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[ शास्त्रवार्ता० स्त० ५ श्लो० १८
प्राशय यह है कि चित्रात्मक एक द्रव्य का जब प्रतिभास होता है तब उससे पृथक् पुद्गल आदि के रूपादि का प्रतिभास नहीं होता है। यह तब होता है जब मनुष्य को धुद्धि चित्रद्रव्य को प्राधान्येन ग्रहण करने के उन्मुख न होकर किसी पुदगलद्रव्यविशेष को प्रधानरूप से ग्रहण करने को उन्मुख होता है। यदि यह शंका हो कि "विभिन्न मणिओं की बनी हुई चित्रमालात्मक द्रव्य में 'अमुक पद्यराय मणि है' 'अमुक चन्द्रकान्त मणि है' इस प्रकार उस द्रव्य का पृथगबुद्धिरूप विवेचन हालाही है मतः किर, शा ठर शकजियेनमत्व सम्भव नहीं है।"-तो इसके समाधान में चित्राकार ज्ञानवादी से भी यह प्रश्न हो सकता है कि-"उक्त ज्ञान में यह नोलाकार है' यह पोलाकार हैं। इस प्रकार का विवेचन क्या नहीं प्रतीत होता ?-यदि इसका उत्तर विज्ञानवादी को ओर से यह दिया जाय कि चित्राकार ज्ञान के प्रतिभास काल में इस प्रकार का विवेचन नहीं होता, किन्तु बाद में अविद्या[=वासना] के उरोध से नीलादि एक-एक नियताकार अन्य ज्ञान का उदय होने पर विवेचन प्रतीत होता है ।" तो इस प्रकार का उत्तर चित्रद्ध्यबादी की ओर से भी दिया जा सकता है कि विभिन्न मरिणओं से बने हुये मालात्मक द्रव्य के प्रतिभासकाल में पारागादि एक एक मणि का विवेचन ही नहीं होता । अपितु बाद में अविद्या स्थानीय-नयज्ञान के उदय होने से पनरागादि के विवेचन को प्रतीति होतो है । तात्पर्य यह है कि मनुष्य को दृष्टि जब मुख्यरूप से अखण्ड मालाद्रव्य को ग्रहण करती है, तो उस समय मणिनों का एक मालामात्र का भान होता है। किन्तु जब मनुष्य उसके एक एक खण्ड कर विशेषरूप से दृष्टिनिक्षेप करता है तब उसे एक एक मणि का पृथक विवेचन[बोध] होता है। अतः चित्रनान और चित्रदय को कल्पना में एक अवस्था में उसकी अशक्य विवेचनता और अन्य अवस्था में उसका विवेचन समान है। अतः चित्र वन्य को कल्पना की उपेक्षा नहीं को जा सकती ।
इस पर चित्र ज्ञानवादी की ओर से यदि यह कहा जाय कि-'मालात्मक मणिसमूह से एक एक मणि आदि देश मेद द्वारा विभाजनरूप विवेचन होता है। किन्तु चित्रज्ञान से नीलादि एक एक आकार का ऐसा विवेचत नहीं होता है। इसलिये दोनों के अशक्यविवेचनत्व में समानता म होने से उक्त चित्रज्ञान के दृष्टान्त से चित्रद्रव्य को कल्पना नहीं की जा सकती।"-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि विविध वर्णात्मक एक मणि के आकारों में देश मेव से एक एक वर्गाकार का विभाजनरूप विवेचन नहीं होता। अतः उसका अशक्य विवेचनत्व चित्रज्ञान के अशक्यविवेचनत्व के समान है। अत: विधिधवर्णात्मक एकमणि रूप चित्रद्रव्य चित्रज्ञान के दृष्टान्त से माना जा सकता है। यदि इसके विरोध में चित्रज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-विविधवर्णात्मक एकमणि का भी खण्ड करने पर उसके विभिन्न प्राकारों में देशभेद मूलक विभाजन होता ही है-"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि चित्रज्ञान के सम्बन्ध में भी यह कहा जा सकता है कि एकचित्रज्ञान का बुद्धि द्वारा खण्डन-विश्लेषण करने पर उसके आकारों का भी वैशिक विभाजनरूप विवेचन होता ही है।
__यदि इसके उत्तर में चित्रज्ञानवादी की ओर से यह कहा जाय कि-"एक चित्रज्ञान का बुद्धि द्वारा विश्लेषण करने पर जो नील-पीतादि एक एक नियताकार ज्ञान प्रतीत होता है वह उस चित्रज्ञान से भिन्न ज्ञान है ।"-तो चित्रद्रव्यवादी की ओर से भी इसके समान यह कहा जा सकता है कि विविधवर्णाकार एक मणि का खण्डन करने पर जो मणिखण्डात्मक द्रव्य प्रतीत होते हैं वे भी नानावर्णाकार एकमणिद्रव्य से खण्डदृष्ट या भिन्न हो है। यदि चित्रमानवावी की ओर से चित्रज्ञान ी अशक्य