्राह्याकारकृतवास्तवैकत्याविघातोऽविवेचनम्' इत्यपि निरस्तम्, वस्तुत एकस्य वाह्यस्य नानाधर्मकृतैकत्वाविध ततौल्यात, शब्दपरवृत्तिमात्रत्वात् । एतेन विविच्यमानस्यावास्तवाकवपरिश्रहोऽपि व्याख्यातः ।।
[एकत्व के अविधातरूप अविवेचन उभपचक्ष में समान ] चित्रज्ञानवादी की ओर से यदि उसके अविवेचन को यह व्याख्या को जाय कि-"ज्ञान एकमात्रग्राहकस्वरूप है, उसका एकत्व वास्तविक है, जिसका विघात नीलपोलादि विभिन्न बाह्याकारों से नहीं हो सकता। इस प्रकार ग्राहकस्वरूप चित्रज्ञान के नीलपीतादि विभिन्न आकारों से वास्तव एकत्व का अविधात हो अविवेचन है"-तो इससे भी चित्रज्ञान के अविवेचन में चित्रद्रव्य के अविवेचन के वैषम्य स्थापन का प्रयास निष्फल हो जाता है। क्योंकि चित्रव्य के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि चित्रद्रय्य वस्सतः ज्ञान से भिन्न है और एक है। उसके विभिन्न धर्मों से उसके एकत्व का विघात नहीं हो सकता अत: एक चित्रद्रव्य के वास्तव एकत्व का उस के धर्मों से विघात न होना ही उसका अविवेचन है । फलत: अर्थ में कोई भेद नहीं होता है। केवल अविवेचन के व्याख्यात्मक शब्दों में परिवर्तनमात्र हो जाता है। इसीलिये प्रविवेचन की -'विविध्यमान के अनेकत्व का अवास्तव होना हो विविच्यमान चित्र ज्ञान का अविषेचन है' ऐसी व्याख्या करके चित्रज्ञान के अविवेचन में चित्रवत्य के प्रविवेचन का भेज-वैषम्य नहीं बताया जा सकता, क्योंकि चित्रव्य के अविवेचन को भी यही व्याख्या हो सकती है। अतः अविवेचन की इस व्याख्या में भी मात्र शब्दों का ही परिवर्तन है, अर्थ का नहीं।
'बाह्यस्य विवेव्यमानस्यानुपपद्यमानत्वाज्ञानस्यैव चित्ररूपते' ति चेत् ? न, बाह्यस्यास्यन्तानुपलभ्यस्य स्वभावस्य तथात्वासंभवात् , ज्ञानस्यैशेपलम्भयोग्यस्य तथावसंभवात् , 'जानाकारस्य बाह्यत्वेनाभिमतस्य दृश्यत्वाद् विवेचनोपपत्तिरिति चेत् ? तद्विवेचनात् तस्यैवानुपपत्तिः, अन्यस्य वा ?। आये, ज्ञानस्य नीलाद्याकारत्वायोगाच्चित्रकरूपताव्याघातः । द्वितीय, अतिप्रसङ्गः, अन्यश्वेिवनादन्यानुपपत्ती त्रैलोक्यस्याप्यभावप्रसङ्गात् ।
* 'भ्यस्य' इति प्रत्यन्तरे ।